ऋष्यशृङ्ग की खराब
कविताओं की कहानी : शृङ्गऋष्य की ज़बानी
[जिस तरह जुड़वाँ भाई होते हैं, उसी प्रकार जुड़वाँ
लेखक भी । ऐसा कहना है शृङ्गऋष्य का , जो खुद के ऋष्यशृङ्ग का जुड़वाँ होने का दावा करते हैं । वे साथ ही यह डिस्क्लेमर भी देते
हैं कि जुड़वाँ होने के बावजूद भी शील-स्वभाव और चाल-चलन विपरीत हो सकते हैं । शृङ्गऋष्य
का दावा है कि वे ऋष्यशृङ्ग की नस-नस जानंते हैं और उनके लेखन के विषय में उनसे
बढ़कर कोई भी बात नहीं कर सकता,किन्तु वे यशपिपासु नहीं हैं, अत: वे स्वयं अपनी बातों को प्रकाश में न लाकर डाक द्वारा प्रेषित कर
रहे हैं कि जनसाधारण और जनविशेष दोनों का ही कल्याण हो सके । शृङ्गऋष्य के विचार
हूबहू प्रस्तुत किए जाते हैं।]
ऋष्यशृङ्ग की कविताएँ और उनकी बातें भ्रमित करती हैं । कवि वही सच्चा माना जाता है जो किसी एक विचारधारा के डंडे को पकड़ कर चले और यदाकदा उसे भाँजा भी करे । इनकी अपनी भाषा को ले कर जो प्रतिबद्धता है वह इन्हें प्रतिबद्ध कवि होने से रोकती है । इनका कोई आग्रह भी नहीं है । लेकिन जब आप इस पुस्तक की निम्नलिखित पँक्तियों को पढ़ते हैं, तो आप सोच में पड़ जाते हैं कि आप इस कवि को क्या समझें –
पल मेँ पीले को
नीले मेँ रङ्ग देँ
फिर खूब ठोक बजा कर
हम अपनापन जताएँ
फिर एक ही रङ्ग मेँ रङ्गे
दूसरा रङ्ग देख न पाएँ
ऋष्यशृङ्ग कहता है
नीला-पीला मिलकर
किन्तु जब हरा हो जाए
उस हरे को हरा कर
एक हो कर
कहीँ
गहरे दफन कर आएँ
आखिर कमजोर का मर जाना अच्छा !
ये पँक्तियाँ ‘इसलिए
आओ हम एक हो जाएँ’ कविता की हैं । यह कविता जिस तरह से आज के
परिदृश्य को उपस्थित करती है, वह ध्यान देने योग्य है ।
या फिर भूमिका में उद्धृत की गई पँक्तियाँ , यथा “ चलिए आपको बताता हूँ...”, “आशंका है...”, “लोहा लोहे को काटता है...”, “देख रही थी टीवी...” आदि पँक्तियाँ । ये तमाम पँक्तियाँ प्रतिरोध की हैं । एक सही दिमाग वाले आदमी के प्रतिरोध की । कुछ लोग कवि के इन्हीं विरोधाभासी लक्षणों के आलोक में उसे ‘थाली का बैंगन’ भी कह सकते हैं । असल में मनुष्यता या इंसानियत के पक्ष में खड़ा होना, असली बात थोड़े ही न है! ऐसे व्यक्ति की प्रतिक्रिया ‘फिक्स्ड’ नहीं हो सकती। लेकिन एक कवि को उससे क्या ? यह बात यह कवि शायद नहीं समझता ।
दरअसल कवि महोदय
के मन में इच्छा तो है कि सबको नाम ले लेकर गरियाएँ, लेकिन आखिर वे भी एक कवि
ठहरे । और सामाजिक व्यक्ति भी । नाम लेकर तो कविता की आलोचना करने तक में भी हिचकते
हैं लोग ! समस्या यह भी है कि कोई किसी को पढ़ता ही नहीं । पढ़ता नहीं तो उसके बारे में
कहता भी नहीं । बस एक तरी बना के रखी है लच्छेदार बातों की । आप कोई भी पुस्तक भेजिए,
उसी तरी में उसे डुबा कर एक समीक्षा तैयार कर देंगे । ऋष्यशृङ्ग ने अपनी भड़ास सन् 2013 में निकाल ली ‘गाली नहीं दे सका’ कविता लिखकर ।
इस पुस्तक में सन् 1998 से लेकर सन् 2024 तक की लिखी हुई कविताएँ हैं । सर्वाधिक कविताएँ सन् 2024 में लिखी हुई हैं । करीब छब्बीस वर्षों के दीर्घ रचनाकाल में कवि को सिर्फ चौंतीस कविताएँ ही मिलीं प्रकाशन योग्य ? या उनकी रचनाशीलता की गति मनमौजी है ? या कवि यह दर्शाना चाहता है कि हर लिखी गई कविता, कविता नहीं होती और इसीलिए प्रकाश में लाने योग्य भी नहीं होती । कवि ने अपनी एक कविता में प्रोफेसरों की तुलना प्रूफ रीडर से कर दी है । शायद उसे अंदाजा नहीं कि कुछ प्रकाशकों को छोड़कर प्रूफ रीडर की प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। आज तो कवि ही टंकक, प्रूफ रीडर और फाइनेंसर ! जो चाहे लिखो, जो चाहे भेजो, जो चाहे छपवाओ ।
शुरुआती दौर की कविताओं में कवि ने रुमानियत,कोमलता और छंदयुक्त कविताओं की विशिष्ट साज-सज्जा से युक्त कविताएँ रखी हैं । मंशा बिल्कुल साफ है । छंद वाली हो या बिना छंद वाली, ऋष्यशृङ्ग किसी को नहीं छोड़ता । सबकी खबर लेता है । मज़े की बात यह है कि इन सबके बीच भी कवि अपना श्रम सार्थक करता चलता है । बहुत सी कविताएँ ऐसी हैं जो पाठक को खींच लेती हैं अपनी तरफ । फिर सवाल यह उठता है कि खराब कविताओं के दावे का क्या होगा ? उसके भी उदाहरण दे दिए हैं कवि ने । एक कविता शृंखला है ‘प्रार्थना उजाले में हो रही थी और दिल भादो की तरह रोए जा रहा था’ । शृंखला की कविताओं के शीर्षक देखिए – ‘प्रार्थना’, ‘उजाले में’, ‘हो रही थी’, ‘और दिल’, ‘भादो की तरह’ एवं ‘रोए जा रहा था’ । कवि कुछ भी कर सकता है । प्रयोगधर्मिता कवि का लक्षण है! कवि ‘खराब कविता आंदोलन’ चलाना चाहता है । उसकी मंशा पर संदेह नहीं किया जा सकता । अपनी कोशिश में वह नायिका के गालों की लाली के लिए बंदर के नितबों की उपमा दे डालता है । मैंने तो नहीं पढ़ीं, पर ऋष्यशृङ्ग जानते हैं कि किसी जमाने में स्त्री अंगों को कविता में प्रदर्शित करते हुए क्रातिकारी कविताएँ लिखी जा चुकी हैं । मंदबुद्धि लोग ऊँचे साहित्य को नहीं समझ पाते । खराब कविता भी ऊँची कविता बने, कवि यही चाहता है ।
कवि ने पुस्तक का नाम ही रखा है ‘ऋष्यशृङ्ग की खराब कविताएँ’ । पुस्तक में आठ बार ‘खराब कविता’ वाक्यांश की आवृति के द्वारा भी यह सिद्ध करना चाहता है कि ये कविताएँ वाकई खराब कविताएँ हैं । पुस्तक की भूमिका में अम्बुज पाण्डेय जी ने लिखा है –“ आज के ट्रेंड में प्रत्येक कवि पाठक है और प्रत्येक पाठक कवि” । इस सूत्र वाक्य को कवि समझ चुका है । वह जानता है कि इस पुस्तक को पढ़ने वाला पाठक भी कवि ही होगा । वह इस उम्मीद में इस पुस्तक की समीक्षा कर देगा कि कल होकर ऋष्यशृङ्ग जी भी उसकी पुस्तक पर दो शब्द कह देंगे ।
कवि ऋष्यशृङ्ग एक खिन्नमना कवि हैं । वे कविता में आई गिरावट से खिन्न हैं । पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका से खिन्न हैं । वे चाहते हैं कि अर्थशास्त्र के सिद्धांत ‘ खराब पैसा अच्छे पैसे को बाहर निकाल देता है’ की तर्ज पर , थोड़े फेरबदल के साथ खराब कविताएँ खराब कविताओं को कविता के परिदृश्य से बाहर धकेल दें । वे कवि हैं, कुछ भी सोच सकते हैं !
चलते-चलते आपको एक राज़ की बात बता दूँ – ऋष्यशृङ्ग व्यक्ति नहीं विचार है और यह भी कि शृङ्गऋष्य उसका ‘डिस्क्लेमर’ !! यहाँ की गई किसी भी बात की भूत, वर्तमान या भविष्य की किसी भी तरह की किसी बात से किसी भी समानता को संयोगमात्र समझा जाए ।
बहुत अच्छी समीक्षा है। कहां से छपा है,?
जवाब देंहटाएंगजब! आज तो तर हो गया मन हास्य-व्यंग के इस विद्वत्त जल से। ऋष्यश्रृंग -जो कि विचार है ,का साहित्य मे हम कवि-पाठक (😀😀) हृदयतल से स्वागत करते हैं।
जवाब देंहटाएंगजब तो ये भी है कि 'खराब कविताओं' का ऐसा पांडित्य पूर्ण विवेचन भी पाठकों के नेत्र विस्फारित करवा के मानेगा।
क्या झन्नाटेदार अवलोकन है ! ऋष्यश्रृंग के साथ इस समीक्षक को भी बधाई और शुभकामनायें!
हमारे यहां प्रवृत्ति कम देखने को मिलती है कि किसी किताब पर इतना तटस्थ होकर विचार किया जाए। सच पूछिए तो आज आपके इस अंदाज ने थोड़ा चौंकाया। सुखद विस्मय से भर दिया। मैंने यह किताब लगभग पढ़ ली है। शुद्ध भाषा के लिए कवि का अपना आग्रह है। वहाँ संस्कृतनिष्ठता है और कवि के खूब पढ़े-लिखे होने के संकेत भरे पड़े हैं ।
जवाब देंहटाएंमुझे इस संग्रह ने इस बात के लिए प्रभावित किया है कि इसमें हिंदी जगत में चल रही बहुत सारी प्रवृत्तियों की पड़ताल की गई है। बिगाड़ के डर से कोई भी इस तरह की कविताएं लिखने- छपवाने से बचना चाहेगा लेकिन ऋष्यश्रृंग ने ऐसा किया है। संग्रह मुझे अच्छा लगा। लेकिन आपकी पाठकीय प्रतिक्रिया और अंदाज़ ने मुझे सचमुच चौकाया है। इस तरह की तटस्थ, निर्वैक्तिक प्रतिक्रिया/ समीक्षा का चलन हिन्दी मे देखने को लगभग नहीं मिलता।