शनिवार, 3 मई 2025

खिलाफ होने का मौसम [ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]

 

  खिलाफ होने का मौसम

[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]

 

 

बुतरू                      - आजकल विरोध का तो फैशन ही हो गया है । जिसे देखिए वही किसी न किसी के खिलाफ है ।

 

भगत जी                 - बात तो ठीक है । कोई उदाहरण ?

 

बुतरू                      - संसद ।

 

भगत जी                 - अरे भाई विपक्ष का मतलब ही है पक्ष का विरोध ! वैसे यह परम्परा कोई नई नहीं है । एक पुराने जमाने की कथा सुनाता हूँ ‌‌-

 

 

खिलाफ होने का मौसम

 

मौसम खिलाफ हो जाने का था । एकदम खिलाफ- खिलाफ ।

 

मौसम का रँग उस पर भी चढ़ गया था । और इस बार मौसम कुछ ज्यादा ही खिंच गया था।

 

उसने भी खिलाफ होना शुरु कर दिया था ।

वैसे कुछ मिट्‍टी,हवापानी का भी असर था । नई सत्ता आते ही पुरानी सत्ता के सारे फैसलों के खिलाफ हो जाती थी । नया संपादक आते ही अखबार के पुराने चले आ रहे “ले-आउटको बदल देता थाभले ही उसमें कोई खराबी न हो । पुराने दोस्त तो खैर बनते ही थे पुराने दोस्तों की कारगुजारियों के खिलाफ । 

तो वो भी खिलाफ हो रहा था । उसने कुछ ऐसा सीख भी लिया था कि करेंट के प्रवाह के लिए रेज़िस्टेंस (प्रतिरोध) ज़रूरी है । उसे जीवन को प्रवाहमान बनाना था ।

 

दफ्तर में सबों की जड़ता उसे चुभती थी । वो उसके खिलाफ हो गया । ज्यादा बढ़- चढ़ के काम करने लगा गया था । हाथ जला बैठा कायदों की आँच में । फिर वह बढ़-चढ़ के काम करने के खिलाफ हो गया ।

 

एक बार ट्रेन समय पर नहीं चल रही थी । कोई कुछ बोल भी नहीं रहा था । वो इस सब के खिलाफ हुआ । जाकर शिकायत दर्ज कराई । बाकायदा रसीद तक ली । महीनों गुजर गए बिना किसी खबर के । वो शिकायत के पूरे प्रपंच के खिलाफ हो गया ।

 

स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाई की व्यवस्था ही चरमराई हुई थी । वो पूरी शिक्षा- व्यवस्था के खिलाफ था । बच्चों का भविष्य किसी को दिखता नहींवो सोचता । एक बार विद्यार्थियों के बदले चाल-चलन से वास्ता पड़ गया । वो उनके खिलाफ हो गया - जिनको पढ़ना है उन्हीं को फिक्र नहीं!

 

साल-दर-साल , चुनाव-दर-चुनाव वो सरकारों को देख रहा था । उनके सरोकारों को देख रहा था। और असल में उनकी क्या दरकार थीयह भी देख रहा था । वह सरकारों के अस्तित्व के ही खिलाफ हो गया था । उसने जनता को समझने –समझाने की कोशिश की । जनता क्या करे ? जनता होती ही कहाँ है ? होता तो व्यक्ति है । और जो होता है व्यक्तिगत होता है । भला जनता का होता कहाँ है ? भला जनता चाहती कहाँ हैकरती कहाँ है । क्या करता , वो इस चोंचले के खिलाफ हो गया ।

 

इस तरह दिन बीतते चले ।

 

बात समष्टि से व्यष्टि की ओर चल पड़ी । “मैक्रो” से “माइक्रो” ।

 

उसके पैरों में चक्कर था । गाँव-घर छूटा हुआ-सा था । उसे गाँव की मिट्‍टी बुलाती थी । वह अपनी इस बेवजह की-सी भागदौड़ के खिलाफ होने लगा था । पर रोटी थी कि सब करवा रही थी । वैसे भी दूर से कसक ज्यादा लगती है । एक बार गाँव पर टिकने का मौका लग गया । उसने देखा किताबों-खयालों का गाँव कुछ दूसरे कलेवर का था । उसकी रंगत कुछ और थी । असलियत में गाँव के रस्ते उसे शतरंज की बिसात जैसे लगे । वह एक झटके में गाँव के खिलाफ हो गया ।

 

स्थिति विकट ही होती जा रही थी ।

 

लोगों को बेईमानी करते देखता । उसके दुष्प्रभाव देखता । बेईमानी के खिलाफ हो जाता । ईमानदारी बरतता , उसके दुष्परिणाम देखता ! ईमानदारी के प्रति उदासीन हो जाता ।

 

घर की हसरतों को देखता । अपने संसाधनों को देखता । और ख्वाहिशों को पंख लगाने के खिलाफ हो जाता ।

घर को हाथ पर हाथ धरे बैठे देखता । जी को मारते देखता । इच्छओंसपनों को सोते हुए देखता । और बे-ख्वाब होने के खिलाफ हो जाता ।

 

वक्‍त ऐसा आया कि वह खुद के ही खिलाफ हो गया ।

खुद कहा । उसके खिलाफ । फिर उस खिलाफ के खिलाफ ।

उसे कहते हुए पाया गया :-

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी

कुछ मुझको खराब होना था

 

और तब लोगों ने जान लिया कि स्थितियाँ सामन्य होने ही वाली हैं ।

वो तो हाशिए पर था ही । अब परिदृश्य से गायब होने को था । विरोध तो हाशिए से ही उठता है । मुख्य- धारा तो धारा के साथ बहने वालों की होती है । मौसम चाहे कितना भी खिलाफ होने का हो , मौसम का खिलाफ होना अलग बात है , आदमी का अलग ।

 

बुतरू        - तो खिलाफ होनाविरोध करना क्या इतनी बुरी बात है ?

 भगत जी     - नहीं । बिल्कुल नहीं । लेकिन इस तरह खिलाफ होने का क्या फायदा कि आती साँस जाती साँस के ही खिलाफ हो जाए ।

 बुतरू        - तो फिर उपाय ?

 भगत जी     - पहला तो यह कि आदमी खुद से संतुष्ट होने की कोशिश करे ।

 बुतरू        - वैसा ही जैसा एक पुराने ‘उपदेशम्’ में बताया गया था ?

 भगत जी     - याद भी है कि ऐसे ही ?

 बुतरू        - आप ही से सुना था । युगों पुरानी बात है । मूल और आखरी उपदेश तो यही था कि हमेशा अच्छी बातों के बारे में सोचो । खुद का खयाल रखो । अपने बारे में अच्छा सोचो। दूसरे तुम्हें वैसा ही मानेंगे जैसा तुम खुद को दर्शाओगे । और तुम जैसा महसूस करोगे वैसा ही दर्शाओगे ।

 भगत जी     - बहुत बढ़िया ।

 बुतरू        - लेकिन इसके माने यह तो नहीं हुआ कि एक दिवास्वप्न वाली स्थिति में रहें । एक ‘यूटोपिया’ बना कर पड़े रहें खयालों में ।

 भगत जी     - कतई नहीं । बात सिर्फ अपने आप को ठीक से समझने की है । खुद को समझ लोगे तो विरोध को भी समझ लोगे । विरोध तो जरूरी है । पर गुस्से को बचा कर भी रखना होगा । मद्धम आँच पर रखो । क्वथनांक आएगा । देर से ही लेकिन पूरी तरह ।

 बुतरू        - लेकिन सही होना ही आज प्रतिरोध हो गया है क्या ? जीवन की धारा ( करेंट) क्या सही की ही उल्टी दिशा में चल रही है ?

 भगत जी     - तुम्हीं सोचो ।     


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