कड़वा सच
हर रोज,
अखबारों में, भाषणों में, टीवी पर
हम देखते-सुनते हैं-
'बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करना है'
और हर रोज हमारे घरों में
ये चर्चा होती है
कहीं से एक नौकर मिल जाए,
छोटा हो, थोड़े कम पैसे ले।
माना कि हम लाचार हो सकते हैं
या फिर जरूरत से ज्यादा व्यस्त
और किसी एक सहारे की,
काम करने वाले की
हमें सख्त जरूरत हो
पर ऐसे में
किसी एक बचपन की
लाचारगी, उसकी जरूरतों का
फायदा उठाना क्या जरूरी है;
क्या अपनी सुविधा
बिना दूसरे को असुविधा पहुँचाए
नहीं पाई जा सकती ?
क्या जरूरी है
कि जब हमारे घरों के बच्चे
किताबों, कॉमिक्सों का मजा ले
रहे हों,
घर के किसी कोने में
कोई एक बच्चा
अपने घर से आई
चिट्ठी भी न पढ़ पा रहा हो,
क्या यह जरूरी है
कि हर नई चीज
जो वो हमारे हाथों से पाए
उसे उपकार समझने को मजबूर हो,
हक़ नहीं...
हम इतने कमजोर क्यों हो गए हैं,
इतने लाचार ?!
हम अपने, और हमारे अपनों के
हाथ क्यों नहीं बन सकते ?
... या यह हमारे बीच की दीवार है,
अलगाव है,
जो हम
छोटे-छोटे हाथों में/पर
कई-कई भार डालने को मजबूर हैं?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें