मृत्यु जीवन
की यवनिका है
निशान्त जी की माँ से मैं कभी नहीं
मिला । फोन पर माँ के बारे में बताया है उन्होंने कुछेक बार । ३० मई ,२०२५ की
शाम निशान्त जी ने फोन किया । जैसा कि अक्सर होता है उनके साथ बात करते हुए,
बात हास-परिहास के अंदाज में शुरू हुई । ४-५ जून को उनके आने का इंतजार
था । संयोगवश मुझे ४ की रात को बाहर निकलना
था । उन्होंने हँसते-हँसते कहा कि “जब आप ही नहीं रहेंगे, तब
मैं आकर क्या करूँगा” । मैंने तुर्कीबतुर्की जवाब दिया –“ ये तो अनऑफिशियल कारण हुआ,
ऑफिशियल कारण क्या है?” उनकी आवाज स्थिर हो गई
। उन्होंने बताया – “ माँ नहीं रही ।” हँसी-मजाक के क्रम में यह बात झन्न् से लगी
। मस्तिष्क संज्ञाशून्य हो गया । उसके बाद दो-चार बातें पूछकर फोन रख दिया । किसी
के चले जाने का समाचार एक खालीपन से भर देता है । वह भी माँ के जाने का ! मन बहुत देर
तक भटकता रहा । मन बहुत देर में माना । किसी के हमेशा के लिए चले जाने का समाचार अच्छा
नहीं होता । कारण मृत्यु हो, तो फिर कोई गुंजाइश ही नहीं बचती
देख पाने भर की भी । अन्यथा, यह तसल्ली तो रहती है कम-से-कम कि
‘वह’ अभी है, गया
नहीं है । किसी का इस तरह से जाना कि मिलने की जरा भी उम्मीद बाकी नहीं रहे,
मन को मथ देता है । और वह भी बिना बताए, बिना पूछे
! केदारनाथ सिंह की ‘जाना’ भी कुछ मदद नहीं
कर सकती !
बहुत देर तक मन खालीपन से भरा रहा ।
निशान्त की बातों में उनकी माँ की
उपस्थिति अनुगूँजित होती थी । उनकी माँ अब नहीं हैं । उनके घर का खालीपन उनके फोन से
यहाँ तक आ गया है । नॉर्मल-सी प्रतीत होने वाली उनकी बातचीत ने इसे गहरा और तीक्ष्ण
कर दिया है ।
मृत्यु एक अबूझ पहेली रही है । भय उत्पन्न
करनेवाली । मृत्यु के भय से या फिर मृत्यु के सत्य को समझ लेने से कितने संत, महात्मा,
वैरागी बने । जीवन का सच मृत्यु का सामना किए बिना नहीं जाना जा सकता
। बचपन में मृत्यु के समाचारों से जरा दूर ही रखा गया । शायद इसलिए कि बाल मन पर जाने
कैसा प्रभाव पड़े ।
हम मृत्यु से दूर होकर जीवन जीना चाहते
हैं, जबकि जीवन के मायने मृत्यु में ही छिपे होते हैं । व्यक्ति को अंतत: विरक्त होना ही है। बिना इसके निस्तार संभव नहीं
। मेरा-तेरा, इसका-उसका,बड़ा-छोटा,
सही-गलत – ये सारी परिभाषाएँ किसी काम की नहीं हैं । जीवन में धीरे-धीरे
यह समझ आने लगता है कि मृत्यु से आँख चुरा कर आप बहुत दिन नहीं चल सकते । यदि आपने
ठीक-ठाक लंबी उम्र पाई है, तो सबसे पहले आप कृतज्ञ होना सीखिए
। इस संसार में असंख्य लोग रोज मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं । भरोसा न हो,
तो अपने इलाके के श्मशान घाट की तरफ से गुजरते हुए ध्यान दीजिएगा,
कोई न कोई चिता जलती हुई दिखेगी ही । आप जीवित हैं, सबसे बड़ी बात यही है ।
दरअसल, मृत्यु
का समाचार हर बार कुछ हिला जाता है । कुछ ज्यादा सजग बना जाता है । उम्र बढ़ने के साथ
अपने चले जाने का खयाल आने ही लगता है । साथ ही आती है एक निस्संगता और क्षणभंगुरता
और सबकुछ समाप्त हो जाने का खयाल ।हम लाख कोशिश कर लें, लेकिन
मृत्यु के बाद क्या होगा, यह हम नहीं जान सकते । जन्म के पहले
भी क्या था, पता नहीं कर सकते ।
२०१८ में ऐसे ही अचानक एक दिन ये खबर मिली कि बड़के चाचाजी नहीं रहे । सुबह
चाची ने उनसे पूछा था कि खीरा खाएँगे क्या? उनके ‘हाँ’
कहने पर वो खीरा लाने गईं, लेकिन चाचाजी खीरा खाने
के लिए नहीं रुके । छत पर, कुर्सी पर बैठे-बैठे ही अनंत यात्रा
पर निकल गए । सुल्तानगंज में गँगा-घाट पर उनके पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दी गई । घाट
पर बैठे हुए लोग बातें करते र्हे और देखते-देखते चाचाजी अनंत में विलीन हो गए । क्या
बचता है किसी आदमी का इस दुनिया में ? स्मृतियों के अलावा ?
चक्र समय का रुकता नहीं है । चिताएँ आपको तैयार करती हैं अपनी अंतिम
यात्रा के लिए । बहुत आहिस्ता, बहुत हौले ।
बड़ी चाची भी नहीं रुकीं ज्यादा । कुछ
महीनों बाद चली गईं । फिर कोरोना ने कितने ही अप्रत्याशित, सकते में
डाल देने वाली हृदयविदारक खबरें दीं !
मृत्यु के बीच से ही जीवन निकलता है
। मृत्यु के बीच ही जीवन चलता है । हम जीवन में बढ़ते चले जाते हैं,अपने सारे
सुखों-दु:खों के साथ, सारे कष्टों, सारी
पीड़ाओं के साथ, सारे उल्लास, सारे उत्साह
के साथ । जीवन का रंग चितकबरा है ।
अक्सर हम जिन चीजों को स्वीकार नहीं
कर पाते, उनसे आँखें चुराते हैं, आँखें फेर लेते हैं । मृत्यु
भी उनमें से एक है । लेकिन अंतत: हमें मृत्यु से आँख मिलानी ही पड़ती है । हम जिस जगह
को, अपने जिस हाल को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं, वे सारी चीजें स्मृतियों में बसी रहती हैं । कई बार वर्षों-वर्षों तक सुषुप्तावस्था
में रहती हुई । जिस दिन कोई एक भी बटन दब जाता है यादों का, पुरानी
फिल्में दौड़ने लगती हैं स्मृति-पटल पर । लहेरियासराय, दरभंगा
एक ऐसी ही जगह है, जो खींचती है बार-बार । बलभद्रपुर का पब्लिक
स्कूल, जहाँ स्कूली जीवन की औपचारिक शुरुआत हुई । स्कूल की याद
आते ही याद आते हैं एल.के.दास सर । बल्कि यह ज्यादा सही है कि एल.के.दास सर के कारण
ही स्कूल याद आता रहा । लंबे , रंग गहरा, सफेद धोती-कुर्ते में सर की छवि स्थिर है । काली और लाल स्याही में उनकी सुंदर
हस्तलिपि की भी । उन्हें गुस्सा आता था तो उनकी पलकें तेज झपकने लगती थीं । दरभंगा
से निकल जाने के बाद एक-दो बार वहाँ गया तो मालूम हुआ कि अब वे उस स्कूल में नहीं हैं
। थोड़ा-बहुत पता करने की कोशिश भी की, पर उन्हें ढूँढ़ नहीं पाया
। शिद्दत की कमी रही होगी जरूर !
स्मिता दी कहती हैं कि विनय जी के हाथों
बहुत पुण्य लिखा है । खास तौर पर लोगों को मिलाने का । उन्हें बार-बार असीसती रहती
हैं । विनय जी के इसी पुण्य ने वर्षों बाद एल.के.दास सर का पता बताया । विनय जी के
घनिष्ठ मित्र ,
जो इन दिनों मुम्बई में फिल्म डायरेक्टर हैं, के एक वीडियो को देखकर मुझे लगा कि हो न हो विनय
जी के ये मित्र दास सर को जानते होंगे । विनय जी से मित्र के पिताजी का नाम पूछा ।
एल.के.दास सर ही उनके मित्र के पिता हैं ।
लेकिन अगली ही पंक्ति में विनय जी ने यह भी सूचित किया कि दास सर का २०२० में
निधन हो चुका है । एक मिलती हुई नजर आती उम्मीद खो गई हमेशा के लिए । विनय जी के कहने
पर उनके मित्र ने फोन किया मुझे । मैं सिर्फ इतना ही कह पाया कि सर से नहीं,
कम-से-कम उनके बेटे से बात हो गई...। एक कसक साथ रह गई मेरे ।
हमारे जीवन में सदा-सदा के लिए कुछ
नहीं होता । हम स्वयं भी । नाते-रिश्ते,संगी-साथी, हाल-मुकाम सब बनते-छूटते चलते हैं । जीवन की सहज गति यही है – ‘उतना ही उपकार समझ कोई जितना साथ निभा दे !’
दरभंगा से जब मैं समस्तीपुर पहुँचा, तब तक मेरी
चेतना ठीक-ठाक विकसित हो चुकी थी । इतनी कि समस्तीपुर की बहुत सारी बातें साफ-साफ याद
हैं । बहुत सारे दोस्त हैं जिनसे अब भी मिलना-जुलना, बोलना-बतियाना
होता रहता है । सत्येन्द्र जी सर घर पर पढ़ाने आते थे वहाँ । जितनी लगन और जितने प्रेम
के साथ उन्होंने मुझे पढ़ाया , मैं ही क्या मेरे माता-पिता भी
उन्हें बहुत ऊँचा स्थान देते हैं । पापा अब भी दास जी सर, सत्येन्द्र
जी सर, लाभ जी सर ( भैया को पढ़ाते थे) और एस.एन वर्मा सर को बड़े
आदर के साथ याद करते हैं। वे समझते हैं उनके बच्चों को बनाने में उनके शिक्षकों की
भूमिका को । समस्तीपुर से जब हमलोग बेतिया चले गए, तो उसके बाद
फिर अपनी नौकरी लग जाने के बाद ही समस्तीपुर जा पाया । नौकरी में आने के कुछ दिनों
बाद तक एक दोस्त के मार्फत सत्येन्द्र जी सर की खबर मिल जाया करती थी । वह उन्हें
बताने भी गया था कि मेरी नौकरी लग गई है । सर थोड़ा निराश ही हुए थे । उन्हें आशा थी
कि यूपीएससी करता मैं। लेकिन जब मैं अंतत: समस्तीपुर जा पाया, सत्येन्द्र
सर का निधन हो चुका था तबतक । जीवन ने उनसे
मिलने का मौका नहीं दिया ।
बेतिया मेरी जान ! बेतिया वह जगह है
कि चेतना के स्तर पर मैं वहीं टिका हूँ जैसे ! जादूगर की जान तोते में बसा करती है
न ! एस.एन. वर्मा सर राजदूत से आते थे पढ़ाने । अपने जमाने में फुटबॉल के खिलाड़ी रहे
। उन्हें मुझपर मुझसे भी ज्यादा भरोसा था । लेकिन, फिर बेतिया भी छूट गया ।
कुछ साल बाद एक दोस्त ने खबर दी कि वर्मा सर नहीं रहे ।
आदमी के जीवन में अच्छे लोगों की स्मृतियाँ
रह-रह कर संबल बन आती हैं । हम जानते हैं कि वे लोग फिर कभी नहीं मिलेंगे। हम जानते
हैं कि जीवन के पहले और जीवन के बाद क्या है, यह एक रहस्य है । जीवन खुद में एक रहस्य है । हर क्षण अनजाना है,
जबतक व्यतीत न हो जाए । उस पर भी कार्य और कारण के संबंध नहीं ढूँढ़े
जा सकते हैं । सारी बातें अनुमानत: ही होती
हैं ।
१५ फरवरी २०२४ की रात बड़की मौसी हॉस्पिटलाइज
हुईं । तबीयत तो कुछ सालों से ठीक नहीं रह रही थी । कुछ ही घंटों में खबर आ गई कि मौसी
नहीं रहीं । हमलोगों,
सबके जीवन का एक अहम हिस्सा थीं वो । अगली सुबह उनके फलैट पर गया । मौसी
का चेहरा कितना शांतचित्त और संतुष्ट लग रहा था ! मौसी अपने जीवन से संतुष्ट गईं
। उनके पार्थिव शरीर को दाह कर्म के लिए ले जाने क्रम में फ्लैट से नीचे उतारने वालों
में मैं भी था । अंतिम बार उनका आशीर्वाद लेता हुआ जैसे । पता नहीं लोग कहाँ चले जाते
हैं मृत्यु के बाद तत्क्षण । मानव-मन अभी वहाँ तक पहुँच नहीं सका है ।
२३ जनवरी २०२५ को नानी चली गईं । नानी
तो वे मेरी पत्नी की थीं । लेकिन नानी तो नानी होती हैं, बस ! उनका
जीवन दृढ़ता,कर्मठता और साहस का रहा । पिछले कुछ वर्षों में उनसे
भेंट-मुलाकात का सिलसिला ज्यादा रहा । उनको हँसते भी देखा, कभी
रूठते भी देखा । अंत-अंत तक सबके बारे में पूछते भी देखा । जब सबको लग रहा था कि नानी
कुछ साल और रह लेंगीं, एक दिन, दिन में
सोते-सोते ही निकल गईं वे अंतिम यात्रा पर । मानव-शरीर की यात्रा का अंतिम बिंदु चिता
है । या कहिए कि प्रस्थान-बिंदु जीवन से परे जाने का । श्मशान में नानी की देह को अर्थी
से उठाकर चिता पर रखने वालों में मैं भी था । यह कैसी शिक्षा है कि प्राणों के निकलते
ही व्यक्ति देह या शव या पार्थिव शरीर मात्र रह जाता है उसका जिक्र किए जाने में ।
क्या यह उस निस्संगता का द्योतक है जिसकी ओर मनुष्य शनै: शनै: बढ़ता जाता है ?
जिस दिन हम अपने खुद के भी मोह से मुक्त हो जाएँगे, संसार खिलौना हो जाएगा हमारे लिए । हस्तामलक!
कई बार लगता है कि जीवन मृत्यु के समाचारों
से टाँका हुआ होता है । जिसका भी ध्यान मृत्यु की सार्वभौमिकता और उसके सर्वशक्तिमान
होने पर चाला जाए,
यह निश्चित ही मानिए कि उसके हथियार डालकर बैठ जाने की संभावना बढ़ जाएगी
। यदि वह यह मान ले कि जीवन मृत्यु के हाथों पलता है, तभी जीना
आसान हो । यह भी सत्य है कि जीवन है, तभी मृत्यु की भी महत्ता
है, उसकी सत्ता है । मृत्यु है तो जीवन का मोल है । कहते हैं
कि मानव शरीर की कोशिकाएँ नवीनीकृत होती रहती हैं । यानी मृत्यु अनवरत चलने वाला व्यापार है । यह भी कहा जाता है कि जीवन एक रंगमंच
है । यदि जीवन रंगमंच है तो मृत्यु उसकी यवनिका है । खिंची हुई यवनिका के पीछे क्या
चल रहा है, दर्शकों को पता नहीं होता । और जो पीछे हैं,
उन्हें पता नहीं कि प्रेक्षागृह में कितने और कैसे लोग बैठे हैं । यवनिका
के खुलने पर ही दृश्य उपस्थित होता है । दर्शक होने का अर्थ भी तभी संभव होता
है । हमारे जीवन का हर क्षण पिछले क्षण पर यवनिका खींचता चलता है । जीवन में एक ही
साथ असंख्य यवनिकाएँ, असंख्य कोणों-दिशाओं से खिंचती-खुलती,
असंख्य दृश्य प्रस्तुत कर रही हैं । हम सब एकाधिक दृश्य में उपस्थित
हैं – दृश्य बनकर भी और दर्शक बनकर भी ।
जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह हमेशा
ही अचानक होती है । भले ही आशंकाएँ बनी हुई
हों, मृत्यु की आकस्मिकता को नियंत्रित नहीं किया जा सकता । बढ़ती
उम्र के साथ यह भान बढ़ता जाता है । हमारी कृतज्ञता भी बढ़नी चाहिए कि यह आकस्मिकता हम
पर घटित नहीं हुई है अबतक ।
जगदीश चन्द्र बोस ने बताया था कि पेड़-पौधों
में भी जान होती है । यह संभव है कि कभी यह भी पता चले कि जिन वस्तुओं को हम अभी निर्जीव
समझते हैं,
उनमें भी प्राण हैं । बहुत सारी वस्तुओं में हमारे प्राण बसते तो अभी भी हैं ! ऐसी एक वस्तु पर आज यवनिका
खींच दी गई है । बीस सालों की साथी मारुती 800 आज, ०६ जून, २०२५ को स्क्रैप कर दी गई है । याद के एक खाने में रह गई है याद । -- वह पुलक,
वह भरोसा, वह अपनापन, वह
साथ ! इस जीवन में कोई किसी का स्थानापन्न
नहीं हो सकता । सबका स्थान अद्वितीय है । भले वह आपकी कार ही क्यों न हो !
मृत्यु जीवन की
यवनिका है । यवनिका खुलने के पहले और यवनिका खिंचने के बाद ,यवनिका के पीछे और उसके सामने जो भी है एक दूसरे से ओझल है । जीवन मृत्यु से जुड़ा है, पर वह मृत्यु से परे भी है । मृत्यु
निश्चित है, तो निश्चय ही जीवन भी है । यवनिकाएँ केवल ओट हैं । हम,जो यवनिका के
पीछे हैं, और जो सामने दर्शक दीर्घा में हैं, यवनिका के सत्य को झुठला नहीं सकते, मगर दृश्य और दर्शक
की सत्ता का लोप भी नहीं कर सकते । सत्य यह भी है ।
पढ़कर मन विचलित है ! उदास है। कितने ही लोग याद आ रहे हैं, जो चले गये हमारे बीच से उठकर... चेतन जी, बहुत मार्मिकता से आपने विचार किया है। अच्छा और महत्वपूर्ण लेख।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपसे विनय सौरभ
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