खास
तुम्हारे लिए ...
[ २०१७ में प्रकाशित मेरे इस संग्रह में दो खण्ड
थे । नए तीसरे खण्ड ‘साथ-साथ’ के साथ संग्रह प्रस्तुत है ]
खण्ड एक : सफ़र-हमसफ़र
(इस
खंड को एक लंबी कविता के रूप में पढ़ा जा सकता है)
1
जो
सफर
इतना ही आसान होता
तो
हमसफर की
तलाश करता ही कौन ?
और
सफर क्या
अकेले ही
मंजिल पा लेने का
नाम है ?
और
मंजिल क्या ?
कहाँ ? २६.१२.२०१५
2
जीवन है
तन है
मन है
धन है
तन-मन-धन
एकाग्र भी
समग्र भी
व्यष्टि भी
समष्टि भी
आसान
शब्दों में -
अकेले-अकेले भी
साथ-साथ भी
मैं मैं भी
तुम तुम भी
और
मैं-तुम
हम भी
समझी !
3
तुम्हारे
धड़कते
सहमे
दिल की दुआ
सुनी भी गई क्या ?
दुआ
कि मन्नत
कि सपने
कि उम्मीदें
या
कि मन
बस खाली स्लेट !
तुम
आईं
थीं
क्या कुछ समेट !
कहीं राहत
कहीं चाहत
कहीं
आशाओं- आकांक्षाओं
उम्मीदों के
कदमों की आहट
सुनीं थीं क्या ?
सुनो
समझो
सहेजो
तारो
धारण
तुम्हीं ने किया है
धारण
तुम्हीं को करना है
धारण
तुम्हीं कर सकती हो !!
4
सुनो !
तुमने
सपने
ताक पर तो नहीं छोड़े
सपने ताक पर नहीं
मन की
क्यारी में खिलते हैं
और सुनो !
जहाँ
वरण है
वहाँ
हरण नहीं होगा
नाम तक का
तुम्हारा
नाम
यानी तुम
और फिर
पिता का दिया है
पिता का हिया है
अस्तित्व
तुम्हारा
सँवारो
निखारो
सँभालो.....
5
बशर्ते तुम आओ
बशर्ते मैं रुकूँ
बशर्ते तुम कहो
बशर्ते मैं मानूँ
बशर्ते तुम रूठो
बशर्ते मैं मना लूँ
बशर्ते तुम हाथ दो
बशर्ते मैं थाम लूँ
बशर्ते यह ख्वाब हो
बशर्ते हसीन भी हो
बशर्ते हकीकत से दो-चार हो लूँ
बशर्ते तुम साथ दो
बशर्ते कुछ नहीं होता प्यार में
बशर्ते वो प्यार हो !
6
बरबस
उमड़ आई
घटा नहीं है प्यार
ये तो
धीरे-धीरे
पनपता है
तपते-तपते
तपता है
कसते-कसते
कसता है
समझा करो
धीरज धरो
अभी तो
युग-युग करना है पार !
7
जो
चाहते हो
तो
अभिनीत भी करो
मन में
हर बात
मत तहो
सही कहा तुमने
लेकिन
मेरा मन
ज़िद्दी
अहमक !
चाहता है
बातें
खामोशियाँ करें
नजरें कुछ कहें
हम
बस
शांत नदी-सा बहें
छल-छल
कल-कल
छल-छल
कल-कल.....
8
हरी घास पर
नंगे पैर
हम
कब चल पाएँगे
भरी चाँदनी
छत पर
बोलो
कब जल पाएँगे
मैं तुम-सा
तुम मुझ-सा
दोनों पूरा
कब ढल पाएँगे
लेकिन
हम
चलें क्यों
जलें क्यों
ढलें क्यों
मोम-सा
गलें क्यों नहीं !
9
मैं
तुमको
सर्वस्व सौंपता हूँ
तुम चाहो
परवाज़ दो, न दो
पूरा
खर्च मत करो
खुद को
तुम
सबसे पहले
तुम हो
फिर कुछ और....
10
साजो- सामान से
सज तो गया है
घर
तुम
आओ,
रहो
तो प्राण-प्रतिष्ठा भी हो जाए !
11
वही
दीवारें
वही
बिस्तर
चूल्हा
बरतन
कुर्सियाँ
टीवी
यहाँ तक
कि डीटीएच भी वही
लेकिन
वो जो एक होनी थी
सलाहियत
एक अपनापन
नहीं है
तुमने
छुआ नहीं है
किसी भी चीज को
कई दिन हुए
तुमको गए......
12
चूल्हा- चौकी
बरतन- बासन
झाड़ू-पोछा
बिस्तर-चादर
कुर्सी- टेबल
पंखे- बल्ब
सब
निष्प्राण हो गए-से हैं
तुम्हारी अनुपस्थिति से
तुम मेरी छोड़ो !
13
हो सकता है
ज़िद हो
तुम्हारी
मैं
नियम
बना लेता हूँ
कहूँगा
रोज़
एक बार
वही बात
जो सुननी है
तुम्हें
रोज़-ब-रोज़
बस
तुम
इतना करना
कभी- कभी
मेरी
खामोशियों को भी
सुन लेना ! ०२.०२.२०१६
14
सरसराते
नहीं चल सकती
हाइवे पर भी
फिर
भटकना तो
गलियों-कूचों में भी है
उतरना तो
नदी- नालों में भी है
पकड़
मजबूत होनी चाहिए
ब्रेक दुरूस्त
एक्सीलेटर बे-खटका
और हाँ
प्लग साफ रहे
चकाचक
बिना कार्बन लगे
नियमित
सर्विसिंग भी जरूरी है
और
कहते हैं
एक हाथ की रहे
तो
देर तक
रहती है
तंदरूस्त
सुनो
गाड़ी
जिंदगी की हमारी है़
रख-रखाव भी
हमारी ही़
जिम्मेदारी है ।
15
सम पर
निभाते-निभाते
ऊबने - सा
लगा है मन
चलो
कुछ अनकहा-सा
कहते हैं
न किया हुआ- सा
करते हैं
फिर
देख-देख
जीते हैं
फिर
तुम्हीं पे
मरते हैं
ज़रा
झाड़-पोछ लें;
मन
नया-नया-सा
करते हैं !
16
जिस तरह
नदी
थक-हार के
जा गिरती है
सागर में
हो जाती है विलीन
मेरा
वजूद
समाहित हो जाता है
तुममें
शांति:
शांति:
शांति: ।
17
तिलैया
बाँध है
जल ही जल
अथाह-सा
कि ओर-छोर आँखों में
समाए ही ना
बाँध
बाँधे हुए
किसी
अदृश्य शक्ति - सा
मेरा
अस्तित्व
वही जल हो
तुम
वही बाँध !
18
उकताहट
अकुलाहट
छटपटाहट
लक्ष्य भी किया करो
ये अजब-गजब
यूँ ही नहीं
सफाई नहीं,
कमजोरी है
वरना
कोई
तुमसे बाहर थोड़े ही है
19
तुम
मेरी
आँखों में
पढ़ लिया करो
मेरी बातों को
मैं
तुम्हारी
चुप्पी के माने
ढूँढ लूँगा
फिर
कहने-सुनने की
जरूरत नहीं रहेगी कुछ
कहा-सुनी की तो छोड़ो ही !
20
दबाव
इतना मत लो
तनाव
इतना मत लो
जीवन
सहज गति से
बहने दो
अपने को
इतना
मत सहने दो
एक
सीमा के आगे
चुक जाना ही है
रुक जाना ही है
हम
साथ-साथ
चलें न
सारी व्यग्रता को
रख कर परे
दीनता- हीनता से उठकर ऊपर
बाकी
जो हो सो हो
21
तुम
किसी
बात को
निभाओ
मैं
कहीं
बिगड़े को
बनाऊँ
तुम
मेरी तरफ से रहो
मैं
तुम्हारी तरफ से .
22
कुछ बातें अच्छी होती हैं
कुछ बहुत अच्छी
कुछ सबसे अच्छी
तुम्हारी बातें
तीसरी पंक्ति वाली हैं...! ०२.०२.२०१६
23
हम
शौक पूरे तो करें
लेकिन
मद्धम-मद्धम
जमाने में
हैं और भी
बहुत सारे गम
मेरे सनम
मान भी जाओ
कि
आओ करें
कुछ दुख
ज़माने के कम ! ०७.०१.२०१६
24
कुछ
तुम करो
कुछ
हम करें
चलो
दुनिया को
थोड़ा
बेहतर करें
25
एक दिन
सुनने-सुनाने को
बचेंगे
बस
दो जन
मेरे मन
अभी भी
सुना कर
उसकी !
किसकी ?
हत् तेरी की... !!
26
मैं
थक- हार के भी
तुम्हारी तरफ हूँ
तुम
लड़-झगड़ के भी
मेरी तरफ हो
किस्सा
मुख़्तसर यही है !
27
तुम्हारे नाम से शुरू
तुम्हारे नाम से खतम
बीच में
जीवन
दुनिया के गम
नौकरी की चिंता
रोटी की फिकर
रिश्तों की बागडोर
जाने
क्या-क्या ! ०४.०२.२०१६
खण्ड दो :
खास तुम्हारे लिए
1
तुम्हारी
खबर से
जी
घबराया था
तुम्हारे
शब्दों ने
ढाढस
बँधाया है
आज ही नहीं
कई बार
समझ आया है
तुम
मन हो मेरा
मन को
मजबूत
रहना चाहिए ! २५.०२.२०१६
2
बारिश
से
धुली-धुलाई
सुबह
पेड़-पौधे
भींगे-
कंपकपाते से
धूप
बादल
के
परदे
हटाती है
कभी
, डाल देती है
बालकॅनी
में
खड़ा
निहारता
हूँ
लेता
हूँ
थोड़ी
ताज़ा हवा
अकेले-
अकेले
दिन
गिनता
हूँ
काटता
हूँ
ये
हम
किस
चक्कर में
पड़े
हैं
तुम
वहाँ
मैं
यहाँ !
3
तकिए
पर
एक
लंबा
बाल
तुम्हारा
खयाल !
स्थिर
हो
जाता है
जीवन
जैसे
‘फ़्रीज़’ हो जाता है
दृश्य
जो
तुम
आ
के चली जाती हो
कहने
को
कह
सकती हो
थोड़ी
झाड़-
पोछ
साफ-सफाई
कर
ली जाए
मन
माने
तब न
मन
करे
तब न ! २७.०२.२०१६
4
एक
पुड़िया सुबह
एक
पुड़िया शाम
होम्योपैथी
की
मीठी
दवा की तरह
कर
लिया करो
बात
सुबह
– शाम
मन
त्रस्त
है
पस्त
है
लंबा
ईलाज चाहिए । २७.०२.२०१६
5
घर
सँभाला
बाहर
सँभाला
मुझको
सँभाला
तुमने
मैंने
आराम
फ़रमाया
हुक्म
बजाया
परेशान
किया
परेशान
हुआ
विपरीत
ध्रुव हैं
फिर
भी
एक
हैं ! २७.०२.२०१६
6
फूल
गेंदे के
पीले-पीले
ताज़ा-ताज़ा
खिलते- खिलते
चेहरा
पूरा
हँस रहा हो जैसे
सौंदर्य भी
औषधि भी
हरित-जीवन का
ऑक्सीजन भी
व्यक्तित्व तुम्हारा
तुम्हारी
उपस्थिति । २८.०२.२०१६
7
जैसे
रेल की पटरी पर
चल रही है नींद
धड़- धड़ धड़ाधड़
धड़-धड़ धड़ाधड़
और
चल रही है
टेक
खयालों की
खटर-पटर
खटर-पटर
और
भर रहा है
रंग
ख्वाबों के कैनवास पर....
ज़रा-सी
उठी हुई खिड़की से
आ रही है हवा
सहला रही है हवा
ख्वाबों को
खयालों को
नींद को
जैसे
किसी 'शो-पीस' को
बड़े हल्के हाथों से
पोछती हो तुम ! २९.०२.२०१६
8
आम बौराए
मौसम भी
महकने- चटकने लगा है
मन-पलाश
दहकने लगा है
बरस बीते
मानो
मन को रीते
बरसों से
कुछ किया नहीं है
किसी पर
ध्यान दिया नहीं है
इस फागुन
मन को
जगाते हैं
चलो
फिर वही,
वैसे ही निभाते हैं
इस बार
मलमल तय रहा ! ०१.०३.२०१६
9
चाकरी का
चक्कर है
घूमता हूँ
दूर-दूर
अलग-थलग
परिधि
तय है
खूँटे से
बँधी है रस्सी
चरने-विचरने की
सीमा भी
तय ही है
लेकिन
पीठ पर
रहो
तो
सीमा में भी
हो सकता है
सबकुछ
असीम
कहना
सुनना
कर गुजरना
बोलो,
है ना ? ०२.०३.२०१६
10
भीतर-बाहर
जो भी है
सब है
खास तुम्हारे लिए
और
खास से भी
बढ़ गई है
बात
इतनी
कि
आम हो गई है
जो
आम भी है
सब है
खास तुम्हारे लिए
ग़ौर करो !
11
थोड़े
जेब
में
पैसे
हों
और
ज़ुबां
पर
तुम्हारी
हो
फ़रमाइश
कोई
फिर
देखो
दूर-दराज
क्या
रात-बिरात
क्या
महँग-सस्ता
क्या
कह
कर तो देखो ! २२.०८.२०१५
12
सुना
कागे ने
क्या कहा है
काँव काँव
काँव काँव
जीवन
धूप प्रखर
तुम
शीतल छाँव
शीतल छाँव
भान
हो चला है
अनुमान
अब भी नहीं
तुमने
कैसे
कितना
विस्तार लिया है
तुमने
बड़े हौले रखे पाँव !
13
मौजूदगी
भर देती है
कर लेती है
जज़्ब
ख्वाबों-खयालों को
वरना
मन में
कुछ
गूँजता रहता है
जैसे
खाली कमरे में
आवाज़
पास रहो
तो
घर
भरा- भरा रहता है
जीवन भी
मन भी
निश्चिंत
निश्चिंत ! ०३.०३.२०१६.
14
अस्तित्व में
स्पर्श तुम्हारा
समाया हुआ है
अधूरा-सा
हो गया है
जब
तुमने
नहीं छुआ है !
ये
कैसे
कब हुआ है ?
मौसम ही
बौराया हुआ है !! ०३.०३.२०१६
15
क्षण-प्रति-क्षण
शनैः शनैः
आवश्यकता
बढ़ती जाती है
तुम्हारी
निर्भरता
बढ़ती जाती है
तुम पर
तुम
अपवाद हो
'क्रमागत उत्पत्ति ह्रास नियम' का
!
16
'स्ट्रेस
- टेस्ट'
लेते रहती है
जिंदगी
स्वस्थ दिलवाले
निभा ले जाते हैं
सूरज के
ताप में
कमी कहाँ होती है
कई दफ़ा
देर तक
उसे
बादल
छुपा ले जाते हैं
उदासी के
कोहरे में
उम्मीदों की
'फ़ॉग लाईट'
जलाओ
आज दुखी है
तो
मन
कल में लगाओ
दिन
मैं भी गिनता हूँ
तुम भी
गिने जाओ
तुमने
इतना किया है
दिन
बहुरेंगे जरूर
दिन आएँगे
हम
साथ
घूमे-टहलेंगे
बदलेंगे
बदलेंगे
दिन भी
और
हम भी !! ०४.०३.२०१६
17
भला
सोचो तो
कितनी सुविधा है
हम
उस युग में
नहीं हैं
कि
करनी पड़े
मनुहार
बादलों से
हवाओं से
सुनाने- बताने को
हाल
एक-दूसरे का !
जो
आग
धीमी जलती है
देर तक जलती है
और
मद्धम आँच पर
जो पकता है
स्वाद
उसका
अलग ही होता है
सुदूर
सुस्वादु
सुफल
चलते रहना है
विकल
हुए बगैर
कहो तो
उठाऊँ फिर
हाथ में
गंगाजल ! ०४.०३.२०१६
18
रात
देर तक जगे
सुबह
हो जाए जल्दी
तुम्हारा
खयाल हो
तुमसे
बातें हों
हाँ,
बीच में
कुछ काम
ज़माने का भी
हो जाए
तो
हर्ज नहीं है ! ०५.०३.२०१६
19
स्फुरण में
संवरण कैसे हो
फागुन है
विरह का
वरण कैसे हो
दूत वसंत ने भी
दिए हैं
संदेश
भाँति-भाँति से
कोण-कोण से
किया है
इंगित
मन विस्मित् !
पिछला
फागुन
कब चढ़ा था ?! ०५.०३.२०१६
20
सम्मोहित
कर रही हैं
आँखें
बोलती हुई
तस्वीर है
ज़माना
बेवजह ही
ठहर-ठहर जाएगा
मेरी मानो
इसे
छुपा दो
वैसे भी
थोड़ा
'पज़ेसिव'
हो रहा हूँ
मैं ! ०६.०३.२०१६
21
तुम्हारी
बात
नहीं
मानी थी
अब
कर
रहा हूँ वही
दाँत
निपोरे
और
जो
कर बैठा था
तुम्हारे
मना
करने के बावजूद
भुगत
रहा हूँ अब
पछता
रहा हूँ
तुम
मुझको
जानती हो
मुझसे
बेहतर ! ३०.०७.२०१५
22
नशा
मेरे मन में है
तुम्हारी
आँखों में है
या
इस मौसम में है ?
लगता है
कुँए में ही
भाँग
घुल गई है
अल्हड़ता है
तरुणाई है
जैसे
पूरी दुनिया ही
कसमसाई है
फागुन में
सावन का अंधा ? ०६.०३.२०१६
23
भाषा
कई बार
समर्थ नहीं होती है
खास कर तब
जब
मन उत्प्लावित हो
सोचता हूँ
इस बार
भेज दूँ
एक
कोरा कागज
मतलब
तो साफ है ! ०७.०३.२०१६
24
फागुन की सुबह
एकदम
सुबह-सुबह
ठंढी-ठंढी हवा
मन को
ले जाती है
दूसरे ही लोक में
उठ रहो
घूमने चलेंगे साथ
तुम्हारी
स्कूटी पर | ०७.०३.२०१६
25
कब
नींद आई
कब
ठंढ लगी
कब
कंबल तान लिया
यह
सुबह
उठे पर ध्यान गया
कुछ
वैसे ही --
कब
हुआ
कैसे
हुआ
मन
ने
तुमको
सब
कुछ मान लिया
और
बात-बात
पे
जान
लिया
बात-बात
से
जान
लिया !
26
जो
कुछ देर
नींद
को
टाल
पाते
हम
रात
आँखों
में काट आते
तुम्हारे
संग
बोलते-
बतियाते
बातें
बेतरतीब
कातते
धागे
सपनों
के
भविष्य
के । ०८.०२.२०१६
27
छिपकलियाँ
करने लगी हैं
मटरगश्ती
कुछ मकड़े
घूमने लगे हैं
धूल के पैर
जमने लगे हैं
पूरे
घर पर
मन पर
जमने लगी है
पपड़ी-सी
उदासीनता की
मेरे
बस का नहीं है
घर को
संभालना
और
खुद को भी
एक
चक्कर लगा ही जाओ ! ०९.०३.२०१६
28
सीता को
राम ने
किस मौसम में देखा था ?
फागुन में ?
मौसम कोई भी हो
क्या फ़र्क पड़ता है
मदन
दुंदुभी
कभी भी दे सकता है
भले
वो
वीर कुँवर सिंह जयंती ही क्यों न हो !!
दो प्राणी
आदर्श जोड़ी
जोड़ी का आदर्श
चिरस्थाई
लेकिन सुनो !
सबकुछ ठीक है
तापस भेष
वनवास सुदीर्घ
सीमित संसाधन....
सब निभ जाएगा
आन पड़े पर
बस
तुम
स्वर्ण मृग मत माँगो
मैं
भागूँ नहीं
मृगतृष्णा के पीछे
कभी भी ! १०.०३.२०१६
29
ऊर्जा
कभी खत्म नहीं होती
प्रेम भी
खत्म नहीं होता
कभी भी
रंग-रूप
बदल जाया करते हैं
कभी
मेरी बातें
बदली हुई महसूस हों
तो
तुम
अन्यथा मत लेना ! ११.०३.२०१६
30
एक हाथ तुम दो
एक हाथ हम
पाट दें जीवन को
साथ- साथ हम
चाक पर मिट्टी
मिट्टी से घड़ा
चाक तुम घुमाओ
थाप दें हम
घर बनाएँ
घर सजाएँ
ईंट-ईंट जोड़ लें
तुम दीवारें लीप दो
रंग करें हम
और ऐसा साध लें
न दीवारें बाँध लें
कुछ न कुछ बाँट दें
साथ-साथ हम
31
घड़ी की सुई
भाग खड़ी हुई है आगे
कान ऐंठना तो ज़रा
मुझे भी आना था
ऐसी क्या जल्दी थी ?
इधर
मैं नींद को
समझाता हूँ
छोड़ दिया करे अकेला
उपस्थिति हर घड़ी
वांछनीय नहीं है
खासकर जब
तुमसे मिलने की बारी हो !
32
हवाएँ तेज
बिजलियाँ चमकती
बादल गरजते
जैसे नगाड़े पर थाप
रात की
कारगुजारियाँ
कम नहीं डराने के लिए
लेकिन
हवाओं ने
ठंढक पहुँचाई
बिजलियों ने
रोशनी दी
बादलों ने
संगीत सुनाया
कल रात
हम साथ थे !
33
अल् सुबह
कोयल ने गाया है
कू उ उ कू उ उ
हस्बे मामूल
याद दिलाया है
तू उ उ तू उ उ
राजा वसंत की
मुनादी है
प्रकृति पर
हो रहा है
रंग-रोगन नया
मन-मीन
तड़फड़ाया है !
34
तुम्हारी
दिनचर्या
देखता-सुनता हूँ
तो
हैरत होती है
टूटते हैं भ्रम
कई
मान्यताएँ बदलती हैं.....
लाज की
गठरी
छुईमुई नहीं
स्त्री का प्रेम
कोमल ही नहीं होता सिर्फ
होता है
दृढ़
परिश्रमी
और
होता है कामकाजी ! १५.०३.२०१६
35
हम
परिधि नहीं हैं
एक-दूसरे की
प्रस्थान-बिंदु हैं
सामने हैं
आकाश अनंत
उड़ो
उन्मुक्त
निर्बाध
श्रमसाध्य
पूरे आकाश को
अपने ही रंग में
रँग डालो
उसी
सहजता से
जैसे
डाल देती हो
बाँहें
मेरे गले में ! १६.०३.२०१६
36
भावनाओं के
चूल्हे पर
औंटा कर
प्रेम
जब गाढ़ा हो जाता है
तो
धरातल पर
आ जाता है
करने लगता है
बातें
रोजमर्रा की
अच्छा, सुनो
!
आज
सब्जी
क्या बन रही है ? १६.०३.२०१६
37
क्या करूँ
क्या करूँ
सोचो
जल्दी सोचो
यह
फागुन भी
बीत रहा है
कुछ सोचो
कुछ करो
कि
यह फागुन
न बीते मन का
मौसम को बदलने दो !
देखो,
काम बहुत हैं करने को.....
38
एक
चादर
तक तो
बिछाई
नहीं जाती
सीधी-
बराबर
जब
तक
दूसरे
सिरे पर
तुम
न हो
पकड़ाने
को
आदतें
तुम्हीं
ने
बिगाड़ी
हैं
तुम्हीं
ने
सर
चढ़ाया है
वैसे
बुरा
क्या है ?
एक
मीठा-सा
नशा है ! १७.०३.२०१६
39
सुबह जगी
दिन उगा
खिलने लगा है मौसम
दिन
गिन लिया है
मन ने
कब निकलना
कब पहुँचना
मिलना कब है तुमसे ! १८.०३.२०१६
40
ईंट-दर-ईंट
बन रहा है
घर
तुम्हारी ज़िद से
सपनों का
तुम्हारे
हौसले ने
लपेट लिया है
सबको
सबकुछ
तुम बढ़ो
तो
साथ बढ़ती है
कायनात ! १८.०३.२०१६
41
जानता हूँ
जो रुक गया
दिन गुजरेगा
खाली-खाली
बेतरह
बोरियत से भरा
नकेल
कामकाज की
कड़ी है बड़ी
मन
पगहा तुड़ाने को
आतुर है
उस पर
तुमने
दिक् नहीं किया है
ये
और भी मुश्किल है ! १९.०३.२०१६
42
जिम्मेदारी भरे
हाथों से सँवारें
सधे हुए
कदमों से चलें
चलें
और चलें
और चलें
जब तक
मिल न जाए
मंज़िले-मक़सूद
रास्तों की
फ़िक्र
क्यों करें बेवजह ? १९.०३.२०१६
खण्ड तीन : साथ-साथ
1
चुहल
भरी आँखों ने
टोका, न रोका
बस
देखा
देखती
रहीं
मुस्कुराती
बदमाशी
से...
बंदा
निकल आया
सर
झुकाए
गलियारे
से
हवा
में तैर गई
एक
शिकायत
एक
उम्मीद...! ०४.०४.२०१६
2
खैरियत
से
तुम
रहो
खैरियत
से हम
तब
ही तो
हो
पाएगा
हम
दोनों का
निबाह
अपने-अपने
ठीये
पर
निश्चिंत
! १२.०४.२०१६
3
बचते-बचाते
बनते-बनाते
संतुलन
निभ
ही गया
दिन
यह भी
सारी
चिंताएँ
चर्चाएँ
बाधाएँ
करती
रहीं
खुसुर-फुसुर
तुम
फिर
जीत गई ! ०३.०५.२०१६
4
एक
खबर
क्या
असर रखती है,
देखो
थम
गई है
हलचल
सारी
मन
हो गया है
निश्चिंत
खबर
तुम्हारे
आने की है !
5
चावल-दाल
हल्दी-धनिया
नमक-मिर्च
सब
तो हैं
स्वाद
को क्या हुआ है ?
सोफा-चेयर
टेबल-कुर्सी
चादर-पर्दे
सब
तो हैं,
घर
की
रौनक
को क्या हुआ है ?
सुबह-शाम
दिन-रात
घड़ी-घड़ियाल
सब
तो हैं
समय
को क्या हुआ है ?
गुजरती
नहीं
सुधरती
नहीं
सँवरती
नहीं
उमर
को क्या हुआ है ?
सब
लिख भेजना
खत
में
या
बता
ही जाना आके ! २०१७
6
कोरी
भावुकता ने
की
बहसें
सुनाई
कविताएँ
पिलाई
कॉफी
व्यावहारिकता
ने
स्कूटी
उठाई
बच्चों
को
स्कूल
पहुँचाया ! ०२.०२.२०१८
7
उमर
से भी
ज्यादा
है
जीवन
तुमसे
अलग
आधा
है ! ०९.०२.२०१८
8
रजा
की
पसंद
की
बात
क्या ?
एक
हो गए
जीवन
वाकई
हो
गए एक ! ०९.०२.२०१८
9
तेरे
प्यार में नाचूँ
तेरे
प्यार में जागूँ
कभी
कूदूँ-फाँदूँ
कभी
दौड़ूँ-भागूँ
10
न
तुम कहो
न
हम कहें
बस
यूँही
चलते
रहें
कटता
रहे
सफ़रे-हयात
साथ-साथ
साथ-साथ
बुनता
रहे
सपना
कोई साझा
साथ-साथ
बँटता
रहे
दुख
और सुख
आधा
साथ-साथ
होती
रहे
अपनी उम्र दराज
साथ-साथ
चखते
रहें
हर मौसम का मिजाज
साथ-साथ
देखा
करें
बढ़ती
निशानियाँ
साथ-साथ
सुनते
रहें
नित
नई कहानियाँ
साथ-साथ
होती
रहे
पूरी
हर मुराद
साथ-साथ
देते
रहें
ढेरों
आशीर्वाद
साथ-साथ
बस
तुम रहो
बस
हम रहें
न
तुम कहो
न
हम कहें
चलते
रहें
चलते
रहें...
11
बद्ध
नहीं
मन
से
मन
में
बिद्ध
है
प्रमेय
प्रेम का
स्वयं
ही
सिद्ध
है
मान
मौसम के
भले
रहें बदलते
ֶचूँकि प्रेम है
इसीलिए
बराबर है दोनों तरफ । ०३.०३.२०१९
[ संग्रह की अधिकांश कविताएँ फरवरी और मार्च २०१६ के दौरान लिखी हुई हैं ]
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