कहाँ स्वीकार करता है कोई
कहाँ स्वीकार करता है कोई
किसी को उसकी निजता में
मैं तुमको, तुम उसको
कोई किसी को
सारे पूर्वाग्रह, सारी
अपेक्षाएँ
सारी नाराजगी, सारी
उपेक्षाएँ
हमारे साथ-साथ
चलती रहती हैं, पल-प्रतिपल
अपने जैसा
अपनी सहूलियत के मुताबिक ढूँढते रहते हैं हम
हर शै, हर बात
और निराश होते रहते हैं
घिसते-घुटते जिये जाते हैं!
कभी कोई नहीं सोचता
कि हमारे खुद के दो हिस्से
जब एकदम एक-से नहीं
तो पूरे का पूरा इंसान
भला कैसे हो
अपने मन-मुताबिक !
Kavi man ke udaasi jhalakti hai...kavi ka man he samaaj ka darpan hota hai shayad....bahut badhiya
जवाब देंहटाएं