बालमुकुन
दु:खी हो गया है
आगे बात करने के पहले
यह शपथ-पत्र पढ़ा जाए –
शपथ-पत्र
मैं शृङ्गऋष्य
एतद द्वारा घोषणा करता हूँ कि आज से मैं बालमुकुन के नाम से जाना जाऊँगा । शृङ्गऋष्य
के नाम से की-कही गई बातें बालमुकुन के
नाम से जानी जाएँ । ‘ऋष्यषृङ्ग की खराब कविताओं की कहानी : शृङ्ग्ऋष्य की ज़बानी’
भी । भविष्य में शृङ्गऋष्य के नाम से सामने आने वाली किसी भी बात की
सत्यता की परख कर लें । अभिलेखों के लिए बालमुकुन के अन्य विवरण दिए जाते हैं (
ताकि किसी अन्य बालमुकुन से अंतर स्पष्ट हो जाए) :- बालमुकुन, पूरा नाम बालमुकुन ओलिपुरिया, गाँव – ओलिपुर ,
उम्र बावन साल, नौ महीना, तेरह दिन औए अभी सोलहवाँ घंटा चालू है ।
मैं, बालमुकुन यह भी घोषणा करता हूँ कि :-
१.
ऋष्यशृङ्ग भी शृङ्गऋष्य के नए नाम
बालमुकुन को दर्ज कर लें । भविष्य में किसी भी प्रकार के बौद्धिक संपदा के दावे जो
शृङ्गऋष्य नाम अथवा शृङ्ग और ऋष्य शब्दों के उपयोग के विरोध में किए गए हों , उनके प्रति बालमुकुन
उत्तरदायी नहीं होंगे ।
२.
बालमुकुन नाम सोच-समझ कर रखा गया है, इसे सुधार कर बालमुकुंद करने के प्रयास न किए जाएँ ।
३.
बालमुकुन नाम रहने से मित्रों को
बालमुकुनवा या बलमुकुनमा पुकारने में सुविधा होगी, इसका ध्यान रखा
गया है ।
४.
यदि संयोग से किसी ने बालमुकुन जी कहा
भी तो उसके बालमुकुनजी या बालमुकुंजी बनने की संभावना रहेगी । बालमुकुंजी नाम किसी
परामर्श देने का काम करने वाली दुकान खोलने में सहायक हो सकती है, मुकुंजी में थोड़ी अंग्रेजी-सी ध्वनि आने के कारण ।
***
अब आगे की बात ।
आपने कभी हिन्दी का
ऐसा कोई लेख पढ़ा है,
जिसको पढ़ने के लिए आपको अंग्रेजी का शब्दकोश देखना पड़ा हो, वह भी कई-कई बार? आज बालमुकुन के साथ यह हादसा हो
गया है । आगे की कहानी, बालमुकुन की जबानी—
कल ही बड़े प्रसन्न मन
से पूरे तीन सौ रूपए खर्च करके हिन्दी की यह जानीमानी पत्रिका खरीदी थी । इतनी
बड़ी पत्रिका,
इतने बड़े संपादक और इस अंक में इतने बड़े-बड़े लेखक ! बड़े उत्साह के
साथ अनुक्रम में शीर्षक देख-चुन कर एक लेख पढ़ने के लिए पन्ने पलटे। लेख की तीसरी
पंक्ति आते-आते अंग्रेजी शब्दकोश देखने की जरुरत आन पड़ी । मैंने सोचा बड़े, पढ़े-लिखे
लेखक हैं, एकदम ही आसान तो नहीं लिख सकते । लेकिन, नौ पृष्ठों के इस लेख ने कई बार अंग्रेजी शब्दकोश उठवाया , गूगल में खोजवाया । लेखक को यह बात सिद्ध करनी है कि हिन्दी साहित्य में ‘अंडरवर्ल्ड’ चलता है, वही
साहित्य के धंधे को चलाता है । इससे पहले कि आप ‘गॉडफादर’,
नहीं तो कम-से कम ‘सरकार’, ‘नायकन’ या ‘दयावान’ जैसी ही फिल्म के बारे सोचने लगें, लेखक आपको बताता
है कि उसका ‘अंडरवर्ल्ड’ कुछ और किसिम
का है । करीब एक अनुच्छेद खर्च करने के बाद लेखक समझाता है कि बाजारवाद के दौर में
हर दृश्यजगत का उससे कई गुना बड़ा अदृश्य जगत बनता और विस्तृत होता जाता है,
हमारी कोशिश साहित्य के संदर्भ में पाठकों का ध्यान उस अदृश्य जगत
की खोज की ओर आकर्षित करना है । अगर ऐसी बात है तो ‘अंडरवर्ल्ड’
के बदले सीधा अदृश्यजगत ही कहा जा सकता था । या फिर नेपथ्य अथवा
परदे के पीछे जैसा कुछ । ‘अंडरवर्ल्ड’ के
प्रचलित आम अर्थों में माफिया या गुंडाराज जैसे शब्द भी हैं । लेख में जितनी बार
भी ‘अंडरवर्ल्ड’ शब्द आता है , मुख्य तौर पर प्रकाशकों के लिए यह आम अर्थ इंगित हो जाता है । सीधा नहीं
भी, तो घुमाकर !
लेख को पढ़ते समय
बार-बार इस बात की ओर ध्यान जाता है कि क्या लेखक ने इसे एक अंग्रेजी लेख अथवा
विभागीय रिपोर्ट या नोट के रूप में लिखा था, जिसे बाद में हिन्दी के पाठकों
के लिए हिन्दी में अनुवाद कर दिया गया हो । अनुवाद भी शायद जल्दी में किया गया है
कि अनुवादक ( जो कि स्वयं लेखक ही होंगे) ने हिन्दी के उपयुक्त शब्दों की खोज
करने की जहमत भी नहीं उठाई । क्या अंग्रेजी के शब्द मुफ्त में मिल रहे थे ?
या हिन्दी इतनी दरिद्र भाषा है कि बातों को ठीक- ठीक अभिव्यक्त भी
नहीं कर सकती ? देखिए
कैसे-कैसे शब्द हिन्दी की एक मुख्य पत्रिका के एक महत्त्वपूर्ण लेख में रखे गए
हैं – ‘संपूर्ण लाइफ यूनिवर्स’, ‘पब्लिक
स्फेयर’, ‘क्रिटिकल’, ‘इंडस्ट्री’,’’डॉक्यूमेंटेशन’,’बॉयोग्राफी’,’सेलेक्टिव’,‘ओपिनियन’,’मैनुपुलेशन’,‘अंडर्वर्ल्ड’,’सेक्रेड’,’प्रोफेन’,’एजेंसियां’,’ब्रांड मेकर’,’एडवर्टाइजिंग’, ‘इंटरप्रेन्योर’,’मैनेज’,’रिकोमेंड’,’नॉमिनेशन’, ‘एजेंडे’,’आइडिया’,’प्रोमोशन’,’प्रिमोरडियल कन्सर्न’,’क्रिएटिव मार्केटिंग एजेंट’,’जेनुइन’,’नॉन राइटर’,’रिसेप्शन’,’विजिबिलिटी’,'पब्लिकइमैजिनेशन’'आर्टिफिसियल’,'नेचुरल एवं रिअल’,’इकोसिस्टम’,‘एक्स्क्लूजन’,’इपेस्टिमिलॉजिकल’ डिस्ट्रिक्ट टाउन’,’एनेक्डोट्स’,’पर्सेप्शन’ आदि । यह भी हो सकता है यह लेख ‘Mainstream’ पत्रिका के लिए लिखा गया हो, पर बाद में यह याद आया
हो कि वह तो कब की बंद हो चुकी ! फिर इसे
इस पत्रिका के उद्धार के लिए भेज दिया गया ताकि इस पत्रिका का स्तर कुछ ऊँचा उठ
सके ! ‘ कैपिटलिज्म का नियम बिगनेस को अवैधानिक रूप से फेवर
करता है’, या ‘आइडियाज की मौलिकता मरती
जाती है’ जैसे वाक्यों से क्या सिद्ध करने की कोशिश की गई है
? हिन्दी की दरिद्रता ? लेखक का दान ?
इस लेख में यह स्थापना दी
गई है कि साहित्य का पतन हो चुका है , जिसके लिए साहित्य का ‘अंडरवर्ल्ड’ जिम्मेदार है । और यह ‘अंडरवर्ल्ड’ कोई आम ‘अंडरवर्ल्ड’
नहीं है, बल्कि एक खास तरह का ‘अंडरवर्ल्ड’ है जो कि अभी अदृश्य है । लेख में इसी अदृश्य को पाठक को दिखाने की कोशिश की
गई है । लेकिन पाठक है कि लेखक को छकाता रहता है । तभी तो पुस्तकालय खरीद के बारें
में लेखक के पास किस्से नहीं हैं जबकि ‘ साहित्य का हर पाठक साहित्य
के बाजार में बड़ी खरीद वाले पुस्तकालयों की भूमिका एवं शक्ति को जानता है’।
लेख में क्या बताया जा रहा
है, यही न कि साहित्य का व्यवसायीकरण हो गया है, साहित्य
में भी एक ‘अंडरवर्ल्ड’ चल रहा है,
जिसका सरगना प्रकाशक होता है । लेखक प्रकाशकों के पैर पखारता है । लेखक
अपनी ही किताब की प्रतियाँ लोगों को भेजकर उनसे उस किताब का तरह-तरह से प्रचार करने
का अनुरोध करता है । मैं बता रहा हूँ, ऐसे लेखकों के शराफत की
मिसाल दी जाती है । शराफत वह परदा है जिसकी आड़ में लेखक बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है
। ऐसी गिरी हुई बातें सुनकर किसी सहृदय लेखक का नाजुक मिजाज मतलाने लग सकता है । सोशल
मीडिया पर फॉलोअर और लाइक की संख्या लेखक की अर्जी का अहम हिस्सा है । उसके बिना दाल
नहीं गलती आजकल । पाठक जैसे पुस्तकालय खरीद वाली कहानी जानता है, इन कहानियों को भी वह खूब जानता है । खबरें हवाओं में तैरती रहती हैं। किसी
फिल्म की कहानी जानने के बाद भी आप उसे देखने चले जाते हैं । कभी-कभी तो एक ही फिल्म
को दुबारा भी । मनोरंजन के लिए ही न ! साहित्य भी मनोरंजन की वस्तु मात्र बन कर रह
गया है । सारे किस्से जानते हैं, फिर भी चलता चला जाता है कारोबार
। यह शपथपूर्वक कहा जा सकता है कि फिल्मों की कहानी एक -सी हो सकती है,उनको बरता कैसे गया है, फर्क उससे पड़ता है । यह कहानी
भी जानी-पहचानी है, तर्जे-बयाँ बेजोड़ है ( ऐसा संपादक का विचार
तो जरूर ही होगा)।
आजकल के कुछ संपादक और प्रकाशक
बड़े असंपृक्त-से होते हैं । क्या छाप रहे हैं, क्यों छाप
रहे हैं ये सारी बातें बे-मानी हैं । पद, पैसा, पहुँच-पैरवी, सारा खेल उसी का है । संपादक महोदय भी व्यस्त
आदमी होते हैं । क्या करें बेचारे ? नामी लेखकों को छापने से
यही तो सुविधा है, कि देखना-सुनना कुछ नहीं, उठाओ और छाप दो । भले ही हिन्दी का लेख देवनागरी में अंग्रेजी लिख-लिख कर
पूरा किया गया हो । संपादक और लेखक ने क्या हजारी प्रसाद द्विवेदी और प्रभाष जोशी का
लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा ? वे चाहें तो चार नाम और जोड़ सकते हैं
इसमें ! हिन्दी भाषा के ठाठ से क्या वे सचमुच अपरिचित हैं ? हिन्दी क्या सचमुच दरिद्र हो गई है
? अरे हाँ भाई हाँ ! संपादक क्या करे, भाषा
की दरिद्रता मिटाने के चक्कर में खुद को दरिद्र कर ले ? और लेखक
को तो भरोसा था कि संपादक जी तो अव्वल पढ़ेंगे नहीं, और यदि पढ़
भी लिया तो समझेंगे तो नहीं ही । और अगर, समझ भी लिया तो करेंगे
तो कुछ नहीं ही । बहुत सारे पुरस्कारों से
सम्मानित हिन्दी के लेखक का इतना सम्मान तो किया ही जाना चाहिए । संपादक तो माना,
चलो पढ़ भी ले, लेखक कहाँ सोचता है कि कोई पाठक भी इसे पढ़ेगा ! कम से कम भारी भरकम लेख
।
पुरानी परंपरा है बड़ों का
आदर करना । संपादक बड़े लेखकों का खूब आदर करता है । लेखक भी संपादक का आदर करता है
। कहीं बुलाए जाने के लिए,
कभी छापे जाने के लिए । एक अन्योन्याश्रय संबंध है, चलता जाता है । हिन्दी की एक आनुवांशिक बीमारी भी है । कुछ लोग इसे आत्मनिरीक्ष्ण-आत्मपरीक्षण
की संज्ञा देते हैं । बीमारी यह है कि अंग्रेजी वाले सबकुछ आदर्श रूप में करते हैं
, हिन्दी वाले तो आप जानते ही हैं , बड़ा
ढुलमुल रवैया रखते हैं । अपने को ठीक रखें कैसे , अपने को ठीक
बनाएँ कैसे ? पत्रिका
के इस अभूतपूर्व लेख में यह घोषणा की जाती है –“ अंग्रेजी के बड़े प्रकाशकों यथा ऑक्सफोर्ड,
राउटलेज इत्यादि ने कम से कम प्रकाशन पूर्व मूल्यांकन की प्रक्रिया अभी
तक बचाई हुई है ।” बड़े आदामी जब कोई रहस्योद्घाटन
करते हैं, तो उनके द्वारा किसी साक्ष्य का दिया जाना,
या नहीं दिया जाना उनका स्वाभाविक व्यवहार होता है । लेख में इस धर्म
को बचा लिया गया है । यह तो सब मानेंगे कि अंग्रेजी के प्रयोग से मूल्य और महत्ता में
वृद्धि होती है । इस लेख को पढ़कर तो और भी ! हिन्दी के वैभव पर अंग्रेजी के पिछलग्गू होने का
पोछा फिरने से किसी-किसी चेहरे पर कैसी चमक आती है, देखने योग्य
है ! हिन्दी तो अपनी भाषा है, उसके बारे में जो न कहो,
सो कम है । उसके साथ जो न करो, सो कम है ! फिर
लेखक और संपादक हिन्दी की भीतरी दुनिया के आदमी हैं, वे सब जानते
हैं कि हिन्दी का कोई प्रकाशक न प्रकाशन पूर्व समीक्षा करवाता है, न मूल्यांकन । इसके लिए भी कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं , लेखक ने कह दिया, वही तो प्रमाण है ! अंग्रेजी के लिए विरुदावली, और हिन्दी को ठहराएँ रुदाली !
इस लेख में बहुत सारे अंग्रेजी
शब्दों के बीच एक शब्द ‘इको सिस्टम’ का प्रयोग किया गया है । यह एक शब्द कितने
अर्थ समेटे हुआ है ! देखिए, खेल तो ‘इको सिस्टम’ को ही साधने
का है । खुद को कमल साबित करने का भी है , पंक-ज ! कोई व्यक्ति
जब देश, समाज और व्यवस्था की कमियाँ गिनाने लगे तो यह मान कर
चलिए कि वह अपनी कमियों पर से ध्यान हटा रहा है लोगों का, तथाकथित
‘अंडरवर्ल्ड’ से भिड़ नहीं रहा, बल्कि उनका संरक्षण ही चाह रहा है । वरना कहावत तो है कि हम्माम में सब नंगे हैं !
अभी भी यह किसी तरह समझ
नहीं आ रहा कि लेखक और संपादक, दोनों यह नहीं समझ पाए कि हिन्दी के लेख में
बात हिन्दी में ही की जानी चाहिए । वे तो नई से भी नई वाली हिन्दी बनाने निकल पड़े
हैं ! और सारी कथा के बाद भी तुर्रा यह कि लेखक अपने को यह कह कर बचा लेता है –“ जिसके
हाथ में मरना है, उसी के हाथ में हमें जीना है”! गीता तो उन्हें पढ़नी भी नहीं चाहिए—“ स्वधर्मे निधनं
श्रेय: ।”
बालमुकुन जानता है कि क्रोध
की पराकाष्ठा रुलाई है । बात अभी पराकाष्ठा तक नहीं पहुँची है । अत: बालमुकुन दु:खी
हो गया है ।
यह बात साफ कर दूँ कि इस लेख में वर्णित बातें
कपोल-कल्पना हैं । किसी भी तरह की किसी भी बात से, विशेषकर
तद्भव के अंक 50 के पृष्ठ 109-117 पर प्रकाशित बद्री नारायण-प्रणीत लेख 'साहित्यिक दुनिया का अंडरवर्ल्ड : एक अधूरी जीवनी' से तो किसी भी हाल में, इसका कोई लेना-देना नहीं है । इससे किसी भी प्रकार की समानता संयोगमात्र है,
या फिर पाठक का दृष्टिदोष कि वह कुछ समानता देख ले रहा है ।
एक शेर याद आ रहा है,जो मेरे
एक दोस्त ने एक उम्र में सुनाया था । आप बस शेर में दी गई उम्र को अपनी उम्र से बदल
दें, शेर अपना लगेगा । मुझे तो लग ही रहा है । शेर है इब्ने इंशा
का –
इंशा जी छब्बीस
बरस के होके ये बातें करते हो
इंशा जी इस उम्र के
लोग तो बड़े सयाने होते हैं
Gajab karte hai Baalmukun Ji
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