कोई किसी का नहीं होता
कितना चाहा था
हर अहसास से वाकिफ होना
हर बात को कह-सुनाना
हर मौके में शरीक होना
हर राह में हाथ बढ़ाना
कितना चाहा था...
मगर
अपनी-अपनी मसरुफ़ियत है सबकी
जरूरत है सबकी अपनी-अपनी
बेकार तो नहीं है कोई
कमजोर नहीं कोई हम-सा
आखिर कहाँ तक
कोई किसी को ढो पाता है
एक हद होती है प्यारे
फिर कोई किसी का नहीं होता !
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