आत्म-ग्लानि की खुराक
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
भगत जी – आदर्श व्यवहार किसे कहते हैं ?
बुतरू – जब कोई बात सही-सही, नियमों के अनुसार और स्वेच्छा से की जाए तो उसे
आदर्श व्यवहार कहते हैं ।
भगत जी – फिर क्या है जो आदर्श नहीं है?
बुतरू – जो सही हो उसे न करना, नियमों का पालन न
करना और इच्छा के विरुद्ध करना ।
भगत जी - और अगर सब सही की परिभाषा के अंतर्गत हो, बने
हुए नियमों के अनुसार हो, स्वेच्छा से हो तो ?
बुतरू – आप ही प्रकाश डालें महाराज ।
भगत जी – अच्छा , भ्रष्टाचार क्या है ?
बुतरू – भ्रष्ट आचरण ; लोक मर्यादा के विपरीत काम ।
भगत जी – यह तय कैसे हो कि आचरण भ्रष्ट है ?
बुतरू – इससे करने वाले का प्रत्यक्ष स्वार्थ सिद्ध होता हुआ दिखे ।
भगत जी – और अगर ऐसा न हो तो !
बुतरू— मैं समर्पण करता हूँ, आप ही बताएँ ।
भगत जी – अच्छा, यह कथा सुनो पहले
:-
आत्म-ग्लानि की ख़ुराक
एक समय एक देश में ।
वो उपस्थित हुआ था अपनी आत्म-ग्लानि की खुराक लेने । मस्तक नत । नत मस्तक
यानी विनम्रता । और फिर निरीहता के रास्ते आत्म-ग्लानि तक। आत्म-ग्लानि की खुराक
हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य कर दी गई थी, जैसे पोलियो की खुराक । एक बार खुराक ले लेने के बाद
कुछ समय तक आदमी बिल्कुल लीक पर चलता है, असेम्बली लाईन की तरह । और भय का साया ओढ़े रहता है, जो कि शासन के निरंकुश बने रहने के लिए मुफ़ीद है ।
शासन का निरंकुश होना ज़रूरी होता है । नियमों का निर्धारण एवं उनका त्रुटि-रहित
अनुपालन शासन की रीढ़ को मजबूत रखता है । यह बात दीगर है कि उससे भले कितनों की रीढ़
झुक जाए, टूट जाए । टूटी
रीढ़ों का अपने आप में भले ही महत्व न हो, समग्र रूप में ऐसी ही रीढ़ें शासन को मजबूती प्रदान करती हैं ।
इस बार खुराक लेने में उसे थोड़ी देर हो गई थी । उसकी रीढ़ थोड़ी सीधी होने
लगी थी । उसे लीक के बाहर भी दिखने लगा था । उसे पर्दे के पीछे की बातें और दस्तखत
के आगे के परिणाम समझ आने लगे थे । वो तो संयोगवश खुराक देने वाले को उसके चाल-चलन
पर संदेह हुआ और उसने खुराक देने के लिए उसे बुला लिया । डिस्पेंसरी में बैठे-
बैठे अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए वह कुछ अनर्गल एकालाप करने लग पड़ा था :-
“बताइए साहब ! यह भी कोई बात हुई । कहते हैं, झुके रहो । क्यों भाई? हम सब अपनी-अपनी क्षमता और अवसर के हिसाब से काम करते
हैं तो फिर क्या झुकना और क्यों ? कहते हैं शिष्टाचार बरतो, हाल पूछो,दुआ-सलाम करते रहो । और एकतरफा करते रहो । कहते हैं सही बात भी मौका देख कर, मिजाज भाँप कर सामने रखो ।कहते हैं आम जन की चीजें
खासमखास लोगों तक पहुँच कर कृतकार्य होतीं हैं । कहते हैं सदाचार हाकिमों को
प्रसन्न करने के लिए किया गया व्यवहार-व्यापार है|”
डिस्पेंसरी के लोगों को कुछ भय हुआ । उन्होंने आपस में मशविरा किया और उसको
खुराक लाईन तोड़ कर पहले दे दी गई ।
जब वो खुराक ले कर ‘कूलिंग पीरियड’ के बाद निकला तो वो एकदम सामान्य खुराकज़दा आदमी था और उसके विचार ‘कस्टमाइज़्ड’ हो चुके थे :-
“झुके रहना ही तो असली फितरत है । झुके अगर नहीं रहोगे तो बड़ा कौन है, कैसे पता चलेगा ? बड़ा लगने देना बहुत बड़ी बात है ।
दुआ-सलाम नहीं करोगे तो आशीर्वाद कैसे मिलेगा, कृपापात्र कैसे बनोगे ? और सच क्या है – विशेष परिस्थिति
में, विशेष लोगों द्वारा, कार्य-विशेष के लिए प्रस्तुत तथ्य-विशेष ; और इसके लिए मिजाज भाँपा नहीं तो ‘विशेष’ क्या बचा ? और खासमखास क्या होता है ? अरे जो प्रस्तुत किया जा रहा है उसको चख कर देखेगा तो कोई ! शबरी को भूल गए? सदाचार क्या है, आदर्श परिस्थितियों में आदर्श जन द्वारा किया गया
आदर्श व्यवहार । और सबसे बड़ा आदर्श – हाकिम !”
बुतरू – अच्छा , यह तो बताएँ कि यह देश कौन और यह समय कबका है?
भगत जी – यह तो तुम बताओ !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें