शुक्रवार, 20 जून 2025

जिरह


 

जिरह


अदालत जमी हुई है 

कटघरे में 

आदमी है कोई 

जिरह जारी है -- 

धर्म ?

 

बताने की जरूरत है?

 

बिल्कुल

तुम्हें शपथ दिलानी है 

विचारों का पता करना है 

मन्यातायें जाननी हैं 

आरोपों का रँग तय करना है


मैं निरपेक्ष हूँ

 

यह संभव नहीं 

जगत में सब कुछ सापेक्ष है

सत्य, मिथ्या, सही, गलत 

सब 

हाँ, यह हो सकता है

अभी किसी धर्म-विशेष की जरूरत नहीं


ऐसा ही सही!


जाति की अभिस्वीकृति ?

 

प्रत्यक्षतः नहीं ।


कुल, परिवार, रिश्तेदारी ?


यथा-आवश्यक ।


आप पर आरोप है 

आपने आदमी होने का 

नाजायज फायदा उठाया है 

आदमी-स्वरुप का 

गलत इस्तेमाल किया है


बे-बुनियाद है जनाब !

 

ये शपथ-पत्र आप ही का है... 

'गाँव गए बरसों बीत गए हैं

बस दस्तावेजों से 

पता चलता है 

गाँव कहाँ है मेरा 

दस कदम पर हैं भाई 

हाल पूछे जिनका 

हफ्तों निकल जाते हैं

माता-पिता

अपनी जगह पर हैं 

मगर विस्थापित-से मेरी दुनिया से

पत्नी, बच्चे भी शिकायत में हैं 

कि ध्यान कहाँ है 

दोस्तों में ओहदे, पेशे देखता हूँ 

नफा-नुकसान का खयाल रखता हूँ 

खुद भी 

मोटर के पट्टे-सा 

चलता तो हूँ

पहुँचता कहीं नहीं!'



तो आप 

आरोपों को मानते हैं!


जनाब, शपथ-पत्र में कम-से-कम 

झूठ बोलना ठीक नहीं।


तो आप मानते हैं 

आपने आदमी-स्वरूप का गलत इस्तेमाल किया है?

 

गुस्ताखी माफ सरकार,

मगर

आपकी किताब कानून की 

पुरानी पड़ गई मालूम होती है,

अब आदमी

सिर्फ खाल तक आदमी है,

अंदर मशीनें बैठ गईं हैं

मशीनें स्वाबलंबी होती हैं, हुजूर 

स्वतंत्र, पूर्णतः मुक्त ।

 

मशीनों को 

बस खुराक चाहिए -- ईंधन की 

रख-रखाव चाहिए,

दायित्व उनका खुद का कुछ भी नहीं

इस्तेमाल करने वाला जाने 

जितनी खुराक, रख-रखाव 

उतना ही काम !

हुजूर

जिन चीजों की आवश्यकता नहीं होती

उपयोग नहीं होता 

वो विलुप्त हो जाती हैं धीरे-धीरे ।


कभी रहा होगा प्रेम

सौहार्द उत्तरदायित्व आदि-इत्यादि 

अब नहीं ।


नहीं, ऐसा नहीं है 

अभी भी लोग हैं 

जो आदमी हैं।

 

होंगे हुजूर,

भारत अगर दो हैं

तो हर चीज के लिए !


और धीरे-धीरे

विलुप्त हो जाएगा सब,

मशीनें ही बचेंगी

उनमें भी वो

जिनमें लगी हो टकसाल

और हुजूर

यही टकसाल तो है

धर्म, जाति, कुल !


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