शुक्रवार, 20 जून 2025

सहारा


 

सहारा

 

चाहिए इक बाँह कि थाम लें 

होशमंद होने से भी पहले 

जाने कितनी उँगलियों के सहारे जिया 

फिर सीखा चलना उँगलियों के सहारे 

पढ़ना, लिखना -- सब उँगलियों के सहारे 

फिर धीरे-धीरे ऐसा हुआ 

कि जो उँगलियाँ साथ-साथ चल कर 

हर काम सिखाती थीं 

वो दिशा-निर्देश देने लगीं 

कि इधर नहीं उधर 

यहाँ नहीं वहाँ 

ऐसे नहीं वैसे 

और जिंदगी चलती रही 

बताए गए रास्तों पर.... 

बहुत हुआ तो उन रास्तों में से एक चुन लिया 

और समझ बैठे कि ये अपनी खोज है, अपना लक्ष्य है! 

मगर फिर उँगलियाँ बढ़ने लगीं 

और 

साथ-साथ दिशा-निर्देश भी

यहाँ तक कि 

हर मोड़ पर कई-कई उँगलियाँ-- 

हर उँगली श्रेष्ठतम उपायों के साथ !

जिंदगी बढ़ती रही ...

फिर अचानक 

सारी उँगलियाँ गायब 

एक शून्य सामने, एक निर्वात् 

देखा तो पगडंडियाँ खत्म हो गयीं

और अब कदम कुछ चौड़े रास्तों पर 

किंकर्त्तव्यविमूढ़ मन !

 

उँगलियों की तो आदत पड़ी हुई है 

बगैर उनके अगला कदम -- असम्भव 

मगर चलना तो होगा

किसी के रोके सफर रुका है भला 

अगल-बगल देखा कदमों के निशां भी नहीं 

बल्कि इतने सारे कदमों के निशां 

कि कौन किसके हैं पहचानना मुश्किल 

सारे तेज रफ्तार कदम 

एक दूसरे पे छपे हुए, छाए हुए 

कूपमंडूक मन -- भयभीत ! 

न तो उँगलियाँ हैं 

न दिशायें निर्दिष्ट

बस एक रास्ता है-- 

चौराहों से भरा पड़ा

अब तो उँगलियों से काम भी नहीं चलेगा...

अब तो चाहिए एक बाँह 

कि जिसको थाम दम ले सकें 

कुछ साध सकें 

कुछ खोना सह सकें

कुछ पाना सीख सकें 

सही मायनों में जी सकें 

बस !

चाहिए इक बाँह कि थाम लें ।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें