शनिवार, 3 मई 2025

बदलाव की बयार [ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]

 

बदलाव की बयार

[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]

                                        

 भगत जी  - गाँधी जी के बारे में क्या जानते हो?

 

बुतरू                      - गाँधी बाबा हमारे राष्ट्रपिता थे । उन्होंने अकेले ही देश में स्वतंत्रता की अलख जगा दी थी । उनके बारे में आइंस्टीन ने शायद कहा था कि आने वाली पीढ़ियाँ इस बात पर यकीन नहीं करेंगी कि हाड़-माँस का कोई ऐसा इंसान इस पृथ्वी पर कभी हुआ था ।

 

भगत जी  - वाह ! अच्छा गाँधीवाद के बारे में भी जानते हो ?

 

बुतरू                      - गाँधी जी के आदर्शों पर चलना ।

 

भगत जी  - ठीक । पर अभी भी प्रासंगिक है ? लोग अभी भी अनुसरण करते हैं ?

 

बुतरू                      - इतने सारे गाँधी-टोपी दिखते तो है !

 

भगत जी  - अच्छायह कहानी सुनो , फिर बताना –

 

बदलाव की बयार

 

वे गाँधीवादी थे । घोषित गाँधीवादी । सिर्फ गाँधीवादी होना अलग बात है । घोषित गाँधीवादी होना अलग ।

गाँधीवादी कोई भी हो सकता है । घोषित सभी लोग नहीं हो सकते । घोषित होना यानी चार चाँद लगना । यानी सर्टिफाइड ।

घोषित होना ही चाहिए । घोषित होना ही पड़ता है , अगर जीवित रहना है सफलतापूर्वक ।

तो वे घोषित गाँधीवादी थे ।

 

उनकी हर बात इस बात की घोषणा करती थी ।

 

गाँधी टोपी । खद्‍दर के वस्त्रादि । बात-व्यवहार में आरोपित शिष्‍टता । बिना ‘जी’ के बात नहीं। बिना हाथ जोड़े , बिना झुके स्वागत नहीं । अरज नहीं ।

हालाँकि उम्र ज्यादा नहीं थी उनकी,पर सच्चे साधकों में बात ही कुछ और होती है । उन्होंने बड़े जतन से साध लिया था ।

 

कुछ चीज़ें देश और काल की सीमा से परे हो जाती हैं । गाँधीवाद भी वैसा ही है कुछ ।

उन्होंने घोंट भी रखा था – एकै साधै सब सधै ।

उन्होंने यह भी सीख रखा था कि हंस दूध-पानी में से दूध खींच लेता है । वे भी मानव रूपी हंस थे । गाँधीवाद का दूध-पानी सामने था ।

 

प्रकट तौर पर मित व्ययीमित भाषी , मिष्‍ट-भाषी , विनोद-प्रिय और संयमी होना था । वे थे।

 

उन्होंने देखा था – सत्ता साधना है । इसके लिए साधकों की जरूरत होती है । खास तौर पर सात्विक साधकों की ।

रेपुटेशन व्यक्‍ति से आगे-आगे चलती है । सात्विक साधकों की और भी ज्यादा । सत्‍ता की शॉर्टलिस्ट में ऐसे लोग ऊपर रहते हैं ।

 

कहानी अब शुरू होती है ।

 

तब उनकी उम्र पच्चीस-छब्बीस की रही होगी । इब्ने इंशा ने इसी उम्र के बारे में कहा है ‌:-

 

इंशा जी छब्बीस बरस के होके ये बातें करते हो

इंशा जी इस उम्र के लोग तो बड़े सयाने होते हैं

 

वे भी सयाना होना चाहते थे ।

उनके देश में सयाना होना बड़े होने से संबंधित था । बड़ा होना ग्रैजुएट होने से । और उसके बाद नौकर हो जाने से ।

आपने अच्छी नौकरी नहीं पकड़ी तो आप बड़े नहीं हो पाए । बड़े नहीं हो पाए तो सयाना होना भूल जाईए ।

तो खैर । उन्होंने नौकरी पकड़ ली थी ।

 

जैसा नए-नए में होता है । सबकुछ आइडियल । पंक्चुएलिटी से मेंटेलिटी तक सब ।

फिर धीरे-धीरे उन्होंने आँखें खोलीं । दुनिया देखी । सीख ली ।

 

उन्होंने सीखा – सहानुभूति लेने की नहीं देने की चीज़ है । कोशिश यह की जानी चाहिए कि सहनुभूति का पात्र बनने का मौका नहीं आए । एक बार आप पात्र बने नहीं कि बच्चन की पंक्तियाँ ‘ क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी..’ भी काम नहीं आने वालीं ।

 

उन्होंने और सीखा – लक्ष्य निर्धारित होने चाहिए । सारी शिष्‍टतासारी कर्त्तव्यनिष्ठा , सारी स्वामीभक्ति निभाई जाएँ , पर वो सब लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त । केवल ।

 

उन्होंने और भी सीखा – हर हाल में चेहरे को सदा प्रसन्नचित्त और ‘केयरफ्री’ बना रखना है । मन में उतर कर किसने देखा है ।

 

यह भी सीखा – चाल-चलन मेंओढ़ने-पहनने में , बोलने-बतियाने में पदोचित गरिमासादगी और तत्परता बना रखनी है ।

 

वे सीख रहे थे । बढ़ रहे थे ।

इसी बीच गाँधीवाद की हवा सुंघा दी किसी ने ।

मनकर्मवचन एक होना उत्तम पुरुष की निशानी है । लोक के लिए जीना सीखो । ‘ मित’ को साधो ।  

उनको किसी ने लाफिंग बुद्धा की जगह गाँधी जी के तीन बंदरों की मूर्तियों का सेट गिफ़्ट कर दिया । प्रयोजन तो शो केस की शोभा बढ़ाने भर का होगा । उन्होंने थोड़ा ज्यादा शोभा बढ़ाने की बात सोच ली ।

दफ्तर में कान बंद किए बंदर की मूर्ति सजा दी । घर में मुँह बंद वाली । बैठक में आँखें बंद किए बंदर की ।

थोड़ा फेर-बदल करने से ताजगी आती है । उनमें भी आ गई । कुछ चीजें तो वे पहले ही साध चुके थे । अब थोड़ा और सधने लगे ।

शायद अलग-अलग बंदरों का अलग-अलग असर हुआ ।

 

दफ्तर में उन्होंने ठीक से देखना शुरू कर दिया । देखकर बोलना शुरू कर दिया । सुनना किसी का नहीं । जो देखा वो माना । और फिर वैसा ही कहा ।

 

घर में वे देखते सबकुछ । सुनते सब कुछ । और सह जाते । कहते नहीं कुछ भी । वैष्णव जन तो तेने कहिए...।

 

बैठक में निश्चिंत हो पड़े रहते । देखने की कोशिश नहीं करते । सुनते एक कान से , दूसरे से निकाल देते । कभी कुछ कहते । कभी नहीं ।

 

कुछ समय तो ठीक चला । फिर थोड़ी खलबली मचनी शुरू हो गई ।

 

दफ्तर में लोग चिढ़ने लगे – सारा ठेका इन्होंने ही ले रखा है । यही देख लेंगे सबकुछ । यही मचा देंगे सारा हल्ला । और सुनेंगे भी नहीं किसी की ।

 

घर में लोग उनसे निर्णय की उम्मीद रखते । सुझावों की आशा रखते । पर वह तो अपने में मगन थे । सहा तो क्या- क्या न सहा ! लेकिन दिखता तो था सबकुछ साफ-साफ । यह परेशानी का सबब था । कोई कुछ कहे न कहे ।

 

बैठक में लोग मस्त थे । पर वे सिर्फ सुनते जाते थे । समझते जाते थे।  देखते नहीं थे । बैठक में लोग आते । कहानी सुनाते । वे पसीज जाते । कुछ न कुछ वचन दे ही बैठते ।

 

हर जगह लोग परेशान रहने लगे । बदलने का इंतज़ार करने लगे ।

दफ्तर के किसी चतुर चपरासी का ध्यान गया । हो न हो ये बंदरों की ही करामात है ।

उसने बंदर बदल दिए ।

अब दफ्तर में मुँह बंद किए बंदर था । घर में आँखे बंद किए । बैठक में कान बंद किए ।

सब जगह व्यवस्था रास्ते पर आने लगी ।

गाँधी जी के बंदरों के वे प्रशंसक थे । भक्‍त थे । उनकी भक्‍ति कायम रही । साथ- साथ प्रगति भी ।

 

बुतरू        - बदलाव की बयार तो है पर उल्टे-सुल्टे बदलाव की ।

 भगत जी     - हूँssss... !


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें