आज का यक्ष प्रश्न
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
भगत जी - महाभारत के यक्ष- प्रश्न बारे
में तो जानते ही हो । उसमें एक प्रश्न है “ राष्ट्र कैसे मर जाता है?” तुम क्या समझते हो इससे ?
बुतरू -
युधिष्ठिर ने तो जवाब दिया था कि शासक के बिना राज्य नष्ट हो जाता है। मैं भी
समझता हूँ कि योग्य शासक हो तभी राज्य बचता है ।
भगत जी - अगर
शासक हों, तो राज्य अखंड रहता
है ?
बुतरू -
हाँ, शासक राज्य की हर
व्यवस्था को सुचारु रूप से लागू करता है , जिससे कि राज्य में खुशहाली बनी रहती है । शासक न हो तो व्यवस्थाएँ चरमराने
लगती हैं ।
भगत जी - व्यवस्था से तुम्हारा क्या
तात्पर्य है ?
बुतरू -
व्यवस्था यानी कि हर बात के लिए नियम, कायदे-कानून, उनकी देख-रेख करने का इंतजाम ।
भगत जी - तो अगर शासक हों, नियम कानून हों, उनकी देख-रेख करने के लिए भी व्यवस्था हो तो राज्य की
हानि नहीं होती है ? और भी कुछ ?
बुतरू -
जी । कुछ नियम कायदे तो लिखित होते हैं , कुछ समाज के अनुसार भी व्यवहार की अपेक्षा की जाती है, जिसका लोग अनुपालन करते हैं ।
भगत जी - यानी कि अलिखित अनुशासन । यानी कि शासक हो, नियम कानून हों, उनकी देख-रेख का इंतजाम हो, समाज के कुछ अनुशासन हों तो राष्ट्र जीवित रहता है, मरता नहीं । यानी कि दूध हो, चाय-पत्ती हो, पानी हो, चूल्हा हो, बर्तन हों तो चाय अच्छी बनेगी ?
बुतरू -
तो आप ही बताइए । वैसे सबसे प्रसिद्ध प्रश्न तो यह है “ सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?”
भगत जी - अच्छा एक कथा सुनो , फिर बताओ :-
आज का यक्ष प्रश्न
एक राष्ट्र था । था क्या , है भी ।
विनम्र राष्ट्र था । इतना कि महादेश जितना बड़ा होने के बावजूद देश कहला कर
ही संतुष्ट था।
देश बहुत ही पुराना था । इतना प्राचीन कि उसे अजर-अमर माना जा सकता है ।
देश जितना पुराना, उसकी सभ्यता और सँस्कृति उतनी ही पुरानी। पुराना देशी घी - शुद्ध ! न जाने
कितनी सभ्यताओं, सँस्कृतियों का
समागम !
देश में एक से बढ़कर एक शासक हुए । राजे, महाराजे, चक्रवर्ती, विश्वविजेता – कौन था जो यहाँ नहीं हुआ, इसकी प्रसिद्धि से अभिभूत नहीं हुआ ।
तो एक समय की बात है ।
देश में सब कुछ बढ़िया चल रहा था । बढ़िया चलना , समग्रता में देखने पर दिखता है ।
करोड़ों बातों में कुछ सैकड़े, हजार की गिनती नहीं की जाती है । वैसे भी हंड्रेड पर्सेंट तो कुछ भी नहीं
होता है । हंड्रेड पर्सेंट तो बस कम्पनियों के लक्ष्य पूरे होते हैं, भले ही कागज़ पर हों केवल या फिर बच्चों की मार्क-शीट
में, जो भले ही सिर्फ
अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं में हो !!
शासक स्थापित थे । नियम-कानून पुराने थे, मगर टाइम-टेस्टेड । हाँ जो ज्यादा ही पुराने हो गए थे
और राष्ट्र की संप्रभुता पर ही प्रश्न-चिन्ह थे उनको बदलने की कवायद की जा रही थी
। नियम-कानून की व्यवस्था बनाए रखने के लिए पूरा तंत्र विकसित था । उस तंत्र को
मालूम था किसकी कब और कितनी सुरक्षा की जानी है । जिनकी सुरक्षा की जानी है, नियमानुसार, उनकी सुरक्षा कर देने से पूरा राष्ट्र सुरक्षित महसूस करता था । कम-से-कम
सुरक्षित महसूस कराया जाता था ।
देश तो वैसे भी स्वतंत्र था । वहाँ के लोग उससे भी ज्यादा स्वतंत्र होना
चाह रहे थे । आजादी के गाने गाने की भी स्वतंत्रता थी, और ऐसा गाने वालों को पीटने की भी । नए-नए दंड लागू
करने की भी स्वतंत्रता थी, उस दंड से बच निकलने की तरकीबों को आज़माने की भी । दोषी समझे जाने वाले को
सरे आम मार डालने की भी स्वतंत्रता थी, सज़ायाफ़्ता लोगों को अपना नेता चुन लेने की भी । पर्व-त्योहारों, सभाओं-मीटिगों में गले लग-लग के मिलने की भी
स्वतंत्रता थी, मिलने-जुलने के कारण
बच्चों के ऑनर किलिंग की भी ।
तो सबकुछ बढ़िया चल रहा था । कुछ सुधि जनों का ध्यान इस तरफ गया कि महिलाओं, स्त्रियों की इज्जत करने की स्वतंत्रता तो बड़ी बात है
। लेकिन जिस तरह अदालत में पक्ष के साथ साथ प्रतिपक्ष को भी मौका दिया जाता है, स्त्रियों के सम्मान का प्रतिपक्ष तो होना ही चाहिए ।
देश के सदन को छोड़ हर जगह प्रतिपक्ष, बल्कि बलशाली प्रतिपक्ष का होना बहुत जरूरी है ।
फिर सिलसिला चल निकला ।
स्त्रियों की इज्जत न करने का, उन पर ज्यादतियाँ करने का ।
चूँकि स्वतंत्रता की देश में बहुत ही ज्यादा कद्र थी , स्वतंत्रता का पूरा खयाल रखा
जाता था ।
घर में बे-इज्ज्त करने की स्वतंत्रता, बाहर पूजने की स्वतंत्रता ।
लेकिन दुनिया बढ़ रही थी । देश भी बढ़ रहा था । दुनिया और भी स्वतंत्र हो रही
थी, देश भी और भी ज्यादा
स्वतंत्र हो रहा था ।
स्त्रियाँ बाहर निकलने लगीं । उनको उसकी स्वतंत्रता । साथ ही उनकी राह में
रोड़े अटकाने की स्वतंत्रता । स्त्रियाँ शायद बहुत -बहुत दिनों बाद आज़ाद महसूस करने
लगीं थीं, सो अप्रत्याशित और
आशातीत सफलता प्राप्त करने लगीं ।
इस बात का विरोध करने के लिए भी लोग स्वतंत्र थे ।
स्त्रियों पर हमले होने लगे । मानसिक, वाचिक और फिर दैहिक ।
स्त्रियाँ एक से बढ़कर एक सफलताएँ प्राप्त करने को स्वतंत्र थीं । दूसरी तरफ
उनके विरुद्ध एक से बढ़कर एक ज्यादतियाँ करने की स्वतंत्रता लोगों ने स्वयंभू तरीके
से ले ली । कई बार चीज़ें एक हद से निकल जाती हैं , फिर अपनी ही गति से चलने लग पड़ती
हैं । कुछ ऐसा ही हो चला । ज्यादतियों की खबरें बढ़ने लगीं । एक के बाद एक । हर तरफ
से । हर दिन ।
कहीं एक सभा हुई –
“नियंत्रण पाना जरूरी है ।
लड़कियों से कहा जाए , देख-सुन के निकलें । देख-सुन के बात-व्यवहार करें । देख-सुन के मेल-मिलाप
करें । हँसी-ठिठोली से दूर रहें । लोग गलत समझ सकते हैं । ज़माना खराब है । जो खराब
है, उसको तो कुछ कह नहीं
सकते । खराब लोगों के मुँह नहीं लगते । खुद ही समझदार बनें लड़कियाँ ।
खबरों पर ज्यादा ध्यान न दें । कोशिश की जाए कि खबरों को जगह ही कम मिले ।
वैसे भी खबरें सच कहाँ होती हैं । सच का टेंडर तो कुछेक लोगों के ही पास होता है ।
वे काम की बातों पर ध्यान देते हैं । लड़कियों की सुरक्षा तो व्यक्तिगत तौर पर भी
देखी जा सकती है । बल्कि देखी जानी चाहिए । समाज व्यक्तियों का ही समुच्चय तो होता
है ।
किसी भी रेखा को बिना मिटाए छोटा करना हो तो बगल में उससे बड़ी रेखा खींच
दीजिए । घटनाओं और खबरों पर यह बात अक्षरश: लागू होती है, यह बात ज्ञानी लोग जानते ही हैं ।
शासन की भी अपनी व्यवस्था थी । शासन की अपनी ही व्यवस्था होती है । सधे हुए
पतंगबाज की तरह कहीं ढील देना और कहीं कस देना उसे अच्छी तरह आता है ।
कानून भी चूँकि एक ही साथ कई-कई चीजों पर लागू होता है, वो भी कहीं ढीला, कहीं कसा हुआ रहता है । फिर कानून तो गांधारी है , उसे दु:शासनों के दोष क्यों
दिखेंगे ?!
ऐसे ही किसी समय में कोई दो व्यक्ति आपस में बात करते हुए पाए गए :-
पहला - स्त्रियों के लिए बहुत ही बुरा समय चल रहा है ।
दूसरा - किस लिहाज़ से भाई ? स्त्रियाँ प्लेन उड़ा रही हैं, बैंकों-कंपनियों की अध्यक्ष बन रही हैं, डॉक्टर- इंजीनियर बन रही हैं, सफल प्रशासक बन रही हैं, मंत्री बन रही हैं , जिस भी क्षेत्र में देखिए कमाल कर रही हैं ।
पहला - ऐसी कितनी होंगी ? मुठ्ठी भर, या उससे थोड़ा ज्यादा ।
दूसरा - नहीं भाई, ये गिनती रोज़ बढ़ती जा रही है ।
पहला - एक दूसरी मुठ्ठी भी है । उसके बारे में क्या खयाल है ?
दूसरा - देखिए समाचार पत्रों और अन्य साधनों पर बहुत ध्यान मत दीजिए । अपराध हर
क्षेत्र में हो रहे हैं और हर आदमी ही पीड़ित है ।
पहला - इसका मतलब क्या है ? ऐसे ही छोड़ दिया जाए ?
दूसरा - कार्यवाही हुई तो है । कार्यवाही होती तो है । हाँ, न्यायिक प्रक्रिया है, हर पहलू पर विचार कर के चलती है , तो कभी-कभी देर भी हो जाती है ।
कभी-कभी तो बहुत जरूरी मुद्दों का निपटारा होने में पच्चीस-तीस वर्ष लग जाते हैं , आपने देखा ही है ।कभी-कभी कुछ
मामलों में चट-पट भी हो जाता है, ये अलग बात है ।
पहला - जो फैसले बहुत देर से लिए जाएँ या बहुत ही जल्दी ले लिए जाएँ उनमें निहित
स्वार्थों की खोज की जानी चाहिए । और एक कहावत है , रोकथाम ईलाज से बेहतर है । आपका
क्या खयाल है ?
दूसरा - उसके लिए भी उपाय तो किए
ही जा रहे हैं । बेटियों को पढ़ाने और पढ़ाने के लिए बचाने का आह्वान तो आधिकारिक
तौर पर भी किया गया है ।
पहला - कोई कानून और उसको सख्ती से लागू करने के लिए कुछ ?
दूसरा - अरे भाई, कानून तो हैं । लेकिन कार्यवाही तो सूचना के आधार पर ही की जा सकती है न ?
पहला - भले ही किसी की जान चली जाए ? जान ले ली जाए ?
दूसरा - मतलब ?
पहला - आप कोई गाड़ी चलाते हैं ? बाईक या कार ?
दूसरा - हाँ, दोनों ।
पहला - पुलिस आपके हेलमेट की जाँच क्यों करती है ? उनको सूचना कौन देता है?
दूसरा - ऐसा कानून है । और फिर मेरी ही सुरक्षा के लिए । और सूचना क्यों चाहिए
भाई, जाँच करने के लिए ।
पहला - आपको ही कुछ होगा न ? किसी और को तो नहीं? आपकी जान है, आप ले ही सकते हैं । पुलिस क्यों परेशान होती है ?
दूसरा - जिम्मेदार पुलिस का काम है सुरक्षा करना । दुर्घटनाओं की रोकथाम करना ।
कानून भी यही है । आपने भी तो इस संबंध में कितने विज्ञापन देखे होंगे ।
पहला - किसी बच्ची, किसी लड़की, किसी महिला के साथ दुर्व्यवहार, उनका बलात्कार और निर्मम हत्या – इस पर आप क्या बोलते हैं? पुलिस कितनी मुस्तैद रहती है ? आपने कितने विज्ञापन इस अपराध के
खिलाफ और उसके लिए होने वाली सजाओं के बारे में देखे हैं ? छोड़िए इन सब बातों को, आप बताइए आप क्या करते हैं व्यक्तिगत स्तर पर ?
दूसरा - मैं पूरा खयाल रखता हूँ अपने परिवार की सुरक्षा का । यह सुनिश्चित करता
हूँ कि लोग समय से जाएँ और समय से आएँ । ठीक जगहों पर जाएँ । अच्छे लोगों से मिलें
।
पहला - आपको लगता है कि आप पूरी तरह सुनिश्चित कर सकते हैं ?
दूसरा - एकदम हंड्रेड परसेंट तो नहीं हो सकता है, लेकिन फिर भी जहाँ तक हो सकता है , करता हूँ ।
पहला - और उसके बाद?
दूसरा - कुछ भगवान पर भी छोड़ना पड़ता है । आप सबकुछ तो नहीं कर सकते ! आस्था में
बल होता है, यह आप भी मानेंगे ही
।
पहला - बस यही तो बात है । पूरा सिस्टम ही भगवान पर छोड़े हुए है । देश महादेश नहीं
कहलाने की विनम्रता बरतता है, दरअसल यह देश भी ठीक-ठीक कहे जाने लायक है या नहीं,पता नहीं !! कितना आश्चर्य है कि रोज़ खबरें देख-सुन
रहे हैं , फिर भी सब
निश्चिंत हैं कि अपने साथ नहीं होगा । आस्था में वाकई बहुत बल होता है !
बुतरू - कुछ सोच रहा हूँ ।
भगत जी - क्या?
बुतरू - आश्चर्य तो है कि रोज़ खबरें देखने-सुनने के बाद भी लोग निश्चिंत हैं , मगर दूसरा प्रश्न भी उतना ही
प्रासंगिक है ।
भगत जी - वो क्या ?
बुतरू - यही कि चाय हमेशा अच्छी नहीं भी बन सकती है । और राष्ट्र मरता ही नहीं , कभी-कभी उसकी हत्या भी कर दी
जाती है । धीमे-धीमे ।
भगत जी ने बुतरू के कंधे पर हाथ रख दिया ।
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