यार, पैर नहीं छुए
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
यार, पैर नहीं छुए
प्रौढ़ावस्था को प्राप्त सज्जन थे ।
संस्कृति से पूरी तरह सुसंस्कृत ।
हालाँकि बचपन में उन्होंने ऐसा कोई श्लोक पढ़ा था कि न तो बालों के पकने से
न तो उमर के बढ़ने से ही कोई ज्ञानी हो जाता है , फिर भी उनका मानना था कि उम्र के
दराज़ होते ही इज़्ज़त अपने-आप प्राप्त होने वाली चीज है ।
उन्होंने खुद भी ऐसा किया था ।
चुन-चुन कर, खोज-खोज कर, पकड़-पकड़ कर बड़ों के पैर छुए थे । सादर चरण-स्पर्श । आदर देने की चीज है, आशीर्वाद कमाने की । जब सबकुछ फेल हो जाता है तो
आशीर्वाद ही काम आता है । इस आस्था को वे थोड़ा और आगे खींच ले जाते । वे सोचते कि
अगर आपने आशीर्वाद का कोटा ज्यादा जमा कर लिया है तो वो बाकी और चीजों की कमी पूरा
कर देता है । कभी- कभी तो बाकी चीजों को गैर-जरूरी बना देता है – जैसे मेहनत-वेहनत, काम-धाम आदि-इत्यादि।
उनके अपने जमाने में ऐसा था कि कोई आँगन के उस पार भी दिख जाए तो हाथ में
लिए हुए काम की ऐसी की तैसी । पहले प्रणाम, फिर कोई काम !
समय बदलता है ।उम्र बढ़ती है । कि घटती है ? खैर, जो भी हो ! वे भी बड़े हुए । बचपन में जितने बड़े
आदमियों को देखकर आदर-भाव जगाया करते , खुद उतने बड़े हुए ।
पर समय बदल चुका था ।
पैर छूने का फैशन थोड़ा कम हो गया था । एक तो नमस्ते, नमस्कार, कर-बद्ध प्रणाम से लोग काम चला रहे थे, दूसरे थोड़ा ज्यादा नए फैशन वाले तो हाथ मिला कर ही
काम चला रहे थे ।
उन्हें कोफ़्त होती थी । थे तो वो शुचितावादी ।
उन्होंने बालक-बालिकाओं की कोटियाँ बना दी थीं । कौन कितना झुककर पैर छूता
है । शराफत की डिग्री पैरों पर झुकने की समानुपाती थी ।
वे कहीं बैठे हैं । एक बच्चा पास से गुजरता है । बच्चे के पिता टोकते हैं
कि अरे पहचाना नहीं ,चलो प्रणाम करो । बच्चे ने देखा, झुका और पैर छू लिए । डिस्टिंक्शन के साथ पास । अगर बच्चे ने जल्दी से
नमस्ते की और भाग लिया तब फिर क्या था ?ऊपरी तौर पर तो कहते कि अरे कोई नहीं , बच्चा है और अंदर-अंदर बच्चे को
कोसते सो कोसते, पिता की परवरिश पर
भी टिप्पणी करते जाते ।
एक किसी बच्चे के पिता ने बच्चे को लोभ दिया – पैर छुओगे तो अच्छी-सी चीज़
खाने को मिलेगी ।बच्चे ने झट से पैर छू लिए । सज्जन को एक सूत्र मिला ।
एक और किसी बच्चे को उसके चाचा ने धमकाया – पैर नहीं छुओगे तो ये देखो छड़ी
। मरम्मत हो जाएगी । बच्चा सहम गया, पैर छू लिए । आशीर्वाद पाया । सज्जन को दूसरा सूत्र मिला ।
इसी तरह दिन बीते । दोनों सूत्र काम करते रहे । फिर धीरे-धीरे बासी पड़ने
लगे ।
आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है । आवश्यकता किसी की भी हो । याचक की, दाता की , किसी की भी ।
एक बार कोई बच्चा यूँही गुजर रहा था । न खाने की चीज काम आई, न छड़ी का डर । बच्चा हाथ से निकल ही गया था , तभी उसके बड़े भाई ने आवाज दी ।
बच्चे ने पलट कर देखा । भाई ने जेब से बटुआ निकाला । उसमें से एक नोट निकाल कर
दिखाया । पैर छुओ तो मिलेगा। बच्चा आगे बढ़ा । एक हाथ से नोट लिया, दूसरे से पैर छुए । सज्जन को एक और सूत्र मिला ।
तो इस तरह आशीर्वाद का सिलसिला चल रहा था ।
जवाब में सांत्वना मिलती – जाने दीजिए , क्या कीजिएगा ? जमाना ही खराब है ।
लेकिन हर बार आदमी कितनी सांत्वना दे । बाद में सिर्फ मुंडी हिलती थी सहमति
में । धीरे-धीरे वह भी बंद हो गई ।
प्रौढ़ सज्जन ने भी स्थिति को भाँप लिया । अब ऐसे हादसों पर सिर्फ उनकी
भंगिमा बदल जाती थी – धिक्कार है !
समय चलता रहा । अपनी सम-गति से ।
जिस संस्कृति के सज्जन थे , उसकी भी धारा चलती रही ।
आधुनिकता की धारा भी बहती रही ।
और हमारी तहज़ीब तो गंगा-जमनी है ही ।
लोभ, भय और शुद्ध कैश –
तीनों चलते रहे । प्रौढ़ सज्जन भी संतृप्त होते रहे ।
इधर नए लोगों ने भी परख लिया था कि सज्जन के पास भी सभी कुछ है । और दरवाजा
घेर के भी बैठा है । धिक्कार लेने की बजाय या छड़ी खाने की बजाय तो अच्छा है, पैर छुओ, फल खाओ, नोट गिनो । चिंता
छोड़ो , सुख से जिओ !
फिर किसी ने इस बात को अभिगृहित ही बना दिया था – हम करें तो शिष्टाचार, तुम करो तो भ्रष्टाचार ।
सज्जन को भी सूट कर रहा था ।
संस्कृति भी बच रही थी ।
बच्चों का भी कुछ न कुछ सध ही रहा था ।
बैलेंस बना हुआ था । बैलेंस बचा हुआ था ।
बुतरू
- और उस टाईप के , जो बिना पैर छुए ही बढ़ लेते थे
या बढ़ने की कोशिश करते थे , उनका ?
धिक्कार है !
गब्बर के ताप से तुम्हें कोई बचा सकता है तो वो है खुद गब्बर ।
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ –
‘यह तीसरा आदामी कौन है ?’
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