शनिवार, 10 मई 2025

मेरे साहब, मेरे आका [ मुदा देख रहा हूँ 2.0 ]





मेरे साहब, मेरे आका

[ मुदा देख रहा हूँ 2.0 ]


मैं अवाक् रह गया ! और उससे भी ज्यादा अपमानित महसूस कर रहा था । बाकी लोग सन्न रह गए थे ! सबके हाथों में खाने की प्लेटें थीं । कुछ ने खाना निकाल लिया था, कुछ निकाल रहे थे । एक-दो ऐसे भी थे जिन्होंने अपना पहला कौर तोड़ा ही था । लेकिन हॉल में घुसते हुए साहब की नजर जब खाना शुरु करते लोगों पर पड़ी, वे आपा खो बैठे । कबीर ने जो मन का आपा खोने की बात कही थी, वह यह नहीं थी। साहब के साथ उनके कोई सम्मानित अतिथि भी थे । साहब ने आदेश दिया, हॉल खाली करिए । बात सही भी है, साहब का मतलब तो साहब ही होता है । उनके  बिना पधारे, उनके बिना आदेश दिए, उनके बिना जूठन गिराए कोई भी व्यक्ति खाना शुरू करने की हिमाकत कैसे कर सकता है भला?और उसपर से सम्मानित अतिथि साथ में । कैसी छवि बनेगी साहब की प्रभुता और उनके मातहतों के अनुशासन की ! लोग हॉल से एक-एक करके निकल गए । मैं तो खैर फिर भी अवांछित, अनामंत्रित- सा था । साहब के मित्रगण भी उस हॉल में थे । उस समय उन मित्रों  के  खून की जाँच यदि करवाई जाती तो उसका रंग सफेद निकलता । चेहरे तो सफेद पड़ ही गए थे । अगर साहब ने  अपने साहबों की चरणवंदना नहीं की होती, अगर साहब अपनी प्रतिभा या अन्य कारणों से पहले प्रोन्नत नहीं हुए होते, अगर कुर्सी साहब के माथे में नहीं बैठ गई होती और यदि साहब इतने निष्ठुर नहीं हुए होते तो आज वे भी अपने मित्रों के साथ उसी पाँत में खड़े होकर खुद भी खा रहे होते ,और औरों को भी खाना खाने दे रहे होते!  हॉल से बाहर निकलते हुए मैं सोच रहा था .... आज की रात फिर नींद नहीं आएगी ।  

             साहब तो साहब थे ! साहब ,ज्यादातर साहब ही होते हैं । वे उठते तो जमीन से ही हैं, पर आसमान में पहुँच कर उन्हें लगता है उनके पंख असली हैं । वे भूल जाते हैं कि पर तो चीटियों के भी निकलते हैं ! साठ साल की उम्र तो हर व्यक्ति के जीवन में आती है ! मेरे एक परिचित भी उस समय वहाँ उपस्थित थे । वे संभवत: ज्यादा अनुभवी थे । मेरे चेहरे पर उभरते हुए स्तब्धता, अपमान और क्रोध के मिले-जुले भावों को भाँपते हुए उन्होंने समझाया – “भाई साहब ! दिल पर ज्यादा बोझ मत डालिए । ऐसा व्यवहार साहबों से सर्वथा अपेक्षित और एक हद तक पदोचित व्यहार है । चलताऊ भाषा में कहूँ तो उनकी बपौती है, ऐसा मान लीजिए। ” मैं समझ नहीं पा रहा था कि ज्यादा गिरा हुआ कौन है – साहब, वहाँ उपस्थित भेंड़-बकरी जैसे लोग या मेरे यह ज्ञानी-अनुभवी परिचित ! या क्या पता मैं ही, जो इस तरह के अव्यावहारिक सोच-विचार में उलझ रहा था ?

              कमरे में एसी चल रहा था । लेकिन लोगों के अंदर की घुटन कमरे में भरती जा रही थी । इससे पहले कि किसी की अँखियों के झरोखों से आँसू बाहर झाँकने लगें, मैंने बातों का एक झरोखा खोल दिया । वेंटिलेशन बहुत जरूरी चीज है । मैंने एक बात उठाई – “लगता है कोई बहुत बड़े अतिथि आ गए हैं, बिना किसी पूर्वसूचना के ।” ऐसे मौकों पर लोग बस इन्तजार ही करते रहते हैं कि कोई पहला पत्थर तो उठाए !

एक साहब ने कहा – “ तो क्या हम उनकी प्लेट से उठाकर खा लेते?”

 दूसरे ने कहा – “ अरे भाई, कोई जरुरी बात करनी होगी, खाते वक्त ।”

किसी और ने कहा – “ तो इतना बड़ा राजसी चैम्बर क्यों रखा है? साहब को दिखाना था कि हमारे आदमी आदमी नहीं भेंड़ हैं। जब जी चाहे ऊन उतार लो, जैसे चाहो वैसे हाँको ।”

 चौथे महाशय कूद पड़े – “ साहब बन गए हैं तो क्या ? (एक सज्जन की ओर इशारा करते हुए) उन्हीं के मित्र हैं न ! आज साहब हो गए तो राजा भोज हो गए ? बाकी सब गंगू तेली ! किस-किस की कृपा , किसकी अनुकंपा से यहाँ तक पहुँचे हैं, सबको पता है । आज अपने मित्र तक का नहीं है यह साहब !”

 मेरे परिचित ने धीरे से कहा –“ कुछ लोग टेँटिया होते हैं । हर बात में निगेटिव खोजते हैं और फिर अपना फ्रस्ट्रेशन निकालते रहते हैं । यदि ,गलती से ही, ऊपर पहुँचेंगे तब समझेंगे ऊपर बैठने का दर्द ! कीलें ठुकी होती हैं कीलें ! ऊँचाई पर खड़े किसी आदमी को नीचे से देखिए, तो हो सकता है उसकी सिर्फ तोंद ही दिखे । वही उसके सर के ऊपर से देखिए तो हो सकता है यह दिखे कि उसके सर से बाल भी उड़ चुके हैं । ऊपर बैठना टेंशन का काम है ।”

 मेरे मुँह में कौर भरा हुआ था । मैंने खाने पर ध्यान केंद्रित रखा ।

 बातों की भुनभुनाहट बढ़ने लगी । कुछ लोग जल्दी-जल्दी खाने लगे । बेकार के पचड़ों में कौन पड़े ! वे मानते थे कि कभी-कभी दफ्तर आना कड़वी दवा पीने जैसा हो जाता है । बस किसी तरह आँख-नाक बंद कर के पी जाओ । आओ, काम से काम रखो, समय बिताओ, घर जाओ । वे खाना खत्म करके वहाँ से सरकने लगे अपने-अपने डेस्कों की तरफ ।  

             साहब की आँखें बड़ी एक्स्प्रेसिव थीं । बहुत दूर से ही लोगों को जता देती थीं कि खबरदार ! हम आ चुके हैं!! खाने के कमरे में उन्हें कई बार आँखों से बरजते हुए देखा गया है । कोई न कोई नया बंदा प्रॉटोकॉल को तोड़ बैठता, और प्लेट साहब के आने के पहले उठा लेता । साहब उसके रहते-रहते आ गए तो उसे समझा देते हैं , आँखों से और अपनी भाव-भंगिमाओं ( हरकतों) से ।

             साहब अपने से नीचे के सभी लोगों को ताड़न के अधिकारीमानते हैं । वे उनको देखते भी हैं, शिक्षा भी देते हैं, और अपनी जबान से ताड़ते भी हैं । साहब लोग अक्सर वर्तमान में जीते हैं, अपने भविष्य को सुधारने  के लिए । उनका सूत्र वाक्य होता है “ जो बीत गई सो बात गई” । मित्रता क्या, शत्रुता क्या, कृतज्ञता क्या, प्रशंसा क्या, आलोचना क्या – जो भी बीत गया, सो बीत गया । उनकी ईमानदारी का डंका बजता रहता है, वे बख्शते किसी को भी नहीं हैं । कुछ नासमझ लोग इस ईमानदारी को आत्ममुग्धता और स्वार्थसिद्धि तथा नहीं बख्शने वाली बात को जबान की कठोरता अथवा गालीगलौज भी कह देते हैं । साहब नासमझ लोगों की बात पर कान नहीं देते ! साहब को अपने काम से काम होता है । किसी के व्यक्तिगत दुखों, परेशानियों के उन्हें क्या लेना-देना ? आप उनके किसी काम के हैं तो ठीक, वरना रास्ता छोड़िए । साहब को आगे बढ़ना है । साहब कितना आगे बढ़ेंगे !

             साहब के एक मित्र हैं । ऐसा कहा जा सकता है । मित्र मित्र रह गए हैं, साहब साहब हो गए हैं । दैवयोग ऐसा हुआ है कि मित्र को साहब का मातहत बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । मित्रवर तो साहब को मित्र समझ रहे हैं कि साहब उसे भी साहब बनवाने में मदद करें । साहब को तो बीती ताहि  बिसारनी पड़ती है । प्रकृति का नियम है यह । अन्यथा विविधता के रंग कैसे बने रहेंगे ? साहब ने मित्र को और एक अन्य मातहत को अपने पास बुलाया है। उस अन्य पुरुष को इतनी खरी-खोटी सुनाई है कि मित्रवर की भी तबियत हरी हो गई है । थ्योरी ऑफ इंडक्शन’! मित्रवर सर! सर!कहने के सिवा कुछ कर नहीं पाए, कुछ कर नहीं सकते ।

             साहब टहलते हुए दिख गए हैं । मैंने खुद को उनसे इतना पीछे रख लिया है कि मेरे कदमों की आहट और मेरी परछाईं की भनक तक उनको न लगे । मन में दिन की घटनाएँ फिर ताजा होने लगी हैं । आज मुझे पता चला कुछ पढ़ते रहना अच्छी आदत है । रामचरितमानस की एक चौपाई याद आ गई  । मैं उसे मन ही मन दुहराने लगा –

                                     बड़ अधिकार दच्छ जब पावा ।   अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥

                                    नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं ।  प्रभुता  पाइ  जाहि  मद  नाहीं ॥  

 

मन थोड़ा  शांत होने लगा – तो यह बात त्रेता युग से ही चली आ रही है !

1 टिप्पणी:

  1. थ्योरी ऑफ इंडक्शन।कितनी सटीक टिप्पणी है।कई पाठक खुद को ऐसी स्थिति में पाते होंगे,रिलेट करते होंगे, इस चुटिले ब्लॉग से।

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