सर्टिफिकेट वाला सत्य
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
भगत जी - सत्य क्या होता है ?
बुतरू -
सत्य यानी सच । यथार्थ । यथातथ्य, ज्यों की त्यों ।
भगत जी - यह
तो शब्दकोश में दिए गए अर्थ हैं । क्या जो है, जैसा है, वही सच है ?
बुतरू -
हाँ । जो है, वही तो सच होगा ?
भगत जी -
अच्छा, अगर एक आदमी जेल में
है तो क्या वह अपराधी है ?
बुतरू -
हो भी सकता है और नहीं भी ।
भगत जी - फिर
सच क्या हुआ ?
बुतरू -
आप ही बताइए फिर ।
भगत जी - अच्छा एक कथा सुनो –
सर्टिफिकेट वाला सत्य
एक बार की बात है । एक देश था । देश हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता वाला, यहाँ तक कि यह माना जाता था कि सभ्यता का जन्म ही इसी
देश में हुआ । देश में सत्य का बहुत मान था। होठों पे सचाई और दिल में सफाई वाला
देश ।
उसी देश में दो युवक थे । उनकी जान- पहचान मित्रता से आगे बढ़ रही थी ।
एक दिन एक मित्र ने दूसरे से पूछा – अच्छा, आपकी उम्र क्या होगी ?
देश दिल में सफाई वाला देश था, होठों पे सचाई वाला, दूसरे ने जवाब दिया – ऐसे तो छब्बीस है लेकिन सर्टिफिकेट में चौबीस । और
आपकी उम्र ?
दूसरे ने जवाब दिया – ऐसे पच्चीस , सर्टिफिकेट में चौबीस ।
वे बखूबी जानते थे कि बात का असल में होना कुछ और है, सर्टिफिकेट में होना कुछ और । माना वही जाएगा जो
सर्टिफिकेट पर लिखा है ।
उन्हीं दिनों की बात है । दसवीं और बारहवीं कक्षाओं के परिणाम घोषित हुए थे
। निनान्यबे, साढ़े निनान्यबे, निनान्यबे दशमलव सात, आठ, नौ ... । अंकों की जैसे बरसात हो रही हो ।
पच्चीस साल वाले ने कहा – हमारे समय में तो बहत्तर- तिहत्तर प्रतिशत
पर ही मिठाई मिल जाती थी ।
चौबीस साल वाले ने कहा – मेरे पिता जी को तो सेकेन्ड क्लास के मार्क्स होने
बावजूद विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था । हमलोगों के समय में भी तो, जब अखबारों में रिजल्ट प्रकाशित होते थे, फर्स्ट डिविज़न, सेकेंड डिविज़न, थर्ड डिविज़न की लिस्ट निकलती थी ।
पहले ने कहा – हाँ । मगर आज के बच्चे हैं भी बहुत तेज़ । हमलोग सपने में भी
नहीं सोच सकते थे कि अंग्रेजी और हिन्दी में सौ में सौ आ जाएँ। और तो और गणित
में भी साफ- सफाई के अंक कट जाते थे ।
दूसरे ने कहा – सो तो है । लेकिन मार्क्स तो यही कहते हैं कि आज के बच्चे
ज्यादा तेज़ हैं । मार्कशीट से ज्यादा भला चाहिए भी क्या ? !
पहले ने कहा – हाँ, जो मार्कशीट में छप गया वही काम
आएगा । वही माना जाएगा । आप भी वही मानेंगे और बच्चे को भी वही मानने पर मजबूर कर
देंगे । बुद्धिमत्ता और काबिलियत तो अंकों का परम्यूटेशन- कॉम्बिनेशन है !
सर्टिफिकेट और दस्तखत का वैसे भी बड़ा महत्त्व होता है । ये न हों तो देश
में एक काम न हो ।
देश में सच का राज था । चहुँ ओर विकास की धारा बहती थी । प्रगति सरपट दौड़ती
थी । कितने महकमे, कितने दफ्तर , कितने लोग देश को आगे बढ़ाने में लगे हुए थे । कभी- कभी लोग आस- पास देखते
तो उनको लगता कि जो बताया जा रहा है स्थिति वैसी तो है नहीं । फिर वे आँकड़ों को
देखने लग जाते । मन को तसल्ली हो जाती । इतनी सारी रिपोर्टें विकास और विकास के
अनुमान को सिद्ध कर रही थीं । रिपोर्ट आधिकारिक और सरकारी हो तब तो कुछ भी संशय की
गुंजाइश नहीं बचती । रिपोर्टें, प्रशस्ति- पत्र, विज्ञापन – सब प्रमाणित कर तो रहे कि हालचाल ठीक-ठाक है ।
देश में व्यवस्थाएँ एकदम सुचारु थीं । सत्य के प्रति निष्ठा चरम पर थी । अब
जैसे बहुजन हिताय कोई योजना बनाई गई । योजना को लागू करने के आदेश पारित हो गए ।
योजना की प्रगति पर नजर रखने के लिए लोगों की नियुक्ति हो गई । किसी भी योजना की
सफलता तो तब है जब वह तय समय-सीमा में लागू हो जाए । इसीलिए एक लागू करने की और
उसे पूरा करने की तिथि घोषित हो गई । लेकिन जैसी कि आदमी की फितरत होती है , काम में देर- सबेर तो हुआ ही करती है । काम होने में
देर सबेर होना अलग बात है, काम पूरा होने की घोषणा होना अलग बात । तो हर ईकाई से एक प्रमाण-पत्र ले
लीजिए कि काम पूर्ण हुआ । घोषणा कर दीजिए, विज्ञापन दे दीजिए । सत्य के प्रति निष्ठा देखिए कि
प्रमाण-पत्र लेना और देना धर्म की तरह निभाया जाता था । प्रमाण पत्रों की एक बानगी
देखिए – चरित्र प्रमाण- पत्र, जाति प्रमाण- पत्र, आवासीय प्रमाण-पत्र,जन्म प्रमाण- पत्र, मृत्यु प्रमाण- पत्र , जीवन प्रमाण- पत्र, परीक्षा में सफल होने का प्रमाण- पत्र, किसी प्रतियोगिता में भाग लेने का, सफल होने के प्रमाण-पत्र, किसी कार्यक्रम में शिरकत का प्रमाण- पत्र आदि-
इत्यादि । यानी कि जिधर देखूँ सर्टिफिकेट की नज़र आए । इन सबसे भी पहले व्यक्ति का
पहचान- पत्र । कोई पहचान- पत्र नहीं तो आपका अस्तित्व ही नहीं ।
देश की न्याय- व्यवस्था भी चाक- चौबंद थी । कई बार तो न्यायालय स्वत:-
संज्ञान लेकर स्थिति को ठीक कर देता था । न्यायालय ने स्वत: संज्ञान ले लिया ।
हाकिमों को तलब कर लिया । वस्तुस्थिति स्पष्ट करने के लिए हलफ़नामा प्रस्तुत करने
का आदेश दिया । अब हाकिम स्वयं में तो कोई व्यवस्था होते नहीं, खासकर जब जिम्मेदारियों को निभाना हो । तो आदेश
निर्गत होते मातहतों के लिए - वस्तुस्थिति और उसमें वांछित सुधारों पर प्रमाण-पत्र
प्रस्तुत करने के । फिर प्रमाण -पत्र बनाए जाते । चिड़िया बैठाने की प्रक्रिया शुरू
होती । सबसे निचले कर्मचारी, जिसने प्रमाण- पत्र बनाया, से लेकर सबसे ऊपर तक चिड़िया बैठाई जाती और अंतत: प्रमाण- पत्र हस्ताक्षरित
होकर बड़े हाकिम के पास पहुँच जाता । उसके आधार पर हलफ़नामा प्रस्तुत कर दिया जाता ।
सबों की जिम्मेदारियाँ निभ जातीं । और अगर संयोगवश प्रमाण- पत्र में कोई त्रुटि
उजागर हो जाती तो जिसने सबसे पहले चिड़िया बिठाई, उस पर कठोर कार्र्वाई कर दी जाती । सत्य के लिए आहुति
दी ही जाती है । वस्तुस्थिति देखने-समझने
की चीज़ नहीं, प्रमाण- पत्रों में
घोषित करने की चीज़ है ।
देश बहुत विशाल देश था । न्यायपालिका, कार्यपालिका , विधायिका – किसी के लिए भी संभव नहीं था, स्थिति पर नज़र बनाए रखना और उसमें सुधार करना । हर
बात के लिए प्रमाण- पत्र की व्यवस्था कर दी गई थी । अपराधी प्रमाण- पत्र दे रहे थे, बरी हो रहे थे । नेता प्रमाण- पत्र दे रहे थे, चुने जा रहे थे । जन्म से लेकर मृत्यु तक, हर घटना, मौके को प्रमाण- पत्रों की सहायता से सिद्ध किया जा रहा था, साधा जा रहा था ।
फिर लिखित बातों का महत्त्व ज्यादा होता है, उनमें वज़न ज्यादा होता है , वे , शाश्वत अगर न भी कहें, तो दीर्घायु तो होती ही हैं । सत्य
वही जो प्रमाणित किया जा सके, जो प्रमाणित किया जा
सके सत्य वही । तो सत्य दीर्घायु हो रहा था । यह अलग बात है कि कोई भी उच्च पदस्थ
व्यक्ति लिख कर देने में हिचकता है ।
बुतरू -
तब तो सत्य क्या है , यह तो पता ही नहीं चलेगा ।
भगत जी -
क्यों ?
बुतरू -
क्योंकि जो महसूस किया जा रहा है, जो दिख रहा है और जो दर्ज़ किया जा रहा है, वो तो अलग- अलग बातें हैं । मुद्रा-स्फीति की तरह हर
बात में ही स्फीति हो रही है। सबसे ज्यादा सत्य में ।
भगत जी - तुम व्यथित न हो । वर्तमान
में जियो । यह देश सिद्ध पुरुषों का देश है । तुम भी स्थित-प्रज्ञ हो जाओ । अपने
वर्तमान के अलावा तुम्हारी कहीं कोई जगह नहीं है । और देश, काल के चक्र में अपनी गति को स्वत: प्राप्त होता है , चिंता न करो ।
बुतरू -
मैं लिख के देता हूँ इस देश का कुछ नहीं हो सकता !!
भगत जी - लिख
के देते हो .... !!
भगत जी हँसते हुए उठ खड़े हुए ।
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