यूँही नहीं हैं अमिताभ, अमिताभ
(इस लेख को इसी ब्लॉग पर प्रकाशित कविता-संग्रह ‘अ से अमिताभ’ के परिशिष्ट के रूप में देखा जा सकता है)
यदि सत्तर और अस्सी के दशक में आपका बचपन या किशोरावस्था गुजरी है, तो अहुत ज्यादा संभावना है कि आप भी ‘अमिताभ-फैन’ हैं , अमिताभ बच्चन की फिल्मों के जादू में बँधे
हुए । इसके पहले और बाद की पीढ़ी भी बेशक ‘अमिताभ-फैन’ हो सकती है, बल्कि है ही । ‘अमिताभ’ एक जादू है जो चलता ही जा रहा है ।
अमिताभ बच्चन के फिल्मों में
पदार्पण के पचपन साल हो चुके हैं । उनकी पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ सात नवंबर उन्नीस सौ उनहत्तर को रिलीज
हुई थी । तब से अबतक वे लगातार फिल्मों में बने हुए हैं । वे सिर्फ फिल्मों में
बने हुए ही नहीं हैं, दर्शकों की पसंद भी बने हुए हैं । इतने
लंबे अरसे में सिर्फ तीन-चार साल ही ऐसे गए हैं जिनमें उनकी कोई भी फिल्म रिलीज
नहीं हुई हो । हालाँकि 1992 में उन्होंने फिल्मों से पाँच साल का एक ब्रेक लिया था, लेकिन फिल्मों के पूरा होने और रिलीज के बीच अंतराल होने के कारण
1992 के बाद भी फिल्में रिलीज हुईं । इस तरह फिल्मी पर्दे से उनका अलगाव पाँच
सालों का नहीं रहा, जैसा कि उन्होंने सोचा होगा । अमिताभ
बच्चन के इतने लंबे समय तक इतना लोकप्रिय और इतना सफल होने के पीछे आखिर कारण क्या
हैं ? उनकी मेहनत, अनुशासन और अकूत प्रतिभा ये सब तो हैं
ही, लेकिन और क्या ? वे अवयव और कारक क्या हैं जो अमिताभ
बच्चन को अमिताभ बच्चन बनाते हैं । जब अमिताभ फिल्मों में आए, उस समय का दौर रोमांटिक, सामाजिक और
पारिवारिक फिल्मों का था। और इस तरह की फिल्मों के अभिनेताओं और अभिनेत्रियों में
एक अदा का होना जरूरी समझा जाता था । उस लिहाज से अगर देखें तो अभिनेताओं में
अमिताभ और अभिनेत्रियों में जया भादुड़ी ने ‘अदा’ ( मैनरिज़्म) के जाल को तोड़ा । उनमें अदाकारी तो भरपूर थी, लेकिन ‘अदा’
नहीं । अमिताभ की किसी भी फिल्म में उनका अभिनय देखें, उसमें एक स्वाभाविकता और सहजता पाएँगे। रोल भले ही अविश्वसनीय हो, अमिताभ उसे अपनी अदाकारी से निहायत विश्वसनीय बना देते हैं । उनकी
अदाकारी रट्टामार अदाकारी नहीं है, आत्मसात की हुई
अदाकारी है । ज़ंजीर के पहले की भी फिल्में देख लीजिए । ‘आनंद’ ने तो खैर लोगों का ध्यान आकर्षित
किया ही था, ‘रेशमा और शेरा’, ‘रास्ते का पत्थर’, ‘परवाना’ , ‘प्यार की कहानी’, ‘एक नज़र’ जैसी फिल्मों को भी अगर आप देखें तो
अमिताभ का अभिनय आपको स्तरीय ही मिलेगा । नसीरुद्दीन शाह ने एक इंटरव्यू में कहा है
कि अमिताभ ऐसे अभिनेता हैं जिनका अभिनय स्क्रिप्ट की तुलना में ऊँचे दर्जे का होता
है ।
अमिताभ बच्चन को ‘एंग्री यंग मैन’ कहा गया । उनकी पहली फिल्म आई 1969 में, देश की आजादी के बाईस साल बाद । यानी कि जब देश युवा हो चुका था ।
आजादी पाने की खुशी और उल्लास के स्थान पर मोहभंग और असंतोष की भावना घर करने लगी
थी । 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन का सूत्रपात हो चुका था । 1974 के सम्पूर्ण
क्रांति की पूर्वपीठिका बनने लगी थी । तो देश में गुस्सा था ही । साहित्य के
क्षेत्र में भी राजकमल चौधरी, दुष्यंत कुमार और धूमिल उसी दौर के
सक्रिय कवि हैं । समाज में जो कुछ हो रहा था वह राजनीतिक और साहित्यिक हलकों में
भी अनुगूंजित हो रहा था । अमिताभ बच्चन ने फिल्मों में उस मनोदशा को ‘पर्सोनिफाइ’ कर दिया। एक और बात ध्यान देने की यह भी है कि गुस्सा
मनुष्य के मूल भावों में से एक है। बल्कि अभिव्यक्त किया जाने वाला संभवत: पहला
मनोभाव । गुस्से का कारण असंतोष और तनाव ही होता है । इस तनाव को अमिताभ ने जिस
विश्वसनीय तरीके से अभिव्यक्ति दी, उसने एक आम
आदमी के साथ सहज ही उनको जोड़ दिया। उनके पहले के अभिनेताओं के गुस्से के बर-अक्स
अमिताभ का गुस्सा असली या कहें कि ज्यादा असली लगा। अमिताभ द्वारा निभाए गए
पात्रों की वेश-भूषा और रहन-सहन का स्तर भी उनको आम आदमी के जीवन से जोड़ता है, खास तौर पर उस दौर की फिल्में जब अमिताभ फिल्मों के हीरो हुआ करते थे
। एक आम आदमी अमिताभ की मार्फत अपने आप को अभिव्यक्त कर रहा था । फिर अमिताभ का
गुस्सा भी कई तरह और कई-कई स्तरों वाला है । ‘आनंद’ के भास्कर का गुस्सा, ‘परवाना’ के कुमार सेन के गुस्से से, ‘ज़ंजीर’ के विजय का गुस्सा ‘दीवार’ के
विजय से या ‘त्रिशूल’ या ‘ काला
पत्थर’ के विजय से अलग है । अमिताभ की फिल्मों में गुस्से का एक रूप ‘मेल ईगो’ के रूप में भी सामने आता है । यदि यह
दूसरे अभिनेताओं द्वारा निभाया जाता तो उसमें खलनायकत्व के प्रवेश कर जाने की
संभावना रहती,
लेकिन अमिताभ के अभिनय ने उसे स्वाभाविकता
प्रदान की । ‘अभिमान’, ‘कभी खुशी कभी गम’ या ‘मोहब्बतें’ के अमिताभ बच्चन को इस संदर्भ में याद
किया जा सकता है ।
अमिताभ की ‘एंग्री यंग मैन’ वाली भूमिकाओं की ही चर्चा ज्यादा होती है और उस आधार पर बहुधा उनकी
आलोचना भी कि उन्होंने फिल्मों के स्वाद को खराब किया । 1969 से 2023 तक की उनकी
फिल्मों की सूची को देख कर यह सहज लक्षित होता है कि हर समय उन्होंने फिल्मों के
चुनाव में विविधता रखने की कोशिश की है । जैसे कि 1975 में रिलीज हुई उनकी फिल्में
हैं – दीवार, ज़मीर, शोले, फ़रार, चुपके चुपके और मिली । 2022 की उनकी फिल्में हैं – झुंड, रन-वे 34, ब्रह्मास्त्र, गुड बाय और ऊँचाई । इन दो वर्षों के उदाहरण सिर्फ
इस बात को दर्शाने के लिए कि उन्हें जितना भी टाइपकास्ट या इमेज से बंधा अभिनेता
कहा जाए, वे एक बहुत ही सजग और सचेत अभिनेता हैं फिल्मों के चुनाव को ले कर । यह
विविधता भी दर्शकों को अमिताभ से बोर नहीं होने देती ।
यह वही दौर रहा होगा जब गाँवों से शहरों की ओर माइग्रेशन शुरू हुआ
होगा । संयुक्त परिवार टूटने लगे थे । रोजी-रोटी की चिंता बड़ी समस्या हो रही थी ।
ऐसे में अमिताभ की फिल्मों में दो चरित्रों ने बहुत प्रमुखता पाई -- माँ और दोस्त
। माँ कहीं- कहीं बड़ी भाभी ( भाभी माँ) के रूप में भी रही । माँ-बेटे के रूप में
निरूपा रॉय और अमिताभ बच्चन की जोड़ी से ज्यादा लोकप्रिय शायद की कोई और हो । घर
छोड़कर रोजी- रोटी की तलाश में निकलना और ‘ग़मे-रोज़गार’ से हर रोज दो-चार होना, यही कारण रहा
होगा शायद कि माँ का चरित्र इतना याद किया जाने लगा। हम ध्यान दें तो पाएँगे कि
सन् साठ के बाद की कविता में भी माँ को जितना याद किया गया है, माँ को संबोधित जितनी कविताएँ इस दौर में लिखी गई हैं, शायद कभी और नहीं । एक माँ ही है जो सबकुछ होने के बाद भी बेटे के
लिए खड़ी है ।‘दीवार’, ‘खून पसीना’,’सुहाग’, ‘अमर अकबर एंथनी’ और ‘अग्निपथ’ कुछ ऐसी ही फिल्में हैं जिनमें माँ का
किरदार बहुत प्रमुखता के साथ उपस्थित है। सूर्यवंशम संभवत: आखिरी फिल्म है जिसमें अमिताभ
की माँ का पात्र प्रमुखता के साथ उपस्थित है । अमिताभ ने अपने अभिनय से जो छवि पेश
की उससे दर्शक शायद अमिताभ जैसा बेटा बनने की अभिलाषा रखने लगा । एक अच्छा बेटा
होना कौन नहीं चाहता । इसी तरह संयुक्त परिवार के टूटने, घर छूटने और भाई-भाई के बीच उभरते हुए मतभेदों ने लोगों के जीवन में
अच्छे दोस्तों की जरूरत को उभार दिया । अमिताभ बच्चन की कितनी ही फिल्में याद की
जा सकती हैं जहाँ उनकी दोस्ती की मिसाल दी जा सके । ‘ज़ंजीर’ से लेकर हालिया फिल्म ‘ऊँचाई’ तक अमिताभ एक सच्चे दोस्त की तरह हमारे
साथ खड़े हैं, ऐसा दोस्त जो जरूरत पड़े तो दोस्त के लिए जान भी देने को तैयार हो ।
और ऐसा दोस्त जो दोस्त की टाँग खींचने से भी न चूके । ‘शोले’ का मौसी वाला सीन किसे याद नहीं होगा ।
अमिताभ पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनकी फिल्मों में मारधाड़ की
प्रमुखता रही। यह बात अमिताभ की प्रतिभा को खारिज करने के इरादे से कही गई ज्यादा
लगती है, सच्चाई के करीब कम । उनकी फिल्मों के गीत-संगीत पर कम बात की जाती है, जबकि यह उनकी फिल्मों का एक मुख्य अवयव रहा है । एक-दो गाने तो उनकी
लगभग हर फिल्म में अच्छे मिल जाएँगे। उनकी बहुत-सी फिल्में ऐसी हैं जिनका पूरा
एल्बम ही काबिले-गौर है । जब वे बतौर हीरो फिल्मों में आ रहे थे, उस दौर की कुछ ऐसी ही फिल्मों के नाम इस तरह हैं – आनंद, ज़ंजीर, नमक हराम, अभिमान, रोटी कपड़ा और मकान, मजबूर, ज़मीर, शोले, मिली, कभी-कभी, अमर
अकबर एंथनी, आलाप, कसमे वादे, त्रिशूल, डॉन, मुकद्दर
का सिकंदर, जुर्माना, मि.नटवरलाल, काला पत्थर, दोस्ताना, शान,
याराना, नसीब, लावारिस, सिलसिला, नमक
हलाल, शक्ति, शराबी, गंगा
जमुना सरस्वती,
हम और खुदा गवाह । बाद की कुछ फिल्में, जब वे बतौर नायक फिल्मों में नहीं हैं, उन
फिल्मों का संगीत भी कम दमदार नहीं है, जैसे – मेजर
साहब, कभी खुशी कभी गम, बागबान,
झूम बराबर झूम आदि। इनमें से कम से कम दो फिल्मों, अभिमान
और कभी-कभी, को तो भारतीय हिंदी फिल्म-संगीत की किसी भी सूची में स्थान मिलेगा । ‘मि.
नटवरलाल’ से उनका गायक
रूप भी हमारे सामने आया । उनकी आवाज में कुछ बेहतरीन गीत हमको मिले । ‘मेरे पास आओ मेरे साथियो’, ‘नीला आसमां सो
गया’, ‘रंग बरसे’, ‘मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है’, से लेकर बागबान का ‘मैं यहाँ तू वहाँ’ और ‘होली खेले रघुबीरा’ और ‘शमिताभ’ का ‘पिडली -सी बातें’ कुछ ऐसे ही गीत हैं । फिल्म ‘कहानी’ और ‘अटकन
चटकन’ में तो वे सिर्फ एक प्ले बैक गायक की हैसियत से हैं । हिंदी फिल्मों
के गीतों पर आधारित प्रसिद्ध रेडियो कार्यक्रम ‘बिनाका
गीतमाला’ में वर्ष 1973,1975,1976,1979,1981,1982
और 1990 में उनकी फिल्मों के गीत सालाना सूची में सबसे ऊपर रहे । ‘अभिमान’, ‘कभी-कभी’, ‘अमर
अकबर एंथनी’, ‘शराबी’ और ‘बंटी
और बबली’ को सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला । ‘रोटी कपड़ा और मकान’ , ‘कभी-कभी’, ‘डॉन’, ‘नमक हलाल’ और ‘शराबी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक तथा ‘ज़ंजीर’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘कभी-कभी’ और ‘बंटी
और बबली’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया है ।
तात्पर्य यह कि उनकी फिल्मों का संगीत पक्ष भी मजबूत रहा है, हमें इस बात को भूलना नहीं चाहिए ।
एक अच्छे अभिनेता को अपनी आवाज पर अधिकार होना चहिए । ‘वॉयस मॉड्यूलेशन’ के माध्यम से दर्शकों से तादात्म्य
बैठाने में आसानी होती है । हम अगर अमिताभ बच्चन के विषय में देखें तो यह आसानी से
समझ सकते हैं कि अपनी आवाज पर उनका कितना बेहतर अधिकार है । उनकी अभिव्यक्ति इतनी
साफ है कि हम सिर्फ संवादों को सुनकर भी दृश्य के भावों को हूबहू समझ सकते हैं ।
इसके साथ उनका उच्चारण भी इतना अच्छा है कि हर शब्द दर्शकों के कानों तक खुलकर
पहुँचता है । वे शायद अंतिम अभिनेता हैं जिनकी भाषा के बारे में समझ इतनी साफ और
उच्चारण इतना शुद्ध है । उनके द्वारा अपने पिता हरिवंशराय बच्चन की कविताओं का पाठ
एक एल.पी. रेकॉर्ड के लिए किया गया था । उस कविता-पाठ की तारीफ स्वयं बच्चन जी ने
भी की है । किरदार के अनुसार आवाज के इस्तेमाल को अगर देखना हो, तो खास तौर पर उनके द्वारा अभिनीत दोहरी भूमिकाओं वाली फिल्मों को
देखा जाना चाहिए । ‘डॉन’, ‘कसमे
वादे’, ‘अदालत’, ‘आखिरी रास्ता’ ,’सत्ते पे सत्ता’ आदि ऐसी ही कुछ फिल्में हैं ।
अमिताभ की फिल्मों पर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि उनकी फिल्मों
में नायिका का रोल हाशिए पर चला गया। फुटेज के हिसाब से ऐसा हो सकता है कि स्त्री
पात्रों की भूमिकाओं की लम्बाई अपेक्षाकृत कम रही हो, लेकिन उन पात्रों का चरित्र-चित्रण एक सशक्त पात्र की तरह हुआ है ।
उनकी किसी भी फिल्म में अमिताभ द्वारा स्त्री पात्रों को नीचा नहीं दिखाया गया है, बल्कि उन्हें हमेशा ही बराबरी और इज्जत की नजर से देखा गया है । चाहे
वो ‘ज़ंजीर’ और ‘शोले’ में जया भादुड़ी का पात्र हो, ‘कसमे वादे’ और ‘कभी
कभी’ में राखी का पात्र हो, या फिर ‘सुहाग’ और ‘मुकद्दर
का सिकंदर’ में रेखा का पात्र । माँ तो उनकी फिल्मों हमेशा ही एक दृढ़ और सशक्त
किरदार रही है ।
अमिताभ बच्चन की फिल्में भले ही घोर व्यावसायिक रही हों, भले ही उनकी कहानियाँ लाउड रही हों, उनका अभिनय कभी भी लाउड नहीं होता । दो-चार अपवाद अगर हों तो हों। इतनी
सहजता से वे अपने द्वारा अभिनीत पात्रों में उतर जाते हैं कि सबकुछ बड़ा आसान-सा
लगने लगता है। लेकिन ऐसा है नहीं । वे बहुत ही सजग अभिनेता हैं और लगातार अपने को ‘रि-इन्वेंट’ करते रहे हैं । इसका एक बेहतरीन उदाहरण
‘कौन बनेगा करोड़पति’ है । उस सीट पर बैठ कर जिस तरह से वे
अपने आप को पेश करते हैं कि सामने वाला व्यक्ति उनका कायल हुए बिना नहीं रह सकता। अभिनेता
अमिताभ बच्चन वहाँ भी सक्रिय हैं लेकिन इस तरह से कि अभिनय का नामोनिशान न दिखे ।
यही बात उनकी फिल्मों को लेकर भी कही जा सकती है । ठीक है कि दर्शक बार-बार अमितभ
बच्चन की ही फिल्म देखने जाते हैं लेकिन वे जानते हैं कि हर बार वे एक नए ही
अमिताभ बच्चन से मिलकर लौटेंगे । कवियों के विषय में अक्सर यह सुनने को मिलता है
कि समय के साथ उनकी अभिव्यक्ति सघन होती जाती है । ठीक यही बात अमिताभ बच्चन के
अभिनय के विषय में भी कही जा सकती है । यकीन नहीं हो तो आप उनकी हालिया फिल्म ‘गुड बाय’ का सिर्फ एक सीन देख लीजिए – वह दृश्य
जिसमें पत्नी की अस्थि विसर्जित करने के पहले अमिताभ बच्चन का एक मोनोलॉग है । यह
कहना आसान है,
और शायद सच भी है कि प्रतिभा तो जन्मजात होती
है, लेकिन उसको जीवित और जीवंत बचाए रखना और लगातार तराशते जाना तो
व्यक्ति पर निर्भर है – यूँही नहीं हैं अमिताभ, अमिताभ ।
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