शनिवार, 9 अगस्त 2025

सरसता

 

सरसता

 

 

हैदराबाद


अँधेरा घिर जाने के बाद

उतरते हुए प्लेन से

दिखता है जैसे

बेटी की शादी में सजा हुआ घर –

पीली-पीली,दिवाली के दीयों-सी

बिजली की लड़ियों से

 

बंजारा हिल्स की ऊँचाईयों पर

तेज ,ठंढी हवा

 

हुसैन सागर के

चक्कर काटती सड़क

 

चार मीनार...

मोती...

कराची बेकरी...

 

और

कुछ दोस्तों के नाम

 

कुछ शहर

बस नाम लेने भर से ही

स्फुरित कर जाते हैं मन

जैसे – हैदराबाद !

 

हथेली पर

एक

खुशनुमा एहसास

छोड़ गई है

एक हथेली

 

दिन

उमंग से

भर गया है

 

वक्‍त ने

मानो

फिर

उम्मीद भरी

नज़रों से देखा है

 

मन

फिर से

अच्छा

बनने की कोशिश में है

 

दुनिया का

खूबसूरत बने रहना

अभी

खतरे में नहीं है  !

 

चलो, खपड़े जुटाएँ

चलो, कित-कित खेल आएँ

चलो, पिट्‍टो सजाएँ

बुढ़िया कबड्‍डी में

बुढ़िया बचाएँ

 

भरी दुपहरी में

पर्दे फैला के

दिन के उजाले में

अंधेरा जगा के

खेलें फिर से

डार्क रूम आइस – पाइस

इत्‍ती-सी ख्वाहिश

 

डेंगा-पानी

कभी लिलि-घंटी

कभी

डैस , कोस, सिंगल -

बुलबुल, मास्टर की

टेर लगाएँ

गिल्ली-डंडा की

गिल्ली छील-छाल के

कभी-कभी

कंचों पे

हाथ आजमाएँ.....

 

यादों के आँगन में

निकल गई है

बचपन की खटिया

मन ने भी

ले लिया है

समय के ताड़ का पंखा

और

सुकून की चाँदनी में

सालों के

तारे गिनते-गिनते

झल रहा है

पंखा

हल्के-हल्के हाथों से ।

 

एक कली

खिलने चली

खिल के रही

नौ के नौ बजे

 

सूरजमुखी हँस पड़े

जब

सूरज का मुँह तके

 

हौले-हौले हिल रहे

कुण्डल अमलतास के –

पीले, हल्के पीले

 

पास कुछ भभक रहे

बोगुनबेलिया के

रंग चटख गुलाबी

 

फुलझड़ी-से फूटते

लग रहे गुच्छे मालती के

भीनी-सी खुशबू में लिपटे

 

एक तितली बैठी हुई

लंबी-सी घास पर

पंख फर फर फर......

 

दिन

पसीने से तरबतर

लेकिन

खूबसूरत है...!

 

पौ फटी धीरे

उनींदी आँखें जगीं

कमल खिले

 

सुर्ख़ लाल

गहरा हरा

लेकिन

खिलता हुआ

होता है पीला

और जो हो

सूरजमुखी का

तो कहना ही क्या !

 

 

चक-चक चमक रहे हैं

दप-दप दमक रहे हैं

हाथो में हाथ डाले

धक-धक धड़क रहे हैं

 

छल-छल छलक रहे हैं

चह-चह चहक रहे हैं

दुविधा की तो कोई बात ही नहीं

धम-धम धमक रहे हैं

 

इत-उत भटक रहे हैं

कहीं रुक, कहीं अटक रहे हैं

कलियों के फूटने का मौसम है

चट् -चट्  चटक रहे हैं

 

 

 

नियाग्रा

______

 

गले हुए

शीशे के रंग का

जल-प्रवाह अपार

सम्मोहित करता हुआ

 

करोड़ों-करोड़ों

फुसफुसाहटों से जैसे

भरी हुई आबो-हवा

 

धरती पर

उतर आया इंद्रधनुष

और

उसके घेरे में हम

 

सब करामात उसी की है !

 

 

खिली धूप खिलखिलाती

झील का पानी

चादर चाँदी की

झिलमिलाती

 

१०

 

फूल गेंदे के

एक नहीं

कई-कई

 

मन हुआ

फिर-फिर

थई-थई !!

 

११

शीशम के पत्ते-सी छोटी

चिड़िया

फुदकती – खेलती

सुकुमार डालियों पर

चैत में ही

धूप जेठ की

 

उसकी हेठी

खिली धूप में

जा बैठी

फुनगी पर

 

लघुता में

सौंदर्य जीवन का

फर–फर

निडर !

 

१२

दिन पंख लगा के उड़ते हैं

छूटते हैं , कहीं जुड़ते हैं

 

नाना , नाती

मामा , पोती

चाचा, चाची

कुछ मात-पिता की

जीवन – धारा

कितने किनारे

कितना सहारा

ज़ोर-मशक्कत

भागा-भागी

खींचा-तानी

उठा-पटकी

कभी तेज़- कदम

कभी लस्टम-पस्टम

संगी-साथी

दूल्हा , बाराती

सखी-सहेली

यादों की थाती

वही जीवन -धारा 

विस्तार अपारा

कहाँ के कहाँ

तार जुड़ते हैं

कुछ रह जाते

सपने

कुछ

पुरते हैं !

 

१३

छुट्टी- छपाटी

धूल- माटी

चूल्हा – चौकी

दीया-बाती

 

डैस-कोस

डेंगा-पानी

फैटम- फैटी

पीटा-पाटी

 

छूट गए दिन

वो कैसे पलछिन

नींद में चलते-से दिन हैं

अब रातें उखड़ी सारी

 

बस भागा-भागी

खाली देखा – देखी

सब कट्टम –कुट्टी

और काटा-काटी

 

भीतर दलदल

छल, छल, छल, छल

कहाँ गया वो, था कभी जो

आदमी सच्चा, एकदम खाँटी

 

१४

जगती हुई

सुबह

धुंधली

 

बिखरे हुए बालों में

आँखें मलती

उठ बैठी बच्ची

 

१५

इतनी अच्छी  धूप  खिली है, बहुत दिनों के बाद

इतनी अच्छी  धूप  लगी  है, बहुत दिनों के बाद

छत पर आ कर टहल रहा हूँ, बहुत दिनों के बाद

कुछ करने की भूख  जगी है, बहुत दिनों के बाद 

 

१६

 

सुबह होती है...

सुबह होती रहे

सुबह होके रहे

सबके जीवन में

 

राम करें रखवारी

होवें राम सहाय

मर्यादा भूलें नहीं

हम सत्-पथ ही अपनाएँ !  

 

१७

 

चलनी से सितारे चाले हैं

और चाँद उठाने वाले हैं

मौसम के सूप से फटकेंगे

दिन ऐसे चुनाने वाले हैं

 

 

१८

 

            फबता है शोख गुलाबी

            खुद में पनसोख गुलाबी

 

होता है भोर गुलाबी

शामों की कोर गुलाबी

रखता है ज़ोर गुलाबी

जीवन की डोर गुलाबी

 

अच्छा संयोग गुलाबी

हर लेता सोग गुलाबी

संकेत-निरोग गुलाबी

घटा नहीं योग गुलाबी

 

तक आँखें खोल गुलाबी

खोले है पोल गुलाबी

कर डब्बा गोल गुलाबी

पाए है मोल गुलाबी

 

            छा जाता शोख गुलाबी

            खिलता पनसोख गुलाबी

 

१९

 

स्निग्ध स्नेह-सिक्त

श्‍वेत शीतल शांत

 

उपस्थिति बेली की

गर्मी की रातों में

क्या धरा है बातों में

जीवन के जेठ की !

 

२०

 

मत चमको इतना चंदा रे

मन में लोभ होता है

छत पर बैठें हम रात भर

 

मन को थोड़ा सहलाएँ

मन को थोड़ा बहलाएँ

बीती बातों को याद कर

 

क्या अपना-बेगाना था

क्या ही वो ज़माना था

खुशियाँ मिलतीं थीं बात कर

 

२१

 

हहराती हुई बारिश में

इस सुबह की साज़िश में

अटकेंगे कितने काम

बेमौसम का यह आराम !

 

बच्चे खुश, है छूटा स्कूल

लेकिन जिनको करना काम

ढूँढ़ रहे छाता-बरसाती

क्या पूँजीपति, क्या साम्यवादी !

 

बाहर है जितनी आवाज़

भीतर भी है छिड़ता साज़

मन भीतर बरसता है

इसमें कितनी सरसता है !

           

 

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