बुधवार, 14 मई 2025

ऋष्यशृङ्‍ग की खराब कविताओं की कहानी : शृङ्‍गऋष्य की ज़बानी


 

ऋष्यशृङ्‍ग की खराब कविताओं की कहानी : शृङ्‍गऋष्य की ज़बानी

 

[जिस तरह जुड़वाँ भाई होते हैं, उसी प्रकार जुड़वाँ लेखक भी । ऐसा कहना है शृङ्‍गऋष्य का , जो खुद के ऋष्यशृङ्‍ग का जुड़वाँ होने का दावा करते हैं । वे साथ ही यह डिस्क्लेमर भी देते हैं कि जुड़वाँ होने के बावजूद भी शील-स्वभाव और चाल-चलन विपरीत हो सकते हैं । शृङ्‍गऋष्य का दावा है कि वे ऋष्यशृङ्‍ग की नस-नस जानंते हैं और उनके लेखन के विषय में उनसे बढ़कर कोई भी बात नहीं कर सकता,किन्‍तु वे यशपिपासु नहीं हैं, अत: वे स्वयं अपनी बातों को प्रकाश में न लाकर डाक द्वारा प्रेषित कर रहे हैं कि जनसाधारण और जनविशेष दोनों का ही कल्याण हो सके । शृङ्‍गऋष्य के विचार हूबहू प्रस्तुत किए जाते हैं।]

 

 अभी-अभी ऋष्यशृङ्‍ग का सद्य:प्रकाशित कविता संग्रह मेरे देखने में आया है । सुना है कि इस संग्रह की चर्चा हो रही है । इससे पहले कि चर्चा कुछ ज्यादा ही बड़ी और अच्छी हो जाए, इस संग्रह के विषय में मैं दो शब्द कहना चाहूँगा ताकि सुधी पाठक किसी मिथ्या प्रचार के चक्कर में न पड़ जाएँ ।

 इस पुस्तक पर यदि ध्यानपूर्वक विचार करेंगे तो आप पाएँगे कि यह कवि द्वारा अपने पांडित्य का रोब गाँठने का उपक्रम मात्र है । क्या कारण है कि जब इक्कीसवीं सदी एक चौथाई चुका चाहती है, कविवर न जाने कितनी पुरानी भाषा का शुद्ध प्रयोग करने पर तुले हुए हैं । आज के इस वैज्ञानिक और टेक्नोसेवी दुनिया में ऐसा कौन करता है भला इससे उन्हें मिलेगा भी क्या ? अहंतुष्टि! हाँ, बात यदि अंग्रेजी, फ्रेंच, लैटिन, जर्मन आदि उच्च भाषाओं की होती तो फिर भी स्वीकार्य होता । कम से कम बड़े होटलों के मेन्‍यू कार्ड तो सही-सही पढ़ और उच्चारित कर पाते ! और कुछ नहीं तो कम से कम उर्दू के नुक्ते ही सही लगा कर, गले के सही स्थान से उच्चारण कर लेते। बंधु प्रगतिशील तो समझे जाते न ! सीखने से हर बात सीखी जा सकती है। अपनी वर्णमाला के मूर्धन्य, तालव्य, अनुनासिक, अनुस्वार में उलझने से क्या हासिल होगा ? प्रतिगामिता, और क्या! होंगे कवि की भाषा में सुंदर रसीले शब्द , उससे क्या ! कविता की राह यथार्थ की पथरीली राह है, वहाँ प्रगतिशीलता ही चलती है । कभी-कभी यह भी लगता है कि स्वयं कवि का नाम, भूमिका लेखक पाण्डेय जी, जिनको पुस्तक समर्पित की गई है, वे भी पाण्डेय जी, उपनिषदों व महाभारत आदि के उद्धरण एवं उनकी चर्चा, और अंतत: बहुतायत में संस्कृत-मूल की ओर के शब्दों का प्रयोग। क्या लेखक इसी बहाने अपने आभिजात्य और अप्रत्यक्ष राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाना चाह रहा ? लेखक और साहित्य की तरक्की के लिए यदि अपनी भाषा की कुर्बानी देनी पड़े तो दे देनी चाहिए। अब तो भारतेंदु हरिश्चंद्र भी नहीं हैं ! 

 ऐसा प्रतीत होता है कि कवि संस्कृत भाषा की परम्परा का पोषक है । वह छंद, अलंकार आदि की भी बात करता है । अपने को पढ़ा-लिखा साबित करने के लिए एक अच्छे बुद्धिजीवी की तरह वह विदेशी विद्वानों के उद्धरण भी भरता है । मगर पाठक उसकी मंशा पर ध्यान दें ।  जब भारतीय काव्यशास्त्र और तदनुसार काव्याभ्यास सिर्फ महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों की शोभा बढ़ाने हेतु बचाए गए हैं, ताकि समय-समय पर यह उद्घोषणा की सके कि अहा! कितनी गौरवशाली है अपनी काव्य परंपरा, तब आप सोचकर देखिए कि पाठ्यक्रमों और उस पाठ्‍यक्रम पर आधारित परीक्षा में पास करने के लिए बाजार में उपलब्ध कुंजियों के अलावा आखिर कहाँ जरूरी है भारतीय काव्यशास्त्र ?  

  ऋष्यशृङ्‍ग एक चालाक सेल्समैन की भाँति अपनी कविता की पैरवी करते हुए उसे खराब कविताघोषित करते हैं । ट्रेन में बिकने वाली खराब चायकी उपमा का आधार लेते हुए । अब पाठक के सामने समस्या है कि वह इन कविताओं को क्या माने ? कवि ने खुद ही कविताओं को खराब कविता कह दिया है । पाठक जो किलो के भाव से पत्रिकाएँ लाता है, उनमें जिस तरह की कविताएँ पढ़ता है, जिन्हें पढ़कर अक्सर उसका मन उचाट हो जाया करता है, उसकी तुलना में तो ये कविताएँ खुद को पढ़वा ले जाती हैं । यह ठीक है कि कवि के लिए ये कविताएँ इन्‍तक़ाम की आग हैं, प्रतिशोध की ज्वाला हैं बदले के शोले हैं उन घावों के जो मेरे (कवि के) मासूम दिल पर बकवास और रस रहित कविताओं ने किए हैं’, मगर क्या कवि का प्रयोजन सिद्ध हो सका ? या कवि आभ्यंतर से यह बात कहना चाह रहा है कि सुधीजनों देखो, मैं इन कविताओं को खराब कविताएँ कह रहा हूँ । आप खुद ही पढ़ी जा रही शुष्क, निर्जीव लेकिन श्रेष्ठ कही जाने वाली कविताओं से इनकी तुलना कर के देख लें । यह भी उतनी ही ठीक बात है कि  इस पुस्तक में कुछ स्थानों पर कविताओं में बहक भी है । अब यह सायास है या उनकी खराब कविताओं की तरह अनायास, यह प्रश्न विचारणीय है । बहुत पहले एक मित्र ने, जो एमबीए की तैयारी कर रहा था, सेल्स के तीन सी’ (C) की रोचक व्याख्या की थी । उसने कहा था कन्‍विंस’, नहीं तो कन्‍फ्यूज़’, नहीं तो चीट। ऋष्यशृङ्‍ग इसी राह चल रहे हैं । पाठक तो पाठक, समीक्षक, आलोचक और पुरस्कारों के निर्णायक मंडल के सदस्य भी इस झाँसे में आ सकते हैं । वरना क्या कारण है कि वर्ष 2024 में वे अचानक ही बहुत सक्रिय हो उठते हैं, और एक माह, बल्कि माह के चार दिनों में सोलह कविताएँ लिख डालते हैं । और उतनी ही जल्दबाजी में उनका संग्रह भी प्रकाशित हो जाता है । क्या किसी पुरस्कार हेतु यह आयोजन है ? पाठक इस बात पर कतई ध्यान न दें कि इस समय देश में ऐसे कई लेखक विचर रहे हैं जो हर वर्ष किताबों की झड़ी लगाए रहते हैं । मैं जानता हूँ ऋष्यशृङ्‍ग मेरे विषय में यह दुष्प्रचार करते फिरते हैं कि मेरी सारी पुस्तकें पेशगी देकर या छपाई के बाद खरीद सुनिश्चित करने के बाद ही छपीं हैं । वे मेरा मानमर्दन करना चाहते हैं । सत्य तो यह है कि हर पुस्तक खरीदीहुई पुस्तक होती है काइंडमें या कैशमें । ऋष्यशृङ्‍ग अपनी दर्जन भर पुस्तकों की शुचिता पर मिथ्या गर्व करते रहें । हिन्‍दी साहित्य-समाज में पूछ उसी पुस्तक की होती है, जिसके लेखक को कोई पूछने वाला हो । लेखक की पूछ पुस्तक के विक्रय की समानुपतिक होती है । इसके कारण कुछ भी हो सकते हैं, किसी ठेकेदार को दिए जाने वाला ठेका भी !

 ऋष्यशृङ्‍ग की कविताएँ और उनकी बातें भ्रमित करती हैं । कवि वही सच्चा माना जाता है जो किसी एक विचारधारा के डंडे को पकड़ कर चले और यदाकदा उसे भाँजा भी करे । इनकी अपनी भाषा को ले कर जो प्रतिबद्धता है वह इन्हें प्रतिबद्ध कवि होने से रोकती है । इनका कोई आग्रह भी नहीं है । लेकिन जब आप इस पुस्तक की निम्नलिखित पँक्तियों को पढ़ते हैं, तो आप सोच में पड़ जाते हैं कि आप इस कवि को क्या समझें –

 

            पल मेँ पीले को

           नीले मेँ रङ्‍ग देँ

           फिर खूब ठोक बजा कर

           हम अपनापन जताएँ

           फिर एक ही रङ्‍ग मेँ रङ्‍गे

           दूसरा रङ्‍ग देख न पाएँ

 

           ऋष्यशृङ्‍ग कहता है

 

           नीला-पीला मिलकर

           किन्‍तु जब हरा हो जाए

           उस हरे को हरा कर

           एक हो कर

          कहीँ गहरे दफन कर आएँ

 

           आखिर कमजोर का मर जाना अच्छा !

 

ये पँक्तियाँ इसलिए आओ हम एक हो जाएँकविता की हैं । यह कविता जिस तरह से आज के परिदृश्य को उपस्थित करती है, वह ध्यान देने योग्य है ।

 या फिर भूमिका में उद्धृत की गई पँक्तियाँ , यथा चलिए आपको बताता हूँ..., आशंका है..., लोहा लोहे को काटता है..., देख रही थी टीवी... आदि पँक्तियाँ । ये तमाम पँक्तियाँ प्रतिरोध की हैं । एक सही दिमाग वाले आदमी के प्रतिरोध की । कुछ लोग कवि के इन्हीं विरोधाभासी लक्षणों के आलोक में उसे थाली का बैंगन भी कह सकते हैं । असल में मनुष्यता या इंसानियत के पक्ष में खड़ा होना, असली बात थोड़े ही न है! ऐसे व्यक्ति की प्रतिक्रिया फिक्स्डनहीं हो सकती। लेकिन एक कवि को उससे क्या ? यह बात यह कवि शायद नहीं समझता ।

दरअसल कवि महोदय के मन में इच्छा तो है कि सबको नाम ले लेकर गरियाएँ, लेकिन आखिर वे भी एक कवि ठहरे । और सामाजिक व्यक्ति भी । नाम लेकर तो कविता की आलोचना करने तक में भी हिचकते हैं लोग ! समस्या यह भी है कि कोई किसी को पढ़ता ही नहीं । पढ़ता नहीं तो उसके बारे में कहता भी नहीं । बस एक तरी बना के रखी है लच्छेदार बातों की । आप कोई भी पुस्तक भेजिए, उसी तरी में उसे डुबा कर एक समीक्षा तैयार कर देंगे ।  ऋष्यशृङ्‍ग ने अपनी भड़ास सन् 2013 में निकाल ली गाली नहीं दे सकाकविता लिखकर ।

 इस पुस्तक में सन् 1998 से लेकर सन् 2024 तक की लिखी हुई कविताएँ हैं । सर्वाधिक कविताएँ सन् 2024 में लिखी हुई हैं । करीब छब्बीस वर्षों के दीर्घ रचनाकाल में कवि को सिर्फ चौंतीस कविताएँ ही मिलीं प्रकाशन योग्य ? या उनकी रचनाशीलता की गति मनमौजी है ? या कवि यह दर्शाना चाहता है कि हर लिखी गई कविता, कविता नहीं होती और इसीलिए प्रकाश में लाने योग्य भी नहीं होती । कवि ने अपनी एक कविता में प्रोफेसरों की तुलना प्रूफ रीडर से कर दी है । शायद उसे अंदाजा नहीं कि कुछ प्रकाशकों को छोड़कर प्रूफ रीडर की प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। आज तो कवि ही टंकक, प्रूफ रीडर और फाइनेंसर ! जो चाहे लिखो, जो चाहे भेजो, जो चाहे छपवाओ ।

 शुरुआती दौर की कविताओं में कवि ने रुमानियत,कोमलता और छंदयुक्त कविताओं की विशिष्ट साज-सज्जा से युक्त कविताएँ रखी हैं । मंशा बिल्कुल साफ है । छंद वाली हो या बिना छंद वाली, ऋष्यशृङ्‍ग किसी को नहीं छोड़ता । सबकी खबर लेता है । मज़े की बात यह है कि इन सबके बीच भी कवि अपना श्रम सार्थक करता चलता है । बहुत सी कविताएँ ऐसी हैं जो पाठक को खींच लेती हैं अपनी तरफ । फिर सवाल यह उठता है कि खराब कविताओं के दावे का क्या होगा ? उसके भी उदाहरण दे दिए हैं कवि ने । एक कविता शृंखला है प्रार्थना उजाले में हो रही थी और दिल भादो की तरह रोए जा रहा था। शृंखला की कविताओं के शीर्षक देखिए – प्रार्थना’, ‘उजाले में’, ‘हो रही थी’, ‘और दिल’, ‘भादो की तरहएवं रोए जा रहा था। कवि कुछ भी कर सकता है । प्रयोगधर्मिता कवि का लक्षण है! कवि खराब कविता आंदोलनचलाना चाहता है । उसकी मंशा पर संदेह नहीं किया जा सकता । अपनी कोशिश में वह नायिका के गालों की लाली के लिए बंदर के नितबों की उपमा दे डालता है । मैंने तो नहीं पढ़ीं, पर ऋष्यशृङ्‍ग जानते हैं कि किसी जमाने में स्त्री अंगों को कविता में प्रदर्शित करते हुए क्रातिकारी कविताएँ लिखी जा चुकी हैं । मंदबुद्धि लोग ऊँचे साहित्य को नहीं समझ पाते । खराब कविता भी ऊँची कविता बने, कवि यही चाहता है ।

 कवि ने पुस्तक का नाम ही रखा है ऋष्यशृङ्‍ग की खराब कविताएँ। पुस्तक में आठ बार खराब कवितावाक्यांश की आवृति के द्वारा भी यह सिद्ध करना चाहता है कि ये कविताएँ वाकई खराब कविताएँ हैं । पुस्तक की भूमिका में अम्बुज पाण्डेय जी ने लिखा है – आज के ट्रेंड में प्रत्येक कवि पाठक है और प्रत्येक पाठक कवि । इस सूत्र वाक्य को कवि समझ चुका है । वह जानता है कि इस पुस्तक को पढ़ने वाला पाठक भी कवि ही होगा । वह इस उम्मीद में इस पुस्तक की समीक्षा कर देगा कि कल होकर ऋष्यशृङ्‍ग जी भी उसकी पुस्तक पर दो शब्द कह देंगे ।

 कवि ऋष्यशृङ्‍ग एक खिन्नमना कवि हैं । वे कविता में आई गिरावट से खिन्न हैं । पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका से खिन्न हैं । वे चाहते हैं कि अर्थशास्त्र के सिद्धांत खराब पैसा अच्छे पैसे को बाहर निकाल देता हैकी तर्ज पर , थोड़े फेरबदल के साथ खराब कविताएँ खराब कविताओं को कविता के परिदृश्य से बाहर धकेल दें । वे कवि हैं, कुछ भी सोच सकते हैं !

 चलते-चलते आपको एक राज़ की बात बता दूँ – ऋष्यशृङ्‍ग व्यक्ति नहीं विचार है और यह भी कि शृङ्‍गऋष्य उसका डिस्क्लेमर’ !!  यहाँ की गई किसी भी बात की भूत, वर्तमान या भविष्य की किसी भी तरह की किसी बात से किसी भी समानता को संयोगमात्र समझा जाए ।


3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी समीक्षा है। कहां से छपा है,?

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  2. गजब! आज तो तर हो गया मन हास्य-व्यंग के इस विद्वत्त जल से। ऋष्यश्रृंग -जो कि विचार है ,का साहित्य मे हम कवि-पाठक (😀😀) हृदयतल से स्वागत करते हैं।

    गजब तो ये भी है कि 'खराब कविताओं' का ऐसा पांडित्य पूर्ण विवेचन भी पाठकों के नेत्र विस्फारित करवा के मानेगा।

    क्या झन्नाटेदार अवलोकन है ! ऋष्यश्रृंग के साथ इस समीक्षक को भी बधाई और शुभकामनायें!

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  3. हमारे यहां प्रवृत्ति कम देखने को मिलती है कि किसी किताब पर इतना तटस्थ होकर विचार किया जाए। सच पूछिए तो आज आपके इस अंदाज ने थोड़ा चौंकाया। सुखद विस्मय से भर दिया। मैंने यह किताब लगभग पढ़ ली है। शुद्ध भाषा के लिए कवि का अपना आग्रह है। वहाँ संस्कृतनिष्ठता है और कवि के खूब पढ़े-लिखे होने के संकेत भरे पड़े हैं ।

    मुझे इस संग्रह ने इस बात के लिए प्रभावित किया है कि इसमें हिंदी जगत में चल रही बहुत सारी प्रवृत्तियों की पड़ताल की गई है। बिगाड़ के डर से कोई भी इस तरह की कविताएं लिखने- छपवाने से बचना चाहेगा लेकिन ऋष्यश्रृंग ने ऐसा किया है। संग्रह मुझे अच्छा लगा। लेकिन आपकी पाठकीय प्रतिक्रिया और अंदाज़ ने मुझे सचमुच चौकाया है। इस तरह की तटस्थ, निर्वैक्तिक प्रतिक्रिया/ समीक्षा का चलन हिन्दी मे देखने को लगभग नहीं मिलता।

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