मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

यूँही नहीं हैं अमिताभ, अमिताभ

 

यूँही नहीं हैं अमिताभ, अमिताभ

(इस लेख को इसी ब्लॉग पर प्रकाशित कविता-संग्रह अ से अमिताभके परिशिष्ट के रूप में देखा जा सकता है)   


यदि सत्तर और अस्सी के दशक में आपका बचपन या किशोरावस्था गुजरी है, तो अहुत ज्यादा संभावना है कि आप भी अमिताभ-फैनहैं , अमिताभ बच्चन की फिल्मों के जादू में बँधे हुए । इसके पहले और बाद की पीढ़ी भी बेशक अमिताभ-फैनहो सकती है, बल्कि है ही । अमिताभएक जादू है जो चलता ही जा रहा है ।

 अमिताभ बच्चन के फिल्मों में पदार्पण के पचपन साल हो चुके हैं । उनकी पहली फिल्म सात हिन्‍दुस्तानीसात नवंबर उन्नीस सौ उनहत्तर को रिलीज हुई थी । तब से अबतक वे लगातार फिल्मों में बने हुए हैं । वे सिर्फ फिल्मों में बने हुए ही नहीं हैं, दर्शकों की पसंद भी बने हुए हैं । इतने लंबे अरसे में सिर्फ तीन-चार साल ही ऐसे गए हैं जिनमें उनकी कोई भी फिल्म रिलीज नहीं हुई हो । हालाँकि 1992 में उन्होंने फिल्मों से पाँच साल का एक ब्रेक लिया था, लेकिन फिल्मों के पूरा होने और रिलीज के बीच अंतराल होने के कारण 1992 के बाद भी फिल्में रिलीज हुईं । इस तरह फिल्मी पर्दे से उनका अलगाव पाँच सालों का नहीं रहा, जैसा कि उन्होंने सोचा होगा । अमिताभ बच्चन के इतने लंबे समय तक इतना लोकप्रिय और इतना सफल होने के पीछे आखिर कारण क्या हैं ? उनकी मेहनत, अनुशासन और अकूत प्रतिभा ये सब तो हैं ही, लेकिन और क्या ? वे अवयव और कारक क्या हैं जो अमिताभ बच्चन को अमिताभ बच्चन बनाते हैं । जब अमिताभ फिल्मों में आए, उस समय का दौर रोमांटिक, सामाजिक और पारिवारिक फिल्मों का था। और इस तरह की फिल्मों के अभिनेताओं और अभिनेत्रियों में एक अदा का होना जरूरी समझा जाता था । उस लिहाज से अगर देखें तो अभिनेताओं में अमिताभ और अभिनेत्रियों में जया भादुड़ी ने अदा’ ( मैनरिज़्म) के जाल को तोड़ा । उनमें अदाकारी तो भरपूर थी, लेकिन अदा नहीं । अमिताभ की किसी भी फिल्म में उनका अभिनय देखें, उसमें एक स्वाभाविकता और सहजता पाएँगे। रोल भले ही अविश्‍वसनीय हो, अमिताभ उसे अपनी अदाकारी से निहायत विश्‍वसनीय बना देते हैं । उनकी अदाकारी रट्टामार अदाकारी नहीं है, आत्मसात की हुई अदाकारी है । ज़ंजीर के पहले की भी फिल्में देख लीजिए । आनंद ने तो खैर लोगों का ध्यान आकर्षित किया ही था, रेशमा और शेरा’, ‘रास्ते का पत्थर’, ‘परवाना’ , ‘प्यार की कहानी’, ‘एक नज़रजैसी फिल्मों को भी अगर आप देखें तो अमिताभ का अभिनय आपको स्तरीय ही मिलेगा । नसीरुद्दीन शाह ने एक इंटरव्यू में कहा है कि अमिताभ ऐसे अभिनेता हैं जिनका अभिनय स्क्रिप्ट की तुलना में ऊँचे दर्जे का होता है ।

अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैनकहा गया । उनकी पहली फिल्म आई 1969 में, देश की आजादी के बाईस साल बाद । यानी कि जब देश युवा हो चुका था । आजादी पाने की खुशी और उल्लास के स्थान पर मोहभंग और असंतोष की भावना घर करने लगी थी । 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन का सूत्रपात हो चुका था । 1974 के सम्पूर्ण क्रांति की पूर्वपीठिका बनने लगी थी । तो देश में गुस्सा था ही । साहित्य के क्षेत्र में भी राजकमल चौधरी, दुष्यंत कुमार और धूमिल उसी दौर के सक्रिय कवि हैं । समाज में जो कुछ हो रहा था वह राजनीतिक और साहित्यिक हलकों में भी अनुगूंजित हो रहा था । अमिताभ बच्चन ने फिल्मों में उस मनोदशा को पर्सोनिफाइकर दिया।  एक और बात ध्यान देने की यह भी है कि गुस्सा मनुष्य के मूल भावों में से एक है। बल्कि अभिव्यक्त किया जाने वाला संभवत: पहला मनोभाव । गुस्से का कारण असंतोष और तनाव ही होता है । इस तनाव को अमिताभ ने जिस विश्वसनीय तरीके से अभिव्यक्ति दी, उसने एक आम आदमी के साथ सहज ही उनको जोड़ दिया। उनके पहले के अभिनेताओं के गुस्से के बर-अक्स अमिताभ का गुस्सा असली या कहें कि ज्यादा असली लगा। अमिताभ द्वारा निभाए गए पात्रों की वेश-भूषा और रहन-सहन का स्तर भी उनको आम आदमी के जीवन से जोड़ता है, खास तौर पर उस दौर की फिल्में जब अमिताभ फिल्मों के हीरो हुआ करते थे । एक आम आदमी अमिताभ की मार्फत अपने आप को अभिव्यक्त कर रहा था । फिर अमिताभ का गुस्सा भी कई तरह और कई-कई स्तरों वाला है । आनंदके भास्कर का गुस्सा, ‘परवानाके कुमार सेन के गुस्से से, ‘ज़ंजीरके विजय का गुस्सा दीवारके विजय से या त्रिशूलया काला पत्थरके विजय से अलग है । अमिताभ की फिल्मों में गुस्से का एक रूप मेल ईगोके रूप में भी सामने आता है । यदि यह दूसरे अभिनेताओं द्वारा निभाया जाता तो उसमें खलनायकत्व के प्रवेश कर जाने की संभावना रहती, लेकिन अमिताभ के अभिनय ने उसे स्वाभाविकता प्रदान की । अभिमान’, ‘कभी खुशी कभी गमया मोहब्बतेंके अमिताभ बच्चन को इस संदर्भ में याद किया जा सकता है ।

 अमिताभ की एंग्री यंग मैनवाली भूमिकाओं की ही चर्चा ज्यादा होती है और उस आधार पर बहुधा उनकी आलोचना भी कि उन्होंने फिल्मों के स्वाद को खराब किया । 1969 से 2023 तक की उनकी फिल्मों की सूची को देख कर यह सहज लक्षित होता है कि हर समय उन्होंने फिल्मों के चुनाव में विविधता रखने की कोशिश की है । जैसे कि 1975 में रिलीज हुई उनकी फिल्में हैं – दीवार, ज़मीर, शोले, फ़रार, चुपके चुपके और मिली । 2022 की उनकी फिल्में हैं – झुंड, रन-वे 34, ब्रह्मास्त्र, गुड बाय और ऊँचाई । इन दो वर्षों के उदाहरण सिर्फ इस बात को दर्शाने के लिए कि उन्हें जितना भी टाइपकास्ट या इमेज से बंधा अभिनेता कहा जाए, वे एक बहुत ही सजग और सचेत अभिनेता हैं फिल्मों के चुनाव को ले कर । यह विविधता भी दर्शकों को अमिताभ से बोर नहीं होने देती ।

 यह वही दौर रहा होगा जब गाँवों से शहरों की ओर माइग्रेशन शुरू हुआ होगा । संयुक्त परिवार टूटने लगे थे । रोजी-रोटी की चिंता बड़ी समस्या हो रही थी । ऐसे में अमिताभ की फिल्मों में दो चरित्रों ने बहुत प्रमुखता पाई ‌-- माँ और दोस्त । माँ कहीं- कहीं बड़ी भाभी ( भाभी माँ) के रूप में भी रही । माँ-बेटे के रूप में निरूपा रॉय और अमिताभ बच्चन की जोड़ी से ज्यादा लोकप्रिय शायद की कोई और हो । घर छोड़कर रोजी- रोटी की तलाश में निकलना और ग़मे-रोज़गारसे हर रोज दो-चार होना, यही कारण रहा होगा शायद कि माँ का चरित्र इतना याद किया जाने लगा। हम ध्यान दें तो पाएँगे कि सन् साठ के बाद की कविता में भी माँ को जितना याद किया गया है, माँ को संबोधित जितनी कविताएँ इस दौर में लिखी गई हैं, शायद कभी और नहीं । एक माँ ही है जो सबकुछ होने के बाद भी बेटे के लिए खड़ी है ।दीवार’, ‘खून पसीना’,’सुहाग’, ‘अमर अकबर एंथनीऔर अग्निपथकुछ ऐसी ही फिल्में हैं जिनमें माँ का किरदार बहुत प्रमुखता के साथ उपस्थित है।  सूर्यवंशम संभवत: आखिरी फिल्म है जिसमें अमिताभ की माँ का पात्र प्रमुखता के साथ उपस्थित है । अमिताभ ने अपने अभिनय से जो छवि पेश की उससे दर्शक शायद अमिताभ जैसा बेटा बनने की अभिलाषा रखने लगा । एक अच्छा बेटा होना कौन नहीं चाहता । इसी तरह संयुक्त परिवार के टूटने, घर छूटने और भाई-भाई के बीच उभरते हुए मतभेदों ने लोगों के जीवन में अच्छे दोस्तों की जरूरत को उभार दिया । अमिताभ बच्चन की कितनी ही फिल्में याद की जा सकती हैं जहाँ उनकी दोस्ती की मिसाल दी जा सके । ज़ंजीरसे लेकर हालिया फिल्म ऊँचाईतक अमिताभ एक सच्चे दोस्त की तरह हमारे साथ खड़े हैं, ऐसा दोस्त जो जरूरत पड़े तो दोस्त के लिए जान भी देने को तैयार हो । और ऐसा दोस्त जो दोस्त की टाँग खींचने से भी न चूके । शोलेका मौसी वाला सीन किसे याद नहीं होगा ।

 अमिताभ पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनकी फिल्मों में मारधाड़ की प्रमुखता रही। यह बात अमिताभ की प्रतिभा को खारिज करने के इरादे से कही गई ज्यादा लगती है, सच्चाई के करीब कम । उनकी फिल्मों के गीत-संगीत पर कम बात की जाती है, जबकि यह उनकी फिल्मों का एक मुख्य अवयव रहा है । एक-दो गाने तो उनकी लगभग हर फिल्म में अच्छे मिल जाएँगे। उनकी बहुत-सी फिल्में ऐसी हैं जिनका पूरा एल्बम ही काबिले-गौर है । जब वे बतौर हीरो फिल्मों में आ रहे थे, उस दौर की कुछ ऐसी ही फिल्मों के नाम इस तरह हैं – आनंद, ज़ंजीर, नमक हराम, अभिमान, रोटी कपड़ा और मकान, मजबूर, ज़मीर, शोले, मिली, कभी-कभी, अमर अकबर एंथनी, आलाप, कसमे वादे, त्रिशूल, डॉन, मुकद्दर का सिकंदर, जुर्माना, मि.नटवरलाल, काला पत्थर, दोस्ताना, शान, याराना, नसीब, लावारिस, सिलसिला, नमक हलाल, शक्ति, शराबी, गंगा जमुना सरस्वती, हम और खुदा गवाह । बाद की कुछ फिल्में, जब वे बतौर नायक फिल्मों में नहीं हैं, उन फिल्मों का संगीत भी कम दमदार नहीं है, जैसे – मेजर साहब, कभी खुशी कभी गम, बागबान, झूम बराबर झूम आदि। इनमें से कम से कम दो फिल्मों, अभिमान और कभी-कभी, को तो भारतीय हिंदी फिल्म-संगीत की किसी भी सूची में स्थान मिलेगा । मि. नटवरलालसे उनका गायक रूप भी हमारे सामने आया । उनकी आवाज में कुछ बेहतरीन गीत हमको मिले । मेरे पास आओ मेरे साथियो’, ‘नीला आसमां सो गया’, ‘रंग बरसे’, ‘मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है’, से लेकर बागबान का मैं यहाँ तू वहाँऔर होली खेले रघुबीराऔर शमिताभका पिडली -सी बातेंकुछ ऐसे ही गीत हैं । फिल्म कहानीऔर अटकन चटकनमें तो वे सिर्फ एक प्ले बैक गायक की हैसियत से हैं । हिंदी फिल्मों के गीतों पर आधारित प्रसिद्ध रेडियो कार्यक्रम बिनाका गीतमालामें वर्ष 1973,1975,1976,1979,1981,1982 और 1990 में उनकी फिल्मों के गीत सालाना सूची में सबसे ऊपर रहे । अभिमान’, ‘कभी-कभी’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘शराबी और बंटी और बबली को सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला । रोटी कपड़ा और मकान’ , ‘कभी-कभी’, ‘डॉन’, ‘नमक हलालऔर शराबीके लिए सर्वश्रेष्ठ गायक तथा ज़ंजीर’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘कभी-कभीऔर बंटी और बबलीके लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया है । तात्पर्य यह कि उनकी फिल्मों का संगीत पक्ष भी मजबूत रहा है, हमें इस बात को भूलना नहीं चाहिए ।

 एक अच्छे अभिनेता को अपनी आवाज पर अधिकार होना चहिए । वॉयस मॉड्यूलेशनके माध्यम से दर्शकों से तादात्म्य बैठाने में आसानी होती है । हम अगर अमिताभ बच्चन के विषय में देखें तो यह आसानी से समझ सकते हैं कि अपनी आवाज पर उनका कितना बेहतर अधिकार है । उनकी अभिव्यक्ति इतनी साफ है कि हम सिर्फ संवादों को सुनकर भी दृश्य के भावों को हूबहू समझ सकते हैं । इसके साथ उनका उच्चारण भी इतना अच्छा है कि हर शब्द दर्शकों के कानों तक खुलकर पहुँचता है । वे शायद अंतिम अभिनेता हैं जिनकी भाषा के बारे में समझ इतनी साफ और उच्चारण इतना शुद्ध है । उनके द्वारा अपने पिता हरिवंशराय बच्चन की कविताओं का पाठ एक एल.पी. रेकॉर्ड के लिए किया गया था । उस कविता-पाठ की तारीफ स्वयं बच्चन जी ने भी की है । किरदार के अनुसार आवाज के इस्तेमाल को अगर देखना हो, तो खास तौर पर उनके द्वारा अभिनीत दोहरी भूमिकाओं वाली फिल्मों को देखा जाना चाहिए । डॉन’, ‘कसमे वादे’, ‘अदालत’, ‘आखिरी रास्ता’ ,’सत्ते पे सत्ताआदि ऐसी ही कुछ फिल्में हैं ।   

 अमिताभ की फिल्मों पर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि उनकी फिल्मों में नायिका का रोल हाशिए पर चला गया। फुटेज के हिसाब से ऐसा हो सकता है कि स्त्री पात्रों की भूमिकाओं की लम्बाई अपेक्षाकृत कम रही हो, लेकिन उन पात्रों का चरित्र-चित्रण एक सशक्त पात्र की तरह हुआ है । उनकी किसी भी फिल्म में अमिताभ द्वारा स्त्री पात्रों को नीचा नहीं दिखाया गया है, बल्कि उन्हें हमेशा ही बराबरी और इज्जत की नजर से देखा गया है । चाहे वो ज़ंजीरऔर शोलेमें जया भादुड़ी का पात्र हो, ‘कसमे वादेऔर कभी कभीमें राखी का पात्र हो, या फिर सुहागऔर मुकद्दर का सिकंदरमें रेखा का पात्र । माँ तो उनकी फिल्मों हमेशा ही एक दृढ़ और सशक्त किरदार रही है ।         

 अमिताभ बच्चन की फिल्में भले ही घोर व्यावसायिक रही हों, भले ही उनकी कहानियाँ लाउड रही होंउनका अभिनय कभी भी लाउड नहीं होता । दो-चार अपवाद अगर हों तो हों। इतनी सहजता से वे अपने द्वारा अभिनीत पात्रों में उतर जाते हैं कि सबकुछ बड़ा आसान-सा लगने लगता है। लेकिन ऐसा है नहीं । वे बहुत ही सजग अभिनेता हैं और लगातार अपने को रि-इन्‍वेंटकरते रहे हैं । इसका एक बेहतरीन उदाहरण कौन बनेगा करोड़पतिहै । उस सीट पर बैठ कर जिस तरह से वे अपने आप को पेश करते हैं कि सामने वाला व्यक्ति उनका कायल हुए बिना नहीं रह सकता। अभिनेता अमिताभ बच्चन वहाँ भी सक्रिय हैं लेकिन इस तरह से कि अभिनय का नामोनिशान न दिखे । यही बात उनकी फिल्मों को लेकर भी कही जा सकती है । ठीक है कि दर्शक बार-बार अमितभ बच्चन की ही फिल्म देखने जाते हैं लेकिन वे जानते हैं कि हर बार वे एक नए ही अमिताभ बच्चन से मिलकर लौटेंगे । कवियों के विषय में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि समय के साथ उनकी अभिव्यक्ति सघन होती जाती है । ठीक यही बात अमिताभ बच्चन के अभिनय के विषय में भी कही जा सकती है । यकीन नहीं हो तो आप उनकी हालिया फिल्म गुड बायका सिर्फ एक सीन देख लीजिए – वह दृश्य जिसमें पत्‍नी की अस्थि विसर्जित करने के पहले अमिताभ बच्चन का एक मोनोलॉग है । यह कहना आसान है, और शायद सच भी है कि प्रतिभा तो जन्मजात होती है, लेकिन उसको जीवित और जीवंत बचाए रखना और लगातार तराशते जाना तो व्यक्ति पर निर्भर है – यूँही नहीं हैं अमिताभ, अमिताभ ।  

मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

‘गाडा टोला’, जिसके आँगन से पहाड़ दिखता है

गाडा टोला’, जिसके आँगन से पहाड़ दिखता है 


फ़र्ज़ कीजिए, एक बहुत बड़े से कड़ाहे में दूध औंटा जा रहा है । दूध जब गाढ़ा हो जाए, तब उसे चूल्हे से उतार दिया जाएगा । इस तरह दूध तो गाढ़ा हो ही जाएगा, उसके ठंढा हो जाने के बाद भी चूल्हे की आग उसके अंदर बनी रहेगी लेटेंट हीटके रूप में । राही डूमरचीर के पहले कविता संग्रह गाडा टोला की कविताएँ ऐसे ही औंटे हुए भावों वाली कविताएँ हैं । गाढ़ी । ये कविताएँ जब पाठक तक पहुँचती हैं, तो स्वाद के साथ-साथ कवि से कविताओं में अंतरित हुई लेटेंट हीटभी पाठकों के अंदर पहुँच जाती है । और धीरे-धीरे आप उस आँच को महसूस करने लगते हैं अपने भीतर । ऊपर से शीतल प्रतीत होने वाली कविताएँ  अपनी तासीर में गर्म हैं । 

एक कवि के रूप में राही डूमरचीर ने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी-साहित्य-समाज का ध्यान खींचा है । इस संग्रह की कविताओं से गुजरने के बाद जो पहली बात मन में उभरती है, वह यह कि इनकी कविताओं में प्रकृति नहीं आती, बल्कि इनकी कविताएँ प्रकृति के बीच से निकलती हैं । राही प्रकृति के बीच ही सहज हैं । प्रकृति के अंग भी राही की कविताओं के संग सहज हैं । प्रकृति कोई साधन नहीं, जीने का ढंग है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है – साहित्य में सहज होना ( मैं सरल नहीं कहता) भी मौलिकता का श्रेष्ठ प्रतिमान है । राही प्रकृति में सहज हैं, उनकी कविताएँ अपनी प्रकृति से सहज हैं । 

इन कविताओं में पहाड़ आते हैं बार-बार, तरह-तरह से । आप समझ जाते हैं कि पहाड़ निर्जीव नहीं होते । कवि की नजरों में पहाड़ चिर सखाहै । पहाडों से दूरी उसे नहीं मंजूर किसी भी हाल में । उसे तो अपने घर के आँगन से दिखने चाहिए पहाड़ । प्रकृति से नजदीक न हो, ऐसा मनुष्य होना गवारा नहीं उसे –

 

      ख़ुश हैं तुम्हारे जाने के बाद

      देहात से क़स्बे में तब्दील होते यहाँ के लोग

      ख़ुश हैं कि उनकी छत से दिखता है पहाड़

      फ़र्क़ है दोनों में चीख़कर कहना चाहता हूँ

 

कवि तो उस जगह जाना भी नहीं चाहता, जहाँ आँगन से नहीं दिखता पहाड़ । कवि की यह भावना उसकी कविता हिम्बो कुजूर’  की इन पँक्तियों में झलकती है –

 

            मुस्कुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने

            थोड़ा और बड़े हो जाओ 

            बढ़ जाए दोस्ती माँदर से और थोड़ी

            तब समझ पाओ फ़र्क़ शायद

            आँगन से पहाड़ नहीं दिखता अब वहाँ

            इसलिए चला यहाँ वापस

 

कवि को सिर्फ पहाड़ की ही आकांक्षा नहीं है, उसे दोस्ती माँदर से भी चाहिए । जंगल उसके लिए भयावने नहीं हैं । नदियाँ ही नहीं उसके यहाँ पेड़ भी हरहराते हैं । हहराते नहीं हैं । जिस कवि के यहाँ पेड़ भी बोलते-गाते ( हरहराते) हों, उस कवि के अंदर प्रेम के कैसे-कैसे घाघ’ ( प्रपात) हैं, इसका सहज अनुमान किया जा सकता है, और जिसके प्रमाण गाडा टोलामें हैं । 

            कवि जिन शब्दों के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त कर रहा है, जिन नामों, उपमाओं, क्रियाओं से उसकी कविता बन रही है, ये सारी बातें एक संवेदना-समूह का पता देती हैं । कवि जिस ज़मीन पर खड़ा है, उस संवेदना-लोक के बारे में बताती हैं । इस संग्रह की गाडा टोला’, ‘शाल घाटी’, ‘बाँधकोय’, ‘बाँसलोई’, ‘हुदहुदी नदी’, ‘सरई फूल’ , ‘असुर हेम्ब्रम’, ‘अमित मरांडी’ , ‘एदेल किस्कू’, ‘हिम्बो कुजूरऔर हेन्‍दा मयकविताएँ हमें उस संसार में लिए चलती हैं, जो अभी भी बहुत कुछ अजाना-अनपहचाना है बहुत-से लोगों के लिए । ये कविताएँ एक अलग भाव-संसार का सृजन करती हैं । वह संसार, जिसे कवि अपने अंदर लिए चल रहा है और जिसकी भरसक कोशिश है कि ये संवेदनाएँ अपने निष्कलुष प्राकृत रूप में बची भी रहें । कवि जब कहता है कि –

 

                  जंगल की ख़ुशबू से भरी

                  तुम्हारी आँखों को

                  झरने की तरह बातें करता देखता

                  बैठा रहा हूँ सदियों बाँसलोई किनारे

 

तो यह महज़ एक प्रेमी-प्रेमिका की बात नहीं रह जाती । यह बात पुरुष-प्रकृति की संकल्पना की ओर पाठक का ध्यान सहज ही ले जाती है । होने को अमित मरांडीकी जगह अमित कुमार भी हो सकता था और एदेल किस्कूकी जगह माधुरी प्रिया भी ! लेकिन तब क्या ये नाम, और ये कविताएँ हमारे हृदय को उसी तरह छू पातीं ?  कवि पाठक के लिए जो भावना-संसार अपनी कविताओं में खोल रहा है, वह पाठक का निकटतम तो नहीं ही है, उसके लिए अपरिचित भी है । लेकिन पाठक जब कविताओं में उतरता है तो सारी अजनबीयत दूर हो जाती है, और वह अपने सामने एक खिलता हुआ संसार पाता है । यह जो खिलता हुआ संसार है, वह राही की कविताओं में खास बात है । एदेल जिसका अर्थ है सेमल, इस नाम का प्रयोग करने भर से एक खिला-खिला अहसास होने लगता है । सेमल का लाल, पलाश या गुलाब का लाल नहीं होता । पलाश या गुलाब की तरह सेमल ने बहुत नाम नहीं कमाया है, लेकिन उसमें जो खिलता-चमकता लाल रंग है, वह आपको बाँध लेता है । जब कवि याद करता है बसन्‍त की थाप पर माँदर की गूँज,और महुए की गंध के साथ पलाश का फूल और जब वह कहता है जैसे ख़ूब साफ़ आसमान का कोई तारा हमारा हो जाता है , हम उसे पढ़ते हुए पाते हैं हमारे अंदर कहीं कुछ खिल उठा है । यह खिल उठनावह भाव है जो पाठक बार-बार महसूस करता है गाडा टोलामें । 

      राही के यहाँ प्रेम की उपस्थिति भी पारंपरिक या फैशन के मुताबिक नहीं है । उनके यहाँ प्रेम भी अपना ही लहज़ा अख़्तियार करता है । कवि की ये पंक्तियाँ देखिए और प्रेम के नायाब हो जाने या एक नायाब प्रेम के होने पर विस्मित होइए –

 

                  आज

                  फिर से तुम पर

                  नहीं लिख पाया कुछ

                  लिखना शुरू करूँ

                  तो जंगल में भागती

                  पगडंडी हो जाती हो तुम

 

अब बताइए, भला, जंगल कोई डरने की चीज़ हो सकता है ? प्रचलित अर्थों में जंगलीहो जाने का कोई मान है भला ?  कितना खूबसूरत है कवि का याद करने का यह तरीका जिसमें याद करने से अमरूद की मिठास से मुँह भर जाए और चिड़ियों की चहचहाहट से गूँजने लगे मन ! यह कवि राही डूमरचीर का तरीका है, जहाँ प्रेम नई-नई अभिव्यक्तियों से गमक उठता है । जिसमें आसमान को तकती है घास, महुआ से मिलने की आस में ।   

लड़की की ओर से भी कुछ कम नायाब बात नहीं की जाती, जैसे कि हेन्‍दा मयकी इन पंक्तियों में –

                  गीत और माँदर की ताल से ज्यादा जो उसे चाहे

                  झूमती टोली की लय से जो न बँधे

                  उसके साथ नहीं बँधना चाह्ती है लड़की

 

यह प्रेम में बाँधना नहीं स्वतंत्र करना है । यह प्रेम में बंध कर भी स्वतंत्र होना है । कवि की दुनिया में परजीविता नहीं सहजीविता है ।

       विस्थापन और अतिक्रमण आज के दौर की क्रूर सच्चाइयाँ हैं । लगभग हर व्यक्ति ही इस दंश को झेलने के लिए अभिशप्‍त है । राही भी इस दु:ख से भलीभाँति परिचित हैं । इस संग्रह की कविताओं में यह पीड़ा बार-बार सामने आती है । और यह मार दोतरफा है । पहले तो जीवन जीने के संसाधन जुटाने के लिए लोगों अपनी जमीन से विलग होना पड़ता है । दूसरी तरफ, विकास के नाम पर, नए-नए अवसरों के नाम पर, आधुनिक बनाने के नाम पर दुनिया के कोने-कोने में पूँजी और सत्ता अतिक्रमण करने का कोई मौका नहीं छोड़ती । विस्थापन के दु;ख को अमित मरांडीकविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है –

 

                  जिनके घरों में बाँधकर नहीं रखे गए जानवर कभी

                  जिन्हें भरोसे के व्यापारियों ने

                  मजबूर किया जाने को ऐसी जगह

                  जहाँ से लौटकर वे नहीं आ पाए कभी

                  आजकल नहीं पता अमित कहाँ है

                  सिवाय उसकी माँ की सूनी आँखों के

                  उसका कोई ठिकाना नहीं मिलता मुझे

 

इन्हीं पंक्तियों में हम देख पाते हैं एक बेफ़िक्र जीवन की बेपरवाही भी । यह बेपरवाही राही की अन्य कविताओं में भी उपस्थित है । जिसे पहाड़ पसंद हों, वह बंध कर, फ़िक्र में दुबला होकर नहीं रह सकता । जैसा कि अच्छी कविताएँ करती हैं, इस संग्रह की कविताओं में भी, सिर्फ़ समस्याएँ नहीं, हल भी हैं । एदल किस्कूकी इन पंक्तियों को देखिए –

 

                  तुम अगर सचमुच जानना चाहते हो

                  तो ठीक से सुनो—बाहा परब में तो नहीं आ पाऊँगी

                  पर आऊँगी ज़रूर

                  इस बार बरसात में आऊँगी

                  गाडा टोला के अपने उसी घर में हमेशा के लिए

                  अपना खेत इस बार मैं ही जोतूँगी

                  और मछली भी मैं ही पालूँगी अपने पोखरा में

 

सुपरिचित कवि कुमार अम्बुज ने भी कहा है – विचारशील और जिम्मेदार कविता का एक काम यूटोपियाका निर्माण करना भी है । सपने देखने का अत्यन्‍त सार्थक काम भी कविता के जिम्मे है । राही भी अपने तरीके से अपनी कविताओं में यह काम करते चलते हैं । 

            लालची शक्तियाँ हमारे जनजीवन में अतिक्रमण किए जा रही हैं । सीधे-सादे लोगों के बसर के लायक कम बची है ज़िंदगी । आदमी के जान की कीमत उनके लिए कुछ नहीं । उनको यह भी बर्दाश्त नहीं कि एक सीधा-सादा आदमी एक सीधी-सादी ज़िंदगी बसर कर ले । हिम्बो कुजूरकविता हमें सूचित करती है –

 

                  आज हिम्बो कुजूर को

                  उनके ही गाँव की लाव नदी से

                  बालू ढोने वाली एक अनजान ट्रक

                  नई पक्की बनी सड़क पर कुचलकर चली गई

 

हत्याएँ इसी तरह दुर्घटनाओं की तरह रिपोर्ट हो जाया करती हैं । पूरी दुनिया को पता होता है कि ये सारा गलत कारोबार किसका है, लेकिन ट्रक को अनजाना रखा जाना ही सबकी सेहत के लिए मुफ़ीद हो जाता है । इस संग्रह की कविताओं के कितने ध्वन्यार्थ हैं, यह बस ज़रा-सा ग़ौर से देखने पर पकड़ में आने लगते हैं । 

      राही डूमरचीरका डूमरचीर इस संग्रह में एक जगह आता है । और जब आता है तो एक स्याह यथार्थ से हमारा पुनर्परिचय कराता है । विकास की सीढियाँ, जो हम समझते हैं कि छोटी जगहों से चढ़ती हुई बड़ी जगहों पर जाती हैं, जब उतरती हैं तो विनाशकारी भी हो सकती हैं । बाँधकोयकविता की ये हृदय-विदारक पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं –

 

                  जच्चा बच्चे को लिये

                  अस्पताल के अन्‍दर गई

                  बच्चा बाहर आया

                  पर

                  जच्चा अन्‍दर ही रह गई

 

                  वे लोग फिर से वापस जा रहे थे

                  उस बच्चे के साथ—

                  पाकुड़ से

                  अमड़ापाड़ा

                  डूमरचीर

                  बाघापाड़ा होते हुए

                  बाँधकोय

 

कवि ने अपने नाम वाली ऐसी कविता को क्यों चुना, इस पर सोचेंगे तो शायद कवि के मानस का कुछ पता हमें चले ।

 

            कवि राही डूमरचीर अपने परिवेश, अपने गाँव, प्रकृति से कितना लगाव रखते हैं, यह प्रकृति के प्रति उनके उद्‍गारों से पता चलता है । प्रकृति के साथ थोड़ी भी बेअदबी कवि को क्रोधित कर देने के लिए काफी हैं । ज़रा कहा बाँसलोई नेकी इन पंक्तियों को देखिए –

 

                  इतना बड़ा मुँह

                   हम कहाँ से लाते हैं

                  जो किसी नदी को छोटा कहे

                  कितनी भी छोटी हो

                  हमसे तो बड़ी ही होती है नदी

 

कवि को अपनी छोटी हुदहुदी नदीके गंगा में मिलने से भी पीड़ा होती है –

 

                  पहाड़ के इसी छोर से

                    थोड़ी ही दूर पर

                    बहती हुई गंगा नदी भी दिख रही थी

                    जिसमें मिल जाना था हुदहुदी नदी को

           

                    एक हूक-सी उठी कहीं

                    कि हँसती-खेलती नदी की हस्ती

                    महज़ इतनी ही है

 

 

कवि राही के लिए प्रकृति और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं । कवि के लिए सबसे पहले दिल के भीतर ही हुलास मारती है नदी । मनुष्य-निर्मित नक्शा तो बाद की औपचारिकता है । जंगल और पेड़ कवि के आत्मीयजन हैं, नदियाँ मित्रवत् । कवि के लिए पेड़ों का काटा जाना नरसंहार से कम नहीं, लेकिन पेड़ के कटने पर किसी को कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता । कवि को तकलीफ है, गुस्सा है और कवि दुनिया की संगदिली पर हैरान है । कवि को अपने आदिवासी इलाकों की निश्चिंतता और सुकून प्रिय हैं । वह तो हर जगह ऐसी ही दुनिया चाहता है । संग्रह की कविताओं में झारखंड की जगहें, खासकर सन्‍ताल परगना, प्रमुखता से उपस्थित हैं । सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी लिखते हैं— अधिकांश कवि दो नागरिकताओं के नागरिक होते हैं । पहली स्थानीयता वह होती है जहाँ कवि का जन्म होता है, उसके बचपन का बड़ा हिस्सा जहाँ गुजरता है । दूसरी वह जिसे वह अपनी रोजी-रोटी के लिए चुनता है । वह स्वैच्छिक भी हो सकता है और आरोपित भी । अक्सर कवि अपनी रचना में अपनी पहली स्थानीयता के ही नागरिक बने रहते हैं । इस लिहाज़ से राही डूमरचीर भी दो नागरिकताओं के नागरिक हैं । अच्छी बात यह है कि वे अपनी रचना के बाहर, यानी असल ज़िन्दगी में भी पहली स्थानीयता का नागरिक बने रहने को कृतसंकल्प हैं ।

     मैं समझता हूँ आदिवासीहोने का मतलब है निष्‍कलुष, निश्छल और निर्दोष होना । राही भी संभवत: यही सोचते होंगे । मेरी फ़िक़्र यह है कि बाकी बहुत सारी बातों की तरह कहीं आदिवासीशब्द भी बेदाग न बचे ! हमें इस संबंध में ज़रूर तसल्ली कर लेनी चाहिए कि आदिवासीके ख़ैरख़्वाह बने लोगों की पॉलिटिक्सक्या है ?  हर शहर हमेशा से तो शहर नहीं रहा होगा । ज्यादा संभावना है कि जंगल ही रहे होंगे शहर कभी न कभी । इसी तरह देखें तो आदमी का शहरी होना तो बहुत बाद की बात है । मूल रूप से आदमी प्रकृति के करीब रहने वाला जीव ही है। सभ्यता के विकास के क्रम में वह कहाँ पहुँच गया है, यह अलग बात है । इसीलिए, आदमी प्रकृति के करीब जाकर सुकून पाता है,रस-मग्न हो जाता है । आदमी के डीएनए में है प्रकृति की सराहना। आदमी जाने-अनजाने अपने इसी मूल स्वभाव की ओर लौटना चाहता है ।  इस संग्रह की कविताएँ भी आपको उसी रास्ते ले चलती हैं । आचार्य रामचन्‍द्र शुक्ल ने भी लिखा है – कविता हृदय को प्रकृत दिशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है ।... कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरान्‍त कुछ और भी होता है और वही और सब कुछ है । इस संग्रह को पढ़ते हुए पाठक भी यही पाता है । 

      ऐसा नहीं है कि कवि सिर्फ़ अपने गाडा टोला’, ‘शालघाटीया बाँसलोईकी सोहबत में ही डूबा हुआ है । ऊपर जिस दूसरी नागरिकताकी बात की गई है, कवि को पूरी तरह उसका भी भान है । वहाँ की चीज़ों पर भी उसकी कवि-दृष्‍टि जाती है । कवि का काम ही है, जो है उससे बेहतर की ओर चलना । कवि देख सकता है कि एक आदमी कैसे प्रेमी से ख़ालिस आदमी बन जाता है और स्त्रियाँ कैसे खुद हारकर भी जिताती रही हैं प्रेमियों को । पुरुषों का स्त्री पर आधिपत्य जमाना आदिवासी दृष्‍टिकोणतो कतई नहीं है । कवि देख पाता है कि किस तरह एक निर्दोष असुर हेम्ब्रमकी हत्या पर लीपापोती करती है पूरी व्यवस्था, किस तरह उपहास उड़ाते हुए एक जुमले से एक अभिनेता बदल दिया जाता है एक क़ौम में, और उसके लिए हिकारत और नफ़रत को पोषित करता है एक सभ्य-सुंस्कृत व्यक्ति । कवि देख पाता है कि वर्षों बाद भी एक स्त्री अपने पति के लिए माथे पड़ गई औरत ही रह गई है । वह देख पाता है कि घड़ी के आविष्कार के पीछे की मंशा काम करने वालों के घंटे मापना थी । आवश्यकता मालिकों के मुनाफे की थी, आविष्कार हुआ घड़ी का । कवि ऐसी ही दूसरी नागरिकता वाले शहर  पहुँचने के क्रम में जब गंगा किनारे बसे शहर में पहुँचता हैतो उसके अपने नज़रिये का भी परिष्कार होता है । गंगा उसके लिए उसके यहाँ की नदियों को समा लेने वाली एक बड़ी नदी या ऐसी नदी नहीं रही जिसके किनारे बसे लोगों ने कवि के जंगलों-पहाड़ों में तबाही मचा दी। उसने गंगा दु:ख देखा और समझा भी । 

      राही कविताओं में स्थानों को याद करते हैं । कुछ कविताएँ स्थान-विशेष को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं । दुमकाउनकी ऐसी ही एक कविता है, जो प्रकाशित होने पर काफी चर्चित भी रही। बहुत बारिश हुई थी लापुंग मेंभी ऐसी ही एक कविता है, रागात्मकता से लबरेज़ । लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया दो कविताओं में आने वाले शहर धनबादने । आख़िरी बारकविता का एक खंड आप भी देखिए –

 

            पिता प्रवासी थे

            धनबाद में

            गाँव वापस लौट आए

            मेरे पैदा होने के बाद

            फिर

            नदियाँ धमनियाँ बन गईं

            जंगल साँसों की हरियाली

            और पहाड़ चिर सखा

            फिर क्या जाता धनबाद

            आज इसी शहर के

            स्टेशन से

            विदा ली तुमने आख़िरी बार

            अब क्या ही जाऊँगा

धनबाद  

 

यदि कभी आपने फोन पर किसी अनर्थ की खबर देते बहुत दु:ख में पड़े व्यक्ति की आवाज़ सुनी हो तो आपने महसूस किया होगा कि आवाज़ अंतस्तल की जाने किन गहराइयों से आ रही हो !   अब क्या ही जाऊँगा धनबाद में वही असर है । 

      कहते हैं इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है । इतिहास में विजेताओं की ही कहानी होती है, विजेता ही नायक-अधिनायक ठहराए जाते हैं । वंचित, कमज़ोर या आम लोग इतिहास में जगह नहीं पाते । कथा-पुराण-साहित्य उनके किस्से बचा ले जाते हैं, भविष्य के अध्येताओं द्वारा खोज निकाले जाने के लिए । इस संग्रह की दो लंबी कविताएँ अर्जुन की मुस्कानऔर लाक्षागृह में आदिवासीइन्हीं छूट गए लोगों का आख्यान हैं । महाभारतकी प्राचीन कथा को कवि जब आज के संदर्भ में देखता है तो हमारे सामने उन छूट गए लोगों का इतिहास खड़ा हो जाता है । एकबारगी हमारा आधुनिक सभ्य मन यह सोचने लगता है कि कहीं उस पक्षपात के, उस उपेक्षा के कारणों में हमारे ही पुरखे तो नहीं ! लाक्षागृह में आदिवासीकी ये पंक्तियाँ पीछा नहीं छोड़तीं –

 

            आज भी कई सौ वर्ष बाद

             टीवी पर देखते हुए महाभारत

             और लाक्षागृह में जलते आदिवासी

             हमें ख़ुशी से भरते हैं

 

क्या शहादत किन्हीं अर्थों में अन्याय भी होती है ? कविता का एक काम आत्मालोचना भी है । कवि के लिए भी और पाठक के लिए भी ।

       एक संग्रह की भूमिका में श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने कवि के विषय में यह टिप्पणी की है – हाँ, कहीं-कहीं वह बोकराती भी बन जाता है ! शायद उसे मोह हो जाता है, कालेज के प्रोफेसर भी उसे गीतकार की कोटि में रखें ! युग के प्रवाह में बहुत-से लोगों को बहना पड़ता है, पड़ा है ! इस बोकरातीपन की हल्की झलक इस संग्रह की एक-दो कविताओं भी दिखती है । हालाँकि, राही को पढते-जानते इसके बढ़ जाने की आशंका बिल्कुल ही नहीं है । फिर भी, सावधान करने में क्या बुराई है !   

      अपनी सारी बात कह लेने के बाद, प्रकृति के साथ किए गए सारे अत्याचार और अन्याय के बावजूद कवि के मन में बदले की कोई भावना नहीं है । प्रकृति की तरफ से बोलता कवि आश्वासन देता है कि किसी का कोई अहित नहीं किया जाएगा, पुराना कोई हिसाब नहीं खोला जाएगा । बस कवि की और प्रकृति की इतनी-सी इच्छा है कि –

 

                  बस हो सके

                  तो अगली बार जब धूप में निकलो

                  अपने बच्चों को

                  इमारत की छाँव और

                  पेड़ की छाँव में

                  फ़र्क़ करना सिखाना

 

यही मानवता का तकाज़ा भी है और  अभी के जीवन की अनिवार्यता भी ।

 

( 2 )

 

कोई भी लेखक अपने लेखन में अपने भौगोलिक परिदृश्य को भी लेकर आता है, अनायास ही । राही डूमरचीर के इस संग्रह में भी पाठकों को इस बात के ढेरों प्रमाण मिलते हैं । गंगा किनारे बसे शहरसे लेकर राँची के पास के लापुँगतक का इलाका इस संग्रह का भौगोलिक विस्तार है । गंगा किनारे का यह शहर, बिहार का शहर मुँगेर है । वहाँ से अगर आप दक्षिण-पश्‍चिम की ओर चलते हैं तो पाकुड़-दुमका पहुँचते हैं । वहाँ से पश्‍चिम-दक्षिण की ओर चलें तो धनबाद होते हुए राँची पहुँचेंगे । राँची से थोड़ा और दक्षिण-पश्‍चिम चलें तो लापुँग पहुँचते हैं । इस संग्रह की कविताओं में ये सारी जगहें उपस्थित हैं । इस क्षेत्र के पेड़-पौधे, नदियाँ, फूल, पर्व-त्योहार, खेती-बाड़ी – सब मिलकर गाडा टोलाका लैंडस्केप तैयार करते हैं । इतना ही नहीं, संग्रह की कविताओं का कैनवास, संग्रह का फलक भी काफी विस्तृत है। इनमें प्रकृति का सान्निध्य है, नैसर्गिक-निष्कलुष सुंदरता है, आदिवासी जीवन है, आदिवासी अस्मिता है, तो दूसरी तरफ अंधाधुंध शहरीकरण, लोभ, अपराध, अन्याय, प्रताड़ना भी है। स्त्री-नजरिए से चीजों को देखने की कोशिश भी है । स्त्रियों की आत्मनिर्भरता, उनका आत्मविश्‍वास और उनकी अपनी शर्तों पर जीने की चाहत भी है , तो पुरुष-नजर से स्त्रियों को भार समझना भी है, स्त्रियों का जिताती रहीं हारकरहोना भी है।  

राही आदिवासी जीवन के, वहाँ की सहजता और सरलता के काफी करीब हैं । उनकी कविताओं में जीवन की वही सहज-सरल लय चुपचाप उतर आई है । माँदर की थाप, गीत, नृत्य, जंगल का हरहराना – इन सबसे गाडा टोलाकी कविताओं की लय बनती है । कवि को गाँव से बाहर जाना है, आजीविका का सवाल है । यात्रा का सबसे लोकप्रिय साधन अभी भी रेलगाड़ी है । रेलगाड़ी कवि को अपने गंतव्य की ओर लेकर जा रही है, वहीं उसे उसका गाँव भी खींच रहा है माँदर की थाप बन कर । इन दोनों विपरीत मन:स्थितियों को कवि ने किस खूबसूरती से तुम्हारा स्टेशनकविता की अंतिम पंक्तियों में पिरोया है –

 

      तुम्हारे गाँव से बहुत दूर

      गंगा के दियारे में भाग रही है ट्रेन

      भाग रहा है मन माँदर की थाप संग

      तांग धितिंग धितिंग तांग

      तांग तांग तांग धितिंग

      धितिंग तांग धितिंग तांग तांग

 

अंतिम की तीन पंक्तियाँ ट्रेन के चलने की लय को पकड़ती हैं । हम सब की स्मृतियों में ट्रेन की चाल का संगीत है । इन तीन पंक्तियों को थोड़ा इस तरह पढ़कर ( बोलकर) देखिए –

 

            तांग   धितिंग,     धितिंग  तांग

            तांग   धितिंग,     धितिंग  तांग

            तांग धितिंग,   धितिंग तांग

            तांग धितिंग,धितिंग तांग

            तांग धितिंग,धितिंग तांग  

 

अगली पंक्ति में लय बदलती है –

 

            तांग-तांग,तांग,धितिंग

            तांग-तांग,तांग-धितिंग

            तांग-तांग,तांग-धितिंग

 

अंतिम में पंक्ति में ट्रेन अपनी पूरी गति में आ चुकी है –

 

            धितिंग-तांग,धितिंग तांग-तांग

            धितिंग-तांग,धितिंग तांग-तांग

            धितिंग-तांग,धितिंग तांग-तांग

थोड़ी देर चलने के बाद ट्रेन वापस सम पर पहुँच जाती है –

 

            तांग  धितिंग      धितिंग तान ...

 

गाडा टोलाके लैंडस्केप को ट्रेन का संगीत भरा-पूरा बना देता है । जीवन की लय, विविधता से भरे लैंडस्केप को और विषयों के विस्तृत फलक को एक ही संग्रह में समाहित कर लेना राही की बड़ी सफलता है ।

 

( 3 )

 

      इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते समय आप महसूस करेंगे कि ये कविताएँ धीरे-धीरे, आराम से, स्वाद लेकर पढ़ी जाने वाली कविताएँ हैं । लेख के आरंभ में भी कहा गया है कि ये कविताएँ औंटे हुए भावों वाली कविताएँ हैं । औंटा हुआ होने का अर्थ है गाढ़ा होना । गाढ़ी चीज़ें धीरे-धीरे ही अंदर उतारी जा सकती हैं, हड़बड़ी में नहीं । इसका नतीजा यह हुआ है कि कविताएँ मंथर गति में चलती लगती हैं । 

      नई कविता, यानी छंद-मुक्त कविता को पढ़ते समय पाठक को एक काम करना ज़रूरी होता है, कविता की लय को पकड़ना । कविता का प्रवाह अगर ठीक-ठीक पकड़ में न आए, तो कविता न समझ में आएगी, न आनंद देगी । गाडा टोलाका प्रवाह स्वाभाविक रूप से पाठक की पकड़ में आ जाता है। एक पंक्ति से अगली पंक्‍ति पर जाने में कभी भी कोई अड़चन महसूस नहीं होती। ऐसा लगता है कि कवि ने कविता की पंक्तियों को इतनी बार पढ़ा है कि उनका सारा नुकीलापन और खुरदरापन मिट चुका है । इन कविताओं की पंक्‍तियाँ माँजी हुई पंक्तियाँ हैं । जैसे बरतन के माँजे जाने से उसके किनारे समतल हो जाते हैं, वैसे ही इन कविताओं की पंक्तियों के किनारे भी। इस वजह से एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति में जाने में पाठक कहीं अटकता नहीं । माँजे जाने का एक और फायदा होता है कि बरतन चमकने लगते हैं । इन कविताओं के विषय में भी कहा जा सकता है कि ये चमकती हुई पंक्तियाँ हैं । इस लेख का एक शीर्षक यह भी हो सकता है – गाडा टोला’ : औंटे हुए भाव, माँजी हुई पंक्तियाँ । कहीं-कहीं तो वाक्य विन्यास इस तरह का बन पड़ा है कि पाठक को गीत-सा आनंद मिल जाए । इसे जाँचने के लिए  जिताती रहीं हारकरकविता के पहले दो अंतरे पढ़कर देखिए । मुक्तिबोध ने कहा है – काव्य-भाषा का आदर्श तो यह होना चाहिए कि वह उत्तेजित शारीरिक चेष्टा के रूप-जैसी ही प्रत्यक्ष प्रतीत हो । चूँकि यह सब विषयों में सर्वत्र सिद्ध नहीं हो सकता, इसीलिए स्वर को साधा जाना चाहिए। स्वर को साधा भी जाता है । स्वर का अर्थ है लहजा । राही डूमरचीर भी इसके प्रति सजग कवि हैं । स्वर को साधने का अर्थ है अवलोकन और अभ्यास। कविता में आए पात्रों की भाषा, उनके स्वर को भी राही बखूबी साधते हैं, जिससे उनकी कविता और भी ज्यादा प्रभावी हो जाती है । एदेल किस्कूकविता की ये पंक्तियाँ स्वर को साधनेका एक सुंदर उदाहरण हैं –

 

                  बाबा के बाद कौन बचा था

                  जो घर चलाता

                  आयो का हालत तो जानते ही थे

                  तुम्हारा घर वाला बहुत मदद किया लेकिन

                  हमारी ही ज़मीन पर हमको रोजगार दे दिया था

                  बदले में बचने भर भात-तरकारी भी दे देता था

 

राही अपनी कविताओं में (या अन्य जगहों पर भी) शब्दों को उनके सही अर्थ में बरतने के आग्रही हैं । कई बार शब्दों से चस्पाँ अर्थ सदियों से चले आ रहे पक्षपात, असमानता और अन्याय को अपने में समाहित किए रहते हैं, लेकिन रोज़मर्रा के इस्‍तेमाल में इतनी बेफ़िक़्री के साथ इस्तेमाल किए जाते हैं कि किसी को कोई भान तक नहीं होता कि शब्द अपने में क्या इतिहास छुपाए हुए हैं । राही का ध्यान इन बातों पर जाता है । इस संग्रह में दो मुहावरों इज़्ज़त का मिट्‍टी में मिलनाऔर बुरी नज़र वाले तेरा मुँह कालाका ज़िक्र इसी नज़रिये से किया है । अपने नज़रिये पर जमे रहना अच्छी बात है, लेकिन कवि को यह ध्यान रखना चाहिए कि अत्यधिक चिंतन कविता को भारी न बना दे । भाषा के प्रति धूमिल भी बहुत संवेदनशील थे । उन्होंने कहा है – एक रचनाकार भाषा को उसके तिरस्कार से बचाता है। भाषा को मामूली आदमी से नहीं, बल्कि उसके मामूलीपन से सुरक्षित करना सृजन करने वाले व्यक्‍ति यानी रचनाकार का दायित्व है । रमेशचन्‍द्र शाह भाषा के संबंध में इस तरह बात को स्पष्‍ट करते हैं – भाषा का सम्बन्‍ध आदमी के व्यक्तित्व से ही नहीं, उसके अस्तित्व से भी है । व्यक्तित्व की अनुभूति रोज़मर्रा की अनुभूति है, क्योंकि व्यक्तित्व की चेतना अहंचेतना ही है, जिसके बिना आदमी जीवन में सफल नहीं हो सकता, समाज में अपने को जमा नहीं सकता । व्यक्तित्व की चेतना हममें मुश्किल से ही कभी जगती है क्योंकि वह हमारी प्रयोजन-पूर्ति में सहायक नहीं होती, उल्टे बाधक ही होती है । व्यक्तित्व की चेतना आदमी को आत्मविश्वासपूर्ण और आत्मतुष्ट बनती है, जबकि अस्तित्व की चेतना का आरम्भ ही इस आत्मतुष्टि के विघटन से होता है । राही के विचारों को समझने में उपर्युक्त दोनों उद्धरण हमारी सहायता कर सकते हैं ।   

      कवि राही डूमरचीर और प्रकाशक राजकमल ने अपना काम कर दिया है । एक अच्छी किताब सुरुचिपूर्ण तरीके से प्रकाशित कर । मात्र 199 रुपए की किताब, जो राजकमल प्रकाशन की वेबसाइट पर अभी आकर्षक छूट के साथ उपलब्ध है । किताब में पृष्ठों की साज-सज्जा भी काफी अच्छी रखी गई है । संग्रह का नाम और पृष्ठ संख्या एक अलग अंदाज़ में रखे गए हैं, जो भाते हैं। एक अच्छे कवि के अच्छे संग्रह का स्वागत होना ही चाहिए । सुप्रसिद्ध आलोचक देवीशंकर अवस्थी ने कहा है- इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि रचनाकाल में कोई कृति कर्ता का अनुभव ही है, पर रच जाने के बाद उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व हो जाता है और उस समय स्वयं रचनाकार एक विशिष्‍ट पाठक मात्र बन जाता है । ... वास्तव में कृति लेखक द्वारा पाठकों को दिया गया कोई संदेश-विशेष न होकर एक स्वतंत्र सत्ता है जिसकी सापेक्षता एक सीमा तक ही होती है । कहने का तात्पर्य है कि पाठक को कोई पूर्वग्रह नहीं रखना चाहिए । किताब को उसके अपने गुण-दोषों के आधार पर परखना चाहिए । यह बात गाडा टोलाके बारे में भी उतनी ही सही है, जितनी किसी अन्य पुस्तक के बारे में । 

      हाँ, किताब का कवर शायद और बेहतर हो सकता था । संग्रह की कविताओं-सा खिलता हुआ । और कवि का चिंतित दिखना ज़रूरी नहीं, तस्वीर में वह मुस्कुरा भी सकता है ! 

      संग्रह से गुज़र चुकने की बाद कवि और उसके इस संग्रह के विषय में मुक्तिबोध का यह कथन याद आना स्वाभाविक है, जो उनका अपने और अपने साथ के कवियों के विषय में है – भारतीय मन की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । वह साहित्य को अपने आत्मीय परमप्रिय मित्र की भाँति देखना चाहता है, जो रास्ते चलते उससे बात कर सके, सलाह दे सके, काट-छाँट कर सके, प्रेरित कर सके, पीठ सहला सके, और मार्ग-दर्शन कर सके । भारतीय साहित्य में उन लोगों की वाणी को ही प्रधानता मिली है, जिन्होंने आध्यात्मिक असन्‍तोषों और अतृप्‍तियों को दूर करने की दिशा में विवेक-वेदना-स्थिति से ग्रस्त होकर काम किया है । आशा है कि हमलोग वैसा ही करेंगे।            

      राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशक के यहाँ से प्रकाशित होना अपने-आप में एक मुकाम है, और किसी मुकाम पर पहुँचने से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है मुकाम पर बने रहना । राही डूमरचीर इस बात को समझते होंगे । 

 

भोलाराम जीवित [ भगत -बुतरू सँवाद 2.0]

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