विसंवादी
बान्द्रा वेस्ट :
चौदह अप्रैल दो हजार बीस
घर जाना है, घर जाना है
साहब
हमको घर जाना
है !
तुमको
खाली समझाना है
देखो साहब, घर जाना है
खोज-खबर लेने से
क्या है
माना
वाजिब सब चिंता
है
एक बार बस घर
जाना है
घर पर चाहे मर
जाना है !
साहब
देखो तुमको क्या
है
हमको
देखो कैसा क्या
है
तुम खबरों से विचलित, हमको
बस खबरों
में भर
जाना है
अब हम खतरा, हम मुश्किल हैं
रोते
चुपचुप दिल ही दिल हैं
हम ना होंगे, तब देखेंगे
किसने
क्या-क्या कर पाना है
हम क्या समझें, हम क्या जानें
हम क्या देखें, हम क्या मानें
तिल-तिल कर
मरने से अच्छा
एक बार में
मर जाना है !
धूल पड़ा हो, बैठा हो तन
महल कि गलियाँ, बन या उपबन
जो भी फूल खिला जीवन का
उसको
आखिर झड़ जाना
है
घर में बैठे
जब कहते हैं
थोड़ा-सा
तो सब सहते हैं
क्या
बतलाएँ क्या लगता है
अब कितना सह कर जाना है !
हमको
तुमसे बैर नहीं
है
अपना कोई, खैर, नहीं है
जंग
अकेले ही लड़नी
है
और नहीं अब
भरमाना है
रोजी-रोटी
और भला क्या
किस्मत
ने है ऐसा पटका
तंगी कर देती है क्या-क्या
यह जीते-जी मर जाना है !
हमने कितना दाम लिया है
तुमने कितना नाम लिया है
नाम लिया बदनाम किया है
यहाँ नहीं फिर कर आना है
तुम आगे हम पीछे होंगे
तुम ऊँचे हम नीचे होंगे
जिसके हिस्से जितना होगा
उसको उतना भर पाना है
किसके आगे रोएँ जाकर
पाप कहाँ अब धोएँ जाकर
सारे आँसू सूख चुके हैं
अब तो बस हँस कर जाना है
अपने में धँस कर जाना है
मुट्ठी को कस कर जाना है
जाना है बस अब जाना है
बस बेबस हैं, अब जाना है
देखो साहब, घर जाना है
साहब हमको घर जाना है
घर जाना है, घर जाना है
घर जाना है, घर जाना है !! १७.०४.२०२०
आईना
रहने नहीं देंगे
जाने नहीं देंगे
लेने नहीं देंगे
लाने नहीं देंगे
गुलामी किसको कहते हैं
भला कोई तो बतलाओ
कोई तो आईना लाओ
बड़े साहब को दिखलाओ
कि किसने दुख को बाँटा है
महीनों पेट काटा है
कि घर जाना जरूरी है
समय मुश्किल से काटा है
तुम खिचड़ी पकाते हो
जनता को छकाते हो
डराते हो, सताते हो
उम्मीदों को थकाते हो
चंद जेबें तुम्हारी हैं
दिनो-दिन होनी भारी हैं
हमारे हाथ मुँह को हैं
दिन भी दिन पर भारी हैं
इन्सान नहीं सामान ही हैं
जिंदा एक फरमान ही
हैं
जबड़े जो
भींचे रहते हैं
दबे हुए
अरमान ही हैं
क्या भला समझाओगे
बातें भी कितनी बनाओगे
समझा के भला क्या पाओगे
नजरों में गिरते जाओगे ०७.०५.२०२०
सब्र करो
ये किन गुनाहों की
सज़ा दी गई उन्हें ?
क्या उनका कसूर ये था
कि वो घरों से दूर थे
क्या उनका कसूर ये था
कि वो लौटने को मजबूर थे
या उनका कसूर ये था
कि वो मजदूर थे !
ये किन गुनाहों की
सज़ा दी गई उन्हें ?
रोटी-रोज़ी के मसले हैं
ये मसले कोई कम तो नहीं
ये मसले कोई क्या कम थे
जो हालात बिगड़ते जाते हैं ?
सवाल करे भी तो क्या ?
सवाल करे भी तो किससे ?
सवाल करे भी तो कौन ?
एक ढोल उठाया जाता है
और खूब पीटा जाता है
कुछ नाम उठाए जाते हैं
और खूब घसीटा जाता है
दिशा-दिशा से जैसे फिर
बंदूक निकाली जाती है
इसके-उसके-सबके
सर पे तानी जाती है
कहने-सुनने-समझने वाले
फिर सबको समझाने वाले
हालात पे काबू पाने वाले
अंधेरे में हैं सब के सब, बस
तुक्कों के तीर हैं चल रहे
मैं सोचने बैठा हूँ देखो
मैं कितना ऐंठा हूँ देखो
घर में आटा- चावल है
लौकी भिंडी परवल है
बिजली-बत्ती-पानी है
मैं न्यूज़ चलाए बैठा हूँ
जीना मरना दोनों मुश्किल
बढ़ना रुकना दोनों मुश्किल
बर्दाश्त की कोई हद होगी
उस हद से गुजरना अब मुश्किल
मरने से अच्छा जीना है
रुकने से अच्छा चलना है
सब जानते हैं सबकी खातिर
कुछ करते रहना अच्छा है
जो जैसा है उससे बेहतर
थोड़ा चाहे कम कर कर
तुम भी जी लो
हम भी जी लें
वो भी जी लें
हम सब जी लें...
समय है, गुजर जाएगा
गुजर जाने दो ०९.०५.२०२०
साहब, कहिए कैसे हैं
हम तो जैसे-तैसे
हैं
इत्र की शीशी
आप रहें
हम तो फाहे
जैसे हैं
घर
कैसे हम पहुँचेंगे
बस
थोड़े-से पैसे हैं
जान लगा के खटते हैं
तब
मिलते कुछ पैसे हैं
घर भी हमको भूल गया
बाहर, बाहर-जैसे हैं
ऐसा है, यदि हम ना हों
कौन
हमारे जैसे हैं ०७.०५.२०२०
हर
बात पे मुट्ठी बंद है
हर
बात पे ताली
है
हर
बात पे ताना
है
हर
बात पे गाली
है
दुनिया बड़ी
खाली है
वही
दानी दिखना है
वही
झोली खाली है
कहीं सूखे-सूखे
है
कहीं चीनी है, छाली है
जो
उलट के बोला है
वही
शख्स बवाली है
ऐसा
भी तबका है
पढ़-लिख के मवाली है
मुद्दों की
चटनी है
वादों की
जुगाली है
किस बात को सच मानें
हर
बात ही जाली
है १७.११.२०१९
फितरतन
वो
कुछ नहीं करते हैं
बढ़-बढ़ जो
करते हैं
वो
मुफ्त में मरते हैं
हम नियम से चलते हैं
और
खाली डरते हैं
वो
हमको चराते हैं
और
हम भी चरते हैं
कहीं तन के
करते हैं
कहीं झुक के करते हैं
यहाँ कैसी मजलिस है
सभी
हामी भरते हैं
रातो-दिन आठों पहर
सुख-चैन को हरते हैं नवम्बर
२०१९
मौका
दो
साहब करनी है
सेवा,
मौका दो
हमको पाना
है मेवा, मौका दो
अच्छे - बुरे हर
हाल में
एक
हम हैं नामलेवा , मौका दो
उल्टा - सीधा जो
करना तुम
हम कर देंगे वा’ रे वा’ , मौका दो
किसी का
पत्ता काट के
या
मुँह से छीन कलेवा, मौका दो
सुख-सत्ता की
ये आदत
हो
गई है जानलेवा, मौका दो
नुस्खा
जीना है
तो नट बन जाओ
आगा-पीछा कुछ मत सोचो
वो राजा, तुम भट बन जाओ
जितना जैसा
भी वो चाहें
उतना वैसा
कट बन जाओ
नेता ही
बनना है तुमको
थोड़े जुमले
रट बन जाओ
साफ-सफाई कहते- कहते
चाहो
तो तलछट बन जाओ २०१९
दस्तूर
जैसा चेहरा
वैसा दाम
पहुँच-पैरवी
से बने काम
किसने किससे
कहलाया है
किसको
याद है किसका नाम
कुछ खटते-खटते
मरते हैं
किसी
को है दिन भर आराम
दुनिया
दौड़ है जीतने की
और
है हारे को हरिनाम
आगे बैठे
तो चर्चित हैं
पीछे
रह गए तो गुमनाम
उनका
मन उनका सिद्धांत
खाली
बचावें अपना चाम
राजा जी
हैं रहें ठाठ से
टहल
में जनता आठों याम
प्रेम
तो इतना अंधा है कि
चाहे
कुछ हो रटे है नाम
जो उनको खुश करना है तो
बस
मुँह बंद कर करिए काम
वो तेरी
काहे सोचेंगे
वो
दक्षिण हैं और तू वाम
सच
सुनने की ताब कहाँ है
झूठ
है सुबह झूठ है शाम २३.०५.२०२१
आस-पास
पढ़े-
लिखों को करते देखा
जहर
दिलों में भरते देखा
पूछ
झूठ की होती देखी
सच
आँखों में गड़ते देखा
बेमतलब
की बातों पर ही
सबको
सबसे लड़ते देखा
नाते-रिश्तों
के फूलों को
पड़े-पड़े
ही सड़ते देखा
सारे
अच्छे सपनों को तो
सूख-सूख
के झड़ते देखा
बड़ों
की जिद पर धारे मौन
इक
बच्चे से अड़ते देखा
सुख-सुविधा
पद औ'
पैसे
को
सब
ऐबों को हरते देखा
अब
तो अच्छे लोगों को, चुप,
घुट
कर रहते,
डरते
देखा
जो
भी हमने किया हुलस के
उनको
वही अखरते देखा
जो
बात बड़ी बे-मानी थी
उसी
के पीछे पड़ते देखा
अहंकार
की बोली देखी
उनको
खूब अकड़ते देखा
सारी
विद्या और बुद्धि को
घास
अहं की चरते देखा
जो
ना उनकी ही दौलत थी
उसपर
उन्हें झगड़ते देखा
उसको
तो मतलब ही क्या था
बेचारे
को मरते देखा ०८.०७.२०२२
मुनादी
बेखौफ सियासी हित साधो
वोटर
तो
मिट्टी
के माधो
जिसको चाहो उसको ला कर
जनता के माथे पर लादो
तुम जो चाहो बोलो- बालो
बाकी मुँह ताले लगवा दो
सुंदर
सारे
कँवल
तुम्हारे
अपना सबकुछ कीचड़-कादो
मन के सारे महल ढहा के
बाहर भवन नए बनवा दो
ढोल पुराना पीट रहे हो
थोड़ा-सा अब तो कसवा दो
आँखें सबकुछ देख रही हैं
सर चाहे जबरन झुकवा दो
सच की किसको यहाँ पड़ी है
जिसको जो चाहे दिखला दो
बड़े- बड़े
भी उड़ जाते हैं
बस कोई अफवाह उड़ा दो
कुनबा तिनके जोड़ रहा है
कौन बनेगा क्या बतला दो
पुरखों ने जो कुछ सिरजा है
तुम सब तोड़ो सब मिटवा दो
चोर- चोर
मौसेरे
भाई
कथन कभी तो यह झुठला दो
कहें मियाँ अपने मुँह मिट्ठू
अब थोड़ा हमको पुजवा दो
घड़ियाली
आँसू कहते हैं --
मेरे
नैना
सावन - भादो !
हत्यारों
को
गले
लगाओ
मजलूमों
के सर कटवा दो
कोई
पूछे
इससे
पहले
मुद्दे
से बस बरगलवा दो
अधम निलज्ज नीच -- सब जानें
फिर भी तुम उनको जितवा दो २५.०४.२०२३
प्रहसन
आओ
भाई
रेला
देखो
क्या
होता
है
खेला
देखो
पढ़
के लिख के क्या होगा जी
को है किसका चेला
देखो
!
सबके
हाथे
ढेला
देखो
झुठ्ठो
गरब-
गहेला
देखो
दुनिया
का पहला लोकतंत्र
अब
'लोकतंत्र
केला'
देखो
!
जात-
जात
का
ठेला
देखो
सजा हुआ
है
भेला
देखो
गुड़
जात का,
जात
की मक्खी
कैसा
है
रँगरेला
देखो !
कीचड़-
कादो
है
तो
है
जी
चलनी
है
सबकी मनमरजी
पंकिल-
पंकिल
भीतर-
बाहर
को
ना इसमें
हेला
देखो
!
लोहिया
का
अनुयायी, कहीं
जयप्रकाश
का
चेला
देखो
पेरोल
और
इतना
स्वागत
!
जैसे
है
'मंडेला'
देखो !!
जनता के दुख की सीमा है !
हर असर बहुत ही धीमा है !
जनता
जैसे
है
घास-
पात
कीमत उसकी धेला,
देखो
!
सहता
है
सहता
जाता है
सहने
का
जश्न
मनाता है
हर
एक गले में
पट्टा
है
हर
आदमी
घरेला
देखो
!
असामान्य
न
कोई गलत व्यवहार
कहीं
कुछ भी तो नहीं है !
हो
चुका इतना सुधार
अब
करने को सरकार
कहीं
कुछ भी तो नहीं है !
शर्म
तार-तार
नहीं
कोई शर्मसार
कहीं
कुछ भी तो नहीं है ! २०२०
पद
के कद से कद बढ़े, पद छूटे घट जाय
पद
ही असली गोंद है, पद से सब सट जाय
तरह
तरह के लोग हैं,
तरह
तरह की बात
भार
जेब का देख के,
तय
करते औकात
ऐसे
भी कुछ लोग हैं,
ताने
फिरते सींग
धेला
भर जानें नहीं,
हाँके
फिरते डींग
कुरसी
पर आसीन हैं,
समझें
खुद को लाट
उत्तर
देना है नहीं, उनके तो
हैं ठाट
हाल
सभी का एक है,
हों
बाकी दो-चार
भाषण
पर मत जाइए,
सब
हैं रँगे सियार
मालिक
मेरा है भला,
बस
इतना करवाय
उसी
के चाहे रँग में, हर चादर रँगवाय
मालिक
मेरा है खफा,
फूले
उसके गाल
उसके चश्मे से
दिखे, टेढ़ी मेरी चाल
बस
कुरसी छूटे नहीं, सबकुछ सकते छोड़
नये
घाट गठ जोड़ के, रहे पुराने तोड़
जाने
कैसी दौड़ है,
जाने
कैसी होड़
रोज
शगूफे छोड़ते,
रोज
रहे बम फोड़
सीता
का दुख देखिए,
भले
पुजावे नाम
उनको
रावण दिक करे,
उनको
छोड़ें राम
जनता
भी तो क्या करे,
कहाँ
लगावे दाँव
कौवा
कोयल बन रहा,
कोयल
बोले काँव
अलटी-पलटी
वो करें,
उनके
घर का खेल
कभी
तो मारें जूते,
कभी
लगावें तेल
क्या
देखें हम तेल को, क्या ही उसकी धार
सत्ता-लोलुप
लोग हैं,
चुआ
रहे हैं लार
घर
का मुखिया कौन हो, किसकी हो सरकार
जब
नारी हो नाम को,
भरती
के भरतार
सेवा-सेवा
कर रहे ,
मतलब
है सुख- भोग
सत्ता
का सुख देखिए,
बन
जाता है रोग
जोड़-
तोड़ का घात है,इसमें क्या
संजोग
वही
पुराना दाँव है,
वही
पुराने लोग
बैठे
हैं सब ताक में,
करने
लूट- खसोट
जनता
खाली हाथ है,
देकर
अपना वोट
हासिल
सबका एक है,
चाहे
कुछ हो नाम
जनता
लोकतंत्र में,
बस
गिनती के काम
पकड़ा
थानेदार ने,
दिखा
है दालमोठ
जेबें
हैं जो भर रहीं,
सिले
हुए हैं होठ
धरम-धरम
की बात है,
या
फिर सबकी जात
ये
ही उनकी जीत है,
ये
ही अपनी मात
सत्ता
ऐसा खेल है,
क्या
समझे हैं आप
अरे
आदमी छोड़िए,
कहें
गधे को बाप
नहीं
किसी के हैं सगे, नहीं किसी के गैर
कभी
दुलत्ती मार दें, कभी छुआवें
पैर
नोट्स
हासिल हो गए, पूछे कौन किताब
कॉलेजों
में खिल रहे,
बस
कागजी गुलाब
ईमान
की खातिर अब,
काहे
करें बिगाड़
दे
दें वाजिब दाम तो, हर चीज़ का जुगाड़
अपनी
अपनी भक्ति है,
अपना
अपना तौर
देखा चाहे
हैं सभी, अपने
माथे मौर
अच्छे
दिन इक ख्वाब हैं, है माया संसार
पल
के बाहर कुछ नहीं,सब बातों का सार २०२२
चल
रे मंगरू
देखो, हो चुका
आराम
बहुत है
चल
रे मंगरू
काम
बहुत है
उनका
घर है
वो
सरवर हैं
बचा
सको जो
चाम, बहुत है
गत
है तुम्हारी
खटना
बेगारी
कुछ
मिलता है
दाम, बहुत है
तू
दाँत निपोरे
है
करे निहोरे
लेते
हैं वे
नाम, बहुत है
है
छुरी कटारी
सब
है तैयारी
मुँह
में रखते
राम, बहुत है
हैं
तेरे दिन
सूखे, भिन-भिन
उनकी
रंगीं
शाम
बहुत है ०७.११.२०२१
मंगरू
खाली बैठा है
मंगरू
खाली बैठा है
मंगरू
मंगरू, चल उठ जा
खाली
बैठा रहता है
चल, थोड़ा तू चल के
आ
मन
को किसने देखा है
मन
क्या है? मन को समझा !
अपनी
आँखें मूँदीं रख
चढ़ा
रहे चश्मा उनका
कौन
सुने पीड़ा किसकी
कौन
करे किससे साझा
किसने
किसको क्या माना !
किसने
किसको क्या समझा !
सजी
रहे बिजली-बत्ती
बजा
रहे गाजा-बाजा
रस्ता
बाहर का दिखला
फिर
कहते हैं,
फिर
आजा
जो
है जितना ही अपना
तेज
रखे उतना माँझा
सबके
सारे काम हुए
खाके
अब तू भी सो जा २७.०२.२०२२
इंतजार
कोई शब तो आखरी शब होगी
लेकिन वो जाने कब होगी
जब चैन पड़ेगा आकाओं को
जब हवस मिटेगी आकाओं की
जब छीना-झपटी रोकेंगे
जब नियम-वियम को टोकेंगे
जब हम खुल के जी पाएँगे
जब धौंस छँटेगी आकाओं की
जब जी-हुजूरी छोड़ेंगे
जब सुख की रोटी तोड़ेंगे
जब अपने मालिक हो जाएँगे
जब गरज हटेगी आकाओं की
अपने मुँह में बोली आएगी
जब आँख खोली जाएगी
वो कहने के पहले सोचेंगे
जब सनक मिटेगी आकाओं की
भाई जिसको मछली खिलाई
जिसका खूब किया सत्कार
कुर्सी पर जाते ही उसने
किया पहचानने से इनकार
!
मोटी-मोटी चमड़ी जिनकी
सूख गई है शर्म आँख की
मैं जूती हूँ उनके पैर की
जैसे वो मेरे भरतार !
सरकारी खर्चे पर घूमे
तलवे चाटे, तलवे चूमे
खाना भी खाए सरकारी
वाह मेरे करतार !
बस हुक्म देते हैं बजा
ना देखें कुछ बेजा-बजा
अपना उल्लू सीधा होवे
इनकी इतनी ही दरकार
जो बोलेगा बागी होगा
चुप रहने पर दागी होगा
चित भी उनकी पट भी उनकी
उनकी है सरकार
तुम भी घोषित हो जाओ
दक्षिण हो या वाम
साधो,
साधो अपने काम
जो कल था,आज नहीं है
वो कल नहीं रहेगा
किसी को ज़रा भी कुछ
नहीं रहेगा याद
जहाँ चाहो वहीं लिखाओ
जाकर अपना नाम
साधो,
साधो अपने काम
इतना उछलो दिखो दूर से
उतरे हो जैसे
कोहे-तूर से
एक कर दो सुबहो-शाम
साधो,
साधो अपने काम
खुश करने का मौका है
सबको करो सलाम
इनको भी परनाम
उनको भी परनाम
साधो,
साधो अपने काम
सब हिसाब चुक जाएगा
बंद होने को बही है
कौन जानता है यहाँ
क्या है जो सही है
जितना ज्यादा हो सके
अपना
कर लो इंतजाम
साधो,
साधो अपने काम
सारे मुद्दे , वफादारियाँ
तारीफें और तरफदारियाँ
सभी यहाँ मिल जाते हैं
जो सही चुकाओ दाम
देखो
समझो
सीखो
साधो,
साधो अपने काम
सुविधाएँ सब,सारे साधन
नियम भी पूरे,पूरा सिस्टम
भोग करो,उपभोग करो
कर लो अपने नाम
पर
मुँह से दिखो निष्काम
साधो !
साधो अपने काम ०२.०३.२०१९
ज्ञातव्य
हमने
जिन्हें
माना
बड़ा
हमने
जिन्हें
माना
भला
उधड़े
हुए धागे मिले
हमको
तो उन किरदारों के १९.०२.२०२२
किताबें दीं
यूनिफॉर्म दिए
खाना दिया
एवज में
खेमे गाड़ दिए
हथिया लिए
क्लास रूम सब
जब-न-तब !
हिसाब बराबर ! २०१९
वो
आए
वो
बैठे
उन्होंने
बातें कीं
उन्होंने
मशवरा किया
उन्होंने
चाय पी
उन्होंने
शुक्रिया किया
और
वो
शुरु से
आखिर तक
साहब रहे
पूरे, खालिस साहब ! २०१५
एक
गुत्थी है –
लोक सेवा के हितार्थ
राज के
नौकर हुए लोग
प्रशासक, शासक
कैसे बन जाते हैं
जन और गण के
होते हुए भी
उनसे तन कैसे जाते हैं
दर्शन
विरोधाभासों से
भरा पड़ा है, माना
कभी उल्टा भी तो हो ! २०१५
मणिक
बड़े
मशीनी से लगे
आपके
हाव-भाव
अभिवादन में
जुड़े हुए हाथ
अधरों पर
तिरी हुई मुस्कान
और बातें
सादर समर्पित-सी
बार- बार
मिलता हूँ
तो
ताड़ गया हूँ
कि
आप जानते हैं
जीवन
क्षण-भंगुर है
हर बात
क्षणिक है
और
बखूबी
जानते हैं आप
सफलता ही
असली मणिक है ! २०१६
चुप्प !
एकदम चुप्प !
घुप्प !
अँधेरा घुप्प !
कहीं कुछ नहीं
टप्प- टुप्प !
कुछ आवाजें
कुछ शोरो-गुल
कुछ धुआँ
कुछ आग
सबके ऊपर
कसा हुआ
सन्नाटे का भींगा कंबल !!
भय की बात नहीं
लेकिन
भय-रेख खिंची हुई है
दुनिया जाने कबसे
खुलकर हँसी नहीं है !! २१.११.२०१९
बच्चे को
चाँटा मारा
पत्नी को
झिड़की दी
माँ को
किया अनसुना
पिता का
पूछा नहीं हाल
मातहतों को
डाँटा
और सिर्फ डाँटा
साहब की
हर बात में
हामी भरी
हर बात मानी ! २०१८
ढूँढते हैं अर्थ
व्यर्थ ही
किसी का नाम नहीं लेते
काम नहीं देखते किसी का
व्यर्थ ही बड़े लोग
बड़े लोगों के
अर्थ
कुछ अलग ही
अर्थ लिए होते हैं ! २४.०६.२०२०
बड़े लोग
बड़े लोगों की बातें
बड़े लोगों को
पसंद आती हैं
बड़े लोग
बड़े लोगों को
अपनी बातें बताते हैं
बड़े लोग
खुश हो जाते हैं
दुनिया
बड़े लोगों की
सुनती है
दुनिया सुनकर
जश्न मनाती है
सब
हो जाना चाहते हैं
'बड़े लोग' !! १५.०८.२०२०
प्यादे
प्यादे
पहले
निकलते हैं
आगे
बढ़ते हैं
लड़ते-भिड़ते
हैं
किसी
की शह पर
किसी
को
बचा
ले जाते हैं
पुरस्कृत
होते हैं
मगर
प्यादे ही तो हैं...
उन्हें
देना
पड़ सकता है इस्तीफा
उन्हें
किया
जा सकता है बर्खास्त
चाहे
कोई भी हो बिसात !
जो
राजा,
मंत्री
होते हैं
महफूज
घरों में सोते हैं
फिर
नई
बिसातें बिछती हैं
फिर
खेल
पुराना चलता है
बस
एक
प्यादा बदलता है !! ०३.१०.२०२०
लेकिन सच यही है
हर दो आदमी
किसी तीसरे के खिलाफ़
ख़ता मुआफ़
लेकिन सच यही है
चश्मा तय करता है रंग
हो पानी कितना भी साफ़
ख़ता मुआफ़
लेकिन सच यही है
चेहरा देख
नियम बनते हैं
होता है इंसाफ़
ख़ता मुआफ़
लेकिन सच यही है
कहीं तो ग़ुरबत ढूँढ़ती है
अलाव, एक अदद सरकारी
कहीं मन की ग़ुरबत को
ढँक लेता गर्म लिहाफ़
ख़ता मुआफ़
लेकिन सच यही है २०१९
अंधकाल
अपने
ही लोगों ने
अपने
ही लोगों के खिलाफ
नारे
लगाए
अपने
ही लोगों पर
फेंके
पत्थर
जलाई
गाड़ियाँ
अपने
ही लोगों की
अपने
ही लोगों ने फिर
किया
लाठी चार्ज
अपने
ही लोगों पर
छोड़े
अश्रु गैस के गोले
चलाई
गोलियाँ अपने ही लोगों पर
लोग
अपने हैं
देश
अपना है
तो
क्या है
जो
बेगाना किए जा रहा है ?
जुलूस
निकालते लोग
नारे
लगाते लोग
पत्थर
चलाते लोग
तोड़-फोड़
मचाते लोग
गाड़ियाँ
जलाते लोग --
कौन
हैं ये लोग ?
सब
अपने लोग हैं,
अपने ही लोग !
लाठी
चार्ज करती पुलिस
अश्रु
गैस छोड़ती पुलिस
गोलियाँ
चलाती पुलिस
लोगों
को मारती पुलिस --
किसकी
है ये पुलिस ?
अपनी
ही तो है ये पुलिस !
सब
तो अपने हैं
पराया
कौन है ? !
सब
करता कौन है ?
करवाता
कौन है ??
जुल्म
का बदला जुल्म
जुर्म
के बदले जुर्म
अपनों
के खिलाफ अपने
समस्या
का हल
समस्या
अति
अति
के बाद अति
कलियुगे, कलिप्रथमचरणे
जम्बूद्वीपे
भरतखण्डे भारतवर्षे ...
कलियुगे !!
१७.०६.२०२२
सनद रहे
आँचल का परचम हो गया ?
मुट्ठियाँ तन गईं हवा में
इन्क़लाब! इन्क़लाब ! हो गया ?
क्या होना था
ये क्या हो गया ?
ये किसका वतन है
और
ये वतनपरस्त कैसे हैं ?
चीखने-चिल्लाने में
और
बुलंद करने में आवाज़
फ़र्क़ बहुत भारी है
और
लड़नी पड़ती है
रोज़-ब-रोज़
दम-ब-दम
सिर्फ
कहने से नहीं होता
कि जंग जारी है !
और देखो
ज़हनो- दिल पर
अभी अँधेरा तारी है !
हज़ारों-लाखों बातें हैं
करने को
जो चाहो
ये
बड़े शहरों में
बड़ी इमारतों में
टीवी कैमरों को
देकर 'बाइट्स'
अख़बारों को
देकर 'प्रेस रिलीज़'
और
निकाल कर जुलूस
मशालों-मोमबत्तियों का
भला किसका हुआ है?
भला किसका होता है?
देश
सहिष्णु है
भीरु है
और यह देश
बीमार भी है
सच मानो !
वरना
संवेदना कहीं
ऐसे मृतप्राय होती है ?
प्रतीकों- पद्वियों से
बात बनती है क्या?
अपराध से
हटाकर ध्यान
चिल्लाते रहे
निर्भया ! निर्भया !
काम क्या हुआ ?
हर बात
बस
सनसनीख़ेज़ !
अरे !
आज़ादी नशा है क्या ?
नसों में डाल लो
आँखों में उतार लो
चौक-चौराहे पर
भड़ास निकाल लो !
स्वतंत्रता
अराजकता नहीं है
किसी के लिए भी
याद रहे !
देश
वक़्त आने पर
एक जून का खाना
छोड़ सकता है
देश
जवान-किसान
जोड़ सकता है
देश
सह सकता है अगर
तो
कह भी सकता है
खरी-खरी
निपट भी सकता है
खड़े-खड़े !
और
मदर इंडिया
बिरजू को
गोली भी मार सकती है
सनद रहे !
होश में रहो !! २०१६
आम आदमी
डीएसपी ने
डीएसपी को
इंस्पेक्टर ने
इंस्पेक्टर को
थानेदार ने
थानेदार को
जमादार ने
जमादार को
हवलदार ने
हवलदार को
सिपाही ने
सलाम ठोका
और
सिपाही ने भी
भड़ास निकाल ली
रौब गाँठ लिया
सामने
हाथ जोड़े खड़े आदमी पर
वह जो आदमी
यूँही खड़ा रहता है
जिसको
सलाम करने वाला
कोई नहीं है
वही आम आदमी है
नेताओं को
साहबों ने
साहबों को
मातहतों ने
मातहतों को
चेले-चमचों ने
उपहार पहुँचाए
और
चेले-चमचों ने भी
उम्मीद में खड़े
आदमी से
कुछ न कुछ ऐंठ लिया
वो
जो हर किसी को
कुछ न कुछ
पहुँचाता है
और
जिसको कोई देखता तक नहीं
वही आम आदमी है ! २०१५
आत्मनिरीक्षण
कि
बिक जाने का
डर हो जाए
कितना सम्मान मिले
कि
डिग जाने का
डर हो जाए
कितनी मिले शोहरत
कि
सर चढ़ जाने का
डर हो जाए
यक-ब-यक हो
तो शायद
पता भी चले
धीरे-धीरे होता है
तो
पता भी नहीं चलता
और आप
मर जाते हैं
एक दिन
जीते-जी ! ०९.११.२०१८
धराशायी
(1)
उनके
पास
अधिकार
थे
प्रयोग
किया उन्होंने
बलपूर्वक
भी
इनके
पास
नौकरी
थी
एक
यही
ये
कर्तव्यपरायण
बने रहे
मर-मर
के भी
(2)
उनके
पास
शक्तियाँ
थीं
वो
कुचलते रहे
हाथ-पैर
मान-सम्मान
जैसे
‘ठाकुर’ ने
कुचले
थे
हाथ
‘गब्बर’ के
कील-ठुके
जूतों से
ये
वैसे
भी
सरीसृप
थे
रेंगते
रहे थे
यहाँ
तक
कि
भूल
गए
फन
काढ़ देना
यदा-कदा
भी !
(3)
बात-बेबात
पर
किए
जा सकते हैं
आंदोलन
की
जा सकती है
हड़ताल
लेकिन
मुद्दे
सामूहिक होने चाहिए
तथाकथित
रूप से भी
स्वाभिमान
निहायत
ही
निजी
मामला है
इसमें
दखलअंदाजी
नहीं
करते हैं ...
(4)
अब
और क्या बचा है
प्रतीक्षा
किस
बात की है ?
अब
बचा ही क्या है
चलने
दो
जैसे
भी चल रहा है
जान
है तो जहान है !
उसकी
मुट्ठी में
इसकी
जान है !! १५.०३.२०२०
विसंवादी संवाद
पति
पत्नी को
देता
है गालियाँ ऐसी
कि
सुन भी नहीं सकते
हम
और आप
(और
कहीं जो आ जाए ग़ुस्सा ज़्यादा
उठ
भी सकता है हाथ)
यहाँ
तक कि
बच्चों
को भी
बख्शा
नहीं जाता
पत्नी
फिर भी
पतिव्रता
है !
पत्नी
हर जख्म भूल जाती है
पति
हर बात भुला देता है
हर
बार भुला देता है !!
पति
के पैसे से भरा
पत्नी
का खाता है !
क्या
अबला बन रह जाना
इतना
सहज हो जाता है ?
बेटा
पिता
के विरुद्ध
माँ
का
सेनापति
है
स्त्री
का
सबसे
बड़ा दुश्मन
क्या
उसका पति है ?
देखिए
हुजूर
कोई
कितना तो कमाता है !
यह
एक गुण
कितने
दुर्गुणों को ढाँक जाता है !!
जो
हर किसी के लिए
हर
बार
हर
कुछ
करने
को तैयार
उसी
को मान के
सेवादार
लोग
करते हैं व्यवहार
नातों
का कैसा जाँता है !
कोई
बस पीसा जाता है !
छोड़े
हुए कपड़े पहन
कोई
मन इतराता है
बचा
हुआ खाना पा कर
मन
खाते नहीं अघाता है
देने
वाला राजा बन के
पाने
वाले को जताता है
बड़ा
वही जो दाता है !!!
फिर
भी ये दुनिया बहुत भली है
खुशियों
से भरा संसार है
मतलब
का मतलब प्यार है
जो
सच बोले,
उकसाता
है
अब
झूठ ही सबको भाता है !! २०२२
क्षरण
पढ़ाने
वाले
पढ़ा
रहे हैं
गिने-चुने
लोगों का
गिना-चुना
लेखन
बरसो
बरस से
इसी
जड़ता में
सुभीता
है !
साल-
दर- साल
हर
सेमेस्टर,
हर
साल
वही
पढ़ाया जाता है
पढ़ाने
वालों का
एक
ही नोट्स
कितने
काम आता है !
अध्ययन
कबका हो चुका विलग
अध्यापन
से
कौन
पढ़ता-पढ़ाता है मन से !!
राजकीय
कोष की
बरबादी
का नमूना है
विश्वविद्यालय
शिक्षा
को लगता हुआ
काहिली
का चूना है !!
लेकिन
सब
खुश हैं...
प्रकाशकों
को
वही
छापना है
छात्रों
को
वही
रटना
परीक्षकों
को
वही
जाँचना बार-बार
हर
साल
करते
जाना तैयार
बीए, एमए
हजारो
हजार
विभागों
में
नव
का उन्मेष ?
जैसे
गंजे
के सर पर केश !
विभागों
के
सारे
विभागेश
चैन
की बंसी बजाते हैं
खूब
दावतें उड़ाते हैं
शोधों
की अर्थी उठाते हैं
कैसी
भी हो सरकार
न
कोई कलम उठाता है
न
कलम ही लगाने देता है
नर्सरियाँ, प्रोगशालाएँ
ज्ञान
की होना था जिन्हें
बदलती
जा रही हैं
शव-परीक्षण
केंद्रों में
बहुत
आसान है बता देना हर बार
मौत
का कारण --
बंद
कर देना
दिल
का काम करना
अंग-
प्रत्यंग
छोड़ते
जाते हों साथ
जब
एक-एक कर
दिल
कब तक
धड़कता
रह
सकेगा
एक
न एक दिन
मौत
का कारण बनेगा
आखिरकार !
बाहर
भी यही हाल है
सब
हाल खस्ता-हाल है
जान-
पहचान है
दुआ-
सलाम है
संघ
हैं,
मोर्चे
हैं
सब
फुके हुए अगरचे हैं
हर
आदमी सवाली है
पूछे
जाने की ललक में
मंच
ढूँढती
बेशरम
नक्काली है
मनका
न मन का बचा है,
न
कर ही का
शिक्षा
इक दरबान है
है
लगा हुआ दरबार
है
सजा हुआ बाज़ार ! ०५.०८.२०२२
हिरामन भाय
हिरामन भाय !
जमाना बदल गया
हिरामन भाय !
भौजी की बात
भला अब कौन सुनता है
भाई का लिहाज
कौन करता है भला
सेठ को
चोरी पर
कहाँ लगता है डर
दारोगा की चोरबत्ती
सेठों की कारगुजारियों
पर
कहाँ पड़ती है
सेठ
दारोगा से
कहाँ डरते हैं अब
मेले
टूट चुके हैं सारे
जाने को
अब कौन जाता है कहाँ
सीता के
चरण किसे दिखते हैं
बेफिक्री के
गीत कहाँ जमते हैं
चिठिया की
बात कौन करता है
मन की भी
बात कौन कहता है
मीता को
मीता कहाँ मिलते हैं
मीता को
मीता कौन कहता है
मानता है मीता को
अब मीता कौन
सच कहता हूँ
हिरामन भाय
जमाना सच में बदल गया
है
मीता भी
अब रखते हैं बही
आजकल का अब
किस्सा है यही
कुछ कहना
मुँहजोरी है
वैसे कुछ कहना
अब कहाँ जरूरी है !
अब तो
हिरामन भाय
डर ही लगता रहता है
कौन करे कलेस !
अब तो
मीता को
मीता की
बातों से भी
लग जाती है ठेस !!
हिरामन भाय !
मन तो अब कोई नहीं
समझता !!
बदल गया जमाना...
हिरामन भाय...!! ०४.०३.२०२१
( 2 )
हिरामन भाय !
सब उलट-पलट हो गया है
-- सब !
मत गाओ अब
“ सजन रे झूठ मत बोलो”
नहीं तो
खुद ही गाओ
खुद ही सुनो
परस्पर
कुछ बचा ही नहीं है
जो कुछ है भी
तो, है
विद्वेष
अब
इतना ही शेष !
कहाँ तक कसमें खाई जाएँ
कितनी कसमें खाई जाएँ
यह भी नहीं, वह
भी नहीं
जीवन क्या सिर्फ निषेध ?
जमाना सौदागरों का हो
गया है
हिरामन भाय !
कोई कुछ नहीं कर सकता
है भाई
न तुम
न हीरा बाई !! ०५.०३.२०२१
महिमा कुर्सी की
कुर्सी नशा है
कुर्सी दवा है
कुर्सी सजा है
कुर्सी मजा है
कुर्सी यहाँ है
कुर्सी वहाँ है
कुर्सी है मंजिल
कुर्सी रास्ता है
कुर्सी है मतलब
कुर्सी वास्ता है
कुर्सी की खातिर
कुर्सी का झगड़ा
कुर्सी से ताकत
कुर्सी से तगड़ा
कुर्सी की लाठी
कुर्सी की भैंस
कुर्सी की लैला
कुर्सी का कैस
कुर्सी से हाकिम
कुर्सी से नौकर
कुर्सी को बीवी
कुर्सी को शौहर
कुर्सी की बारी
कुर्सी का नंबर
कुर्सी ही बाहर
कुर्सी ही अंदर
कुर्सी का जादू
कुर्सी का सिक्का
कुर्सी का गुलाम
कुर्सी का इक्का
कुर्सी की खैरियत
कुर्सी की खिदमत
कुर्सी की आबरू
कुर्सी की इस्मत
कुर्सी नजारा
कुर्सी नजर है
कुर्सी है धूप
कुर्सी शजर है
कुर्सी की इच्छा
कुर्सी का आदेश
कुर्सी के गाँव
कुर्सी का देश
कुर्सी की चाबुक
कुर्सी का घोड़ा
कुर्सी ही नश्तर
कुर्सी ही फोड़ा
कुर्सी की लाज
कुर्सी का लिहाज
कुर्सी का मन
कुर्सी का मिजाज
कुर्सी की पगड़ी
कुर्सी की चादर
कुर्सी को सविनय
कुर्सी को सादर
कुर्सी की चिंता
कुर्सी की चर्चा
कुर्सी का पैसा
कुर्सी का खर्चा
कुर्सी की प्रतीक्षा
कुर्सी का स्वागत
कुर्सी स्वयंभू
कुर्सी तथागत
कुर्सी बिना शक्ल
कुर्सी संयंत्र है
कुर्सी खुली छूट
कुर्सी स्वतंत्र है
कुर्सी परोपकारी
कुर्सी कुलीन है
कुर्सी है रेशमी
कुर्सी महीन है
कुर्सी का फैशन
कुर्सी का ढब है
कुर्सी की जनता
कुर्सी का रब है । २०१५
चापाकल
(1)
चपाकल
चापानल
हैंडपंप --
आप
मुझे जानते
जरूर होंगे
और
अगर
मुँह में
चाँदी के चम्मच के साथ
न आए हों
धरा-धाम पर
तो
किया ही
होगा
कभी न कभी
मेरा
इस्तेमाल भी
आनंदित
हुए होंगे
गर्मी में
ठंढे
और
जाड़े में
गर्म-से
मेरे पानी
में नहाकर
मैं
अब भी हूँ
पूरे घर के
पानी का
ज़रिया
कहीं-कहीं
तो
कई-कई घरों
का
कभी
फ्लैटों से
उतर कर
देखिए
एसी वाले
घरों की
फिल्म लगी
खिड़कियों को
खोलकर देखिए
देखिए
किस तरह
निजता
सार्वजनिक
होती है
मेरे चौबारे
पर
गो
निजता तो
सिर्फ
सुविधा-सम्पन्न
लोगों की जागीर है !
मैं
बोलता नहीं
हूँ
गवाह तो हूँ
देखता हूँ
सुबह-सवेरे
से
एक
लड़की
लग जाती है
झाड़ू-बुहारू
में
चूल्हे में
कोयला जोड़ने में
(जानता हूँ
पर्यावरण के रक्षक व्यथित हो जाएँगे सुनकर )
रात के
बचे बर्तनों
को धोने-धुलाने में
बहुत ही
सहज सवाल है
ये लड़की
स्कूल नहीं
जाती है क्या ?
कोई नहीं
पूछेगा
आप भी
फिर
निकलती हैं
और भी
लड़कियाँ
अलग-अलग
कद और काठी
की
कुछ के लिए
तो
मेरा हैंड
खेल का
सामान है
झूला है
बच्चों का
कुछ मर्द
कुछ लड़के भी
लुंगियाँ
संभाले
दातुन चबाते
आते-जाते
हैं
सहज-गति
ये
चलता रहता
है
क्रिया-कलाप
सुबह-सुबह
का
नहाना
धोना
खाना बनाना
एक के बाद एक
कभी
साथ -साथ
पानी का
जरिया
एक मैं ही
हूँ
बताया था न
औरतों को
नहाते नहीं देखना
चाहिए
शायद इस
कहावत का
खयाल कर
नहाती हैं
औरतें-लड़कियाँ
फटाफट
इसी चौबारे
पर
बीच-बीच में
देखती
इधर-उधर
सावधानी से
आपके
घरों में तो
होंगे
झरनों वाले
झीने पर्दों
वाले
स्नानागार
यहाँ तो
एक ओट तक
नहीं
आप
सहज व्यवहार
का
हवाला दे
कह सकते हैं
--
तो क्या हुआ
ऐसा तो होता
ही है न
ऐसे दृश्य
बहुत आम
नहीं हैं क्या ?
आप
एक बात
बताइए
ये
सहजता है
या
मजबूरी है
साधन-हीनता
है ?
यहाँ तो
फिर भी ठीक
है
आपने
नालों-जैसे
तालाबों में
नहाते देखा है
कभी किसी को
?
और मैं
स्वीमिंग पुल में नहाने की बात नहीं कर रहा कतई
!
खैर, छोड़िए साहब !
आज
मैं थोड़ा
खुश हूँ
आज
कुछ लड़कियाँ
सुबह-सुबह
नहा-धो कर
पहन कर
साफ-साफ
स्कूल ड्रेस
तैयार हो
जा रही हैं
स्कूल
ये
खूब पढ़ें
खूब बढ़ें, खूब
कि
उनको
न पड़े ज़रूरत
एक
साझा चापकल
की !
और
ये जो
गीला-गीला-सा
देख रहे हैं
न
चौबारा मेरा
ये
मेरे खुशी
के आँसू हैं
कभी-कभी
आँसू शीतल
भी होते हैं
शीतलकारी भी
!
(2)
मेरे
और मेरे
जैसे
चापकलों के
इर्द-गिर्द
उपस्थित
जनसंख्या का
सर्वे
कराएँ कभी
तो पाएँगे
लिंगानुपात
औरतों के
पक्ष में है ।
कितनी भी
बात
तरक्की की
हो जाए
आधी आबादी
का
सच यही है--
कितनी भी
ऊँचाई पर
पहुँच जाए स्त्री
एक
“मेल गेज़”
से
भरभरा कर
टूट जा सकते
हैं
भरम सारे
फिरा कर हाथ
बता दी जा सकती
है
औकात !
कहने वाले
कहते हैं
कि
आग में घी
डालता कौन
है –
बेजा नहीं
है
लेकिन
कोई बताए
ऐसा
ताना-बाना
बुना किसने
है
ये
हवन की वेदी
बनाई किसने ?
मैं तो
बेजान हूँ
फिर भी
देख लेता
हूँ
कि जब पानी
से
धोए जाते
हैं चेहरे
आँसुओं को
छुपा लिया
जाता है
पानी से
मेरे
और
सर पर यह
ढाला जाता
है जब
बह जाते हैं
कई-कई सपने
मोरियों
में !!
(3)
गाँव से
हवा आई थी
बिंदास
लहराई थी
मेरे इसी
चबूतरे पर
फिर
शहरी नज़रों
ने देखा
और
लाज और
लिहाज की
बेड़ियों में
बाँध दिया
ये
वही नजरें
हैं
जो निकलती
हैं
रास्तों में
तो
ढूँढती चलती
हैं
कुँओं, तालाबों को ---
शिकारी
नज़रें !
ये वही हैं
जिन्होंने
खुद को
घोषित कर के कसौटी
चुपके से
बना दिया सिद्धान्त
“ पर रुचि
सिंगार”
यह
सिद्धान्त
है या मनोविकार ?
(4)
आखिर
ले ही ली न
जान
अब मरो सब
प्यासे
हलकान !
किसको दोष
दूँ ?
प्रकृति की
बेरुखी को ?
या
इन
बहुमंजिला इमारतों को
जिनकी
सैकड़ों फीट
की
कई-कई
बोरिंगों ने
शायद
सोख लिया है
पूरा पानी
और
देखा-देखी
में जिनके
हर
बाशिंदा
लग गया है
जुगत में
एक-एक
निजी बोरिंग
की
या
है विफलता
सरकार की
कि
अब भी
नहीं लग
पाया है
हर एक के
लिए
नल
म्यूनिसिपल ?
चल तो रहा
था
सालों से
अब
अचानक ये
क्या हुआ है
कि
बस
आती है
चलने की आवाज
सूखी-सूखी
पानी
छिटक के
भाग गया है नीचे
कहीं
फिक्र
अपनी जान की
नहीं
उतनी, जितनी ये
कि
कितना-कितना
पानी
ढो कर
लाएँगे
बूढ़े, बच्चे, औरतें, मर्द --- सब
और
कब तक ?
नया
चापकल ही लग
जाए
लेकिन
प्रक्रिया
सरकारी है
आपको तो पता
ही है
घूंउउ घूंउउ
ये क्या,
कहीं पास ही
हो रही है
बोरिंग फिर ?
पानी
पानी
पानी
पानी भी
अब
सबके लिए
नहीं
सबका नहीं
पैसा तो
पहले ही नहीं था !
कैसे भी हो
कोई चमत्कार
हो
कोई जुगाड़
हो
कोई मुझमें
प्राण फूँक दे फिर
असुंतलन
इतना भी
ज्यादा
ठीक नहीं
कि
पानी जीवन
पर भारी हो !
कुछ करो ! २०१६
नटुआ-नाच
और सच
नटुआ, नाच दिखाएगा
क्या ?
हौ साहब !
तो फिर चल
शुरु हो जा
हौ साहब !
नटुआ,
रस्सी लाया है ?
हौ साहब !
खंभे भी लगवाया है ?
हौ साहब !
तो चल
फिर शुरु हो जा
हौ साहब !
नटुआ ने
पगड़ी बाँधी,
फेंटा कस के बाँधा,
लाठी हाथ संभाली....
अरे, ढोल वाले
हौ साहब!
तैयार तो हो ?
हौ साहब !
तो ताल तो दो
हौ साहब !
ढोल वाले ने
ताल देना शुरु किया
ढम, ढम, ढम
ढिमक ढम, ढिमक ढम
नटुआ
रस्सी पर है अब
देखो
दिखलाएगा करतब
पैरों को
साध-साध के
लाठी से
भार संभाल के
सारा ध्यान जमा के
ताल पे चलता है
दर्शक-दीर्घा की
तालियाँ हैं
तनी हुई रस्सी है
सधी हुई चाल है
ढोल की ताल है
और फिर
हुक्म को
मानने का भी तो सवाल है !
नटुआ चलेगा
नटुआ ढलेगा
नटुआ जँचेगा
तभी तो
नटुआ बचेगा
खंभे दुरुस्त हैं
रस्सी तनी है
ढोल वाला भी
तंदरुस्त है ....
खेल चालू आहे !
अरे ढोलवाले
हौ साहब !
ठेका तो बदलो
हौ साहब !
कुछ रंग जमाओ
हौ साहब !
ढम, ढम, ढम, ढम
ढम, ढम, ढम, ढम
लय बदली
नटुए ने भी
बदल ली है चाल
कुछ और
जमा दिया है ध्यान
तालियाँ कुछ और
बज पड़ी हैं
अरे सुन नटुआ
हौ..हौ साहब
नटुआ ने
बनाते हुए संतुलन
दिया है जवाब
कुछ और
कर सकता है क्या ?
हौ साहब!
कुछ आगे
बढ़ सकता है क्या ?
हौ साहब !
तो फिर
कुछ दिखला ताज़ा
हौ साहब !
नटुआ ने
बदल ली है फिर
चाल
और
मिला ली है ताल
इसी बीच
बदल चुकी
ढोल की द्रुत गति से
ढोलवाला
जैसे
हुक्म सूँघ लेता है
और
सुनाए जाने से पहले ही
समझ-सुन लेता है
द्रुत गति ताल जारी है
नटुआ भी
अब
सीधे चलते-चलते
कुछ
उछल-वुछल लेता है
उठती-गिरती
ताल पे
चाल
बदल लेता है
ढोलवाले ने
फिर
कुछ सूँघा
और
दे दी सलाह –
ऐसा करके देखो
लाठी पर
कुछ भार धर के देखो
भार बढ़ा कर
ढोलवाले ने
नटुए को
नचाया है
और
बताया है –
देखो साहब
अब
नया करतब
कुछ नया काम किया है
तुम्हारा
कितना नाम किया है !
वाह ढोलवाले
तुम-सा
काबिल पा के
निश्चिंत हुआ जाता है ....
सुन ढोलवाले
हौ साहब!
जो चाहे खा ले
हौ साहब !
नटुए को
जो चाहे नाच नचा ले
हौ साहब !
और सुन नटुआ
हौ साहब !
सब देख-समझ ले
हौ साहब !
रस्सी का
तनना जरूरी है
चलते रहना जरूरी है
खेल
बनाए रखने को
खेल में
बने रहने को
बदलते रहना ज़रूरी है
हौ साहब !
फिर
और भी खंभे हैं
फिर
और भी नटुए हैं
हौ साहब !
और
इससे पहले
कि बात
कुछ और
रुख लेती
बदल गई ताल
ढोल की
नई, तेज, बुलंद....
इस
पूरे खेल में
दोस्तो
जो कहीं
प्रगट नहीं हुआ है ,
प्रगट नहीं होता है ,
प्रगट नहीं होना चाहता है,
और
जो हर जगह मौजूद भी है
उसी को जानना
सबसे ज्यादा
ज़रूरी है
हमारे- तुम्हारे लिए !! २०१५
अंतर्द्वंद्व
इस चमक-दमक के क्या कहने
इस जोर-धमक के क्या कहने
लोगों के रेले पर रेले
दौलत बिल्कुल खुल कर खेले
किस किस को नहीं न्योत दिया
सारा दम-खम यहीं जोत दिया
सब आएँ, देखें,शीश नवाएँ
जब लौट के जाएँ, यश गाएँ
इस भीड़-भाड़ में निपट अकेला
एक मन तीता और कसैला --
सुंदरता इतनी कुरूप !
ऐसा वैभव का वीभत्स रूप !!
नाली के पानी-सा पैसा
बहता लगता है कैसा !
सदियों से चलता आता है
जो बड़ा है, वो दिखलाता है
बुजुर्गवार से बच्चों तक
सब के सब
नुमाइश पर लगे हैं
लिपे-पुते हैं , सजे-धजे हैं
सारी नर्गिसें ,
सारे दीदावर
आज यहीं मिल-मिला लेंगे गोया
ऑर्केस्ट्रा
नए-पुराने , संजीदा- फड़कते
गाने हवा में तिरा रहा है
और
एक मन है कि पिरा रहा है !
दुख इतना न कर
सुन दुखिया,
सबने
अपना हिस्सा ही जिया
कोई सुधा-नहाया
कोई गरल पिया
मत हो ऐसे
अवरुद्ध-कंठ
नहीं राम कोई
कृष्ण, नहीं नीलकंठ
सब अपना भर तो भोगेंगे
तिस पर, जी-जान लगा कर
जोगेंगे
देखो
नियति का जोर
हो प्रत्यक्ष-दर्शी
तुम भाव-विभोर
क्या हुआ
जो टीसे पोर-पोर
ये अनगिनत चेहरे
अनगिनत नमस्कार
उपहारों के ढेर
लिफाफों का अंबार !
देखो,
जाओ, नाम दर्ज कराओ
शरीफ आदमी हो
फर्ज निभाओ
ये सारी शानो-शौकत
जो कोने-कोने में बिखरी पड़ी है
ये पैसा किसका है, और कैसा है
ये किसको पड़ी है !
क्या झंडा लेकर आए हो ?
क्या डंडा लेकर आए हो ?
देखो, तुम किस वाद के
हो
देख-समझ प्रतिवाद करो
किसी वाद से कुछ नहीं होता है
निर्बल के
प्रतिवाद से कुछ नहीं होता है
यहाँ
सहिष्णु कहते हैं सहने को
और शराफत, चुप रहने को
ये जो
काली एप्रन पहने
घूम रही है बाई
जिसने अभी
जूठी प्लेटें हैं उठाई
यही तो
खूबसूरती है भाई
इस माहौल की
पूरे सेट-अप की –
नीम-रोशन !
रोशनी इतनी ही
जो सुरूर पैदा करे
खूबसूरती से
आँखों को भर दे !
जो प्लेटें
उठातीं हैं पुलाव
उनके नीचे की
भूख छुपा दे
काम करने वालों के
सर को झुका दे
नीम-रोशन है माहौल
रोशन है पुलाव,
रोशन है बनाव !
कसा हुआ है शिष्ट व्यवहार
ये जो
हाथ बाँधे, कोने में खड़े
हो
मन ही मन इतना जो लड़े हो
इतना जो खून जलाए हो
कुछ रत्ती भर भी कर पाए हो ?
शर्तें तुम तय नहीं करते हो
माना कि जय नहीं करते हो
उनके हाथों में डोर है सब
सत्ता जिनकी ओर है जब
बड़ी गाड़ियाँ, बड़े साहब, बड़े लोग
जिसने ऐसा पैदा किया है संयोग
ये उसकी ताकत की झाँकी है
तुमने शायद कम आँकी है
फिर,
यही तुमने क्या था नहीं किया
वैभव का रस था नहीं पिया ?
इतिहास
समय दोहराता ही है
मन
दोषी ठहराता ही है !
जो गिरता है,
गिरता ही जाए
है यही उचित,
है यही न्याय ??
इन
सारे सैकड़ों- हजारों
लोगों से पूछे, कोई
उनको दिखाए
उनको बताए
नेपथ्य के अंधेरे का अर्थ
सारी लक-दक के
पीछे का सच
अरे,
गलतियों की पुनरावृत्ति
इतिहास है क्या ?
अंदर ही अंदर
जो उबल रहा है नसों में
उस गुस्से का
फटना ज़रूरी है
यह अति
जो अति से भी ज्यादा है
उसका
घटना जरूरी है
बहुत जरूरी है !! २०१५
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