नीलकंठ की दुविधा
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
बुतरू – भगत
जी , आस्था क्या है और यह मनुष्य के लिए क्यों जरूरी है ?
भगत जी - आस्था
यानी विश्वास , भरोसा । आस्था बची रहे तो मनुष्य आशावान बना रहता है ।
बुतरू - और
आशावान बने रहना जीवन के लिए नितांत आवश्यक है ?
भगत जी - ठीक
।
बुतरू - तभी
इतने सारे देवी देवता हैं ।
भगत जी - लेकिन
तब भी तो आशा का घोर अभाव है ।
बुतरू - सो
तो है । लेकिन फिर भी तो हम लगे रहते हैं वंदन-पूजन में । अवतारों को मानते हैं ।
अवतार का इंतजार करते हैं। कोई मिले तो उसी में सारी आस्था उड़ेल दें और निश्चिंत
हो जाएँ ।
भगत जी - लगता
है तुममें कुछ संशय है । संशय भरोसे को डिगा देता है भाई । यहाँ तक कि अवतारों का
भी ।
बुतरू - कैसे ?
भगत जी - चलो
एक कथा सुनाता हूँ –
नीलकंठ की दुविधा
बहुत समय की बात है ।
चारों तरफ अविश्वास का माहौल था । सारी की सारी व्यवस्था चरमराती हुई दिख
रही थी ।
जैसे किसी चौकी के चारों पाए तो हिल रहे ही हों मच्- मच्, साथ में पटरियाँ भी खट्-खट् बज रही हों ।
लोगों का काम कहीं बनता नहीं था । किसी से बनता नहीं था । यहाँ तक कि कुछ
ले-दे कर भी नहीं बनता था । तब लोगों को लगने लगा कि अब रसातल आ गया है । अब अवतार
का आविर्भाव होगा ही होगा । लोगों ने बहुत सारे अवतारों के बारे में सुना था ।
धीरे- धीरे यह धारणा घर करती जा रही थी कि कोई नीलकंठ ही तार सकता है । गरल को गले
से उतार कर, पचा कर । गरल माने
गंदी मानसिकता । गलीज़ । और उसके बाद सुधा बरसा दे । शीतल, मद्धम ,संकटहरण ।
इस तरह की उम्मीदें लहरों की तरह आती हैं,कभी एकदम ऊपर, कभी एकदम नीचे । तब ऐसे ही क्रम में कई- कई जगहों से
नीलकंठ के अवतरित होने की खबरें पुष्ट होतीं और उतनी ही ही तेज़ी से खण्डित भी ।
तरह-तरह के नीलकंठ घोषित होते । उनके चमत्कार उछल कर सामने आते । लेकिन धीरे- धीरे
उनके स्वार्थ का रंग उनके कंठ के रंग को हर लेता । एक बार ऐसे ही एक नीलकंठ का
हल्ला उठा । खबर फैलाई गई कि व्यवस्था भ्रष्ट हो कर सड़ चुकी है ।व्यवस्था को
बदलना होगा । जनता तो बेचारी , महिमा की मारी होती है । बिछ गई सिद्धांतों की कालीन पर । नीलकंठ ने घोषणा
की - भ्रष्ट व्यवस्था-रूपी गरल को वे व्यवस्था के अंदर घुस कर पियेंगे और जनता का
कल्याण कर के ही दम लेंगे । लेकिन भाई साहब निकले कालिदास; उसी डाल को काट बैठे जिस पर टिके थे । जिस पर
उम्मीदों के फल-फूल थे । जिसपर जनता भी आस लगाए बैठी थी । और उन नीलकंठ को बिना
बोले ही शास्त्रार्थ में विजयी होने का कोई अवसर नहीं मिला । जनता के हाथ फिर लड्डू
यानी कि जीरो ।
लेकिन जनता होती है भीषण आशावादी । वह मानती है कि एकदम नीचे पहुँच कर ही
फिर ऊपर उठा जाता है । सघनतम तम के बाद ही सवेरे की शुरुआत होती है । नीचे से नीचे
पहुँचने के बाद सिवा उठने के कोई विकल्प नहीं रहता है ।
ऐसे ही दिनों में एक बार फिर से नीलकंठ के आगमन की सुगबुगाहट हुई । जनता जब
सर्वाधिक त्रस्त और पस्त होती है उसी समय उसके सर्वाधिक आस्तिक, आस्थावान हो जाने की भी संभावना रहती है । इस बार
व्यवस्था के अंदर जाने की बजाय वैकल्पिक व्यवस्था की आशा परोसी गई । जनता ने ज़ोरों
की भूख के समय गरम-गरम खाने की तरह उसका स्वागत किया ।
नीलकंठ यानी अपने समय का हीरो । हीरो यानी बलिष्ठ हो। कर्मठ हो। सुदर्शन
हो । वाक्पटु हो । वो था । किसी ने कहा है – “कितने दिनों के प्यासे होंगे , यारों सोचो तो / शबनम का कतरा भी
जिनको दरिया लगता है” । बस क्या था किसी ने बताया , मान लिया । किसी ने दिखाया, देख लिया । किसी ने सुझाया ,समझ लिया । नीलकंठ आ गए । जैसे भीड़ में किसी एक ने भी
ताली बजा दी तो फिर ताली गड़गड़ा जाती है , वैसे ही किसी एक के सिर नवाने की देर है ,भक्ति तो पैदा हो ही जाती है ।
एक बात का और ध्यान रखा गया । हीरो नाटकीयता रहित हो तो हीरो नहीं होता ।
“लार्जर दैन लाईफ़” तो होना ही चाहिए । डॉयलॉग मारने आना चाहिए ।
तो नीलकंठ उभरे और उभर कर छा गए । जनता नतमस्तक । जनता उम्मीद में कि अबकी
नहीं तो कभी नहीं । उम्मीदों, आशाओं ने दसों दिशाओं को चमका दिया ।
नीलकंठ अचंभित । आशातीत सफलता , बल्कि आकस्मिक सफलता । यह पता ही नहीं चल रहा था कि यह त्रस्त होने की
स्थिति से भागने का परिणाम था या आशाओं का खिंचाव । असल में त्रस्त होकर आदमी
जितनी ज़ोर से भागता है , आशाओं के पीछे उतने वेग से नहीं दौड़ लगाता । पलायन शायद आदमी का स्वाभाविक
गुण है ।
खैर ।
अब नीलकंठ आ चुके थे । उन्होंने छोटी-छोटी बातों का खयाल रखना भी शुरु किया
। मनभावन संवाद करने-कहने शुरु किए । लगा कोई घर का ही आदमी बात कर रहा है । लेकिन
ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे , नीलकंठ को जिम्मेदारियों की विशालता और फैलाव का आभास होता जा रहा था ।
लेकिन एक होते हैं नीलकंठ, एक होते हैं उनके निर्माता-निर्देशक । जैसा दिखाया , दिखना है । जैसा पढ़ाया , कहना है ।
जनता तो जनता होती है । उसका काम जानने का नहीं मानने का होता है । और मन
को मनाने का , मारने का ।
नीलकंठ जो बताते रहे, जनता मानती रही । नीलकंठ के चेहरे से करुणा टपकती रही , बातों से चिंता झरती रही । जनता
पलती रही । नीलकंठ को पता चल गया था, सॉफ़्टी के ऊपर की सिर्फ चेरी बदल दीजिए सॉफ़्टी नई लगेगी । आइसक्रीम और उसका
बिस्किट-कोन भले ही वही रहे । देखना बस इतना भर था कि चेरी किस साईज़ और कलर की
लगाना है ! नीलकंठ उसी में निमग्न रहते । परम्यूटेशन- कॉम्बिनेशन में व्यस्त रहते
। उलझे रहते । कैसी चेरी रखूँ , कोन छोटा कर दूँ, बड़ा कर दूँ । इधर का हिस्सा उधर कर दूँ, इस तरह से कि कतई पक्षपात न लगे।
जनता भी विस्मित । कभी- कभी अपनी भूल और दशा पर सिर्फ विस्मित ही हुआ जा
सकता है । बार- बार अंतत: एक ही परिणाम , एक जैसी ही निराशा से थक चुकी थी जनता । बल्कि इस पूरे नीलकंठ के व्यापार
से ही ऊब चुकी थी । परंतु ....। आवलंबन के लिए कुछ तो चाहिए ना ? स्वालंवी भी तभी हों जब कोई अवलंब
हो !
तो एक नीलकंठ तो चाहिए ही ।
लेकिन नीलकंठ भी भरोसे के नहीं रहे ।
दरअसल समस्याओं का समुद्र बहुत गहरा हो तो अतल गहराइयों को हिलाने के लिए
बहुत दम चाहिए । और ऊपर के पानी को हिलाने से चेहरा बदल सकता है चरित्र नहीं ।
वैसे भी देश “ पर उपदेश कुशल बहुतेरे” वाला देश है । जनता उँगली तो दिखा सकती है , लेकिन हाथ बँटाने में कष्ट है ।
जनता चाहती है जुआ हमेशा दूसरों के कंधों पर ही रहे । सो एक बलिष्ठ कंधा
ढूँढते रहती है। और नीलकंठ उभरते रहते हैं ।
तो जनता फिर भरोसे का नीलकंठ ढूँढ रही थी । इसको कि उसको । अभी कि बाद में
। कुछ दिनों के लिए किसी को पद सौंपा जाए । जनता यानी जो अपना हित जरूर जानती हो
और उसे साधती हो । जो हित के अर्थ ही नहीं जनते वो तो दायरे से बाहर ही रहेंगे , उनकी पहुँच से चीजें बाहर ही
रहेंगी ।
इधर जो नीलकंठ बनें, उनको भी ध्यान रखना होता था कि संतुलन ऐसा बनाया जाए कि हितों की बात तो हो
लेकिन ज्यादा दूर तक पहुंचाने की कोशिश न हो । गगनभेदी घोषणाएँ तो हों, धरातल पर के काम में बहुत फर्क न पड़े ।...
बुतरू - इसमें दुविधा तो किसी की नहीं लग रही ?
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