‘गाडा टोला’, जिसके आँगन से पहाड़ दिखता है
फ़र्ज़ कीजिए, एक बहुत बड़े से कड़ाहे में दूध औंटा जा रहा है । दूध जब गाढ़ा हो जाए, तब उसे चूल्हे से उतार दिया जाएगा । इस तरह दूध तो गाढ़ा हो ही जाएगा, उसके ठंढा हो जाने के बाद भी चूल्हे की आग उसके अंदर बनी रहेगी ‘लेटेंट हीट’ के रूप में । राही डूमरचीर के पहले कविता संग्रह ‘गाडा टोला’ की कविताएँ ऐसे ही औंटे हुए भावों वाली कविताएँ हैं । गाढ़ी । ये कविताएँ जब पाठक तक पहुँचती हैं, तो स्वाद के साथ-साथ कवि से कविताओं में अंतरित हुई ‘लेटेंट हीट’ भी पाठकों के अंदर पहुँच जाती है । और धीरे-धीरे आप उस आँच को महसूस करने लगते हैं अपने भीतर । ऊपर से शीतल प्रतीत होने वाली कविताएँ अपनी तासीर में गर्म हैं ।
एक कवि के रूप में राही डूमरचीर ने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी-साहित्य-समाज का ध्यान खींचा है । इस संग्रह की कविताओं से गुजरने के बाद जो पहली बात मन में उभरती है, वह यह कि इनकी कविताओं में प्रकृति नहीं आती, बल्कि इनकी कविताएँ प्रकृति के बीच से निकलती हैं । राही प्रकृति के बीच ही सहज हैं । प्रकृति के अंग भी राही की कविताओं के संग सहज हैं । प्रकृति कोई साधन नहीं, जीने का ढंग है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है –“ साहित्य में सहज होना ( मैं सरल नहीं कहता) भी मौलिकता का श्रेष्ठ प्रतिमान है ।” राही प्रकृति में सहज हैं, उनकी कविताएँ अपनी प्रकृति से सहज हैं ।
इन कविताओं में पहाड़ आते हैं बार-बार, तरह-तरह
से । आप समझ जाते हैं कि पहाड़ निर्जीव नहीं होते । कवि की नजरों में ‘पहाड़ चिर सखा’ है ।
पहाडों से दूरी उसे नहीं मंजूर किसी भी हाल में । उसे तो अपने घर के आँगन से दिखने
चाहिए पहाड़ । प्रकृति से नजदीक न हो, ऐसा
मनुष्य होना गवारा नहीं उसे –
“ ख़ुश हैं तुम्हारे जाने के बाद
देहात से क़स्बे में
तब्दील होते यहाँ के लोग
ख़ुश हैं कि उनकी छत से
दिखता है पहाड़
फ़र्क़ है दोनों में चीख़कर
कहना चाहता हूँ”
कवि तो उस जगह जाना भी नहीं चाहता, जहाँ
आँगन से नहीं दिखता पहाड़ । कवि की यह भावना उसकी कविता ‘हिम्बो कुजूर’ की इन पँक्तियों में झलकती है –
“ मुस्कुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने
थोड़ा और बड़े हो
जाओ
बढ़ जाए दोस्ती
माँदर से और थोड़ी
तब समझ पाओ फ़र्क़
शायद
आँगन से पहाड़ नहीं
दिखता अब वहाँ
इसलिए चला यहाँ
वापस”
कवि को सिर्फ पहाड़ की ही आकांक्षा नहीं है, उसे दोस्ती माँदर से भी चाहिए । जंगल उसके लिए भयावने नहीं हैं । नदियाँ ही नहीं उसके यहाँ पेड़ भी हरहराते हैं । हहराते नहीं हैं । जिस कवि के यहाँ पेड़ भी बोलते-गाते ( हरहराते) हों, उस कवि के अंदर प्रेम के कैसे-कैसे ‘घाघ’ ( प्रपात) हैं, इसका सहज अनुमान किया जा सकता है, और जिसके प्रमाण ‘गाडा टोला’ में हैं ।
कवि जिन शब्दों के
माध्यम से अपने को अभिव्यक्त कर रहा है, जिन
नामों,
उपमाओं, क्रियाओं
से उसकी कविता बन रही है, ये
सारी बातें एक संवेदना-समूह का पता देती हैं । कवि जिस ज़मीन पर खड़ा है, उस संवेदना-लोक के बारे में बताती हैं । इस संग्रह की ‘गाडा टोला’, ‘शाल घाटी’, ‘बाँधकोय’, ‘बाँसलोई’, ‘हुदहुदी नदी’, ‘सरई फूल’ , ‘असुर हेम्ब्रम’, ‘अमित मरांडी’ , ‘एदेल
किस्कू’,
‘हिम्बो कुजूर’ और ‘हेन्दा मय’ कविताएँ हमें उस संसार में लिए चलती हैं, जो अभी भी बहुत कुछ अजाना-अनपहचाना है बहुत-से लोगों के लिए । ये
कविताएँ एक अलग भाव-संसार का सृजन करती हैं । वह संसार, जिसे कवि अपने अंदर लिए चल रहा है और जिसकी भरसक कोशिश है कि ये
संवेदनाएँ अपने निष्कलुष प्राकृत रूप में बची भी रहें । कवि जब कहता है कि –
“ जंगल की ख़ुशबू से भरी
तुम्हारी
आँखों को
झरने की तरह
बातें करता देखता
बैठा रहा
हूँ सदियों बाँसलोई किनारे”
तो यह महज़ एक प्रेमी-प्रेमिका की बात नहीं रह जाती । यह बात ‘पुरुष-प्रकृति’ की संकल्पना की ओर पाठक का ध्यान सहज ही ले जाती है । होने को ‘अमित मरांडी’ की जगह अमित कुमार भी हो सकता था और ‘एदेल किस्कू’ की जगह माधुरी प्रिया भी ! लेकिन तब क्या ये नाम, और ये कविताएँ हमारे हृदय को उसी तरह छू पातीं ? कवि पाठक के लिए जो भावना-संसार अपनी कविताओं में खोल रहा है, वह पाठक का निकटतम तो नहीं ही है, उसके लिए अपरिचित भी है । लेकिन पाठक जब कविताओं में उतरता है तो सारी अजनबीयत दूर हो जाती है, और वह अपने सामने एक खिलता हुआ संसार पाता है । यह जो खिलता हुआ संसार है, वह राही की कविताओं में खास बात है । एदेल जिसका अर्थ है सेमल, इस नाम का प्रयोग करने भर से एक खिला-खिला अहसास होने लगता है । सेमल का लाल, पलाश या गुलाब का लाल नहीं होता । पलाश या गुलाब की तरह सेमल ने बहुत नाम नहीं कमाया है, लेकिन उसमें जो खिलता-चमकता लाल रंग है, वह आपको बाँध लेता है । जब कवि याद करता है “बसन्त की थाप पर माँदर की गूँज”,और “महुए की गंध के साथ पलाश का फूल” और जब वह कहता है “ जैसे ख़ूब साफ़ आसमान का कोई तारा हमारा हो जाता है” , हम उसे पढ़ते हुए पाते हैं हमारे अंदर कहीं कुछ खिल उठा है । यह ‘खिल उठना’ वह भाव है जो पाठक बार-बार महसूस करता है ‘गाडा टोला’ में ।
राही के यहाँ प्रेम की
उपस्थिति भी पारंपरिक या फैशन के मुताबिक नहीं है । उनके यहाँ प्रेम भी अपना ही
लहज़ा अख़्तियार करता है । कवि की ये पंक्तियाँ देखिए और प्रेम के नायाब हो जाने या
एक नायाब प्रेम के होने पर विस्मित होइए –
“ आज
फिर से तुम
पर
नहीं लिख
पाया कुछ
लिखना शुरू
करूँ
तो जंगल में
भागती
पगडंडी हो
जाती हो तुम”
अब बताइए, भला, जंगल कोई डरने की चीज़ हो सकता है ? प्रचलित अर्थों में ‘जंगली’ हो जाने का कोई मान है भला ? कितना खूबसूरत है कवि का याद करने का यह तरीका जिसमें याद करने से अमरूद की मिठास से मुँह भर जाए और चिड़ियों की चहचहाहट से गूँजने लगे मन ! यह कवि राही डूमरचीर का तरीका है, जहाँ प्रेम नई-नई अभिव्यक्तियों से गमक उठता है । जिसमें आसमान को तकती है घास, महुआ से मिलने की आस में ।
लड़की की ओर से भी कुछ कम नायाब बात नहीं की जाती, जैसे कि ‘हेन्दा मय’ की इन पंक्तियों में –
“ गीत और माँदर की ताल से ज्यादा जो उसे चाहे
झूमती टोली
की लय से जो न बँधे
उसके साथ
नहीं बँधना चाह्ती है लड़की”
यह प्रेम में बाँधना नहीं स्वतंत्र करना है । यह प्रेम में बंध कर भी
स्वतंत्र होना है । कवि की दुनिया में परजीविता नहीं सहजीविता है ।
“ जिनके घरों में बाँधकर नहीं रखे गए जानवर कभी
जिन्हें
भरोसे के व्यापारियों ने
मजबूर किया
जाने को ऐसी जगह
जहाँ से
लौटकर वे नहीं आ पाए कभी
आजकल नहीं
पता अमित कहाँ है
सिवाय उसकी
माँ की सूनी आँखों के
उसका कोई
ठिकाना नहीं मिलता मुझे”
इन्हीं पंक्तियों में हम देख पाते हैं एक बेफ़िक्र जीवन की बेपरवाही
भी । यह बेपरवाही राही की अन्य कविताओं में भी उपस्थित है । जिसे पहाड़ पसंद हों, वह बंध कर, फ़िक्र में दुबला होकर नहीं रह सकता ।
जैसा कि अच्छी कविताएँ करती हैं, इस
संग्रह की कविताओं में भी, सिर्फ़
समस्याएँ नहीं, हल भी हैं । ‘एदल किस्कू’ की इन
पंक्तियों को देखिए –
“ तुम अगर सचमुच जानना चाहते हो
तो ठीक से
सुनो—बाहा परब में तो नहीं आ पाऊँगी
पर आऊँगी
ज़रूर
इस बार
बरसात में आऊँगी
गाडा टोला
के अपने उसी घर में हमेशा के लिए
अपना खेत इस
बार मैं ही जोतूँगी
और मछली भी
मैं ही पालूँगी अपने पोखरा में”
सुपरिचित कवि कुमार अम्बुज ने भी कहा है –“ विचारशील और जिम्मेदार कविता का एक काम ‘यूटोपिया’ का निर्माण करना भी है । सपने देखने का अत्यन्त सार्थक काम भी कविता के जिम्मे है ।” राही भी अपने तरीके से अपनी कविताओं में यह काम करते चलते हैं ।
लालची
शक्तियाँ हमारे जनजीवन में अतिक्रमण किए जा रही हैं । सीधे-सादे लोगों के बसर के
लायक कम बची है ज़िंदगी । आदमी के जान की कीमत उनके लिए कुछ नहीं । उनको यह भी
बर्दाश्त नहीं कि एक सीधा-सादा आदमी एक सीधी-सादी ज़िंदगी बसर कर ले । ‘हिम्बो कुजूर’ कविता
हमें सूचित करती है –
“ आज
हिम्बो कुजूर को
उनके ही गाँव की लाव नदी से
बालू ढोने वाली एक अनजान ट्रक
नई पक्की बनी सड़क पर कुचलकर चली
गई”
हत्याएँ इसी तरह दुर्घटनाओं की तरह रिपोर्ट हो जाया करती हैं । पूरी दुनिया को पता होता है कि ये सारा गलत कारोबार किसका है, लेकिन ट्रक को अनजाना रखा जाना ही सबकी सेहत के लिए मुफ़ीद हो जाता है । इस संग्रह की कविताओं के कितने ध्वन्यार्थ हैं, यह बस ज़रा-सा ग़ौर से देखने पर पकड़ में आने लगते हैं ।
‘राही डूमरचीर’ का डूमरचीर इस संग्रह में एक जगह आता है । और जब आता है तो एक स्याह
यथार्थ से हमारा पुनर्परिचय कराता है । विकास की सीढियाँ, जो
हम समझते हैं कि छोटी जगहों से चढ़ती हुई बड़ी जगहों पर जाती हैं, जब उतरती हैं तो विनाशकारी भी हो सकती हैं । ‘बाँधकोय’
कविता की ये हृदय-विदारक पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं –
“
जच्चा बच्चे को लिये
अस्पताल के अन्दर गई
बच्चा बाहर आया
पर
जच्चा अन्दर ही रह गई
वे लोग फिर से वापस जा रहे थे
उस बच्चे के साथ—
पाकुड़ से
अमड़ापाड़ा
डूमरचीर
बाघापाड़ा होते हुए
बाँधकोय”
कवि ने अपने नाम
वाली ऐसी कविता को क्यों चुना, इस पर सोचेंगे तो शायद कवि के
मानस का कुछ पता हमें चले ।
कवि राही डूमरचीर अपने परिवेश, अपने गाँव, प्रकृति से कितना लगाव रखते हैं, यह प्रकृति के प्रति उनके उद्गारों से पता चलता है । प्रकृति के साथ थोड़ी
भी बेअदबी कवि को क्रोधित कर देने के लिए काफी हैं । ज़रा ‘कहा
बाँसलोई ने’ की इन पंक्तियों को देखिए –
“इतना
बड़ा मुँह
हम कहाँ से लाते हैं
जो किसी नदी को छोटा कहे
कितनी भी छोटी हो
हमसे तो बड़ी ही होती है नदी”
कवि को अपनी
छोटी ‘हुदहुदी नदी’ के गंगा में मिलने
से भी पीड़ा होती है –
“
पहाड़ के इसी छोर से
थोड़ी ही दूर पर
बहती हुई गंगा नदी भी दिख रही थी
जिसमें मिल जाना था हुदहुदी नदी को
एक हूक-सी उठी कहीं
कि हँसती-खेलती नदी की हस्ती
महज़ इतनी ही है”
कवि राही के लिए
प्रकृति और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं । कवि के लिए सबसे पहले दिल के भीतर ही हुलास
मारती है नदी । मनुष्य-निर्मित नक्शा तो बाद की औपचारिकता है । जंगल और पेड़ कवि के
आत्मीयजन हैं, नदियाँ मित्रवत् । कवि के लिए पेड़ों का काटा जाना
नरसंहार से कम नहीं, लेकिन पेड़ के कटने पर किसी को कुछ फ़र्क़
नहीं पड़ता । कवि को तकलीफ है, गुस्सा है और कवि दुनिया की
संगदिली पर हैरान है । कवि को अपने आदिवासी इलाकों की निश्चिंतता और सुकून प्रिय
हैं । वह तो हर जगह ऐसी ही दुनिया चाहता है । संग्रह की कविताओं में झारखंड की
जगहें, खासकर सन्ताल परगना, प्रमुखता
से उपस्थित हैं । सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी लिखते हैं—“
अधिकांश कवि दो नागरिकताओं के नागरिक होते हैं । पहली स्थानीयता वह होती है जहाँ
कवि का जन्म होता है, उसके बचपन का बड़ा हिस्सा जहाँ
गुजरता है । दूसरी वह जिसे वह अपनी रोजी-रोटी के लिए चुनता है । वह स्वैच्छिक भी
हो सकता है और आरोपित भी । अक्सर कवि अपनी रचना में अपनी पहली स्थानीयता के ही
नागरिक बने रहते हैं ।” इस लिहाज़ से राही डूमरचीर भी दो
नागरिकताओं के नागरिक हैं । अच्छी बात यह है कि वे अपनी रचना के बाहर, यानी असल ज़िन्दगी में भी पहली
स्थानीयता का नागरिक बने रहने को कृतसंकल्प हैं ।
मैं समझता हूँ ‘आदिवासी’ होने का मतलब है निष्कलुष, निश्छल और निर्दोष होना । राही भी संभवत: यही सोचते होंगे । मेरी फ़िक़्र यह है कि बाकी बहुत सारी बातों की तरह कहीं ‘आदिवासी’ शब्द भी बेदाग न बचे ! हमें इस संबंध में ज़रूर तसल्ली कर लेनी चाहिए कि ‘आदिवासी’ के ख़ैरख़्वाह बने लोगों की ‘पॉलिटिक्स’ क्या है ? हर शहर हमेशा से तो शहर नहीं रहा होगा । ज्यादा संभावना है कि जंगल ही रहे होंगे शहर कभी न कभी । इसी तरह देखें तो आदमी का शहरी होना तो बहुत बाद की बात है । मूल रूप से आदमी प्रकृति के करीब रहने वाला जीव ही है। सभ्यता के विकास के क्रम में वह कहाँ पहुँच गया है, यह अलग बात है । इसीलिए, आदमी प्रकृति के करीब जाकर सुकून पाता है,रस-मग्न हो जाता है । आदमी के डीएनए में है प्रकृति की सराहना। आदमी जाने-अनजाने अपने इसी मूल स्वभाव की ओर लौटना चाहता है । इस संग्रह की कविताएँ भी आपको उसी रास्ते ले चलती हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी लिखा है –“ कविता हृदय को प्रकृत दिशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है ।... कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरान्त कुछ और भी होता है और वही और सब कुछ है ।” इस संग्रह को पढ़ते हुए पाठक भी यही पाता है ।
ऐसा नहीं है कि कवि सिर्फ़ अपने ‘गाडा टोला’, ‘शालघाटी’ या ‘बाँसलोई’ की सोहबत में ही डूबा हुआ है । ऊपर जिस ‘दूसरी नागरिकता’ की बात की गई है, कवि को पूरी तरह उसका भी भान है । वहाँ की चीज़ों पर भी उसकी कवि-दृष्टि जाती है । कवि का काम ही है, जो है उससे बेहतर की ओर चलना । कवि देख सकता है कि एक आदमी कैसे प्रेमी से ख़ालिस आदमी बन जाता है और स्त्रियाँ कैसे खुद हारकर भी जिताती रही हैं प्रेमियों को । पुरुषों का स्त्री पर आधिपत्य जमाना ‘आदिवासी दृष्टिकोण’ तो कतई नहीं है । कवि देख पाता है कि किस तरह एक निर्दोष ‘असुर हेम्ब्रम’ की हत्या पर लीपापोती करती है पूरी व्यवस्था, किस तरह उपहास उड़ाते हुए एक जुमले से एक अभिनेता बदल दिया जाता है एक क़ौम में, और उसके लिए हिकारत और नफ़रत को पोषित करता है एक सभ्य-सुंस्कृत व्यक्ति । कवि देख पाता है कि वर्षों बाद भी एक स्त्री अपने पति के लिए माथे पड़ गई औरत ही रह गई है । वह देख पाता है कि घड़ी के आविष्कार के पीछे की मंशा काम करने वालों के घंटे मापना थी । आवश्यकता मालिकों के मुनाफे की थी, आविष्कार हुआ घड़ी का । कवि ऐसी ही दूसरी नागरिकता वाले शहर पहुँचने के क्रम में जब ‘गंगा किनारे बसे शहर में पहुँचता है’ तो उसके अपने नज़रिये का भी परिष्कार होता है । गंगा उसके लिए उसके यहाँ की नदियों को समा लेने वाली एक बड़ी नदी या ऐसी नदी नहीं रही जिसके किनारे बसे लोगों ने कवि के जंगलों-पहाड़ों में तबाही मचा दी। उसने गंगा दु:ख देखा और समझा भी ।
राही कविताओं में स्थानों को याद करते हैं ।
कुछ कविताएँ स्थान-विशेष को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं । ‘दुमका’
उनकी ऐसी ही एक कविता है, जो प्रकाशित होने पर
काफी चर्चित भी रही। ‘बहुत बारिश हुई थी लापुंग में’ भी ऐसी ही एक कविता है, रागात्मकता से लबरेज़ । लेकिन
मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया दो कविताओं में आने वाले शहर ‘धनबाद’ ने । ‘आख़िरी बार’
कविता का एक खंड आप भी देखिए –
“
पिता प्रवासी थे
धनबाद में
गाँव वापस लौट आए
मेरे पैदा होने के बाद
फिर
नदियाँ धमनियाँ बन गईं
जंगल साँसों की हरियाली
और पहाड़ चिर सखा
फिर क्या जाता धनबाद
आज इसी शहर के
स्टेशन से
विदा ली तुमने आख़िरी बार
अब क्या ही जाऊँगा
धनबाद”
यदि कभी आपने फोन पर किसी अनर्थ की खबर देते बहुत दु:ख में पड़े व्यक्ति की आवाज़ सुनी हो तो आपने महसूस किया होगा कि आवाज़ अंतस्तल की जाने किन गहराइयों से आ रही हो ! “ अब क्या ही जाऊँगा धनबाद” में वही असर है ।
कहते हैं इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता
है । इतिहास में विजेताओं की ही कहानी होती है, विजेता ही
नायक-अधिनायक ठहराए जाते हैं । वंचित, कमज़ोर या आम लोग
इतिहास में जगह नहीं पाते । कथा-पुराण-साहित्य उनके किस्से बचा ले जाते हैं,
भविष्य के अध्येताओं द्वारा खोज निकाले जाने के लिए । इस संग्रह की
दो लंबी कविताएँ ‘अर्जुन की मुस्कान’ और
‘लाक्षागृह में आदिवासी’ इन्हीं छूट गए
लोगों का आख्यान हैं । ‘महाभारत’ की
प्राचीन कथा को कवि जब आज के संदर्भ में देखता है तो हमारे सामने उन छूट गए लोगों
का इतिहास खड़ा हो जाता है । एकबारगी हमारा आधुनिक सभ्य मन यह सोचने लगता है कि
कहीं उस पक्षपात के, उस उपेक्षा के कारणों में हमारे ही
पुरखे तो नहीं ! ‘लाक्षागृह में आदिवासी’ की ये पंक्तियाँ पीछा नहीं छोड़तीं –
“ आज
भी कई सौ वर्ष बाद
टीवी पर देखते हुए महाभारत
और लाक्षागृह में जलते आदिवासी
हमें ख़ुशी से भरते हैं”
क्या शहादत
किन्हीं अर्थों में अन्याय भी होती है ? कविता का एक काम
आत्मालोचना भी है । कवि के लिए भी और पाठक के लिए भी ।
एक संग्रह की भूमिका में श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने कवि के विषय में यह टिप्पणी की है –“ हाँ, कहीं-कहीं वह बोकराती भी बन जाता है ! शायद उसे मोह हो जाता है, कालेज के प्रोफेसर भी उसे गीतकार की कोटि में रखें ! युग के प्रवाह में बहुत-से लोगों को बहना पड़ता है, पड़ा है !” इस बोकरातीपन की हल्की झलक इस संग्रह की एक-दो कविताओं भी दिखती है । हालाँकि, राही को पढते-जानते इसके बढ़ जाने की आशंका बिल्कुल ही नहीं है । फिर भी, सावधान करने में क्या बुराई है !
अपनी सारी बात कह लेने के बाद, प्रकृति के साथ किए गए सारे अत्याचार और अन्याय के बावजूद कवि के मन में
बदले की कोई भावना नहीं है । प्रकृति की तरफ से बोलता कवि आश्वासन देता है कि किसी
का कोई अहित नहीं किया जाएगा, पुराना कोई हिसाब नहीं खोला
जाएगा । बस कवि की और प्रकृति की इतनी-सी इच्छा है कि –
“ बस
हो सके
तो अगली बार जब धूप में निकलो
अपने बच्चों को
इमारत की छाँव और
पेड़ की छाँव में
फ़र्क़ करना सिखाना”
यही मानवता का
तकाज़ा भी है और अभी के जीवन की अनिवार्यता
भी ।
( 2 )
कोई भी
लेखक अपने लेखन में अपने भौगोलिक परिदृश्य को भी लेकर आता है, अनायास ही । राही डूमरचीर के इस संग्रह में भी पाठकों को इस बात के ढेरों प्रमाण
मिलते हैं । ‘गंगा किनारे बसे शहर’ से लेकर
राँची के पास के ‘लापुँग’ तक का इलाका इस
संग्रह का भौगोलिक विस्तार है । गंगा किनारे का यह शहर, बिहार
का शहर मुँगेर है । वहाँ से अगर आप दक्षिण-पश्चिम की ओर चलते हैं तो पाकुड़-दुमका पहुँचते
हैं । वहाँ से पश्चिम-दक्षिण की ओर चलें तो धनबाद होते हुए राँची पहुँचेंगे । राँची
से थोड़ा और दक्षिण-पश्चिम चलें तो लापुँग पहुँचते हैं । इस संग्रह की कविताओं में
ये सारी जगहें उपस्थित हैं । इस क्षेत्र के पेड़-पौधे, नदियाँ,
फूल, पर्व-त्योहार, खेती-बाड़ी
– सब मिलकर ‘गाडा टोला’ का लैंडस्केप तैयार
करते हैं । इतना ही नहीं, संग्रह की कविताओं का कैनवास,
संग्रह का फलक भी काफी विस्तृत है। इनमें प्रकृति का सान्निध्य है,
नैसर्गिक-निष्कलुष सुंदरता है, आदिवासी जीवन है,
आदिवासी अस्मिता है, तो दूसरी तरफ अंधाधुंध शहरीकरण,
लोभ, अपराध, अन्याय,
प्रताड़ना भी है। स्त्री-नजरिए से चीजों को देखने की कोशिश भी है । स्त्रियों
की आत्मनिर्भरता, उनका आत्मविश्वास और उनकी अपनी शर्तों पर जीने
की चाहत भी है , तो पुरुष-नजर से स्त्रियों को भार समझना भी है,
स्त्रियों का ‘जिताती रहीं हारकर’ होना भी है।
राही
आदिवासी जीवन के, वहाँ की सहजता और सरलता के काफी करीब हैं । उनकी कविताओं
में जीवन की वही सहज-सरल लय चुपचाप उतर आई है । माँदर की थाप, गीत, नृत्य, जंगल का हरहराना –
इन सबसे ‘गाडा टोला’ की कविताओं की लय बनती
है । कवि को गाँव से बाहर जाना है, आजीविका का सवाल है । यात्रा
का सबसे लोकप्रिय साधन अभी भी रेलगाड़ी है । रेलगाड़ी कवि को अपने गंतव्य की ओर लेकर
जा रही है, वहीं उसे उसका गाँव भी खींच रहा है माँदर की थाप बन
कर । इन दोनों विपरीत मन:स्थितियों को कवि ने किस खूबसूरती से ‘तुम्हारा स्टेशन’ कविता की अंतिम पंक्तियों में पिरोया
है –
“तुम्हारे गाँव से
बहुत दूर
गंगा के दियारे में भाग रही है ट्रेन
भाग रहा है मन माँदर की थाप संग
तांग धितिंग धितिंग तांग
तांग तांग तांग धितिंग
धितिंग तांग धितिंग तांग तांग”
अंतिम की तीन पंक्तियाँ
ट्रेन के चलने की लय को पकड़ती हैं । हम सब की स्मृतियों में ट्रेन की चाल का संगीत
है । इन तीन पंक्तियों को थोड़ा इस तरह पढ़कर ( बोलकर) देखिए –
तांग धितिंग, धितिंग
तांग
तांग धितिंग, धितिंग
तांग
तांग धितिंग, धितिंग तांग
तांग धितिंग,धितिंग
तांग
तांग धितिंग,धितिंग
तांग
अगली पंक्ति में
लय बदलती है –
तांग-तांग,तांग,धितिंग
तांग-तांग,तांग-धितिंग
तांग-तांग,तांग-धितिंग
अंतिम में पंक्ति
में ट्रेन अपनी पूरी गति में आ चुकी है –
धितिंग-तांग,धितिंग
तांग-तांग
धितिंग-तांग,धितिंग
तांग-तांग
धितिंग-तांग,धितिंग
तांग-तांग
थोड़ी देर चलने के
बाद ट्रेन वापस सम पर पहुँच जाती है –
तांग
धितिंग धितिंग तान ...
‘गाडा टोला’ के लैंडस्केप को ट्रेन का संगीत भरा-पूरा बना देता है । जीवन की लय,
विविधता से भरे लैंडस्केप को और विषयों के विस्तृत फलक को एक ही संग्रह
में समाहित कर लेना राही की बड़ी सफलता है ।
( 3 )
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते समय आप महसूस करेंगे कि ये कविताएँ धीरे-धीरे, आराम से, स्वाद लेकर पढ़ी जाने वाली कविताएँ हैं । लेख के आरंभ में भी कहा गया है कि ये कविताएँ औंटे हुए भावों वाली कविताएँ हैं । औंटा हुआ होने का अर्थ है गाढ़ा होना । गाढ़ी चीज़ें धीरे-धीरे ही अंदर उतारी जा सकती हैं, हड़बड़ी में नहीं । इसका नतीजा यह हुआ है कि कविताएँ मंथर गति में चलती लगती हैं ।
नई कविता, यानी छंद-मुक्त कविता
को पढ़ते समय पाठक को एक काम करना ज़रूरी होता है, कविता की लय
को पकड़ना । कविता का प्रवाह अगर ठीक-ठीक पकड़ में न आए, तो
कविता न समझ में आएगी, न आनंद देगी । ‘गाडा
टोला’ का प्रवाह स्वाभाविक रूप से पाठक की पकड़ में आ जाता है। एक पंक्ति से अगली पंक्ति पर जाने में कभी भी कोई अड़चन महसूस नहीं होती। ऐसा
लगता है कि कवि ने कविता की पंक्तियों को इतनी बार पढ़ा है कि उनका सारा नुकीलापन और
खुरदरापन मिट चुका है । इन कविताओं की पंक्तियाँ माँजी हुई पंक्तियाँ हैं । जैसे
बरतन के माँजे जाने से उसके किनारे समतल हो जाते हैं, वैसे
ही इन कविताओं की पंक्तियों के किनारे भी। इस वजह से एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति
में जाने में पाठक कहीं अटकता नहीं । माँजे जाने का एक और फायदा होता है कि बरतन
चमकने लगते हैं । इन कविताओं के विषय में भी कहा जा सकता है कि ये चमकती हुई
पंक्तियाँ हैं । इस लेख का एक शीर्षक यह भी हो सकता है – ‘गाडा टोला’ : औंटे
हुए भाव, माँजी हुई पंक्तियाँ । कहीं-कहीं तो वाक्य विन्यास इस
तरह का बन पड़ा है कि पाठक को गीत-सा आनंद मिल जाए । इसे जाँचने के लिए ‘जिताती रहीं हारकर’
कविता के पहले दो अंतरे पढ़कर देखिए । मुक्तिबोध ने कहा है –“ काव्य-भाषा
का आदर्श तो यह होना चाहिए कि वह उत्तेजित शारीरिक चेष्टा के रूप-जैसी ही
प्रत्यक्ष प्रतीत हो । चूँकि यह सब विषयों में सर्वत्र सिद्ध नहीं हो सकता, इसीलिए स्वर को साधा जाना चाहिए। स्वर को साधा भी जाता है । स्वर का अर्थ
है लहजा ।” राही डूमरचीर भी इसके प्रति सजग कवि हैं । स्वर को साधने का
अर्थ है अवलोकन और अभ्यास। कविता में आए पात्रों की भाषा, उनके स्वर को भी राही बखूबी साधते हैं, जिससे उनकी कविता और भी ज्यादा प्रभावी हो जाती है । ‘एदेल किस्कू’ कविता की ये पंक्तियाँ ‘स्वर को साधने’ का एक सुंदर उदाहरण हैं –
“बाबा
के बाद कौन बचा था
जो घर चलाता
आयो का हालत तो जानते ही थे
तुम्हारा घर वाला बहुत मदद किया
लेकिन
हमारी ही ज़मीन पर हमको रोजगार
दे दिया था
बदले में बचने भर भात-तरकारी भी
दे देता था”
राही अपनी कविताओं में (या अन्य जगहों पर भी) शब्दों को उनके सही अर्थ में बरतने के आग्रही हैं । कई बार शब्दों से चस्पाँ अर्थ सदियों से चले आ रहे पक्षपात, असमानता और अन्याय को अपने में समाहित किए रहते हैं, लेकिन रोज़मर्रा के इस्तेमाल में इतनी बेफ़िक़्री के साथ इस्तेमाल किए जाते हैं कि किसी को कोई भान तक नहीं होता कि शब्द अपने में क्या इतिहास छुपाए हुए हैं । राही का ध्यान इन बातों पर जाता है । इस संग्रह में दो मुहावरों ‘ इज़्ज़त का मिट्टी में मिलना’ और ‘बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला’ का ज़िक्र इसी नज़रिये से किया है । अपने नज़रिये पर जमे रहना अच्छी बात है, लेकिन कवि को यह ध्यान रखना चाहिए कि अत्यधिक चिंतन कविता को भारी न बना दे । भाषा के प्रति धूमिल भी बहुत संवेदनशील थे । उन्होंने कहा है –“ एक रचनाकार भाषा को उसके तिरस्कार से बचाता है। भाषा को मामूली आदमी से नहीं, बल्कि उसके मामूलीपन से सुरक्षित करना सृजन करने वाले व्यक्ति यानी रचनाकार का दायित्व है ।” रमेशचन्द्र शाह भाषा के संबंध में इस तरह बात को स्पष्ट करते हैं –“ भाषा का सम्बन्ध आदमी के व्यक्तित्व से ही नहीं, उसके अस्तित्व से भी है । व्यक्तित्व की अनुभूति रोज़मर्रा की अनुभूति है, क्योंकि व्यक्तित्व की चेतना अहंचेतना ही है, जिसके बिना आदमी जीवन में सफल नहीं हो सकता, समाज में अपने को जमा नहीं सकता । व्यक्तित्व की चेतना हममें मुश्किल से ही कभी जगती है क्योंकि वह हमारी प्रयोजन-पूर्ति में सहायक नहीं होती, उल्टे बाधक ही होती है । व्यक्तित्व की चेतना आदमी को आत्मविश्वासपूर्ण और आत्मतुष्ट बनती है, जबकि अस्तित्व की चेतना का आरम्भ ही इस आत्मतुष्टि के विघटन से होता है ।” राही के विचारों को समझने में उपर्युक्त दोनों उद्धरण हमारी सहायता कर सकते हैं ।
कवि राही डूमरचीर और प्रकाशक राजकमल ने अपना काम कर दिया है । एक अच्छी किताब सुरुचिपूर्ण तरीके से प्रकाशित कर । मात्र 199 रुपए की किताब, जो राजकमल प्रकाशन की वेबसाइट पर अभी आकर्षक छूट के साथ उपलब्ध है । किताब में पृष्ठों की साज-सज्जा भी काफी अच्छी रखी गई है । संग्रह का नाम और पृष्ठ संख्या एक अलग अंदाज़ में रखे गए हैं, जो भाते हैं। एक अच्छे कवि के अच्छे संग्रह का स्वागत होना ही चाहिए । सुप्रसिद्ध आलोचक देवीशंकर अवस्थी ने कहा है- “ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि रचनाकाल में कोई कृति कर्ता का अनुभव ही है, पर रच जाने के बाद उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व हो जाता है और उस समय स्वयं रचनाकार एक विशिष्ट पाठक मात्र बन जाता है । ... वास्तव में कृति लेखक द्वारा पाठकों को दिया गया कोई संदेश-विशेष न होकर एक स्वतंत्र सत्ता है जिसकी सापेक्षता एक सीमा तक ही होती है ।” कहने का तात्पर्य है कि पाठक को कोई पूर्वग्रह नहीं रखना चाहिए । किताब को उसके अपने गुण-दोषों के आधार पर परखना चाहिए । यह बात ‘गाडा टोला’ के बारे में भी उतनी ही सही है, जितनी किसी अन्य पुस्तक के बारे में ।
हाँ, किताब का कवर शायद और बेहतर हो सकता था । संग्रह की कविताओं-सा खिलता हुआ । और कवि का चिंतित दिखना ज़रूरी नहीं, तस्वीर में वह मुस्कुरा भी सकता है !
संग्रह से गुज़र चुकने की बाद कवि और उसके इस संग्रह के विषय में मुक्तिबोध का यह कथन याद आना स्वाभाविक है, जो उनका अपने और अपने साथ के कवियों के विषय में है – “ भारतीय मन की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । वह साहित्य को अपने आत्मीय परमप्रिय मित्र की भाँति देखना चाहता है, जो रास्ते चलते उससे बात कर सके, सलाह दे सके, काट-छाँट कर सके, प्रेरित कर सके, पीठ सहला सके, और मार्ग-दर्शन कर सके । भारतीय साहित्य में उन लोगों की वाणी को ही प्रधानता मिली है, जिन्होंने आध्यात्मिक असन्तोषों और अतृप्तियों को दूर करने की दिशा में विवेक-वेदना-स्थिति से ग्रस्त होकर काम किया है । आशा है कि हमलोग वैसा ही करेंगे।”
राजकमल
जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशक के यहाँ से प्रकाशित होना अपने-आप में एक मुकाम है, और किसी मुकाम पर पहुँचने से ज्यादा
चुनौतीपूर्ण है मुकाम पर बने रहना । राही डूमरचीर इस बात को समझते होंगे ।
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