खिलाफ होने का मौसम
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
बुतरू - आजकल विरोध का तो फैशन ही हो गया है । जिसे देखिए वही किसी न किसी के खिलाफ है ।
भगत जी - बात तो ठीक है । कोई उदाहरण ?
बुतरू - संसद ।
भगत जी - अरे भाई विपक्ष का मतलब ही है पक्ष का विरोध ! वैसे
यह परम्परा कोई नई नहीं है । एक पुराने जमाने की कथा सुनाता हूँ -
खिलाफ होने का मौसम
मौसम खिलाफ हो जाने का था । एकदम खिलाफ- खिलाफ ।
मौसम का रँग उस पर भी चढ़ गया था । और इस बार मौसम कुछ ज्यादा ही खिंच गया
था।
उसने भी खिलाफ होना शुरु कर दिया था ।
वैसे कुछ मिट्टी,हवा, पानी का भी असर था ।
नई सत्ता आते ही पुरानी सत्ता के सारे फैसलों के खिलाफ हो जाती थी । नया संपादक
आते ही अखबार के पुराने चले आ रहे “ले-आउट’को बदल देता था, भले ही उसमें कोई खराबी न हो । पुराने दोस्त तो खैर
बनते ही थे पुराने दोस्तों की कारगुजारियों के खिलाफ ।
तो वो भी खिलाफ हो रहा था । उसने कुछ ऐसा सीख भी लिया था कि करेंट के प्रवाह के लिए रेज़िस्टेंस
(प्रतिरोध) ज़रूरी है । उसे जीवन को प्रवाहमान बनाना था ।
दफ्तर में सबों की जड़ता उसे चुभती थी । वो उसके खिलाफ हो गया । ज्यादा बढ़-
चढ़ के काम करने लगा गया था । हाथ जला बैठा कायदों की आँच में । फिर वह बढ़-चढ़ के
काम करने के खिलाफ हो गया ।
एक बार ट्रेन समय पर नहीं चल रही थी । कोई कुछ बोल भी नहीं रहा था । वो इस
सब के खिलाफ हुआ । जाकर शिकायत दर्ज कराई । बाकायदा रसीद तक ली । महीनों गुजर गए
बिना किसी खबर के । वो शिकायत के पूरे प्रपंच के खिलाफ हो गया ।
स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाई की व्यवस्था ही चरमराई हुई थी । वो पूरी शिक्षा-
व्यवस्था के खिलाफ था । बच्चों का भविष्य किसी को दिखता नहीं, वो सोचता । एक बार विद्यार्थियों के बदले चाल-चलन से
वास्ता पड़ गया । वो उनके खिलाफ हो गया - जिनको पढ़ना है उन्हीं को फिक्र नहीं!
साल-दर-साल , चुनाव-दर-चुनाव वो सरकारों को देख रहा था । उनके सरोकारों को देख रहा था।
और असल में उनकी क्या दरकार थी, यह भी देख रहा था । वह सरकारों के अस्तित्व के ही खिलाफ हो गया था । उसने
जनता को समझने –समझाने की कोशिश की । जनता क्या करे ? जनता होती ही कहाँ है ? होता तो व्यक्ति है । और जो होता
है व्यक्तिगत होता है । भला जनता का होता कहाँ है ? भला जनता चाहती कहाँ है, करती कहाँ है । क्या करता , वो इस चोंचले के खिलाफ हो गया ।
इस तरह दिन बीतते चले ।
बात समष्टि से व्यष्टि की ओर चल पड़ी । “मैक्रो” से “माइक्रो” ।
उसके पैरों में चक्कर था । गाँव-घर छूटा हुआ-सा था । उसे गाँव की मिट्टी
बुलाती थी । वह अपनी इस बेवजह की-सी भागदौड़ के खिलाफ होने लगा था । पर रोटी थी कि
सब करवा रही थी । वैसे भी दूर से कसक ज्यादा लगती है । एक बार गाँव पर टिकने का
मौका लग गया । उसने देखा किताबों-खयालों का गाँव कुछ दूसरे कलेवर का था । उसकी
रंगत कुछ और थी । असलियत में गाँव के रस्ते उसे शतरंज की बिसात जैसे लगे । वह एक
झटके में गाँव के खिलाफ हो गया ।
स्थिति विकट ही होती जा रही थी ।
लोगों को बेईमानी करते देखता । उसके दुष्प्रभाव देखता । बेईमानी के खिलाफ
हो जाता । ईमानदारी बरतता , उसके दुष्परिणाम देखता ! ईमानदारी के प्रति उदासीन हो जाता ।
घर की हसरतों को देखता । अपने संसाधनों को देखता । और ख्वाहिशों को पंख
लगाने के खिलाफ हो जाता ।
घर को हाथ पर हाथ धरे बैठे देखता । जी को मारते देखता । इच्छओं, सपनों को सोते हुए देखता । और बे-ख्वाब होने के खिलाफ
हो जाता ।
वक्त ऐसा आया कि वह खुद के ही खिलाफ हो गया ।
खुद कहा । उसके खिलाफ । फिर उस खिलाफ के खिलाफ ।
उसे कहते हुए पाया गया :-
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझको खराब होना था
और तब लोगों ने जान लिया कि स्थितियाँ सामन्य होने ही वाली हैं ।
वो तो हाशिए पर था ही । अब परिदृश्य से गायब होने को था । विरोध तो हाशिए
से ही उठता है । मुख्य- धारा तो धारा के साथ बहने वालों की होती है । मौसम चाहे
कितना भी खिलाफ होने का हो , मौसम का खिलाफ होना अलग बात है , आदमी का अलग ।
बुतरू - तो खिलाफ होना, विरोध करना क्या इतनी बुरी बात है ?
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