इंसान की पहचान
सहर के आ जाने से ही
दिन तो नहीं फिरते हैं दोस्त !
ये तो पिछली रातों की सियाही है
जो तय करती है
कि दिन किस हद तक काला रहेगा
कितनी चीजें मुकम्मिल नज़र आयेंगी
कितनी खो के रह जाएंगी
और सियाही कम करने की तरकीब
वही पुरानी, आजमाई हुई है-
मिहनत और बस मिहनत
मगर मोहलत नहीं है भाई
और अगर कुछ वक्त है भी
तो लोग सब्र करने को तैयार नहीं
एतबार करने से डरते हैं
और इस हाल में जब
हर चीज़ की कीमत आँकी जा रही हो
हम खुद भी
रुक के कुछ सोचने को तैयार नहीं
बस इस मुकाम से उस मुकाम
कि कब, कहाँ, कैसे
अधिकतम दामों पर बिका जाए
हमें ये समझने की फुर्सत नहीं
कि जिंदगी
सिर्फ मृग-मरीचिकाओं के पीछे भागने का नाम नहीं
सिर्फ हवस नहीं, ऐशो-आराम
नहीं
जरूरतें तो रबर की थैली हैं
जितना बढ़ायेंगे, बढ़ेंगी
जितना घटायेंगे, घटेंगी
ये तय तो आखिरकार
हमें ही करना है कि थैली बड़ी कितनी हो !
और ये ज़िम्मेदारी भी
शायद हमारे ही जिम्मे है
कि लोग दूसरों को पूछें
इंसान होने की खातिर,
उनकी शख्सियत, उनके वजूद
की खातिर
न कि उन पे लगे 'प्राईस-टैग'
की खातिर....
न कि उनकी चमक-दमक की खातिर....!
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