बानगी


 

बानगी

 रामगोपाल 'रुद्र' 

की

कविताओं से

  चुने हुए अंश  

 

 

***

कवि परिचय :

रामगोपाल रुद्र

जन्म : 01.11.1912

निधन : 19.08.1991

काव्य संग्रह : 1. शिंजिनी  2. मूर्च्छना 3. हिमशिखर 4. मीड़ 5. शब्दवेध           6. द्रोण ( खण्ड- काव्य) 7. समग्र से आगे ( असंकलित रचनाएँ)

सभी काव्य- संग्रह ( क्र. सं. 1 से 6) 1991 में प्रकाशित रुद्र समग्र ( सं. नंदकिशोर नवल) में संकलित।

***

             

त्वदीयं वस्तु गोविन्‍द...

 

 

जिनकी कविताएँ हैं

   उन्हीं की स्मृति को ....

 

 

 

***

 

दो दिन की मेरी प्रेमकथा, हर ले अग-जग की मर्मव्यथा,

है मरण मर्त्य की प्रथा, मरूँ, पर अमराई भर जाऊँ रे !

 

            1938  ॥ शिंजिनी ;

 

***

 

      खोया-सा नभ अब घन-तम में,

       जाने बरस पड़े किस दम में !

       जाने कब ढुल-ढुल जाऊँ, घुल

       मिल जाऊँ मैं भी प्रियतम में !

मोम-नयन में प्राण-वियोगी जोत जगाए हैं !   

             1938  ॥ मूर्च्छना

                     

***

 

       याद-से कुछ मेह छाए,

       दाग-सा दिल में छिपाए,

       पूछता किसका पता, यह

       बावला-सा वात ?

 

             1938  ॥ मूर्च्छना

                     

***

       दुनिया हँसती है, हँसने दे,

       चाहे जो ताने कसने दे ;

       तू उनकी सुध के मन्दिर में

             जल उज्ज्वल, उज्ज्‍वलतर !

 

            1938  ॥ मूर्च्छना

                      

***

 

                 

       आज किसी की याद विकल-सी

       हिलती है दिल में चलदल-सी,

       कुहुक- कुहुक उठती, यह क्या है ?

       रह-रहकर भीतर कोयल-सी !

जाने क्या संकेत, कहाँ से, प्राणों ने पाए हैं !!  

             1938  ॥ मूर्च्छना

                     

***

 

कौन जानता,इस परदे में होता कौन तमाशा ?

ढोल पीटकर इस दुनिया को मैं निज परिचय दूँ क्या ?   

             1938  ॥ मूर्च्छना

 

***

 

       किसकी मानूँ? किसकी टालूँ ?

       क्या ठुकरा दूँ ? क्या अपना लूँ ?

       प्रेम और कर्तव्य बीच यह

       कौन मुझे ठगता है ??

 

             1938  ॥ मूर्च्छना

 

***

 

       आँखों से धोखा होता है,

       जीवन अपना घर खोता है,

       कैसे कोई विश्‍वास करे ?—

       आँखें हँसतीं, मन रोता है

 

             1939  ॥ शिंजिनी

 

***

 

       क्षुब्ध न हो धरणी, इस डर से,

       भानु नहीं निकले थे घर से ;

       स्वाती चाह रही थी, उसका

       व्रती और अब अधिक न तरसे ;

 रिमझिम-रिमझिम जल के सीकर

 बरस रहे थे, घर भू का भर ;

       नीरस ताल-सरोवर सरसे ;

पावस की रानी आई थी, धर धानी परिधान !  

             1939  ॥ मूर्च्छना

  

***

 

जग की हो जो भी कठिनाई,

खड़े कूट, कंटक या खाई,

मेरे निर्झर के मग में सब शैल उठा धर दो ।

 

             1941   ॥ शिंजिनी

 

***

 

       आज याद भी काँटे बनकर,

       रोक रही गति का अंचल धर,

कुछ ऐसा कर दे, मैं अपनी सारी याद भुला लूँ ;

          प्रिय हे, सारी याद भुला लूँ  !! 

 

               1941  ॥ शिंजिनी  

 

***

 

       मैंने देखे हैं फूल बहुत,

       मैंने देखे हैं शूल बहुत ;

       देखी है मैंने धार बहुत,

       देखे हैं मैंने कूल बहुत ;

       दुनिया में मतलब की बातें

       थोड़ी हैं, ऊल-जलूल बहुत ;

       हर एक हवा जब बही, गंध

       लाई थोड़ी, पर धूल बहुत ;

अचरज है, अपने ही खेलों ने कितना खेल खिलाया है !

दुख दर्द लिये आया, तो सुख ने सपनों से ललचाया है !!

 

             1941   ॥ शिंजिनी  

  

***

 

बहलाता जाऊँगा दिल को, जैसे अब तक बहलाया है !

यह गाँठ वही सुलझावेगा, जिसने जीवन उलझाया है !! 

 

              1941   ॥ शिंजिनी

 

***

 

       चाहे थक जाए पथ,

       पर न रुके पौरुष-रथ,

       शोणित-श्रम से लथपथ

बढ़े चलो, बढ़े चलो, निर्भय, हे अमर-वरण !!

 

              1941   ॥ शिंजिनी

  

***

 

       आज कोई, काश ! होता,

       छाँह बनके पास होता ;

       आप जीवन-धन न खोता - -

             मूढ़ मानस-मीन !

 

             1941   ॥ मूर्च्छना

 

***

 

       कौन है जो दे दिलासा,

       सब तमाशा ही तमाशा ;

आज अपने शूल पर हँसते सुमन के पात !

 

              1941   ॥ मूर्च्छना

 

***

 

आज तुम यदि पास होते --

धीरता बनते हृदय की,नयन के विश्‍वास होते!

 

             1941   ॥ मूर्च्छना

 

***

 

अश्रु किसकी याद के ये किन बरुनियों से टँगे हैं ?

सुख-दुखों के दाग, धूमल चित्र, अम्बर पर रँगे हैं ;

कौन—किसकी चाह—किसकी राह पर आँखें बिछाए ?

 

             1941   ॥ हिमशिखर

 

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मन को, मीत, मनाओ ।

सपने हैं, जो घेर रहे, अपने मन को समझाओ ।

 

 

              1942 ॥ शिंजिनी

 

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       राह चुनो अपनी अपने से,

       क्या होगा केवल सपने से ?

       मुक्‍ति नहीं माला जपने से,

                  व्यर्थ न आयु गँवाओ ।

 

                    1942 ॥ शिंजिनी

 

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अधिकारों की माँग करो, पर अधिकारों के लिए अड़ो मत ;

अधिकारी से अर्ज करो, पर अधिकारी से कभी  लड़ो मत ;

अधिकारी की राय न्याय है, और वही विधि का विधान है !

दुआ करो, जो कुछ मिल जाए, हाथ मगर उनका पकड़ो मत !

 

             1942 ॥ हिमशिखर

 

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       मगर जाना ही हो जिस ठौर,

       वहाँ मर्जी की कैसी बात ?

 

              1943 ॥ शिंजिनी

 

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       जानकर मुझे महज अनजान

       किया सबने ठगने का योग ;

मुझे छलकर दुनिया की चाल आबरू अपनी खोती रही ।

 

             1943 ॥ शिंजिनी

 

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       एक दिन यह है- - कि सूना

       है हिया, मरु का नमूना ;

साँस लू, सब आस बालू, पास केवल हूक !

 

             1943  ॥ मूर्च्छना

 

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यह तो हम दुनियावाले हैं, किस्मत पर रोते चलते हैं,

जलते हैं और जलाते हैं, छल-छलकर खुद को छलते हैं ;

       है जहर हमारे प्राणों में,

       विष की बोली के बाणों में,

पर आज सुधा का राजा भी सूरत से जहरीला क्यों है ?    

             1944 ॥ मूर्च्छना  

 

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       इतने तड़के आज पधारे !- -

       जाग रहे जब दीये-तारे ;

       ठहरोगे ? ठहरो, आँखों की

             गीली धूल धुला लेने दो !

 

              1944 ॥ मूर्च्छना

 

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नदियों ने केवल ज्वार लखा, ज्वाला देखी कब सागर में !

थम जाय जहाँ हलचल मेरी, ऐसा आधार नहीं मिलता ।

 

             1944 ॥ शिंजिनी

 

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थोड़ी-सी लू चल जाती है, संसार विकल हो जाता है,

वह मेरी ही अँगड़ाई है, जीवन जिसमें सो जाता है ;

संयम की भी हद होती है, कब तक मन को बाँधे कोई ?

लाचारी है, खो जाता है, रो आता है, रो जाता है ;

दुनिया में तो रोने का भी खुलकर अधिकार नहीं मिलता ।

 

             1944 ॥ शिंजिनी

 

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साधना सिद्धि है, प्रेम की ;

             सिद्धि है प्रेम की साधना !

 

             1948 ॥ मूर्च्छना

 

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       अब तो बस पानी -पानी हैं,

       आँखें अपनी हैरानी हैं ;

क्या अच्छा था, मैं सूने में उड़-उड़कर चाँद पकड़ता था !

 

             1948 ॥ मूर्च्छना

 

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       मगर, कुछ दाग ऐसे हैं,

       न धुलते हैं, न धोते हैं !

 

             1948 ॥ मूर्च्छना

 

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       जब तू आगे बढ़ जाएगा

       संसार स्वयं तब आएगा

       अपनी गति पर पछताएगा

       रो-रोकर मान मनाएगा

 

             1948 ॥ हिमशिखर

 

***

 

कलेजा हो किसी के पास, मेरा प्यार पाले !!

समुन्‍दर का हिया हो तो, किरन का हार पा ले !!

 

             1948 ॥ हिमशिखर

 

***

 

तुम मैंहो जाओ, प्राण ! और मैं तुम’ होऊँ ;

तुम चंचलता,मैं जीवन की जड़ता खोऊँ ।

 

             1948 ॥ हिमशिखर

 

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  व्योम है कलिन्‍दजा, नाग है काली घटा ;

  नीलिमा फुंकार है, फेन है उडुच्छटा ;

  रश्मियों की रास है, चाँदनी विलास है,

  कालिमा के छत्र पर चाँद ब्रज-हास है !

नाग को नाथे हुए बाँसुरी बजा रहा !

                    चाँद मुस्कुरा रहा !!

                    चाँद मुस्कुरा रहा !!!   

             1951   ॥ मूर्च्छना

 

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मस्ती इनका दोष, हवा से बज उठते हैं ;

बाँस तभी तो काटे छेदे जाते हैं !

शीतल गंध लुटाने से ही वनचन्‍दन

साँपों से घिरते हैं, चिता सजाते हैं !   

 

             1951   ॥ हिमशिखर

 

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चुटकियाँ चटखती हैं, चुटकी में प्राण हैं ;

मसले हैं मेरे फूल, तुम्हारी जीत है !

मेरी हारों के हार पहन तुम हँस रहे ;

हारों में गूँज रहा मेरा जय-गीत है !

      

             1951   ॥ हिमशिखर

  

***

 

       अब क्या कहूँ, कैसे कहूँ ?

       चुप भी मगर कैसे रहूँ ?

किस भाँति मेरा भाव ही मेरे हृदय को कस रहा !

 

             1951   ॥ हिमशिखर

 

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विश्‍वास-पक्ष ही जब गिर गया किले का,

मैं तर्कों की दीवारों से क्या जूझूँ !

 

             1951   ॥ हिमशिखर

 

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       जड़ता के ऐसे निर्जन में,

       शिल्पी कोई मेरे मन में

 धड़कन की छेनी से अपने मन का रूप उकेर रहा है !

 

             1951   ॥ शब्‍दवेध

 

 

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जब तपी धरती कि पिघला आसमाँ ;

आँख-सा दिल का कोई हमदम नहीं !

 

             1951   ॥ शब्‍दवेध

 

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       एक साल, यह एक साल जो

       बीत गया, यह विषमकाल, जो

       गया, कयामत-सी बरपाकर

       दुनिया का कर बुरा हाल यों

भूल सकेंगे क्या हम, इसने कैसा प्रलय मचाया, साथी !

भूल सकेंगे क्या हम, इसने क्या-क्या नाच नचाया, साथी !

 

             1952 ॥ शिंजिनी

 

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 ज्वर जाकर जब भाटा बनकर आता है,

 क्या कहूँ कि मन तब कैसा हो जाता है!

 दुपहर का सूरज भी चन्‍दा-सा लगता- -

 उतरा खुमार ऐसा तुषार लाता है !

बज उठती अपनी साँस, भरम हो आता ;

आता है काल, मुझे पुकार जाता है ! !    

          1952 ॥ मूर्च्छना

 

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भरम ही भरम है सभी कुछ,

मगर यह भरम भी कहाँ खुल सका आज तक ?

 

          1952 ॥ मूर्च्छना

 

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मज़ा आ गया था यहाँ, यह न भूले--

किताबी सफे-सा मुझे मोड़ डाला !     

 

             1952 ॥ शब्दवेध

 

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      प्यासा थल, जल की आशा में,

      रटता है जब खग-भाषा में,

       रवि-कर ही तब, घन-गागर भर,

             जाते हैं बन सींच !

एक ब्रह्म है, एक प्रकृति है,मैं दोनों के बीच--

                 मेरे दृग दोनों के बीच !!

 

              1953 ॥ मूर्च्छना

 

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लिपटा प्रलय का दाह है, दृग में दरस की चाह है ;

मैं नैन खोलूँ किस तरह, मैं नैन मींचूँ किस तरह

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

***

 

बाहर अनल की आन है, भीतर तुम्हारा ध्यान है ;

मैं साँस छोड़ूँ किस तरह, मैं साँस खींचूँ किस तरह ?

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

***

 

      बुलबुल का दिल जब छिलता है,

      गुलशन में गुल तब खिलता है ;

यदि दर्द तुम्हारे गीतों का दिल को छू ले तो अचरज क्या !

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

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      मैं ही आदर्श नहीं जब हूँ,

      तब दोष तुम्हें नाहक क्यों दूँ ?

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

***

 

पुकारा था शायद, तुम्हीं को तब रोकर मैंने !

तुम्हारा क्या होकर तुम्हें पाया,मैं क्या जानूँ !

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

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क्या न हुआ, जो अनहोना था,

             केवल तुम न हुए, तो क्या !!

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

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खुद से जो भी हो रंज मुझे,

जग से नाखुश होता कब हूँ ?

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

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      दर्दी अगर हो, तो बनो हमदर्द मत ;

      हमदर्दियाँ होती बड़ी मक्कार हैं !

      बरसात का घर है, करो बेपर्द मत ;

      बाजार हँसने के लिए तैयार हैं !

 

             1953 ॥ मूर्च्छना

 

***

 

अब की दुर्गति अब क्या कहिए ! संयम सम छोड़ बना यम है,

दर्शन दिग्भ्रान्‍त प्रदर्शन में, प्रवचन में तर्कों का भ्रम है ;

गौओं पर दाँत लगा नाहर मौलिक अधिकार विचार रहे !

संचय तप का साफल्य बना ! ज्ञानी हैं वेजिनमें हम है !

 

             1953 ॥ हिमशिखर

 

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      तेरे तन की है लाज, उसे ;

      लेना है तुझसे काज, उसे ;

      सब कुछ का है अन्‍दाज उसे ;

तेरे लायक जो कुछ होगा, देगा वह अपने आप ।            

             1954 ॥ मूर्च्छना

 

***

 

      आकाश खुला मिल जाता है,

      तो क्या-क्या गुल खिल जाता है !

      तुमने जो आँज दिये लोचन,

      उड़ना भी भूल गए खंजन !

             मैं पाँख पसारूँ, तो कैसे ?

 

             1954 ॥ मूर्च्छना

 

***

 

अपने सुख-दुख की बात कहो तुम अपने से ;

किसको इतना अवकाश, तुम्हारा मन देखे !

 

             1954 ॥ हिमशिखर

 

***

 

   मुझे यहाँ यों छोड़ गया है कौन, कौन जाने !

   मेले में तो होता ही है ! बुरा कौन माने ! 

मुझको भी सब समझ रहे हैं मेले का सामान!!   

             1955 ॥ मीड़

  

***

 

जब तक मेरी तुम्हें जरूरत होगी--

तब तक मैं ही तुम हो जाऊँगा !

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

मैं माँगूँ, तब तुम मिलो और क्षण मिले--

तो कहो, तुम्हारापन इसमें क्या है !

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

      बादल के पत्‍तों में बिजली की आँच ;

      दीपित हो जैसे शीशमहल का काँच ;

      लहरों में झंकृत पूनों का संगीत ;

      दीया बुझने के पहले, लौ का नाच ;

मैं तुम्हें नचा लूँ अपने में कुछ ऐसे !

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

       पर जब नभ सजने लगता है,

       मेरा मन बजने लगता है,

तुम आँखें भर जाते हो, किस रात नहीं !!

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

   झूठ नहीं कहते होगे तुम, देते होगे दान !

   मुझको ही अकुला देता है, करुणा का परिमाण !

तुम्हीं उतरते होगे दृग में, जब-जब मन हिलता है !!

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

जो दोस्त मुझे कहते हैं कहने को,

वे ही शायद आए हैं रहने को !

मैं दो दिन का मेहमान-- कहूँ तो क्या ?

दिन ही कितने बाकी हैं सहने को !

      मैं दुश्मन को भी हार नहीं दूँगा !

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

उड़ा-उड़ा मन उड़ने से लाचार है !

पाँखों का होना भी लगता भार है !!

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

राह सुगम होकर ही आज पहाड़ है !

आज किनारा ही मुझको मँझधार है !!

 

              1955 ॥ मीड़

 

***

 

मुझे टूट जाने से बचा रखोगे--

तभी न रस कुछ मुझसे भी पाओगे !

 

             1955 ॥ मीड़

 

***

 

      भरा हुआ ही डूब रहा हूँ,

      पर अभाव से ऊब रहा हूँ,

तट का मोह छूट कर भी इस घट को मोह रहा है !

 

             1956 ॥ मीड़

 

***

 

धूल पर ओस ने जो लिखी थी कथा,

वह कथा तो कथा, धूल तक धो गए !!       

             1956 ॥ मीड़

 

***

 

यों तो जिसे ग़रज़ होती है, जाता ही है ;

ग़रज़मन्‍द ठुकराने पर भी आता ही है ;

लेकिन जिसका मन कि महाजन ही घर आवे,

वह व्यवहारकुशल घर-बार सजाता ही है !

 

            1956  ॥ शब्दवेध

 

***

 

      क्यारियों को क्या करीलों से सजाते हैं कहीं !

      बाँसुरी को क्या कमानी से बजाते हैं कहीं !

      छेड़ते हो तार वीणा के, मृदंगी की तरह !

      मीड़-पीड़ित को भला ऐसे सताते हैं कहीं !

तुम न छेड़ोगे जहाँ, अब उस जगह की खोज है !!  

 

              1958 ॥ मीड़

 

***

 

सनक नहीं तो क्या कहिए, इस ठाट को--

कौड़ी लेकर साथ, चला था हाट को,

जहाँ प्रसाधन बिकते हैं शृंगार के !--

कौन पूछता मुझ-जैसे बेघाट को ?

       पड़ता रहा नमक ही मेरे घाव पर !

 

             1958 ॥ मीड़

 

***

 

      मेरी रास तुम्हारे कर है,

      मैं क्या जानूँ, लक्ष्य किधर है ?

      कर्षण बिन अविनीत तुरग मैं

             भाव तुम्हारा कैसे थाहूँ ?

 

             1958 ॥ मीड़

 

***

 

मैं फकीर हूँ तो क्या ! माँगने कहाँ जाता ?

फेर लो दिया अपना, तो बड़ी दया दाता !

   फेर में तभी से हूँ, तुमने जो दिया फेरा ।

 

मुझसे पूछते क्या हो ! आसमान से पूछो ;

या नहीं तो खुद, हलफन, अपनी शान से पूछो--

         मैंने किस तरह टेरा, तुमने किस तरह हेरा !!

 

             1958 ॥ शब्दवेध

 

***

 

गरल तुम दे नहीं सकते, सुधा मैं पी नहीं सकता ;

दिया ही क्यों मुझे यह जग, जहाँ मैं जी नहीं सकता ?

विवश मैं ही नहीं, इसमें तुम्हारी भी विवशता है --

कि जब तक होश है,यह घाव कोई सी नहीं सकता !

विसुधि भी क्या कि उठता हूँ सिहर, हर बार,

                            जब टाँका हृदय के पार जाता है !

 

             1958 ॥ शब्दवेध

 

***

 

ओ नीली छतरीवाली जादूगरनी !

      तेरे आगे दुनिया का जादू मात !

जब दिन निकले, तब कहीं कुछ नहीं, लेकिन

      रजनी निकले तो तारों की बारात !!

 

             1960 ॥ शब्दवेध

 

***

 

मेरे भीतर आभास तुम्हारा

      ऐसी छवि पाता है--

काले बादल की ओट, चाँद

      पूनम का मुस्काता है !

 

             1960 ॥ शब्दवेध

 

***

 

क्या करूँ, रोज ही तो इतना धोता हूँ !

पर दगियल ही रह जाता है यह बासन ।

मालिक को कौन गरज ? जन पर जो बीते !--

बिगड़ैल मालकिन का घर में है शासन !      

            1960 ॥ शब्दवेध

 

***

 

हर स्वरूप में जब तक तेरा रूप नहीं दिखता है,

कैसे कहूँ कि मेरे मन पर तू कविता लिखता है !   

             1960 ॥ शब्दवेध

 

***

 

कब तक आँखों पर पर्दा पड़ा रहेगा ?

कब तक तुम उघरोगे मेरे दर्शन में ?

ओ सूत्रधार ! कब ऐसी कृपा करोगे ?

तुम स्वयं स्वरित होगे मेरे व्यंजन में !

 

              1960 ॥ शब्दवेध

            

***

 

जब कभी प्रियपदनखच्छवि कौंध जाती है हृदय में,

चाँदनी झट खींच घन-घूँघट लजाती  है  हृदय में !            

             1960 ॥ शब्दवेध

 

***

 

      कामना थी स्वर्ण-मृग की,

      देख ली करतूत दृग की ;

      ताकता ही रह गया तू,

             वेध का आया न अवसर !

 

             1961   ॥ शब्दवेध

 

***

 

एक पग से भूमि नापी,

दूसरा आकाशव्यापी ;

नाप लो मेरा अहम् भी- -

       शीश पर पावन चरण दो  !

 

 

             1961   ॥ शब्दवेध

 

***

 

कहते हैं, दरबार तुम्हारे

देर भले हो, न्याय न हारे ;

इस अँधेर का क्या जवाब दूँ ?

       साँसत में मेरा संयम है !

 

             1961   ॥ शब्दवेध

 

***

 

कौन हूँ, कहाँ हूँ और क्या हूँ, जग जानता है,

      आगे जानो तुम कि तुम्हारा क्या विचार है ।।         

             1962 ॥ शब्दवेध

 

***

 

अपनी गति का सोच मुझे क्यों हो ?

मैं अपनी क्या सोचूँ, जब तुम हो !

 

             1963 ॥ शब्दवेध

 

***

 

क्यों न वह दाह सहे, जिसने यह राह सुनी !

व्यंग्य ही सबने किया,टेर जो पीकी सुनी !

शून्य ठठोल उठा- - पी कहाँ ! पी कहाँ !            

             1964 ॥ शब्दवेध

 

***

 

मुझसे मेरी छाँव छुड़ा दो !

   मति ही अति बाधा है मेरी !

  भीतर फेरा, बाहर फेरी ;

  दे दो थोड़ी राख मुझे भी,

       इस ठगिनी का ठाँव छुड़ा दो !

 

             1964 ॥ शब्दवेध

 

***

 

प्यारी तुमको कला तुम्हारी है ;

हमको अपनी ही रीत प्यारी है !

फोलों का भेद मुस्कियों दाबे- -

राह हमने भी क्या गुजारी है !!       

 

             1964 ॥ शब्दवेध

                   

***

 

      मुँह कैसे क्या बात बनाए,

      घर का भेद न खुलने पाए ?

करुणा के बादल जब स्वर की घाटी में फँसते हैं !!  

              1966 ॥ शब्दवेध

 

***

 

      श्याम बन सजन आया,

      राधिका बनी माया ;

करके शृंगार चली- - सात और नौ !

 

             1966 ॥ शब्दवेध

 

***

 

      सिद्धि भले साधें हठयोगी !

      निधि पर टक बाँधें मठभोगी ;

      गति के फेर पड़ूँ मैं क्योंकर ?

      बन्‍धन ही है मुक्‍ति-यतन भी !

 

 

             1966 ॥ शब्दवेध

 

***

 

कहें क्या, कौन होते हैं- -

कि जिन बिन प्राण रोते हैं !

रुलाते हैं, हँसाते हैं !

       पराये भी, सगे भी हैं !       

 

             1974 ॥ शब्दवेध

 

***

 

मेरी पूँजी ही क्या ? कौन-सी कमाई ?

दक्षिणा कहाँ से दूँ ? आ गई रुलाई ;

   --नाव में नदी सिमटी, आँख जो मिलाई !        

             1977 ॥ शब्दवेध

 

***

 

बाहर कोई क्या पहचाने !

घायल की घायल ही जाने ;

मृग से उसकी नाभि, सर्प से मणि बिछुड़ गई है !

 

             1977 ॥ शब्दवेध

 

***

 

यों तो तू जहाँ है, बहार है,

खड़ी गुंचोगुल की क़तार है ;

जो खिजाँ में भी है दमक रहा,

देख, यह भी एक गुलाब है !         

 

             1978 ॥ शब्दवेध

 

***

 

चाँदनी ही तड़प उठी होगी !--

चाँद को बादलों ने घेरा था ।

 

             1978 ॥ शब्दवेध

 

***

 

सराब है ; न चेते अगर रुद्रतो फिर

मरेंगे, जिधर जा रहे हाँपते हैं !

 

              1978 ॥ शब्दवेध

 

***

 

यहाँ बदलता रहता है मुख ;

आँखें भी जो दे जातीं दुख ;

स्थिरता में भी है अस्थिरता ;

अस्थिर क्षण दे जाते चिर सुख ;

       ऋतुओं वस्त्र बदलनेवाला

       यह जहान सचमुच न्यारा है !        

             1979 ॥ शब्दवेध

 

***

 

      पीतल का बरतन धोना है,

      ऐसा कि लगे, यह सोना है;

मैं मँजने को तैयार हूँ, जो तुझे नहीं इन्‍कार !

 

             1979 ॥ शब्दवेध

 

***

 

काल तो समझा कि अबकी फैसला होकर रहेगा,

इस क़यामत में किसी का घोंसला क्योंकर रहेगा !

ज़िंदगी की आन, लेकिन , फिर कहीं से कूकती है--

देखना अंतक, विटप यह फिर हरा होकर रहेगा !

 

             1987 ॥ शब्दवेध

 

***

 

काँटों का मन, काँटों का तन, कैसे

क्या-क्या होकर गुजरा, जैसे-तैसे ;

साँसों की फाँसों फाँसी चढ़-चढ़कर

मर-मरकर कौन जिया होगा ऐसे !

      कवि होने से ही क्या यह दंड मिला ?

      भीतर सीझूँ, बाहर से कटूँ , छिलूँ ?

 

             1988 ॥ शब्दवेध

 

अपनी बात


      रामगोपाल रुद्र उत्तर-छायावाद-काल के महत्वपूर्ण कवि  हैं। 1954 में, उनके प्रथम काव्य संग्रह शिंजिनीके दूसरे संस्करण की भूमिका में दिनकर जी ने लिखा है श्री रामगोपाल शर्मा रुद्रहिन्‍दी के जाने-पहचाने ही नहीं, अब माने हुए कवि हैं और हिन्‍दी प्रान्‍तों की जनता उनके मुख से उनकी कविताएँ सुनने को लालायित रहती है। उसी में आगे वे लिखते हैं रुद्र को भूलना अब इतिहास के लिए कठिन होगा। दिनकर जी की यह उक्‍ति भी इस बात की पुष्‍टि करती है  कि रुद्रजी अपने समय के महत्वपूर्ण कवि थे और कवि सम्मेलनों में भी उनकी पर्याप्त ख्याति थी ।

      रुद्रजी का जन्म 1912 में हुआ । उनकी पहली रचना 1929 में श्रीकृष्‍ण संदेश’, कलकत्ता में प्रकाशित हुई थी । उनकी आखिरी रचना 1988 की है, जो उनके अंतिम कविता- संग्रह शब्दवेधमें संकलित है । इस तरह से करीब साठ वर्षों तक रुद्रजी ने काव्य सृजन किया । रुद्रजी की कविताओं में शब्दों का चयन और भाषा पर उनका अधिकार पाठकों का मन मोहता तो है ही, उनकी भाषा को समृद्ध और परिष्‍कृत भी करते चलता है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने उनके काव्य-संग्रह हिमशिखर की भूमिका में लिखा है श्री रुद्रजी की अधिकांश कविताओं का भाव मैं समझ लेता हूँ। उनकी शब्द योजना मुझे बहुत पसंद है । जान पड़ता है वे कविता की भाषा पर भी बराबर ध्यान रखते हैं

       रुद्रजी का पूरा नाम किस तरह लिखा जाए, इस पर थोड़ी चर्चा । रचनाओं में, दस्तावेजों में उनका नाम तीन तरह से लिखा हुआ मिलता है। भयंकर साहित्यिक डकैतीनिबंध और रुद्रजी की अलमारी में रखी उनकी पत्‍नी के मृत्यु प्रमाणपत्र के आवेदन की प्रति में रामगोपाल सिंह शर्मा रुद्रनाम उल्लिखित है । कई हस्तलिखित पांडुलिपियों में स्वयं रुद्र जी द्वारा ही, और बिहार मगही बोर्ड , पटना के अध्यक्षों की सूची प्रदर्शित करते बोर्ड पर, नाम रामगोपाल शर्मा रुद्रहै । शब्दवेधऔर रुद्र समग्रमें भी रामगोपाल शर्मा रुद्रही प्रकाशित है, जो संभवत: नवल जी द्वारा दिया गया है । उनकी प्रकाशित पुस्तकों शिंजिनीसे हिमशिखरतक, हर पुस्तक ( चलित हिन्‍दी व्याकरण सहित)  पर रामगोपाल रुद्रप्रकाशित है। ऐसा लगता है कि रामगोपाल शर्मा रुद्रसरकारी कार्यों/ संदर्भों में उपयोग के लिए प्रयुक्त होता था, और रामगोपाल रुद्रउनके लेखक- रूप के लिए । हमने पुस्तक के लिए रामगोपाल रुद्रको ही रखा है ।

       रुद्रजी के जन्म के 110वें वर्ष में बानगी के तौर पर तैयार किय गया उनकी कविताओं से कुछ चुने हुए अंशों का यह संकलन देखना पाठकों के लिए रुचिकर होगा, ऐसी आशा है । कविताओं के अंश कालक्रमानुसार रखे गए हैं , जो रुद्रजी की रचनाओं के विकास को भी लक्षित करने में शायद पाठकों की कुछ सहायता करे ।

           इस संकलन का उद्‍देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों का रुद्र जी की कविता से परिचय कराना है।

       इस संकलन के लिए रुद्र समग्र को आधार बनाया गया है । नंदकिशोर नवल के संपादकत्व में रुद्र समग्रक प्रकाशन राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नई दिल्ली से हुआ है । पुस्तक राजकमल प्रकाशन की वेबसाइट पर ऑनलाइन खरीद के लिए उपलब्ध है।  रुद्र समग्रकी कविताएँ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्‍दी विश्वविद्यालय की वेबसाइट hindisamay.com  पर भी पढ़ी जा सकती हैं। पढ़ने के लिए लिंक :-

 https://www.hindisamay.com/content/12128/1/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE-%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE-%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9-%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0.cspx

 

      इस संकलन से गुजरते हुए पाठक भी शिंजिनीके प्रथम संस्करण की भूमिका में हंसकुमार तिवारी जी की लिखी बात कि रुद्रजी कविताओं में ऐसी अमर पंक्‍तियाँ अनेक हैं, जो अपने साथ कवि को जिला लेंगी  से सहज ही सहमत होंगे , ऐसा विश्‍वास है ।

 

 

 


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