दूसरा पक्ष
द्विचरों
के मध्य इतिहास की उपत्यका है
[
संदर्भ : ‘आलोचना’ अंक-76 में प्रकाशित लेख ‘भारत के इतिहास में बाइनरी और
वर्चस्व’]
किसी भी वस्तु
के कम-से-कम दो आयाम,
किसी भी कविता के कम-से-कम दो पाठ और किसी भी बात के कम-से-कम दो
माने तो होते ही हैं । यह सही है कि कई बार जो प्रत्यक्ष है, उसी को देखने-सुनने के चक्कर में जो अप्रत्यक्ष है, वह
अलक्षित रह जाता है । कई बार इसका उलट भी हो सकता है । अप्रत्यक्ष को सामने लाने
के उत्साह में, बिल्कुल प्रत्यक्ष वस्तु भी आँखों से ओझल रह
जा सकती है । ‘अनेकता में एकता’ की
अवधारणा कुछ ऐसी ही अवधारणा प्रतीत होती है । ‘अनेकता में
एकता’ की एकता कोई विशालकाय ( behemoth) अखंड
वर्चस्ववादी मत नहीं है । बल्कि यह अनेक मतों की एकजुटता है । ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ पुस्तक में जवाहरलाल नेहरू ‘हिन्दुस्तान की विविधता
और एकता’ नामक अध्याय में लिखते हैं -- “ सभ्यता के उषा-काल से लेकर आजतक, हिंदुस्तान के दिमाग़ में एकता का स्वप्न बराबर रहा है । इस एकता की कल्पना
इस तरह से नहीं की गई कि मानो वह बाहर से लागू की गई चीज़ हो, या बाहरी बातों या विश्वासों तक में एकरूपता आ जाय । यह कुछ और ही गहरी
चीज़ थी; इसके दायरे के भीतर रीति-रिवाजों और विश्वासों की
तरफ ज़्यादा-से-ज़्यादा सहिष्णुता बरती गई है और उनके सभी अलग-अलग रूपों को क़ुबूल
किया गया है और उन्हें बढ़ावा दिया गया है ।” ( सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2022, पृ. 69) भारत की विविधवर्णी
संस्कृति में एका की एक अंतर्धारा तो है । भारत से बाहर, किसी
विदेशी धरती पर जब कोई भारतीय खड़ा होता है तब वह सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व कर
रहा होता है । सारे पैम्फलेटों, पत्रिकाओं, पुस्तकों ,ग्रंथों आदि से मिलकर ही पुस्तकालय बनता है
। यह पुस्तकालय इन सबकी पहचान भी बनता है, जो उनकी अपनी
विशिष्ट पहचान को ज़रा भी नुकसान नहीं पहुँचाता है । यही पहचान तो अनेकता में एकता
है ! एक और उदाहरण से इसे समझने की कोशिश
करते हैं । आजादी के बाद जब 562 देशी रियासतों का भारत में विलय किया गया तो क्या
वह एक वर्चस्ववादी अभियान था ? उन रियासतों के नाम बदल गए हों, लेकिन क्या इतिहास में राज्यों/ शहरों के नाम सदा एक ही रहते हैं? मगध या अंग या कोसल या अवध या ऐसे ही बहुत सारे और नाम क्या उन्हीं अर्थों
में प्रचलित हैं, जैसे वे अपने समय में रहे होंगे ? एकजुट होकर रहना व्यष्टिगत शक्ति का कारण भी होता है, जो समष्टित: भी संरचना को मजबूती प्रदान करता है । भारत में प्रचलित कुछ
मुख्य धर्मों में समानताएँ हैं । भरत झुनझुनवाला ने अपनी किताब ‘ कॉमन प्रॉफेट्स’ में यह दर्शाया है कि परस्पर
विरोधी प्रतीत होते धर्मों में भी समानताएँ विद्यमान हैं । उन्होंने यहूदी,
ईसाई, इस्लाम एवं हिन्दू धर्म के देवदूतों /
अवतारों में समानताओं को दर्शाया है । उन्होंने
आदम और स्वयंभू मनु, कैन और इन्द्र, नोह
और वैवस्वत मनु, अब्राहम और राम तथा मूसा और कृष्ण में
समानताएँ दिखाई हैं । अनेकता अथवा विविधता
में भी एकता के सूत्र पिरोए हुए मिल सकते हैं । भारत के इतिहास के पिछले सौ सालों
में एक और चीज जो ‘अनेकता में एकता’ को
सिद्ध करती हुई उभरी है, वह है सिनेमा । खासकर भारतीय हिन्दी
सिनेमा और उसके गीत । भले ही अकादमिक इतिहास की तरह न देखा जा सके, परंतु अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘एकदा नैमिषारण्ये’
की उनकी भूमिका के ये अंश निश्चित रूप से द्रष्टव्य हैं –
“
... किसी समय मद्रास के एक मंदिर में दर्शन करने गया था । मण्डप में एक
पुराणवाचक तमिल भाषा में कथा सुना रहे थे । ... पुराणवाचक महोदय ने ‘एकदा
नैमिषारण्यत्तिल...’ कहा तो मेरे मन में अपनेपन की
फुरफुरी-सी दौड़ गई । इसके कई बरस बाद डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल लिखित ‘अंधकार युगीन भारत’ में भारशिवों और वाकटकों के
शासनकाल में एक महान् सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन चलाए जाने की बात पढ़कर फिर
नैमिषारण्य के 84000 संतों वाले मेले की याद आई । ...नैमिष आंदोलन को
ही मैंने वर्तमान भारतीय या हिन्दू संकृति का निर्माण करने वाला माना है । वेद,
पुनर्जन्म, कर्मकाण्डवाद, उपासनावाद,ज्ञानमार्ग आदि का अंतिम रूप से समन्वय
नैमिषारण्य में ही हुआ । भारत की दो सांस्कृतिक धारायें ब्राह्मण और श्रमण आपस में
कहीं मिल ही नहीं पाती थीं । नैमिष-छाप महाभारत पुराणादि में इन दोनों ही
सांस्कृतिक धाराओं का संगम है।”
जब हम अनेकता
में एकता की बात करते हैं तो यह अनिवार्यत: द्विचरी नहीं होता । यह सही है कि
सहस्राब्दियों के अनुकूलन ने बहुत-सी ऐसी प्रवृत्तियों को जन्म दिया है जिन्हें आज
के समय में स्वीकार नहीं किया जा सकता । ये अनुकूलन किसी एक घटना के कारण या किसी
एक काल खण्ड में निर्मित नहीं हुए होंगे । ठीक उसी तरह उनके विलुप्त होने की
प्रक्रिया भी दीर्घकालिक ही होगी । यदि हम अपने आस-पास नजर दौड़ाएँ तो आसानी से
पाएँगे कि हमारे खुद के व्यवहार में बेहतरी के लिए कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं, जो शायद कुछ दशक पहले विचारणीय
भी नहीं होते ।
कहते हैं
इतिहास तो विजेताओं का होता है । जो शीर्ष पर बैठे हैं, जो
शक्ति के केन्द्र हैं, इतिहास उनके ही नज़रिए से लिखा जाता
है । ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने अपनी पोजिशन का फायदा उठाया और बहुत लंबे समय तक
अपने आधिपत्य को बनाए रखा । लेकिन यह सब क्या बिना किसी विरोध या संघर्ष के हो
पाया ? ब्राह्मण क्या कभी भयभीत नहीं हुए, उन्हें अपनी सत्ता खोने का डर नहीं हुआ ? ब्राह्मणों
की पकड़ ढीली पड़ती रही है । अन्य धर्मों के उदय या बाहरी धर्मों के आक्रमण-आगमन ने
ब्राह्मणवादी व्यवस्स्था में सेंध लगाई, कई दफा नींव भी
हिलाई । यह तो माना जा सकता है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था सबसे प्राचीन व्यवस्था है
। जब तक सिंधु घाटी सभ्यता के रहस्य डिकोड नहीं किए जाते, ब्राह्मणवादी
व्यवस्था की शुरुआत वैदिक काल से मानी जा सकती है । यह समझा जाता है कि ब्राह्मण
अपने वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते रहे । यह सही भी है
। यहाँ विजयनाथ के आलेख ' फ़्रॉम ब्राह्मनिज़्म टू हिंदुइज़्म : निगोशियेटिंग द मिथ ऑफ़ द ग्रेट
ट्रेडिशन’ का यह अंश ध्यातव्य है –“ हालाँकि अक्सर हिंदू धर्म की तुलना बरगद के वृक्ष से की
जाती जिसके नीचे या समीप कुछ और नहीं पनप सकता, तथापि इसकी
तुलना एक ऐसे वृक्ष से की जानी चाहिए जिसकी बहुसंख्य जड़ें हैं जो इसे पोषित और
पुनर्जीवित करती हैं, साथ ही विलक्षण विविधता और लोकप्रियता
प्रदान करती हैं ।” इसी आलेख में वे आगे कहते हैं कि पुराणों के रचयिताओं ने अपनी
बात पहुँचाने के लिए मिथकों का प्रचुर इस्तेमाल किया । ऐसा सिर्फ इसलिए कि
श्रोताओं में अधिकांश पढ़े-लिखे वर्ग के नहीं थे , बल्कि
इसलिए भी कि वे ब्राह्मणवादी परंपरा में भी बदलाव लाना चाहते थे । यह बदलाव अन्य
तत्कालीन परंपराओं से प्रतिस्पर्धा से ज्यादा उस समय के बदलते
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक हालात के कारण आ रहे थे । ब्राह्मणों के लिए
अस्तित्व-रक्षा का प्रश्न था । ब्राह्मणों को अपने ब्राह्मणत्त्व को सिद्ध करने
की जरूरत भी पड़ती रही है । स्वामी सहजानन्द सरस्वती ( 1889-1950) की पुस्तक ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तार’ ( प्रकाशन संस्थान)
देखी जा सकती है । पुस्तक में लेखक ने बहुत श्रमपूर्वक अयाचक
ब्राह्मण जातियों को ब्राह्मण सिद्ध किया है । कहने का तात्पर्य है कि भले ही
ब्राह्मण कितने भी शक्तिशाली समझे जाएँ, कुछ-न-कुछ
ब्राह्मणों पर असुरक्षा की तलवार लटकी ही रही है । लेकिन इन बातों का यह कतई मतलब नहीं है कि उन्हें
उनकी कुरीतियों और अमानवीय प्रथाओं के इल्जाम से बरी किया जाता है ।
यहाँ थोड़ा
रुककर एक प्रश्न पर विचार किया जाए । किसी भी काल में धर्म और साहित्य को संचालित
करने वाली शक्तियाँ क्या हो सकती हैं ? आर्थिक, राजनीतिक
और सामाजिक कारण ही किसी भी काल के धर्म और साहित्य को प्रभावित करते हैं । भले ही
हम कितना भी मानना चाहें कि धर्म और साहित्य ही अर्थ, राजनीति
और समाज को प्रभावित करते हैं । मुक्तिबोध ने यूँही नहीं पूछा था कि “ पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?” हर बात
प्रत्यक्षत: अथवा प्रकारांतर से आर्थिक परिणामों तक ही पहुँचती है । सत्ता अर्थ की
होती है, कम-से-कम वर्तमान की परिस्थितियों में । साम्राज्य
बाजार का ही है । पुराने समय में धर्म सत्ता पर काबिज होने का साधन था, आज बाजार है । जितने भी नए धर्मों का उदय हुआ ( भारत के संदर्भ में),
वे सभी पहले उपेक्षित समुदायों और इलाकों में अपनी जड़ें फैलाने को
उद्यत हुए । आज समय बाजार का है । बाजार पहले बड़ी जगहों, बड़े
लोगों तक पहुँचता है । धीरे-धीरे वह आगे बढ़ता है या नीचे उतरता है । टीयर टू , टीयर थ्री
आदि शहरों अथवा बाजारों का वर्गीकरण इसी
की पुष्टि करता है । इसी बात को जनजातीय/ आदिवासी क्षेत्रों की पहचान की सुरक्षा
से जोड़ कर भी देखा जाना चाहिए । बाजार गाँवों तक को तो लील चुका है । अब उसे सुदूर
इलकों को हथियाना है । जो काम आज बाजार कर रहा है, पहले धर्म
कर रहा था ।
एक दूसरी बात
भी है । जब संयुक्त परिवार में बँटवारा होता है, साथ रहने वाले भाइयों को
स्वतंत्र सत्ता की प्राप्ति हो जाती है । किसी न किसी रूप में वे एक दूसरे के
प्रतिस्पर्धी-प्रतिद्वंद्वी बन ही जाते हैं । बहुधा एक दूसरे से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करते
हुए । वैदिक काल से ब्राह्मण-परंपरा को
इसके मानने वालों की संख्या के अनुसार
सबसे बड़ी परंपरा माना जा सकता है । जिसे कालांतर में हिंदू परंपरा कहा जाने
लगा (जैसा कि विजयनाथ के उपर्युक्त आलेख में प्रतिपादित भी किया गया है ) । जब इस
परंपरा पर प्रहार होने लगा, आंतरिक एवं बाह्य दोनों तब
उन्हें अपने अस्तित्व की सुरक्षा की चिंता भी होने लगी । इसी क्रम में संभवत: अब
तक जो इस फ्रेमवर्क से बाहर थीं, जनजातीय परंपराओं को अपनाने
की प्रक्रिया शुरू हुई -- “ सुकुमारी भट्टाचार्जी के आलेख के उद्धरणों से स्पष्ट है कि कथित वैदिक-ब्राह्मण श्रेष्ठ परंपरा
को व्रात्य क्षेत्र में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए पर-संस्कृति ग्रहण की
प्रक्रिया के तहत जनजातीय लोक-परंपराओं को स्वीकार करना पड़ा ।” ( आलोचना अंक 76, पृ.43) । ऐसी ही स्थापना विजयनाथ के उपर्युक्त आलेख में भी दी गई है । ऐसी स्थिति
में ब्राह्मण कितने वर्चस्वादी हैं, इस पर थोड़ा और विचार
किया जाना चाहिए । इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार और उसके बाद हुए
धर्मांतरण का इतिहास यह बता सकता है कि धर्म की सत्ता भी साम्राज्यवादी होती है,
भले रणनीतियाँ सामरिक न हों । हर धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म की
कुरीतियों पर ज्यादा प्रकाश डालते हैं । अन्यथा धर्मों का प्रसार कम हो जाएगा और
हिंदू धर्म जैसे प्राचीन धर्म के लिए अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो सकता है। धर्म को अधिकाधिक व्यापक और दृढ़ बनाने के लिए हर
धर्म के अनुयायियों/ प्रचारकों द्वारा तरह-तरह के सही-गलत प्रयास किए जाते रहे हैं
। एक उद्धरण देखिए : -
“ सशिष्य संघा: प्रविशन्ति
राज्ञां
गेहं
तदादि स्ववशे विधातुम् ।
राजा मदीयोSजिरमस्मदीयं
तदाद्रियध्वं
न तु वेदमार्गम् ॥ ( शंकरदिग्विजय, सर्ग 7,श्लोक 91)
अर्थात् “ शिष्य
समुदाय सहित बौद्ध लोग राजाओं को अपने वश में करने के लिये उनके घरों में प्रवेश
करते थे और यह घोषित करते थे कि यह राजा मेरे पक्ष का है, उसका
देश हम लोगों का है । अतएव आपलोग वेदमार्ग का आदर मत करो, अर्थात्
वैदिक मार्ग का परित्याग कर हमारे शास्त्र का आश्रय ग्रहण करो ।” [ जयराम मिश्र,
आदि शंकराचार्य जीवन और दर्शन, लोकभारती
प्रकाशन, प्रयागराज, 2025 , पृ. 10]
कहने का तात्पर्य यह है कि विभिन्न धर्मावलंबियों द्वारा अपने को स्थापित करने तथा
श्रेष्ठतर सिद्ध करने के प्रयास किए जाते रहे हैं । धर्म में रूढ़ियों का बन जाना,
उसमें विचलन और गिरावट आना एक स्वाभाविक परिघटना ही है ।
जहाँ तक
वर्चस्व स्थापित करने की बात है तो बाजार और धर्म के साथ-साथ विचारधाराओं की
प्रतिद्वंद्विता को भी देखा जाना चाहिए । जाहिरा तौर पर हर विचारधारा जन के कल्याण की
पक्षधर होती है । उनके घोषणापत्र, उनका साहित्य बार-बार यही प्रचारित करते हैं, लेकिन बात अंतत: सत्ता-प्राप्ति पर ही
आकर रुकती है । सत्ता साध्य है, विचारधारा साधन । नहीं तो
क्या कारण है कि सत्तारूढ़ हो जाने के बाद कमोबेश हर दल, चाहे
वह किसी भी विचारधारा का पोषक हो, एक-सा व्यवहार करता है ।
सत्ता के डायानामिक्स अलग ही होते हैं ।
मानवशास्त्र और
इतिहास के संदर्भों में बाइनरी ( द्विचर) को नकारात्मकता के बोध से संपृक्त माना
जा सकता है,
लेकिन हमारे दैनंदिन के व्यवहार में बाइनरी हर जगह उपस्थित है बल्कि
व्यापक अर्थवत्ता लिए हुए है । पहली बात तो यह कि हर दो व्यक्ति के बीच परस्पर बोध
बाइनरी का ही होगा । दो व्यक्तियों के विचार-व्यवहार दो अलग-अलग बिंदुओं से क्रमश: एक होने को
अग्रसर होते हुए अथवा अलग दिशाओं में प्रस्थान कर जाते हुए । समाज, देश और धर्म के केंद्र में भी व्यक्ति ही होता है । फिर, इस आधुनिक
कम्प्यूटर-युग में तो कम्प्यूटरों की बातचीत का आधार ही बाइनरी है। 0 एवं 1 के
सहारे ही सारा कारोबार होना है । इसी बाइनरी यानी द्विचरों के बीच पूरा संसार
समाया हुआ है । मानव-सभ्यता का इतिहास भी तो यही है – ‘सरवाइवल
ऑफ द फिटेस्ट’। हमेशा दो प्रतिस्पर्धी विकल्पों में से एक का
चुनाव। द्विचरों के मध्य ही पूरा इतिहास समाया हुआ है । द्विचरों के मध्य इतिहास
की उपत्यका है , और है सत्य और उसके असंख्य शेड्स।
(२)
अपने
आलेख ‘ सिंडिकेटेड हिंदुइज़्म’ में इतिहासकार रोमिला थापर की
चिंता का मूल विषय है नव-हिंदू धार्मिक आंदोलनों का राजनीतिक रूप से मजबूत हो जाना
। इन नव-हिंदू आंदोलनों के राजनीतिक रूप से सबल होने की घटना को ही रोमिला थापर ‘सिंडिकेटेड हिंदुइज़्म’ कहती हैं । राजनीतिक रूप से
मजबूत और मुखर यह सिंडिकेटेड हिंदुइज़्म
अपने को हिंदू समुदाय कहता है और अपने को स्वदेशी भारतीय धर्म ( अर्थात् हिंदू
धर्म) का एकमात्र उत्तराधिकारी घोषित करता है । यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में
बहुसंख्यकवाद की आवाज को बुलंद करने वाला है ।
वे हिंदू धर्म के इस रूप के उदय के
पीछे के कारणों की भी पड़ताल करती हैं । पहले हिंदू नाम एक भू भाग को दिया गया था ।
कालांतर में इस भू भाग में रहने वाले गैर-ईसाई और गैर-मुस्लिम लोगों को हिंदू कहा
जाने लगा । मुस्लिम शासकों के काल में मुस्लिम और गैर मुस्लिमों की पहचान के लिए
हिंदू नाम का प्रयोग किया जाने लगा । अपनी ही धरती पर दोयम दर्जे का समझे जाने की
पीड़ा ने ही संभवत: आज के प्रचलित हिंदूवाद को जन्म दिया । हिंदुओं को ऐसा ही अनुभव
औपनिवेशिक काल में ईसाई धर्मावलंबियों के प्रभुत्वशाली होने के कारण भी हुआ । औपनिवेशिक
काल में स्वतंत्रता आंदोलन ने हिंदुओं को संगठित होने का मौका दे दिया । कुछ संघ, महासभा
आदि जो स्वयं भी संगठन के रूप में स्थापित हो रहे थे, राष्ट्र-
आंदोलन के संसर्ग में आने के कारण राजनीतिक रूप से भी मजबूत हो गए । आजादी के
बाद भी हिंदू धर्म का उभार होता रहा । आजादी के बाद भारतीय समाज की एक उल्लेखनीय
बात मध्य वर्ग का उदय भी रही । 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय मध्य वर्ग
का बहुत तेजी से विस्तार हुआ । यह मध्य वर्ग नई दौलत और महत्त्वाकांक्षाओं वाला
मध्य वर्ग है । आकांक्षाएँ और सफलताएँ अपने साथ असुरक्षा की भावना को भी ले कर आती
हैं । ऐसे में उसे एक अवलम्ब की जरूरत
होती है, जिसके सहारे वह अपने को अभिव्यक्त कर सके । हिंदुओं
को तथाकथित रूप से संगठित करने के उपक्रम इसी जरूरत को पूरा करने वाले हैं ।
अन्य धर्मों, खास
तौर पर ईसाई धर्म और इस्लाम की तुलना में हिंदू धर्म की संरचना बहुत लचीली है ।
हिंदू धर्म ने अपने भीतर के और बाहर से होने वाले आघातों को सहा है । उसमें
परिवर्तनों को पचा सकने की क्षमता रही है । जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं ,
वह दरअसल विभिन्न मतों/ पंथों का समुच्चय है । इसीलिए इसमें न तो एक
ईश्वर हैं, ना ही कोई एक ही धर्म-ग्रंथ है और ना ही इसके
एक-से रीति-रिवाज हैं ।
रोमिला थापर की चिंता पिछले कुछ
वर्षों में आए धार्मिक उभार की है । हिंदू संगठनों द्वारा हिंदू धर्म को भी एक ‘कॉमन फ़ॉरमैट’
के अंतर्गत लाने की कोशिश की जा रही है । समय-समय पर किसी किताब,
किसी पर्व- त्योहार, किसी तीर्थ-स्थल को चर्चा
के केंद्र में लाकर हिंदू धर्म में
एकरूपता लाने की कोशिश की जा रही
है ।
वर्तमान परिस्थितियों के पीछे भारतीय
मध्य वर्ग की बढ़ी हुई आर्थिक संपन्नता भी है । यही वह वर्ग है जो आज पूरी दुनिया
में इंडियन डायस्पोरा के रूप में मजबूती से उभर चुका है । जब जेब में पैसे अपनी
आवश्यकता से अधिक हों,
तब आदमी बहुत सारी जगहों पर अपने दावा-दखल को पुख्ता करने की जुगत
में लग जाता है ।
रोमिला थापर शायद चिंतित और भयभीत हैं
कि हिंदुओं की आक्रामकता बढ़कर कहीं हिंसक
न हो जाए। उन्हें शायद लगता है कि यदि देश की बहुसंख्यक जनता को बरगला दिया गया तो
देश विनाश की ओर चल पड़ेगा । उन्हें आश्वस्त रहना चाहिए कि देश आवश्यकता पड़ने पर
धैर्य और संयम का परिचय भी दे सकता है । पहलगाम की ताजा घटना के बाद के घटानाक्रम
इसके सबूत हैं । हिंदू धर्म ने हजारों सालों में कई दौर देखे हैं । हिंदू धर्म फिर
भी बचा हुआ है । यह ठीक है कि विसगतियाँ हैं उसके अंदर , लेकिन
सुधार भी हुआ है । जैसे कि राजनीतिक स्तर पर छोड़ दिया जाए तो जाति का प्रभाव हिंदू
धर्म के अंदर कम हुआ है । जाति मुख्यत: राजनीतिक समूहों के ही उपयोग की वस्तु बची है। कैफ़ी आज़मी ने अपनी एक नज़्म के पहले कुछ ऐसी कमेंटरी दी है –“ मेरा दावा है कि आज भी तमाम
नफरतों के बावजूद जो फैलाई हैं सियासत ने, एक हिंदू ऐसा नहीं
ढूँढ़ा जा सकता पूरे हिंदुस्तान में जिसके चार-छह या इससे ज्यादा मुसलमान दोस्त न
हों,और एक मुसलमान भी ऐसा नहीं ढूँढ़ा जा सकता सौ-पचास हिंदू
दोस्त न हों । लेकिन ये क्या बात है कि जब चार हिंदू एक जगह बैठते हैं , तो वो हिंदू हो जाते हैं, चार मुसलमान एक जगह बैठते
हैं , तो वो मुसलमान हो जाते हैं ।” यह बात हिंदू धर्म के
भीतर जातियों के बारे में भी उतनी ही सही है । हमें इकबाल का शेर याद कर लेना चाहिए :-
“ कुछ बात है कि हस्ती
मिटती नहीं हमारी
सदियों
रहा है दुश्मन
दौरे-ज़मां हमारा”
(३)
यह बात हमारे
सोचने की है कि बीती हुई बातों को कितना ढोया जाए ? आज इक्कीसवीं सदी के
पच्चीसवें साल में खड़े हम लोग क्या सोच के स्तर पर हजारों साल पीछे ही खड़े हैं ?
रोमिला थापर अपने आलेख में
मुस्लिमों को ‘स्केप गोट’ बनाए जाने की
बात करती हैं । तो ब्राह्मणों या हिंदुओं के वर्चस्ववादी और तदनुरूप दमनकारी होने
की बात वर्तमान में भी कितनी सच है ? पुरानी व्यवस्था में
ब्राह्मण समाज में विशेष स्थान, आभिजात्य को इंगित करता था।
यह बात भी विदित है कि पुराने काल में जाति स्थिर अथवा जन्मना नहीं हुआ करती थी ।
अपनी पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ में डॉ.
राधाकृष्णन ने महाभारत पर चर्चा करते हुए लिखा है –“ इसका निर्माण ऐसे समय में
हुआ भी माना जा सकता है जिस समय में धर्म कर्मकाण्ड और बहुदेववाद से पूर्ण था ।
महाभारत के वे भाग जो वैदिक देवताओं, अर्थात् इन्द्र और
अग्नि की पूजा के औचित्य का विधान करते हैं, उस स्थिति के
स्मृतिचिह्न हैं । स्त्रियों को उस काल में बहुत स्वतन्त्रता प्राप्त थी,
और जन्मपरक जाति का कोई कठोर बन्धन नहीं था । सम्प्रदाय्वाद का
कहीं पता नहीं था, आत्म-विषयक दर्शन अथवा अवतारों की कल्पना
भी तब नहीं हुई थी ।”[ डॉ. राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन 1,
राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 2011, पृ. 393] । इसी बात को प्रतिध्वनित करते हुए विद्यानिवास मिश्र कहते हैं –“
यदि आप ऐतिहासिक विकास-क्रम के रूप में जाति-व्यवस्था की जाँच करें तो आपको स्पष्ट
हो जायेगा कि यह व्यवस्था प्राचीन भारत में बहुत लचीली थी । उसमें असवर्ण विवाह
होता रहता था और जातियों का श्रेणीकरण बदलता रहता था । मध्ययुग में केवल कवच के
रूप में यह व्यवस्था इतनी कड़ी हो गयी और अनुकूल परिस्थिति में यह फिर से लचीली हो
जायेगी । ...नया राजनीतिक जातिवाद एक ऐसे बेतुकेपन की चरमबिन्दु पर जब
पहुँच जायेगा तो अपने-आप वह टूटने लगेगा ।
वह बिन्दु मेरी दृष्टि में पहुँचने वाली ही है, क्योंकि
प्रादेशिकता और जातीयता, दोनों के दबाव ऐसी प्रतिक्रिया पैदा
करेंगे जिससे राजनीतिक सत्ता के लिए ये घटक कारण नहीं रह जायेंगे ।”[ विद्यानिवास
मिश्र, हिन्दू धर्म: जीवन में सनातन की खोज, वाग्देवी प्रकाशन, 2012, पृ. 154] । हमें आशावान
रहना चाहिए ।
शायद आज
सामाजिक व्यवस्था अथवा ढाँचे को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है । इतिहास में जो
स्थान ब्राह्मण का था,
आज किसका है ? आज जब कोई राजा नहीं है,
तो राजा को पहचाना जाना चाहिए । पुराने काल में ब्राह्मण अक्सर
क्षत्रियों को राजा बनाने की भूमिका में थे । आज उसके समकक्ष समूहों या समुदायों
को ढूँढ़ा जाना चाहिए। ऐसा इसलिए भी आज का समाज व्यक्तिवादी हो गया है । पुराना
पारिवारिक-सामाजिक ताना-बाना छिन्नभिन्न हो चुका है । अपनी जाति या धर्म के आधार
पर कोई व्यक्ति अपनी ही जाति अथवा धर्म के
व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता । कुछ मदद
माँगने की बात तो दूर रही । एक ही जाति अथवा धर्म के सारे लोगों की स्थिति एक
समान नहीं होती । इस विषमता ने जाति या धर्म के अंदर वर्ग-भेद पैदा कर दिया है । किसी
जाति या धर्म विशेष का होना आपकी सफलता या पोजिशन को तय नहीं कर सकता । आज के समय में भारत के ही सबसे ज्यादा रसूख वाले
लोग क्या अपनी जातिगत या धर्म-संबंधी पहचान के कारण उस स्थान तक पहुँचे हैं?
जिन समुदायों, समूहों को अबतक अपनी पहचान बनाने का मौका नहीं मिला, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी हाशिए पर रह गए हैं, उन्हें उनका देय जरूर प्राप्त होना चाहिए । अंत में बचपन में टीवी पर सुने
गए एक गीत की दो पंक्तियाँ और सरशार सैलानी का एक शेर :-
“हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं
रंग- रूप वेश भाषा
चाहे अनेक हैं”
एवम्
“चमन में इख़्तिलात -ए- रंग-ओ-बू से
बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही
तुम हो तो क्या तुम हो”
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