बदलाव की बयार
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
बुतरू - गाँधी बाबा हमारे राष्ट्रपिता थे । उन्होंने अकेले ही
देश में स्वतंत्रता की अलख जगा दी थी । उनके बारे में आइंस्टीन ने शायद कहा था कि
आने वाली पीढ़ियाँ इस बात पर यकीन नहीं करेंगी कि हाड़-माँस का कोई ऐसा इंसान इस
पृथ्वी पर कभी हुआ था ।
भगत जी - वाह ! अच्छा गाँधीवाद के बारे में भी जानते हो ?
बुतरू - गाँधी जी के आदर्शों पर चलना ।
भगत जी - ठीक । पर अभी भी प्रासंगिक है ? लोग अभी भी अनुसरण करते हैं ?
बुतरू - इतने सारे गाँधी-टोपी दिखते तो है !
भगत जी - अच्छा, यह कहानी सुनो , फिर बताना –
बदलाव की बयार
वे गाँधीवादी थे । घोषित गाँधीवादी । सिर्फ गाँधीवादी होना अलग बात है ।
घोषित गाँधीवादी होना अलग ।
गाँधीवादी कोई भी हो सकता है । घोषित सभी लोग नहीं हो सकते । घोषित होना
यानी चार चाँद लगना । यानी सर्टिफाइड ।
घोषित होना ही चाहिए । घोषित होना ही पड़ता है , अगर जीवित रहना है सफलतापूर्वक ।
तो वे घोषित गाँधीवादी थे ।
उनकी हर बात इस बात की घोषणा करती थी ।
गाँधी टोपी । खद्दर के वस्त्रादि । बात-व्यवहार में आरोपित शिष्टता ।
बिना ‘जी’ के बात नहीं। बिना हाथ जोड़े , बिना झुके स्वागत नहीं । अरज
नहीं ।
हालाँकि उम्र ज्यादा नहीं थी उनकी,पर सच्चे साधकों में बात ही कुछ और होती है ।
उन्होंने बड़े जतन से साध लिया था ।
कुछ चीज़ें देश और काल की सीमा से परे हो जाती हैं । गाँधीवाद भी वैसा ही है
कुछ ।
उन्होंने घोंट भी रखा था – एकै साधै सब सधै ।
उन्होंने यह भी सीख रखा था कि हंस दूध-पानी में से दूध खींच लेता है । वे
भी मानव रूपी हंस थे । गाँधीवाद का दूध-पानी सामने था ।
प्रकट तौर पर मित व्ययी, मित भाषी , मिष्ट-भाषी , विनोद-प्रिय और संयमी होना था । वे थे।
उन्होंने देखा था – सत्ता साधना है । इसके लिए साधकों की जरूरत होती है ।
खास तौर पर सात्विक साधकों की ।
रेपुटेशन व्यक्ति से आगे-आगे चलती है । सात्विक साधकों की और भी ज्यादा ।
सत्ता की शॉर्टलिस्ट में ऐसे लोग ऊपर रहते हैं ।
कहानी अब शुरू होती है ।
तब उनकी उम्र पच्चीस-छब्बीस की रही होगी । इब्ने इंशा ने इसी उम्र के बारे
में कहा है :-
इंशा जी छब्बीस बरस के होके ये बातें करते हो
इंशा जी इस उम्र के लोग तो बड़े सयाने होते हैं
वे भी सयाना होना चाहते थे ।
उनके देश में सयाना होना बड़े होने से संबंधित था । बड़ा होना ग्रैजुएट होने
से । और उसके बाद नौकर हो जाने से ।
आपने अच्छी नौकरी नहीं पकड़ी तो आप बड़े नहीं हो पाए । बड़े नहीं हो पाए तो
सयाना होना भूल जाईए ।
तो खैर । उन्होंने नौकरी पकड़ ली थी ।
जैसा नए-नए में होता है । सबकुछ आइडियल । पंक्चुएलिटी से मेंटेलिटी तक सब ।
फिर धीरे-धीरे उन्होंने आँखें खोलीं । दुनिया देखी । सीख ली ।
उन्होंने सीखा – सहानुभूति लेने की नहीं देने की चीज़ है । कोशिश यह की जानी
चाहिए कि सहनुभूति का पात्र बनने का मौका नहीं आए । एक बार आप पात्र बने नहीं कि
बच्चन की पंक्तियाँ ‘ क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी..’ भी काम नहीं आने वालीं ।
उन्होंने और सीखा – लक्ष्य निर्धारित होने चाहिए । सारी शिष्टता, सारी कर्त्तव्यनिष्ठा , सारी स्वामीभक्ति निभाई जाएँ , पर वो सब लक्ष्य-प्राप्ति के
निमित्त । केवल ।
उन्होंने और भी सीखा – हर हाल में चेहरे को सदा प्रसन्नचित्त और ‘केयरफ्री’ बना रखना है । मन में उतर कर किसने देखा है ।
यह भी सीखा – चाल-चलन में, ओढ़ने-पहनने में , बोलने-बतियाने में पदोचित गरिमा, सादगी और तत्परता बना रखनी है ।
वे सीख रहे थे । बढ़ रहे थे ।
इसी बीच गाँधीवाद की हवा सुंघा दी किसी ने ।
मन, कर्म, वचन एक होना उत्तम पुरुष की निशानी है । लोक के लिए
जीना सीखो । ‘ मित’ को साधो ।
उनको किसी ने लाफिंग बुद्धा की जगह गाँधी जी के तीन बंदरों की मूर्तियों का
सेट गिफ़्ट कर दिया । प्रयोजन तो शो केस की शोभा बढ़ाने भर का होगा । उन्होंने थोड़ा
ज्यादा शोभा बढ़ाने की बात सोच ली ।
दफ्तर में कान बंद किए बंदर की मूर्ति सजा दी । घर में मुँह बंद वाली ।
बैठक में आँखें बंद किए बंदर की ।
थोड़ा फेर-बदल करने से ताजगी आती है । उनमें भी आ गई । कुछ चीजें तो वे पहले
ही साध चुके थे । अब थोड़ा और सधने लगे ।
शायद अलग-अलग बंदरों का अलग-अलग असर हुआ ।
दफ्तर में उन्होंने ठीक से देखना शुरू कर दिया । देखकर बोलना शुरू कर दिया
। सुनना किसी का नहीं । जो देखा वो माना । और फिर वैसा ही कहा ।
घर में वे देखते सबकुछ । सुनते सब कुछ । और सह जाते । कहते नहीं कुछ भी ।
वैष्णव जन तो तेने कहिए...।
बैठक में निश्चिंत हो पड़े रहते । देखने की कोशिश नहीं करते । सुनते एक कान
से , दूसरे से
निकाल देते । कभी कुछ कहते । कभी नहीं ।
कुछ समय तो ठीक चला । फिर थोड़ी खलबली मचनी शुरू हो गई ।
दफ्तर में लोग चिढ़ने लगे – सारा ठेका इन्होंने ही ले रखा है । यही देख
लेंगे सबकुछ । यही मचा देंगे सारा हल्ला । और सुनेंगे भी नहीं किसी की ।
घर में लोग उनसे निर्णय की उम्मीद रखते । सुझावों की आशा रखते । पर वह तो
अपने में मगन थे । सहा तो क्या- क्या न सहा ! लेकिन दिखता तो था सबकुछ साफ-साफ ।
यह परेशानी का सबब था । कोई कुछ कहे न कहे ।
बैठक में लोग मस्त थे । पर वे सिर्फ सुनते जाते थे । समझते जाते थे। देखते नहीं थे । बैठक में लोग आते । कहानी सुनाते । वे
पसीज जाते । कुछ न कुछ वचन दे ही बैठते ।
हर जगह लोग परेशान रहने लगे । बदलने का इंतज़ार करने लगे ।
दफ्तर के किसी चतुर चपरासी का ध्यान गया । हो न हो ये बंदरों की ही करामात
है ।
उसने बंदर बदल दिए ।
अब दफ्तर में मुँह बंद किए बंदर था । घर में आँखे बंद किए । बैठक में कान
बंद किए ।
सब जगह व्यवस्था रास्ते पर आने लगी ।
गाँधी जी के बंदरों के वे प्रशंसक थे । भक्त थे । उनकी भक्ति कायम रही । साथ-
साथ प्रगति भी ।
बुतरू - बदलाव की बयार तो है पर उल्टे-सुल्टे बदलाव की ।
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