दूसरा
पक्ष :
(सही,गलत या अच्छा,बुरा ठहराने को नहीं, सिर्फ एक दूसरा पक्ष)
ये
अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है ?
[ संदर्भ
: अशोक वाजपेयी का लेख ‘ हिंदी समाज ने आधुनिक हिंदी
साहित्य को खारिज कर दिया है?’,‘हंस’ जुलाई
2025]
1953
में
आई हिन्दी फिल्म ‘शिकस्त’ के एक गीत की आरंभिक पंक्तियाँ कुछ ऐसी हैं
–
हम कठपुतले काठ के हमें
तू नाच नचाए
ऊँचे आसन बैठ के अपना दिल
बहलाए
तथाकथित हिन्दी समाज
और उसका मध्यवर्ग ऐसा ही कठपुतला है । जब लोगों को कुछ समझ न आए, जब ‘भारत-दुर्दशा’
पर रोने का मन हो आए , जब अपने गिरेबान में
झाँकते हुए हाड़ काँपे, तब हिन्दी समाज आपकी सेवा में हाजिर
है – “ आइए, हमारे सर पर इल्जाम डालिए और मुक्त हो जाइए!”
जब सामान्यीकरण के ‘अधसच’
होने का अंदेशा हो, तब विचार करते समय अधिक
सजगता और सावधानी अपेक्षित होती है । सामन्यीकरण व्यक्तिविशेष या समूहविशेष की
धारणाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता । जो विचार धारणाग्रस्त हो जाए उसकी मंशा
संदिग्ध हो जाती है । लेख मूल रूप से हिन्दी भाषी, हिन्दी
अंचल, हिन्दी मध्यवर्ग और हिन्दी समाज की दुर्दशा और
अकर्मण्यता से व्यथित होकर लिखा गया प्रतीत होता है । लेखक इस विचार पर चलते-चलते
रूढ़ हो गए हैं । दो वर्ष पूर्व हिंदवी के यूट्यूब चैनल पर ‘संगत’
कार्यक्रम के अन्तर्गत दिए साक्षात्कार में भी उन्होंने कहा था “हिन्दी
का पढ़ा-लिखा वर्ग अपनी मातृभाषा से विश्वासघात कर रहा है ।”
राजभाषा
अधिनियम के अन्तर्गत ग्यारह राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों को ‘क’
क्षेत्र में रखा गया है – बिहार, झारखण्ड,
हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर
प्रदेश, उत्तराखण्ड, राजस्थान, दिल्ली और अंडमान एवं निकोबार । लेखक ने भी संभवत: इन्हीं राज्यों को सम्मिलित
रूप से हिन्दी अंचल कहा है । 2011 की जनगणना के अनुसार इस ‘हिन्दी
अंचल’ की जनसंख्या 56.24 करोड़ थी । देश में हिन्दी भाषी
लोगों की संख्या की अगर बात करें, तो 2011 की जनसंख्या के
आँकड़ों के आधार पर यह 52.83 करोड़ है । इसमें हिन्दी अंचल में रहने वालों की
संख्या 48.23 करोड़ है । इसका अर्थ यह हुआ कि तकरीबन 4.60 करोड़ हिन्दी भाषी ‘हिन्दी अंचल’ के बाहर रहते हैं ।
लेखक ने बहुत उदारता के साथ पचास करोड़
से अधिक हिन्दी भाषी लोगों के आधा प्रतिशत के विषय में यह माना है कि वे “साहित्य
से लेखक-पाठक-अध्यापक-प्रकाशक-पत्रकार आदि के रूप में जुड़े हैं”। लेखक को यह भी लगता है कि “यह प्रतिशत संभवत: अन्य भारतीय भाषाओं में
साहित्य से संबंधित लोगों के प्रतिशत से, शर्मनाक ढंग से,
सबसे कम ठहरेगा” । लेखक की यह मान्यता किस आधार पर है, इसके बारे में कोई चर्चा नहीं करते । अध्यापक, प्रकाशक
और पत्रकार का वर्ग ऐसा है जो घर-खर्च के साधन अपने कर्म-क्षेत्र से जुटा सकता है
। फिलहाल हिन्दी में लेखन से जीविका नहीं चल सकती । इस पर तभी चर्चा हो सकेगी जब “
स्वयं साहित्य और लेखकों की क्या-कितनी जिम्मेदारी है” इस पर विचार किया जाएगा । एक
मनुष्य के रूप में स्वयं को जीवित रखने एवं परिवार के सदस्य के रूप में परिवार के
भरण-पोषण की जिम्मेदारी स्वत: एक नागरिक के ऊपर आ जाती है । ऐसे में साहित्य से
जुड़ाव प्रथम प्राथमिकता कैसे हो ? साहित्य से संबंधित एक
आँकाड़ा भारतीय भाषाओं में साहित्य के कारोबार पर कुछ प्रकाश डाल सकता है । भारत
में जारी किए गए आइएसबीएन नम्बरों एवं शीर्षकों की सूची isbn.gov.in वेबसाइट पर उपलब्ध है । उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार साल 2024
में (1 जनवरी से 31 दिसम्बर तक) भारत में कुल 569735 आइएसबीएन नम्बर जारी किए गए ।
इसमें अँग्रेजी की हिस्सेदारी 65.87
प्रतिशत (375332) की है । हिन्दी, उड़िया, बांग्ला,
मराठी, तमिल, मलयालम,
कन्नड़,तेलगु और गुजराती की सम्मिलित संख्या
164892 ( 28.94 प्रतिशत है) । यह स्थिति स्वतंत्रता प्राप्ति के पचहत्तर वर्षों
बाद है । हमें कारणों और इसके निदान पर सोचना चाहिए ।
लेखक का मानना है कि हिन्दी मध्यवर्ग
अपनी मातृभाषा हिन्दी से लगातार दूर होता, उसके साथ विश्वासघात करता
मध्यवर्ग है । लेखक इस बात से भी अप्रसन्न हैं कि “दो कन्नड़भाषी या दो बांग्लाभाषी,
संसार में कहीं भी मिलें, तो फौरन अपनी
मातृभाषा में बतियाने लगते हैं लेकिन हिंदीभाषी मातृभाषा में नहीं गलत अंग्रेजी
में बात करने में अपनी शान समझते हैं । हिंदी लेखकों की संख्या का शायद एक प्रतिशत
ही साहित्य लिखकर जीवनयापन कर पाया है”। लेखक को यह भी लगता है कि “हिंदीभाषी कुल
मिलाकर अपनी मातृभाषा से प्यार नहीं करते । ... अपनी अपार जनसंख्या के बावजूद
हिंदी को लेकर किसी शहर में पांच सौ लोग जमा कर पाना कठिन है” । इन बातों से लेखक
ने एक कॉकटेल बना दिया है । ‘गलत अंग्रेजी’ में बात करते हैं, इस बात की तकलीफ शायद ज्यादा है ।
हिन्दीभाषी अपनी ‘मातृभाषा’ में बात
नहीं करते, इस धारणा को उन्हें परखना चाहिए था । कुछ तो कारण
रहे होंगे । “कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ कोई बेवफ़ा
नहीं होता ।” 2011 की जनगणना में भारत की भाषाओं से संबधित आँकड़ों का संग्रहण किया
गया है। भाषा-संबंधी आँकड़ों के अध्याय में ‘मातृभाषा’
की परिभाषा इस प्रकार दी गई है – “मातृभाषा किसी व्यक्ति के
बाल्यकाल में उसकी माता द्वारा उसके साथ बोली गई भाषा है । यदि शैशवास्था में ही
व्यक्ति की माता का निधन हो गया हो, तो बाल्यकाल में व्यक्ति
के घर में मुख्य रूप से बोली जाने वाली भाषा उसकी मातृभाषा होगी ।” संविधान की
आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं की सूची में रखी गई भाषाओं को उस भाषा से
सम्बद्ध मातृभाषाओं के साथ रखा गया है एवं उस भाषा को बोलने वालों की संख्या दी गई है । हिन्दी
समूह के अन्तर्गत हिन्दी समेत पचपन से ज्यादा मातृभाषाएँ हैं । अन्य किसी भाषा
के साथ औसतन चार-पाँच मातृभाषाएँ ही हैं। हिन्दी भाषा-समूह में हिन्दी के अलावा
सोलह भाषाएँ ऐसी हैं जिनके बोलनेवालों की संख्या पच्चीस लाख से ज्यादा है । 2001
में मैथिली को अलग भाषा के रूप में मान्यता दे दी गई है, जिसके
बोलने वालों की संख्या एक करोड़ के ऊपर है । चर्चा के उद्देश्य से मैथिली को भी
हिन्दी भाषा-समूह में रख सकते हैं । जब हम हिन्दीभाषियों के मातृभाषा-प्रेम पर
टिप्पणी करना चाहें तो हमें यह भी देख लेना चाहिए कि कहीं वे भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, बुंदेलखण्डी
आदि भाषाओं में बात करने वाले तो नहीं हैं । गैर-हिन्दीभाषी राज्यों की तुलना में
‘हिन्दी अंचल’
के लोगों की मातृभाषा उनके नाम के आधार पर निश्चित कर पाना संभवत:
कठिन है । इसीलिए प्रथम परिचय की भाषा, टूटी-फूटी ही सही, अँग्रेजी हो जाती है । हिन्दी क्यों नहीं, अँग्रेजी
क्यों , यह एक अलग बहस हो सकती है । लेकिन मातृभाषा से प्रेम
नहीं होने का आरोप उचित नहीं । यहाँ यह पूछ लिया जाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि
हिन्दी के कितने लिखकों की मातृभाषा हिन्दी है? और जब वे
अपने करीबी लोगों के बीच होते हैं तो किस भाषा का प्रयोग करते हैं ? जिस हिन्दी अंचल में हिन्दी को लेकर किसी शहर में पाँच सौ लोगों के भी
जमा नहीं हो पाने की व्यथा को लेखक गले का हार बना चुके हैं, उसी हिन्दी अंचल में विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली,
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और पटना पुस्तक-मेले जैसे सफल आयोजन होते
हैं । इस सूची में ‘हिन्दवी’ के आयोजन, ‘जागरण संवादी’ और ‘राजकमल किताब उत्सव’-जैसे आयोजनों को भी जोड़ा जा
सकता है ।
जिस तरह कविता की सर्वमान्य परिभाषा
नहीं हो सकती,
‘मध्य वर्ग’ को भी परिभाषित कर पाना आसान नहीं
है । मध्य वर्ग को मोटे तौर उस समाज, उस देश के औसत के रूप
में देख सकते हैं । देश के एक औसत व्यक्ति की हैसियत के रूप में । ‘पीपल रिसर्च ऑन इण्डियाज़ कन्ज़्यूमर इकॉनमी( PRICE)’ संस्था ने 2023 में एक सर्वे किया । अपनी रिपोर्ट में
उन्होंने 2020-21 के मूल्यों पर भारत में सालाना पाँच लाख से तीस लाख रूपये की आय
वाले लोगों को मध्य वर्ग कहा है । वार्षिक आय के आधार पर उन्होंने चार श्रेणियाँ
बनाई हैं – १. विपन्न ( Destitutes) – इस श्रेणी में
वे लोग हैं,
जिनकी वार्षिक आय एक लाख पच्चीस हजार रूपये से कम है । इनकी संख्या
19.6 करोड़ है । २. महत्त्वाकांक्षी ( Aspirers) – जिनकी वार्षिक आय सवा लाख से पाँच लाख रुपये तक है । इसमें
73.2 करोड़ लोग हैं । ३. मध्य वर्ग ( Middle Class) –
जिनकी
आय पाँच लाख से तीस लाख रुपये सालाना है । इसके अन्तर्गत 43.2 करोड लोग हैं । ४.
धनी वर्ग ( Rich) – जिनकी वार्षिक आय तीस लाख रुपये से ज्यादा है ।
इसमें 5.6 करोड़ लोग हैं । मध्य वर्ग को आगे दो उपश्रेणियों में बाँटा गया है – ‘खोजी’ ( Seekers) और ‘प्रतिस्पर्धी’ (Strivers) | ‘खोजी’ श्रेणी
में पाँच लाख से पन्द्रह लाख सालाना आय वाले तथा ‘प्रतिस्पर्धी’ श्रेणी में पन्द्रह से तीस लाख सालाना आय वाले लोगों को रखा गया है । ‘खोजी’ श्रेणी में लगभग 36.70 तथा ‘प्रतिस्पर्धी’ श्रेणी में लगभग 6.50 करोड़ लोग हैं । इसी
रिपोर्ट के एक विश्लेषण में बताया गया है कि ‘विपन्न’
श्रेणी के 81%, ‘महत्त्वाकांक्षी’ के 68%, ‘खोजी’ के 58% एवं ‘प्रतिस्पर्धी’ श्रेणी के 54% लोग भारत के पूर्वी,
मध्य और उत्तरी भागों में रहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि इन भागों
में लगभग 84 करोड लोग ऐसे रहते हैं जिनकी वार्षिक आय पन्द्रह लाख रुपये से कम है
। इसमें करीब 71 करोड़ लोगों की वार्षिक आमदनी पाँच लाख रुपये और उससे कम की है । हिन्दी
अंचल का भौगोलिक विस्तार इसी क्षेत्र में है । जो जीने की जद्दो-जहद में पड़ा है,
उससे हम साहित्य से विमुखता का रोना रो रहे हैं ।
अभी हाल में हिन्दी अंचल के ही एक
राज्य के एक आला अधिकारी ने राज्य में बढ़ते हुए अपराध को लेकर किसानों के प्रति एक
अपमानजनक बयान दिया कि “ अप्रैल-मई के महीने में वर्षों से ज्यादा मर्डर होते आए
हैं । जब तक बरसात नहीं होती है, यह सिलसिला जारी रहता है क्योंकि ज्यादातर
किसानों के पास कोई काम नहीं रहता है । बरसात हो जाने के बाद किसान समाज के लोग
व्यस्त हो जाते हैं” । प्रस्तुत लेख में इससे कम अपमानजनक बात नहीं कही गई है ।
लेखक ने लिखा है “ भारत में इन दिनों हर वर्ष जो जघन्य अपराध, बच्चों-स्त्रियों-मुसलमानों-दलितों-आदिवासियों के विरुद्ध,हिंसा-हत्या-बलात्कार आदि के होते हैं, उनका दो
तिहाई हिंदी अंचल में होता है ।” अपने इस आकलन के लिए भी लेखक कोई आधार नहीं बताते
। राष्ट्रीय स्तर की एक संस्था है एनसीआरबी ( नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो) । अपनी
वेबसाइट पर इस संस्था ने देश में हुए अपराधों के आँकड़े प्रकाशित किए हैं । संस्था ने अपराधों का विभिन्न वर्गों में विभाजन
किया है । इन विभागों में मुसलमानों के प्रति किए गए अपराधों का कोई वर्ग नहीं है,
बल्कि धर्म/ सम्प्रदाय के आधार पर ही वर्गीकरण नहीं किया गया है । 2022
में बच्चों, स्त्रियों,एससी और एसटी के
विरुद्ध देश भर में कुल 675351 मामले हुए, जिसमें हिन्दी
अंचल के राज्यों में 346005 यानी 51.23% ।
इसका अर्थ यह हुआ कि गैर-हिन्दीभाषी राज्यों में लगभग उतने ही ( 49%) मामले हुए । कई बार हम अपनी ‘पर्सेप्शन’ के आधार पर ‘जजमेंटल’
होने लगते हैं । देश में बड़े-बड़े वित्तीय घोटाले हुए, बैंकों को चूना लगाकर उद्योगपति देश से भाग गए, ‘ऑर्गनाइज्ड
क्राइम’ का करोबार चलता है – क्या यह सब हिन्दी अंचल से ‘ऑपरेट’ हो रहा है ? 2022 में
आर्थिक अपराधों और भ्रष्टाचार के 197524 मामले दर्ज हुए, जिसमें
85788 यानी 43.43% मामले हिन्दी अंचल में हुए । यानी शेष
57% गैर-हिन्दीभाषी राज्यों में । इन
आँकड़ों का मकसद किसी को सही या गलत साबित करना नहीं है । मकसद सिर्फ यह है कि
अपराध अगर हुए हैं, समस्या अगर है तो कारणों और उसके निदान
पर विचार किया जाए । हिन्दी अंचल में, या मध्य वर्ग में
होना कारण नहीं है । यह सिर्फ लक्षण है, बीमारी नहीं । बुखार
तकलीफ देता है, लेकिन उसका सही निदान उस बीमारी को ठीक करने
में है, जिसके कारण बुखार हुआ है । यह तो हम सभी जानते हैं
कि हिन्दी अंचल के अधिकांश राज्यों को एक समय ‘बीमारु’
राज्य की संज्ञा दी गई थी ( BIMARU
– Bihar, Madhya Pradesh, Rajasthan, Uttar Pradesh) । तब झारखण्ड, उत्तराखण्ड
और छतीसगढ़ का गठन नहीं हुआ था । आज भी हिन्दी अंचल के राज्यों, खास तौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश से रोजगार के अवसरों के लिए जो पलायन
होता है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? लेख
में बार-बार हिन्दी समाज को घृणा-हिंसा-हत्या-झूठ-बलात्कार-अन्याय-अत्याचार से
प्रेरित कहा गया है । संभवत: लेखक प्रकारांतर से कुछ और कहना चाह रहे हैं, लेकिन हिन्दी अंचल की सधी हुई राजनीतिक समझ को देखते हुए सीधे तौर पर
नहीं कहते । एक हुई साहित्य की बात, एक साहित्य की राजनीति
की बात और एक विशुद्ध राजनीति की बात । तीनों का घालमेल तो न किया जाए ।
लेख में हिन्दी में शिक्षा के स्तर, ज्ञान-विज्ञान
की शाखाओं में हिन्दी के नगण्य योगदान, हिन्दी
अध्ययन-अध्यापन के गिरते स्तर और इलाहाबाद, पटना, बनारस जैसे विभागों की शिथिलता पर चिंता प्रकट की गई है । पहली बात तो यह
कि देश में ऐसा कौन-सा क्षेत्र, ऐसी कौन-सी संस्था है जिसका
पिछले अठहत्तर वर्षों में क्षरण नहीं हुआ है? क्या भारत का ‘स्टील फ्रेम’ कही जाने वाली संस्था, ‘आइएएस’ का स्टील उतना ही मजबूत बचा रह सका है ?
संस्थाओं को बचाने और चलाने की जिम्मेदारी किसकी होती है? मध्य वर्ग सेवक है, शासक नहीं, यह याद रहे । रामचरितमानस का दोहा है –
सचिव बैद गुर तीनि जौं
प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म
तन तीनि कर होइ
बेगिहिं नास ॥
आज राजा और सचिव कौन
हैं , बताने की जरूरत नहीं । जब विधायिका और कार्यपालिका ही अपने धर्म से विमुख
हो जाए तो सारा भार मध्य वर्ग पर देना कितना उचित है ? लेखक
बेरोजगारी-बेकारी, विकास, शिक्षा के
गिरते स्तर, चरमराती व्यवस्था आदि बहुत-सी चीजों को लेकर
व्यथित हैं । चूँकि लेख में निशाने पर हिन्दी अंचल का मध्य वर्ग है तो यह भी उसी
क्रम में बोली गई बात है । जो पीड़ित है, उसे ही अपराधी करार
दिया जा रहा है । लेखक को लगता है कि राज लगातार समाज को अपदस्थ किए जा रहा है ।
उन्हें इसका कारण भी पता होगा । दरअसल, आजादी के बाद से अबतक
के कालखंड के नेताओं और प्रशासकों की भूमिका की समीक्षा होनी चाहिए । घोषित तौर पर
उनका काम जनता की सेवा था, लेकिन क्या ऐसा हो पाया?
सरकस के हाथी को बचपन से ही तैयार
किया जाता है । शुरू-शुरू में लोहे की जंजीर से उसे बाँधते हैं । कुछ सालों में वह
बंधन का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि पतली रस्सी को भी नहीं तोड़ पाता । हिन्दी
अंचल के मध्य वर्ग को सर्कस का हाथी बना दिया गया है । उसे सहने की आदत पड़ चुकी है
। उसके सर पर जिम्मेदारियों, महत्त्वाकांक्षाओं और लालसाओं का इतना भार
डाल दिया गया है कि बस वह कोल्हू के बैल-सा चलता चला जा रहा है । परिवार, समाज, देश – इन सबसे कटता जा रहा है । ऐसे में विरोध
की बात कितनी हो पाएगी !
2011 की जनगणना के अनुसार देश में
96.62 करोड़ हिन्दू हैं,
जिनमें स्त्रियों की संख्या 46.79 करोड़ है । हिन्दी अंचल के लिए ये
संख्याएँ क्रमश: 46.93 करोड़ और 22.46 करोड़ हैं । लेखक की चिंता है कि हिन्दी अंचल
की अधिकांश स्त्रियाँ पौरुष दबंगई प्रस्तावित और पुष्ट करने वाले हिंदुत्व का
समर्थन कर रही हैं । दलितों के विषय में लेखक लिखते हैं कि दलितों का एक बड़ा वर्ग
सवर्णता के वर्चस्व से निकले और उनके समर्थक हिंदुत्व के पाले में चला गया है । लेखक
ने बिना कहे हिन्दी अंचल की स्त्रियों और दलितों की समझदारी, उनकी काबिलियत, उनके स्वाभिमान और उनके जीवन के
उद्देश्य को कटघरे में खड़ा कर दिया है । देश के 96 करोड़ ( यह संख्या अब और भी
ज्यादा होगी) हिंदुओं का कितना प्रतिशत पौरुष दबंगई प्रस्तावित और पुष्ट करने वाले
हिंदुत्व का है ? किसी राजनीतिक दल के समर्थन के पीछे कार्य
कर रही शक्तियाँ मूलत: समर्थन करने वालों के स्व-हित से जुड़ी होती हैं । किसी
नौकरी की उम्मीद, किसी ठेके की निविदा, किसी समिति की सदस्यता-अध्यक्षता, किसी कॉलेज में
एडमिशन – इस तरह के बहुत से लोभ-लाभ
समर्थन का कारण हो सकते हैं । एक कारण यह भी रहा है कि आजादी के बाद बहुत
वर्षों तक ‘सेक्युलर’ दिखने के चक्कर
में अपनी निजी व धार्मिक आस्थाओं को प्रकट करते भी लोग हिचकते थे । अब उसका उलट हो
रहा है । ‘अति’ पर उतारू होने वालों का
प्रतिशत हिन्दी अंचल के मध्य वर्ग में नगण्य है । मध्य वर्ग एक भीरु, भोला और उम्मीदों से भरा हुआ और लगभग निस्सहाय-सा वर्ग है । उसे जब जिसने ‘लीड’ किया , वह उस ओर चल पड़ा ।
उसे जहाँ अवसर दिखे, उसने कोशिश की ।
साहित्य समाज का दर्पण है, राजनीति
की मशाल है । ये उक्तियाँ शायद सद्इच्छा ज्यादा हैं और वास्तविकता से दूर हैं । सत्ता,
शक्ति और पैसा – आज के नियामक यही हैं । हिन्दी समाज लोकतंत्र में
अधिनायकता और उसके अवमूल्यन में भागीदार नहीं है । स्थिति इसके विपरीत है । हिन्दी
समाज ने अधिनायक नहीं, हमेशा अपने ‘हीरो’
तलाशने की कोशिश की है,और बार-बार उसकी
आकांक्षाओं का फायदा उठाया गया है । हिन्दी समाज बार-बार छला गया है ।
बांग्ला में रवीन्द्रनाथ के गीत और
रवीन्द्र-संगीत लगभग हर घर में घर चुके हैं । हिन्दी में तुलसी हो सकते थे, नहीं
हुए । हिन्दी अंचल की वर्तमान अवनति और अध:पतन का कारण इस दौरान वर्तमान हिंदी का
उदय,उभार और विस्तार है – यह एक ‘स्वीपिंग
स्टेटमेंट’ है । इन बातों पर चर्चा बिना हिन्दी के लेखक और
साहित्य को बीच में लाए पूरी नहीं हो सकती । उस पर विस्तृत विचार लेखक फिर कभी
करेंगे । फिर कभी ही सही ।
“ इतिहास में ऐसे उदाहरण बहुत कम
मिलेंगे जब एक समाज ने अपने ही साहित्य को इस तरह अस्वीकार किया हो।” ऐसे भी
उदाहरण बहुत कम मिलेंगे जब सत्ता, शासन और समाज ने समाज के किसी वर्ग ( मध्य
वर्ग) को गिनती से ज्यादा कुछ माना ही नहीं हो !
“ जला है जिस्म जहाँ दिल
भी जल गया होगा
कुरेदते
हो जो अब राख
जुस्तजू क्या है
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है”
इति इत्यलम् ।
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