चार कुर्सियों का वार्तालाप
[ भगत – बुतरू संवाद.1.0 ]
बुतरू - एक बात इधर लग रही है कि कुछ भी काम करना मुश्किल हो
गया है ।
भगत जी - समझा नहीं । थोड़ा साफ करो ।
बुतरू - कुछ भी काम करने चलिए , तो इतने न जोड़-तोड़ की बात होती
है कि छक्के छूटने लगते हैं । खास तौर पर नए लोगों के, थोड़े कमजोर लोगों के ।
भगत जी - देखो ऐसा है , कुछ लोग ज़माने की व्यवहारिकता को
समझ लेते हैं । वे सुखी रहते हैं । दिक्कत होती है अधकचरे लोगों को । जो पूरे
अव्यवहारिक हैं वे भी सुखी हैं ।
बुतरू - ठीक है । पर कोई तो हौसला बढ़ाए । थोड़ा भी । सब के सब
लगे हैं “ अपनी-अपनी दे- ले में” ।
भगत जी - देखो भाई, नया ज़माना यह मान कर चलता है कि “ यात्री अपने सामान की रक्षा स्वयं करें”
!! थोड़ा-बहुत जेनेरेशन गैप है । फिर आदमी- आदमी पर भी निर्भर करता है। फिर देश के
हवा-पानी का भी असर होता है .... थोड़ा रुक कर ... ये कहानी , देखो काम की लगती है कि नहीं :-
चार कुर्सियों का वार्तालाप
एक ज़माना था ।
एक कमरा था । चार कुर्सियाँ थीं । एक मेज़ थी ।
देश में स्त्रियों का बहुत सम्मान था । कुर्सियाँ शक्ति का केंद्र थीं ।
उनकी बहुत महत्ता थी । इसीलिए कुर्सियों को स्त्रीलिंग घोषित कर रखा था ।
स्त्रियों का सम्मान जरूरी चीज है । आप प्रतिकूल लिंगानुपात, जघन्य अपराध आदि भूल जाएँ । प्रतीकों का महत्त्व होता
है । कुर्सी शब्द स्त्रीलिंग था ।
तो चार कुर्सियाँ थीं । एक, बड़ी भारी-भरकम ,ऊँची – मेज की एक तरफ । बाकी तीन अपेक्षाकृत छोटी, हल्की, नीची – मेज की दूसरी तरफ ।
मेज पर कुछ प्लेटें थीं । कुछ में फल थे । कुछ में मिठाईयाँ थीं । गिलासों
में पेय पदार्थ थे। चर्चा चल रही थी ।
ऐसी चर्चाओं में यह पहले से तय होता है कि बड़ी कुर्सी ही सही होती है सदैव
। बाकी कुर्सियों को चर्चा के दौरान इसे सिद्ध करना होता है , बस ।
छोटी कुर्सियों में एक नौसिखुआ थी । बाकी दोनों नियमित दरबारी थीं । दरबार
हर बड़ी कुर्सी का विशेषाधिकार होता है । यह रोग भी है, ईलाज भी । खुराक नियमित होनी चाहिए ।
बड़ी कुर्सी चिंतामग्न-सी थी । बरफी के टुकड़े को मुँह में डालते हुए कहा –
किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कुछ बोलने की भरी सभा में । एक-से-एक खयाली पुलाव
परोसे जाते रहे । और उनको पकाने की हामी भरवाई जाती रही ।
नौसिखुआ टपक पड़ी – बात उठानी तो चाहिए थी । अगर ग्राउंड लेवल की समस्याओं
पर विचार नहीं किया जाएगा तो बात बिगड़ ही जाएगी ।
दूसरी छोटी कुर्सी ने काटते हुए कहा – भाई, पहले तो सभापति न बिगड़ें उसका इंतजाम करना जरूरी है ।
रही बात नीचे की, तो कुछ भी कर लो बात वैसी ही रहेगी ।
तीसरी कुर्सी ने कहा – और सुनो, जो करने वाले होते हैं न , वो करते ही हैं । बाधाएँ तो निगेटिव लोग ही गिनाया करते हैं ।
नौसिखुआ ऐसे ही सकुचाई हुई थी । थोड़ा और सकुचा गई । उसे भी होश आया , फरियादी को ज़बानदराज़ नहीं होना
चाहिए ।
तीसरी कुर्सी ने बात घुमाई । बात सँभाली और पूछा बड़ी कुर्सी से – सुना, सभा में सबों को फटकार मिली,सिर्फ आपको छोड़ कर ।
बड़ी कुर्सी कुप्पा !
बोली- अरे, सब आपलोगों का ही काम है भई । आपने तैयारी ही इतनी अच्छी करके दी थी कि कौन
टिक पाता !
प्रशंसा, प्रशंसा को खींचती
है । चापलूसी,चापलूसी को ।
बड़ी कुर्सी ने आगे कहा – वो जो पीछे वाली इमारत की कुर्सी है न, वो ही सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी है अपनी । आप लोग भी
ध्यान रखिएगा । उसका प्रचार-तंत्र भी तगड़ा है । फिर अचानक नौसिखुआ कुर्सी पर नजर
गड़ाते हुए कहा – देखिए, काम तो करना ही पड़ता है । और जैसा आदेश हो वैसा ही । बल्कि उससे भी बढ़कर ।
आपको भी करना ही पड़ेगा । ‘करना ही’ को थोड़ा ज्यादा ज़ोर
देकर कहा । और समझने वाले इस ‘करना ही’ का मतलब समझ जाते
हैं । रास्ता एक ही है ।
नौसिखुआ के चेहरे पर असहजता की छाया आकर चली गई ।
दूसरी कुर्सी ने बात का सूत्र पकड़ कर बढ़ाते हुए कहा – सभी लोग काम करने के
लिए ही आते हैं । सभी ऐसे ही काम करते हैं । और कोई बुराई भी तो नहीं है । फिर
कौन-सा घर से जा रहा है ।
नौसिखुआ ने सहमति में सर हिलाया । हालाँकि आँखों में अविश्वास की झलक पूरी
मिटी नहीं थी ।
तीसरी ने असहजता को भाँपते हुए फिर बात बदली – आज का अखबार देखा है ? देश को चलाने वाले लोग भी
रिपोर्टों, नंबरों पर ही सारा
ध्यान दिए हुए हैं । भला उनको किससे ईनाम लेना है ? अब और क्या बन जाएँगे ? काम से कोई मतलब ही नहीं रहा ।
बस नंबर पर नंबर गिनाए जाओ ।
दूसरी कुर्सी ने बात लपकी
- लेकिन अपना तो बिना
रिपोर्ट कार्ड के गुजारा नहीं । टॉप का मतलब टॉप । फर्स्ट का मतलब फर्स्ट ।
नौसिखुआ ने भी शिरकत की कोशिश की - नगर निगम का भी हाल देखिए न , बारिश शुरु हो जाती है तभी उनको शहर की सारी नालियों की सफाई का ध्यान आता
है । सारे रास्ते को कचरा कर देते हैं ।
बड़ी कुर्सी ने टेढ़ी मुस्कान के साथ कहा - नगर निगम को छोड़िए भई । आप तो अपने काम की सोचिए । फिर महौल को थोड़ा सहज
बनाने की गरज़ से कहा - देखिए प्लेटें भी खाली होतीं रहनी चाहिए । काम तो चलते रहता है और काम तो
हो ही जाता है । कोई करे न करे !
नौसिखुआ के चेहरे पर परेशानी की रेखाएँ थोड़ी और गहरी हो गईं । किसी ने शायद
गौर नहीं किया ।
तीसरी कुर्सी ने कहा
- तो कौन सा हम पीछे हैं । पिछली इमारत वाले हमसे अभी
कोसों दूर हैं । हाँ, एक दूसरे इलाके की कुर्सी बढ़ जरूर रही है, पर हमारे लोग भी और बढ़ जाएँगे तबतक ।
बड़ी कुर्सी ने देश, समाज पर चिंता जाहिर करते हुए कहा - देश तो, लगता है डायनमिक इक्विलीब्रियम में है । एक भी पेंच
इधर-उधर हुआ तो पूरा भरभरा कर गिर जाएगा । और देखिएगा ऐसा होगा । दिन बहुत दूर
नहीं है ।
दूसरी कुर्सी ने हाँ में हाँ मिलाई - बिल्कुल । और हमलोग
किसी तरह बच भी जाएँ ,अगली पीढ़ी तो बच नहीं ही पाएगी ।
नौसिखुआ ने फिर रँग में भँग डाला - एकदम ग्रासरूट लेवल से ही शुरु करना
होगा । सबों को। हमलोगों को भी अपना स्वार्थ छोड़ कर दूसरों के हितों की चिंता करनी
चाहिए, तभी कुछ हो सकता है
। सबकुछ हम ही नहीं हथिया लें । बाँटना भी सीखें....
तीसरी कुर्सी ने बीच में ही टोका - ऐसा है, चैरिटी बिगिन्स ऐट होम । आप रहिएगा,तभी न कुछ करिएगा ।
बातें चलती रहीं । मुँह चलते रहे । प्लेटें साफ होती रहीं ।
समय काफी निकल चुका था ।
नौसिखुआ का धैर्य चुक गया ।
उसने अर्ज़ी दे ही डाली
- एक काम भी था छोटा सा । यह कह कर एक आवेदन निकाला ।
बड़ी कुर्सी ने सरसरी से भी कम निगाह डालते हुए कहा - इसको उधर डाक सेक्शन में देते
हुए निकल जाईए ।
बड़े लोगों को काम की याद ऐसे ही अचानक नहीं दिलाते, बिदक जाने का खतरा रहता है ।
नौसिखुआ निकल गई ।
नौसिखुआ के कान की हद दूर हो जाने पर दूसरी कुर्सी ने कहा - देख
लीजिएगा । काम तो ठीक ही है इसका, और शरीफ भी है ।
बड़ी कुर्सी ने कहा - ठीक है । पर ऊपर से भी कई आवेदन गिरे हुए हैं । फिर थोड़ा रुकते हुए कहा - अरे हाँ, पिछली बार का हिसाब भी क्लियर नहीं हुआ है ।
फिर तीसरी कुर्सी को कहा - ज़रा किसी को बोल दीजिएगा प्लेटें हटा ले
।
यह संकेत था
- तखलिया ।
दोनों कुर्सियाँ बाहर निकल आईं । दोनों के चेहरे जो मातहती में डूबे थे, अब सहज होने लगे थे। साँसें ताजा मालूम होने लगी थीं
। और जो सबसे ज्यादा स्वाभाविक था , गलियारे में दोनों वही बातें करने लगीं –
दूसरी - काम करना ही पड़ेगा । कभी खुद काम किया है कभी ! और प्रवचन तो देखिए !
तीसरी ने जोड़ा
- हाँ, करते जाओ तो हीरो । जहाँ कुछ पूछ बैठे तो बागी, निगेटिव ।
दरवाजे के अंदर बड़ी कुर्सी सोच रही थी - कोई काम नहीं करना चाहता । और
ऊपर से पैरवी करते हैं । ठीक से बात करा लो तो लोग हद से बढ़ने लगते हैं । और नई
वाली को तो एकदम टाइट करके रखना होगा ।
नौसिखुआ घूमती हुई उधर निकल आई थी । दोनों कुर्सियों को बात करता देख उधर
चली गई । दूसरी कुर्सी ने कहा - हमने कह तो दिया है, देखो क्या होता है । किसी से कहवाने का उपाय हो तो कर
लो ।
नौसिखुआ ने कहा - आप दोनों का ही सहारा है । भला और कौन जानता है ?
दूसरी कुर्सी ने कहा - थोड़ा पहले बताना था । मौका देखा कर ही बात की
जा सकती है । अब देखो......।
तीसरी ने कहा
- जाड़े में कभी नारियल तेल लगाया है ? तेल जम जाता है । कभी धूप में
छोड़ते हैं । कभी आँच के पास रख देते हैं । कभी हथेलियों पर लेकर रगड़ लेते हैं ।
रिज़्ल्ट एक ही है, तरीके अलग ।
दूसरी ने फिर कहा - वैसे ही आला कुर्सियों को मनाने का मौका ढूँढना
पड़ता है । और हाँ,ध्यान रहे यह आपके खुद के काम के अलावा होता है। उनकी नज़रों में बने रहना
चाहिए। हाँ, एकांतवास का शौक हो
तो बात अलग है । फिर रोईए भी मत ।
दूसरी ने आगे जोड़ा - अपना काम ठीक से करते रहिए । मिलते रहिए । होगा, कुछ न कुछ ।
कह कर दोनों कुर्सियाँ आगे बढ़ गईं ।
नौसिखुआ को बहुत ज्ञान मिल गया था ।
नौसिखुआ खड़ी रही । फिर धीरे- धीरे कदमों से वहाँ से चल पड़ी । उसके मन में
एक पुराने मित्र से हुई बातचीत का वाकया याद आया –
मित्र सुना रहा था - मेरे एक भाई साहब हैं । अजीब हैं भाई । दफ्तर जा रहे हों तो क्या मजाल किसी
को अपनी गाड़ी में बिठा लें । गाड़ी दफ्तर ने सिर्फ उनकी सवारी के लिए दी है। दूसरा
बैठेगा तो दुरूपयोग होगा । कोई व्यक्तिगत चिट्ठी लिखनी हो तो खुद की खरीदी हुई
कलम निकालेंगे ......। ऐसा आजकल होता तो
नहीं है ।
नौसिखुआ ने तब सोचा था - काश ! ऐसी लगन मुझमें भी आए । घड़ा भरने में
मैं भी एक बूँद बनूँ ।
बात याद आ गई तो नौसिखुआ ने सोचा - यू टर्न मार लूँ क्या ?
फिर खुद ही को टोका
- यू टर्न मार लूँ ?मार लिया है भाई, ऑलरेडी !
बुतरू - इस कहानी में तो वैसा कुछ खास है नहीं । वही रोजाना
की बातें ।
भगत जी - तुमने सुजाता फिल्म देखी है ? उसमें एक डॉयलॉग है – “ तुम्हारा
सबसे बड़ा गुण यही है कि तुममें कोई गुण नहीं है” । कभी-कभी एकदम आम-सी बात भी खास
होती है। तुमने यू टर्न वाली बात पर ध्यान दिया ? सभी लोग यू टर्न लेने लगेंगे तो
देश कहाँ पहुँचेगा ?
बुतरू - सो तो है । वैसे क्या पता क्यों अकबर इलाहाबादी का एक
शेर याद आ रहा है -
हर ज़र्रा चमकता है अनवारे- इलाही से
हर साँस ये
कहती है हम हैं तो खुदा भी है
भगत जी ने प्रशंसा भरी नजरों से मुस्कुरा कर देखा ।
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