शुक्रवार, 20 जून 2025

मोड़


 

मोड़

 

एक ऐसी राह के सामने खुद को खड़ा पाता हूँ 

कि जहाँ से 

विस्मृति के घने, बड़े दायरे शुरु होते हैं

कि जहाँ 

कल तक जो स्मृतियाँ चाँद-सी चमकतीं थीं 

तारों-सी नज़र आयेंगी 

और फिर 

धीरे-धीरे कहीं खो जायेंगी

कि जहाँ

आदमी सिर्फ व्यस्त हो सकता है 

चाहे वो ज़रूरतें पूरी करने में हो 

चाहे दुखों को कम करने में

चाहे खुशी दिखाने में ही क्यों न हो ! 

वो फुर्सत के क्षण नहीं ढूँढ सकता है 

कि रफ्तार पर आकर ही सारी बातें टिक जाती हैं 

जो दौड़ सकें, उड़ सकें, वो ही बच पाते हैं 

चलने वालों के लिए तो फुटपाथ की भी कमी है 

और दौड़ने की कोशिश में 

एक उम्र यूँ ही बेदाम, बे-काम बिक जाती है

 

इस मोड़ पर-

हवा फेफड़ों में भर लूँ

धूप की गर्मी से देह को तर लूँ 

स्मृतियों की खुशबू में नहा लूँ --

इन सब को तन-मन में समा लूँ 

कि विस्मृति के दायरे के उस पार जब निकलूँ 

तो ये सारी चीजें मेरे साथ रहें, मेरी रहें 

हमेशा की तरह मुझको तरोताज़ा करतीं 

क्षण-क्षण में जीवन स्पंदित करतीं....!


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें