शनिवार, 3 मई 2025

यार, पैर नहीं छुए [ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]

 

यारपैर नहीं छुए

[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]

 

 भगत जी                 - आदर क्या होता है ?

 बुतरू                      - आदर यानी जो किसी की महानता , सज्जनता देखकर आपके मन में जागे और आप स्वत: नतमस्तक हो जाएँ ।

 भगत जी                   - ये तो तकनीकी बात हुई । थोड़ी व्यवहारिक बात बताओ ।

 बुतरू                      - किसी का आदर करना , किसी के लिए जगह छोड़ कर खड़ा हो जाना , किसी को प्रणाम करना , किसी के पैर छूना....

 भगत जी                  - किसके ?

 बुतरू                      - अपने से बड़ों के ।

 भगत जी                  - बड़ा कौन ? और सभी बड़े क्या आदर के पात्र होते हैं ?

 बुतरू                      - इसमें तो कोई पेंच है ! आप ही बताईए ।

 भगत जी                 - ठीक है तो फिर यह कथा सुनाता हूँ :-

 

 

यारपैर नहीं छुए

 

प्रौढ़ावस्था को प्राप्त सज्जन थे ।

संस्कृति से पूरी तरह सुसंस्कृत ।

हालाँकि बचपन में उन्होंने ऐसा कोई श्‍लोक पढ़ा था कि न तो बालों के पकने से न तो उमर के बढ़ने से ही कोई ज्ञानी हो जाता है , फिर भी उनका मानना था कि उम्र के दराज़ होते ही इज़्ज़त अपने-आप प्राप्त होने वाली चीज है ।

 

उन्होंने खुद भी ऐसा किया था ।

 

चुन-चुन करखोज-खोज करपकड़-पकड़ कर बड़ों के पैर छुए थे । सादर चरण-स्पर्श । आदर देने की चीज हैआशीर्वाद कमाने की । जब सबकुछ फेल हो जाता है तो आशीर्वाद ही काम आता है । इस आस्था को वे थोड़ा और आगे खींच ले जाते । वे सोचते कि अगर आपने आशीर्वाद का कोटा ज्यादा जमा कर लिया है तो वो बाकी और चीजों की कमी पूरा कर देता है । कभी- कभी तो बाकी चीजों को गैर-जरूरी बना देता है – जैसे मेहनत-वेहनतकाम-धाम आदि-इत्यादि।

 

उनके अपने जमाने में ऐसा था कि कोई आँगन के उस पार भी दिख जाए तो हाथ में लिए हुए काम की ऐसी की तैसी । पहले प्रणामफिर कोई काम !

 

समय बदलता है ।उम्र बढ़ती है । कि घटती है ? खैरजो भी हो ! वे भी बड़े हुए । बचपन में जितने बड़े आदमियों को देखकर आदर-भाव जगाया करते , खुद उतने बड़े हुए ।

 

पर समय बदल चुका था ।

पैर छूने का फैशन थोड़ा कम हो गया था । एक तो नमस्तेनमस्कारकर-बद्ध प्रणाम से लोग काम चला रहे थेदूसरे थोड़ा ज्यादा नए फैशन वाले तो हाथ मिला कर ही काम चला रहे थे ।

उन्हें कोफ़्त होती थी । थे तो वो शुचितावादी ।

उन्होंने बालक-बालिकाओं की कोटियाँ बना दी थीं । कौन कितना झुककर पैर छूता है । शराफत की डिग्री पैरों पर झुकने की समानुपाती थी ।

 

वे कहीं बैठे हैं । एक बच्चा पास से गुजरता है । बच्चे के पिता टोकते हैं कि अरे पहचाना नहीं ,चलो प्रणाम करो । बच्चे ने देखाझुका और पैर छू लिए । डिस्टिंक्शन के साथ पास । अगर बच्चे ने जल्दी से नमस्ते की और भाग लिया तब फिर क्या था ?ऊपरी तौर पर तो कहते कि अरे कोई नहीं , बच्चा है और अंदर-अंदर बच्चे को कोसते सो कोसतेपिता की परवरिश पर भी टिप्पणी करते जाते ।

 

एक किसी बच्चे के पिता ने बच्चे को लोभ दिया – पैर छुओगे तो अच्छी-सी चीज़ खाने को मिलेगी ।बच्चे ने झट से पैर छू लिए । सज्जन को एक सूत्र मिला ।

 

एक और किसी बच्चे को उसके चाचा ने धमकाया – पैर नहीं छुओगे तो ये देखो छड़ी । मरम्मत हो जाएगी । बच्चा सहम गयापैर छू लिए । आशीर्वाद पाया । सज्जन को दूसरा सूत्र मिला ।

 

इसी तरह दिन बीते । दोनों सूत्र काम करते रहे । फिर धीरे-धीरे बासी पड़ने लगे ।

आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है । आवश्यकता किसी की भी हो । याचक कीदाता की , किसी की भी ।

 

एक बार कोई बच्चा यूँही गुजर रहा था । न खाने की चीज काम आईन छड़ी का डर । बच्चा हाथ से निकल ही गया था , तभी उसके बड़े भाई ने आवाज दी । बच्चे ने पलट कर देखा । भाई ने जेब से बटुआ निकाला । उसमें से एक नोट निकाल कर दिखाया । पैर छुओ तो मिलेगा। बच्चा आगे बढ़ा । एक हाथ से नोट लियादूसरे से पैर छुए । सज्जन को एक और सूत्र मिला ।

 

तो इस तरह आशीर्वाद का सिलसिला चल रहा था ।

 इन सब के बावजूद कुछ बच्चे बिना पैर छुए बढ़ लेते थे । सज्जन बगल वाले सज्जन से कहते – यारपैर नहीं छुए । कैसा कुसंस्कारी लड़का है ?

जवाब में सांत्वना मिलती – जाने दीजिए , क्या कीजिएगा ? जमाना ही खराब है ।

लेकिन हर बार आदमी कितनी सांत्वना दे । बाद में सिर्फ मुंडी हिलती थी सहमति में । धीरे-धीरे वह भी बंद हो गई ।

प्रौढ़ सज्जन ने भी स्थिति को भाँप लिया । अब ऐसे हादसों पर सिर्फ उनकी भंगिमा बदल जाती थी – धिक्कार है !

 

समय चलता रहा । अपनी सम-गति से ।

जिस संस्कृति के सज्जन थे , उसकी भी धारा चलती रही ।

आधुनिकता की धारा भी बहती रही ।

और हमारी तहज़ीब तो गंगा-जमनी है ही ।

लोभभय और शुद्ध कैश – तीनों चलते रहे । प्रौढ़ सज्जन भी संतृप्त होते रहे ।  

 

इधर नए लोगों ने भी परख लिया था कि सज्जन के पास भी सभी कुछ है । और दरवाजा घेर के भी बैठा है । धिक्कार लेने की बजाय या छड़ी खाने की बजाय तो अच्छा हैपैर छुओफल खाओनोट गिनो । चिंता छोड़ो , सुख से जिओ !

फिर किसी ने इस बात को अभिगृहित ही बना दिया था – हम करें तो शिष्‍टाचारतुम करो तो भ्रष्‍टाचार ।

सज्जन को भी सूट कर रहा था ।

संस्कृति भी बच रही थी ।

बच्चों का भी कुछ न कुछ सध ही रहा था ।

बैलेंस बना हुआ था । बैलेंस बचा हुआ था ।

 

बुतरू           - और उस टाईप के , जो बिना पैर छुए ही बढ़ लेते थे या बढ़ने की कोशिश करते थे , उनका ?

 भगत जी हँसे और फिल्मी तरीके से डॉयलॉग सुनाया –

धिक्कार है !

गब्बर के ताप से तुम्हें कोई बचा सकता है तो वो है खुद गब्बर ।

 बुतरू           - मुझे एक बात और भी सूझ रही है । क्या पता सही कि गलत ?

 भगत जी        - बोलो तो क्या ?

 बुतरू           - यही कि पूरे सीन में एक वो हैं जिनके पर छुए जाने हैं । एक वो हैं जिनको पैर छूना है । और एक वो हैं जो माहौल और तरीके बनाते हैं ।

 भगत जी        - वाह ! ‘धूमिल’ की याद दिला दी –

 

एक आदमी

रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी खाता है

एक तीसरा आदमी भी है

जो न रोटी बेलता हैन रोटी खाता है

वह सिर्फ रोटी से खेलता है

मैं पूछता हूँ –

यह तीसरा आदामी कौन है ?’

 मेरे देश की संसद मौन है । 


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