शुक्रवार, 20 जून 2025

कहाँ स्वीकार करता है कोई


 

कहाँ स्वीकार करता है कोई

 

कहाँ स्वीकार करता है कोई 

किसी को उसकी निजता में 

मैं तुमको, तुम उसको 

कोई किसी को

 

सारे पूर्वाग्रह, सारी अपेक्षाएँ 

सारी नाराजगी, सारी उपेक्षाएँ 

हमारे साथ-साथ 

चलती रहती हैं, पल-प्रतिपल 

अपने जैसा 

अपनी सहूलियत के मुताबिक ढूँढते रहते हैं हम 

हर शै, हर बात 

और निराश होते रहते हैं 

घिसते-घुटते जिये जाते हैं! 

कभी कोई नहीं सोचता 

कि हमारे खुद के दो हिस्से 

जब एकदम एक-से नहीं 

तो पूरे का पूरा इंसान 

भला कैसे हो 

अपने मन-मुताबिक !


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