राजा की सवारी
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
भगत जी – राजा कौन होता है ?
बुतरू – जो राज करे, सबसे बड़ा आदमी ।
भगत जी – राजा की पहचान क्या है ?
बुतरू – राजा की पहचान अपने-आप नहीं होती है, उसके
साथ चलने वाले लोगों के क्रिया-कलाप यह तय कर देते हैं कि वो राजा है ।
भगत जी – बहुत अच्छे । राजा का व्यवहार कैसा होना चाहिए ?
बुतरू – जो सभी की भलाई करने वाला हो ।
भगत जी – भलाई किसे कहते हैं ?
बुतरू चुप ।
भगत जी – अच्छा , राजा को क्या ज़ाहिर होने देना चाहिए और क्या नहीं ?
बुतरू – महाराज आप ही बताएँ।
भगत जी – अच्छा सुनो, एक
कथा सुनाता हूँ :-
राजा की सवारी
एक बार की बात है । सूबों में यह खबर फैल गई थी कि राजा दौरे पर आने वाले
हैं । यह सूचना आधिकारिक नहीं थी, लीक कर दी गई थी । लीक हुई खबर का फायदा है कि सबको सावधान भी कर दिया कि
होशियार ! और यह भी कि चूँकि आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया है, तो सारी व्यवस्था को सामान्य परिस्थितियों में किया
जाने वाला व्यापार-व्यवहार मान लेने में राजा को दुविधा नहीं होती है । बल्कि
सुविधा होती है ।
तो राजा आ रहे हैं, यह सबको अनाधिकारिक रूप से पता हो गया । मुख्य मार्गों और उप- मार्गों की
मरम्मत होने लगी । इस तरह की मरम्मत की यह खासियत होती है कि मरम्मत इतनी ही की
जाती है कि दो-चार महीने में फिर किसी का दौरा हो तो फिर से मरम्मत की गुंजाइश बनी
रहे । रोज़गार की उपलब्धता भी तो शासन की जिम्मेवारी है । कार्यालयों की इमारतों की
पुताई होने लगी ।पर्दे बदलाने लगे। गमले, और गमलों में फूल-पौधे दिखने लगे ।
सूबों के मुख्यालयों से कुछ अधिकारीगण उन रास्तों पर दौरे की एक ‘ड्रिल’ के लिए निकल पड़े। उनका काम मुखबीरों की तरह सूचनाएँ इकठ्ठी कर के सूबों के
प्रमुखों तक पहुँचाना था । और इन सब बातों की नोटिंग करते जाना था कि राजा रुकेंगे
कहाँ, खाएँगे क्या, पिएँगे क्या, मिलेंगे किससे, आदि-इत्यादि ।
अच्छा, जब राजा आने वाले
हैं तो कुछ न कुछ तो खास होना ही चाहिए । कोई न कोई तो अनुगृहीत होना ही चाहिए ।
और राजा तो राजधानी से आ रहे हैं। बड़े शहर के बड़े आदमी । ऐसे लोग अगर किसी सुदूर, छोटी-सी जगह पर किसी छोटे आदमी को उपकृत करें तो बड़ा
पुण्य होता है । “लिटरली एण्ड फिगरेटिवली बोथ” !
तो तय हुआ कि एक छोटे से कार्यालय का उद्घाटन राजा के करकमलों से कराया
जाएगा । छोटी चीज़ों को सुंदर बनाने-दिखाने में आसानी होती है । रंग-रोगन, टेबुल-कुर्सी, पर्दे-वर्दे, आदि-इत्यादि सब टॉप क्लास ! फीता काटने के लिए चाँदी
की कैंची और कैंची रखने के लिए चाँदी की तश्तरी । और यह उद्घाटन के समय बता दिया
जाएगा कि तश्तरी और कैंची तो दुबारा उपयोग में लाई नहीं जा सकती , सो राजा उसका भी भार उठा ले
जाएँगे । इसमें चूक न हो, राजा के वाहन में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करना पी.ए की ड्यूटी होती है ।
राजा आएँगे तो उनका भ्रमण किस वाहन से होगा ? सूबे के प्रमुख परेशान ।प्रमुख परेशान तो मातहत
हल्कान ! सूबे के भ्रमण से सूबे के प्रमुख की साख का भी पता चलना था ।एक चहेते
मातहत ने - जो अगर आप खुद नहीं हों तो जिसे आप चापलूस कहेंगे - उसने सुझाव दिया कि
सात घोड़ों का रथ तैयार किया जाए । घोड़े काबुल से मंगाए जाएँ ।
किसी ने आपत्ति की – खर्च ज्यादा होगा । अनावश्यक । सूबे में उपलब्ध घोड़े
भी उत्तम क्वालिटी के हैं ।
चहेते ने कहा – राजा आ रहे हैं भाई । यह हमारे लिए गर्व की बात होनी चाहिए , और साफ दिखनी भी चाहिए । फिर बगल
वाले सूबे के भ्रमण के समय एक घोड़ा बाहर से आया था । हमको तो उससे बेहतर करना ही
करना है ।
सूबे का प्रमुख जो अपने चहेते की तरह ही राजा के चहेतों की सूची में आना
चहता था, भला कैसे न समझता , कैसे न मानता !
उधर जो राजा के सचिवगण थे उनको भी कुछ फिक्र करनी थी । बताने को राजा की, समझने को खुद की । उन्होंने खबर भेजवाई – राजा सिर्फ
और सिर्फ गंगोत्री का जल ग्रहण करते हैं। किसी ने कहा -इस मैदानी जगह पर
गंगोत्री का पानी – असंभवप्राय । पर चहेते साहब तो तैयार बैठे थे । कहा – असंभव
कुछ नहीं होता है भाई । गंगोत्री का जल ही तो चाहिए न । अरे एक पलटन आगे बढ़ेगी
पानी के परात-मर्तबान ले कर । और पानी गंगोत्री का है तो खराब भी नहीं होगा ।राजा
साहब की आदतें आवश्यकता होती हैं । और इशारे आदेश । तो गंगोत्री का पानी फाइनल ।
स्वागत के लिए फूल आदि का इंतज़ाम तो खैर बिना किसी के बोले ही होता है ।
सूबे की खास कला का प्रदर्शन भी बेहद जरूरी होता है । कलाओं का पता लगाया गया, कलाकारों को ढूँढा गया । पुख्ता व्यवस्था की गई कि
उद्घाटन के दिन सभी उपस्थित रहें । कला प्रदर्शन के साथ स्वागतार्थ । तश्तरी-
कैंची पेश करने के लिए कार्यालय से कन्याराशि कर्मचारी को खोजा गया । ऐसा मानना है
कि कन्या लक्ष्मी का रूप होती है; लक्ष्मी शुभ करती हैं । वैसे कोई चाहे तो उनमें मेनका भी ढूँढ ले सकता है, ये और बात है । खैर, ताकीद की गई कि पारंपरिक पोशाक
में स्वागत करना है । परंपरा अनुशासन दर्शाती है जिससे प्रतिष्ठा बनी-बची रहती है
।
किसी जिज्ञासु के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि क्षण भर के आयोजन के लिए
सहस्त्र- लक्ष खर्चने की क्या आवश्यकता थी? और राजा की इतनी ही इच्छा थी तो बिना ताम-झाम के भी
तो निभ सकता था । उनको यह पता नहीं कि राजा अकेले कुछ नहीं होता । राजा व्यक्ति
नहीं , व्यवस्था
होता है । व्यवस्था के जड़त्व और संवेग का अपना ही हिसाब-किताब होता है । तो बात यह
थी कि राजा को आना था ।व्यवस्था यह है कि व्यवस्था चाक-चौबंद होनी है ।
राजा पधारे । कला का आस्वादन किया । तश्तरी- कैंची से उद्घाटन किया । बाद
में तश्तरी-कैंची राजा की सवारी में पहुँच गईं । राजा ने आशीर्वचन कहे ।
इन सब के बीच मंच के सामने भीड़ में पीछे दो जन यह बात कर रहे थे –
यार, जिले का हाकिम नहीं
आया ?
आया तो । इन राजा ने प्रतीक्षा नहीं की । कार्यक्रम कर लिया ।
ऐसी भी क्या जल्दी थी ?
राजा है, उनका समय बहुमूल्य
होता है ।
राजा हैं तो जिले का हाकिम पहले से क्यों नहीं पहुंचा ?
पीछे से किसी ने टिप्पणी की – अरे भाई , राजा इस कार्यालय के लिए हैं !
इनके सबसे बड़े से बड़े हाकिम हैं ।
तो फिर राजा कैसे हुए ?
ताँगे के घोड़े को कोचवान ही राजा लगता है !!
इसी बीच राजा ने हाकिम के तेवर भाँप , पूरे उद्घाटन का रि-प्ले कर
दिया हाकिम के कर-कमलों से अपने कर-कमलों को जोड़ कर ।
राजा राजा बन ही चुका था । हाकिम भी हाकिम रह गया ।
मातहतों का धर्म निभ गया ।
व्यवस्था की साख रह गई ।
‘विन-विन सिचुएशन फॉर ऑल’ !
बुतरू – यह तो इंडिया दैट इज़ भारत ही है न ?
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