रविवार, 10 अप्रैल 2022

जसिंता केरकेट्‍टा की कविता : होठों पे सच्चाई रहती है





जसिंता केरकेट्‍टा की कविता : होठों पे सच्चाई रहती है


      जसिंता केरकेट्‍टा की कविताएँ कोई एक दशक पहले प्रकाश में आई हैं । अब तक तीन संग्रहों में उनकी 206 कविताएँ प्रकाशित हैं । इनके अलावा पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित कुछ असंकलित कविताएँ भी हो सकती हैं । पहले संग्रह ‘अंगोर’ और दूसरे संग्रह ‘जड़ों की ज़मीन’ में कविताएँ हिन्‍दी और अंग्रेज़ी में साथ- साथ छपीं । साथ ही जर्मन में भी अनूदित होकर ये कविताएँ साथ- साथ ही  छपीं थीं । आकार के हिसाब से अब तक का उनका सबसे बड़ा काव्य-संग्रह ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ इस वर्ष राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है । 

          उनकी कविताओं से गुज़रते हुए जो बात सबसे पहले प्रभावित करती है वह है उनकी सच्चाई । कविताएँ कभी भी, किसी भी स्तर पर जबरन गढ़ी हुई, नकली या सिन्‍थेटिक नहीं लगती हैं । एक अच्छी कविता जीवन की सघनतम अनुभूतियों को जज़्ब करती है और इस तरह हमारे सामने प्रस्तुत करती है मानो वह हमारी ही हों । जसिंता की कविताएँ यही काम करती हैं ।

            जसिंता झारखंड के सुदूर क्षेत्र से आती हैं । उनकी कविताओं में भूगोल जीवंतता के साथ उपस्थित है । झारखंड के कुछ इलाके जो इतर कारणों से भी जाने जाते हैं, जब इनकी कविताओं में आते हैं तो आपसे बोलते-बतियाते चलते हैं । न किसी हीन भावना से ग्रस्त, न अति-आवेश से भरे । जसिंता की कविताओं को पढ़ने के बाद उनकी काव्य- संवेदना के जो प्रमुख क्षेत्र उभरते हैं उनमें प्रकृति, आदिवासी समाज का जीवन, लड़कियाँ, स्त्री-पुरुष संबंध आते हैं । वे कविता को कितना महत्त्वपूर्ण मानती हैं इस बारे में उनकी एक नहीं, कई कविताओं में ज़िक्र है । अपने एक साक्षात्कार में उन्‍होंने कुछ ऐसा कहा है कि पत्रकारिता के लिए लिखते वक्त दायरे में बंध कर लिखना होता था। कविता उनके भीतर चल रहे संवाद को शब्द देती है । उनके नवीनतम काव्य-संग्रह ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ में बाज़ारवाद, वर्तमान राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य, मध्यवर्गीय मुश्किलों/ व्यवहार की बातें कई कविताओं में आती हैं । इस संग्रह की कविताओं में, खास तौर पर जहाँ पर शहर और शहरी मध्यवर्ग चर्चा में आते हैं , कथा-तत्त्व को थोड़ी ज्यादा जगह मिली है । इसलिए कहीं-कहीं कविता एक चलते हुए ढर्रे की कविता भी लगती है । लेकिन उन कविताओं में भी जसिंता का विशिष्‍ट स्वर और उनकी सच्चाई साथ नहीं छोड़ती। 

उनके पहले काव्य-संग्रह ‘अंगोर’ की पहली कविता की कुछ पंक्‍तियाँ आपको सहज रूप से प्रकृति के पास ले जाती हैं – 


शाम को वो जोरती है लकड़ी

आँगन में बने किसी मिट्टी के चूल्हे में 

चूल्हे से निकलता है धुआँ 

और पेड़ों की झुरमुट से झाँकता 

चाँद खाँस उठता है अचानक 

लड़की दौड़कर थपथपाती है 

चाँद की पीठ 

‘अंगोर’ की ही एक कविता है ‘सारंडा के फूल’ । सारंडा के जंगल बहुत ही घने हैं और नक्सल गतिविधियों के लिए भी चर्चा में रहते हैं । पर ‘सारंडा के फूल’ की जीवन से लबरेज़ ये पंक्‍तियाँ देखिए –


और उग आता है सुबह

फिर कोई नया फूल 

आग और उम्मीद बन

सारंडा के अंदर कहीं ! 


कवि की दृष्‍टि हमेशा संभावनाओं पर है । शुभ की संभावनाओं पर । 


‘ जड़ों की ज़मीन’ संग्रह की ‘चुप्पी’ कविता में पेड़ आते हैं – 

शहर में चुपचाप पड़ी हैं 

कटी लकड़ियाँ 

और परेशान है शहर   


यही पेड़ आम का पेड़ बन ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ संग्रह की ‘उससे मेरा क्या सम्बन्‍ध थ’ कविता में कवि की मार्फत हमसे बात करता है –


वो आम का पेड़ 

ठीक यहीं था सड़क के किनारे 

जहाँ से मुझे हर दिन

बस पकड़नी होती थी 

बस जब तक पहुँचती नहीं

वह मुझे तंग करता

===

                उस दिन बस पकड़ने सड़क पर पहुँची

वह गायब था

सालों से मेरा ठीक यहीं इंतज़ार करता

वह आम का पेड़ 

कहाँ जा सकता है भला ? 

===

दूसरे दिन दौड़ी उधर

सोचा उसकी गंध समेट ले आऊँगी 

अपने आँगन में रोप दूँगी 

उसकी गंध बढ़ेगी

तब मैं उसकी गंध लेकर 

घर से निकलूँगी 

लौटूँगी जब उसकी गंध को 

आँगन में खड़ी पाऊँगी 


ऊपर की तीनों कविताओं में प्रकृति के साथ आत्मीयता सहज ही लक्षित की जा सकती है । जसिंता केरकेट्टा की कविताओं में प्रकृति हमारे समय के कटु-सत्य को भी लेकर उपस्थित होती है । लेकिन अपनी स्वाभाविकता- सहजता में, बिना बोझिल हुए, बिना तिक्‍त हुए । 


          महुआ जसिंता की केरकेट्टा की कविताओं में बार- बार आता है । देखें तो महुआ जंगल की खास चीज भी है । ‘अंगोर’  संग्रह की एक कविता है ‘शब्द बनता हुआ महुआ का फूल’ । सरलता और सहजता की अप्रतिम रचना । इस कविता की सादगी और लय से मिलने वाले आनंद का रसास्वादन करने के लिए पूरी कविता ही उद्धृत की जा रही है ‌-  


बहुरंगी चादर समेटे 

एक साथ सारे शब्द 

बढ़ रहे थे गाँव की ओर 

तोड़ते सनई के फूलों को 

नोचते कोईनार के पत्तों को


तभी मिट्टी के घर से अकेली

मुस्कुराती हुई संस्कृति निकली 

हाथ में लेकर काँसे की थाली 

थोड़ा सरसों का तेल थोड़ा पानी 

और झूम उठा अपनेपन से गाँव 

रंगीन शब्दों के धोने को पाँव


अचानक शब्दों के रंग उड़ने लगे 

पहली बार धरती से जैसे जुड़ने लगे 

कहते रहे क्या-क्या गए हैं हम भूल

तभी गिरा वहाँ महुआ का एक फूल 

छूकर उसे रह गए स्तब्ध

वो बन रहा था धीरे-धीरे 

पृथ्वी का एक अर्थपूर्ण शब्द । 


यह कविता कितनी सहजता से दो संस्कृतियों को एक दूसरे के बर-अक्स खड़ा कर देती है, यह देखने योग्य है । ‘जड़ों की ज़मीन’ की ‘महुआ चकित है’ और’ ईश्‍वर और बाज़ार’ की ‘महुआ का दोष नहीं’ में वे महुआ की जानिब से सवाल करती हैं । दोनों कविताओं की कुछ पंक्तियाँ  देखे और याद रखे जाने लायक हैं । ‘ महुआ चकित है’ में वे कहती हैं -


महुआ चकित है बाज़ार आकर 

कैसे कोई आदमी महुआ पीकर 

उठा ले जाता है 

किसी भी घर की 

बाज़ार से लौटती 

किसी चंपा, चंदा, फूलो या महुआ को ? 


‘महुआ का दोष नहीं’ वे कहती हैं –


महुआ का दोष नहीं 

महुआ तो अब भी वही है 

पर क्या बदल गया है तुम्हारे भीतर 

जो हर बार महुआ पीते ही बाहर आ जाता है । 


स्पष्‍ट है कि इन कविताओं में  कवि के आस-पास के जीवन में उपस्थित और घटित घटनाएँ  केंद्र में हैं , लेकिन जब वे कविता में आती हैं तो अपनी स्थानीयता का अतिक्रमण करती हैं और एक साथ पूरे देश, पूरे समाज की पीड़ा का बयान बन जाती हैं । जसिंता की कविताएँ जीवन का दस्तावेज बन जाती हैं । उनकी कविताओं में प्रकृति बार-बार आती है । बल्कि यूँ कहें कि उनकी कविता की प्रकृति में ही प्रकृति है । पहाड़ एक और उपादान है जो उनकी कविताओं में एकाधिक जगह उपस्थित है । ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ की ऐसी कुछ कविताओं के शीर्षक कुछ इस प्रकार हैं – ‘पहाड़ और सरकार’ , ‘पहाड़ और हथियार’ ,’पहाड़ और पैसा’ , ‘पहाड़ और पहरेदार’, ‘पहाड़ और प्यार’ और ‘पहाड़ों के लिए’ । ‘पहाड़ों के लिए’ कविता की ये पंक्तियाँ जसिंता की तरफ से पूरे आदिवासी समाज का सवाल सामने रखती हैं – 


थोड़े से पैसे के लिए

जो अपना ईमान बेचते हैं 

वे क्या समझेंगे 

पहाड़ों के लिए कुछ लोग 

क्यों अपनी जान देते हैं ? 


प्रकृति-संबंधी कविताओं की चर्चा से आगे बढ़ने के पहले, ‘अंगोर’ संग्रह की ‘बन्द दरवाज़े’ कविता की इन पंक्तियों से उभरता बिम्ब देखते चलें – 


आँगन पर गिरकर

धान-सी सुनहरी रंगत लिए 

धूप में सूखती रोशनी 


          जसिंता की कविताओं को पढ़ते समय यह बात आसानी से महसूस की जा सकती है कि उनकी कविता सदैव लड़कियों के पक्ष में , लड़कियों के साथ खड़ी है । ‘अंगोर’ संग्रह की  'गीतों का विलाप’ कविता में वे हमारे सामने उस समस्या को सामने रखती हैं जिसकी चर्चा आए दिन पढ़ने को मिलती है- लड़कियों की मानव तस्करी । इस दुष्‍कृत्य की भयावह छाया को किस तरह यह यह कविता हमारे सामने रखती है, इन पंक्तियों में, देखें – 


और दिल्ली से घर लौटी

ज़िंदगी से हारी 

दिन की सुबकती आँखें 

दौड़ पड़ती हैं डूब जाने को 

कोईल नदी में 


‘ईश्‍वर और बाज़ार’ संग्रह की कविता 'राजनीति की सड़क पर’ बलात्कार की समस्या पर एक तीखी कविता है । कविता पढ़ने के बहुत देर बाद तक आप उसकी धार महसूस करते रहते हैं । इसी संग्रह की कविता ‘शोर मचाती लड़कियाँ’ व्यंग्य करती है “शान्‍त लड़कियाँ ही होती हैं सबसे अच्छी”। अगली ही कविता ‘धूप में खेलती लड़की’ में वे कहती हैं –


सबको ऐसी ही लड़की चाहिए

जो दिन-रात धोती रहे घर के झूठे बर्तन

लगाती रहे झाड़ू और पकाती रहे सब के लिए भात 


एक सामाजिक सच आपके सामने दुहरा दिया जाता है । समानता और विकास की सारी बातों का खोखलापन एक बार फिर खुल जाता है । इसी संग्रह की एक सशक्त कविता है ‘हर लड़की को आत्मकथा लिखनी चाहिए’। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए – 


कलम ने धीरे-से मेरे कान में कहा

दुनिया की हर लड़की को एक दिन 

               अपनी आत्मकथा  ज़रूर लिखनी चाहिए 

               कि स्त्रियों की आज़ादी तय करने वाले 

               भद्र पुरुषों की कलई अब खुलनी चाहिए । 


यह कविता एक ही साथ विरोध का बिगुल भी है और कदम उठाने का आह्वान भी । आदिवासी लड़कियों के प्रति समाज के रवैये पर क्रोधित कविता कहती है “ बन्द करो कविता में ढूँढ़ना आदिवासी लड़कियाँ"।

         स्त्री-पुरुष के बीच के अन्‍तर को और पितृसत्तात्मक समाज के रवैये को ‘अभी मैं बहिष्कृत हूँ’, और ‘औरत का घर' कविताएँ बखूबी दर्शाती हैं । लेकिन कवि की कामना स्त्री-पुरुष के बीच बराबरी के समाज की है । ‘सहयात्री’ कविता में वे कहती हैं – 


मैं दुनिया कभी पुरुष नज़रिए से देखूँ

तुम कभी स्त्री नज़रिए से 

कभी तुम मेरी तरह मुझे जानो

कभी मैं तुम्हें तुम्हारी तरह 

कभी दोनों की आँखें एक साथ कुछ देखें 

और हम खुशी से उछल पड़ें । 


इन पंक्तियों को पढ़ते समय सहज ही यह खयाल आता है कि हम दूसरों की खुशी चाहते तो हैं,मगर साथ ही यह भी चाहते हैं कि हमारे कहे अनुसार ही चलकर वो खुश हों । जबकि होना यह चाहिए कि वो अपनी तरह से खुश हो और उस खुशी से हम खुश हों । यह कविता भी यही इच्छा प्रकट करती है । स्त्री-पुरुष की बराबरी को रेखांकित करती ‘जड़ों की ज़मीन’ संग्रह की छोटी-सी कविता ‘आधी स्त्री’ आसानी से ‘विश्व महिला दिवस’ का स्लोगन घोषित की जा सकती है ‌–


जब लड़ता है 

मेरे भीतर का आधा पुरुष 

भीतर की स्त्री के हक के लिए 

तुम्हारे भीतर की आधी स्त्री

अपने भीतर के पुरुष को धकियाती हुई

आकर खड़ी हो जाती है साथ मेरे ॥  


           जसिंता केरकेट्टा के लिए कविता मन बहलाने की वस्तु नहीं है, बल्कि जीने का तरीका है । उनके यहाँ कविता आग है, हथियार है, प्रतिरोध है । कविता जीवन के राग से पैदा हुआ गीत है जिसकी कोई अनदेखी नहीं कर सकता, जिसे कोई दबा नहीं सकता । ‘अंगोर’ संग्रह की एक कविता कहती है –


कविता भूख की आग पर 

पकती हुई गुनगुनाती है 

और उठने लगती है एक साथ 

कई घरों की आग

भूख के सारे कारणों के खिलाफ़ ।


कविता की ताकत को दर्शाती ‘जड़ों की ज़मीन’ संग्रह की कविता ‘साहेब! कैसे करोगे ख़ारिज?’ की पंक्तियों को देखिए –


साहेब ! 

एक दिन 

जंगल की हर लड़की 

लिखेगी कविता 

क्या कह कर खारिज करोगे उन्हें? 

क्या कहोगे साहब?

यही न

कि यह कविता नहीं 

समाचार है ! 

कविता के असर को ‘ईश्‍वर और बाज़ार” की कविता ‘जब तुम प्रतिरोध करते हो’ कुछ इस तरह से दिखाती है –


हम सिर्फ़ कविता लिखते हैं 

और हर बार 

तुम्हारे भीतर छिपे हत्यारे को 

तिलमिलाकर बाहर निकलते देखते हैं 


कविता कवि की शक्ति है जो पाठक को प्रेरित करती है कि वह कविता को अपनाए और उसे अपनी शक्ति बना ले । 


       जसिंता की कविताओं में, खास तौर पर ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ संग्रह की कविताओं में, आदिवासी संस्कृति पर हो रहे चौतरफा हमलों से उत्पन्न स्थितियों का सधा हुआ वर्णन है ।  ‘ईश्‍वर और बाज़ार’, ‘क्यों काटे जाते हैं पेड़’, ‘जहाँ कुछ नहीं पहुँचता’, ‘सच बोलती सड़कें’, ‘मेरे ईश्‍वर की हत्या’, ‘जड़ों की ज़मीन’ संग्रह की ‘पश्‍चिम का अश्वमेध’ तथा ‘अंगोर’ संग्रह की ‘नदी पहाड़ और बाज़ार’ एवं ‘साज़िशों की सिक्स लेन’ ऐसी ही कुछ कविताएँ हैं । ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ संग्रह की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं – 

जिनके पास कुछ नहीं बचा 

उनके पास ईश्‍वर होने का भरम था 

और जिनके पास पैसे बहुत थे 

उन्होंने ईश्‍वर को छोड़ दिया 

अब ईश्‍वर उनके किसी काम का न था 


वर्षों पहले पी. साईनाथ की किताब आई थी ‘ एवरीबॉडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ । इसमें लेखक ने कई सारे गाँवों में घूम कर वहाँ की स्थिति को देख-परखा था और उनकी बदहाली पर लिखा था । यह किताब खासा चर्चित रही थी । जसिंता उन्हीं स्थितियों को, जो आज भी वैसे ही मौजूद हैं, अपनी कविता ‘गाँव का पता’ में कुछ ऐसे व्याख्यायित करती हैं –


कोयला लोहा बॉक्साइट के साथ 

कई गाँवों को लादकर वह ट्रक

जो रोज़ शहर की ओर जाता है 

अब सिर्फ़ वही मेरे गाँव का असली पता बताता है 


          आदिवासी क्षेत्रों में गलत आरोप लगाकर लोगों को प्रताड़ित करने की बातें उठती ही रहती हैं । इस स्थिति को परखती हुई कविताएँ जसिंता की रचनाओं में बार- बार लौटकर आती हैं । ‘अंगोर’ संग्रह की कविता ‘बवंडर और दिशाएँ’ भी ऐसी ही एक कविता है । इसमें वे कहती हैं –


पृथ्वी को बचाने के लिए 

किसी न किसी की तो 

                कुर्बानी देनी ही होगी 


‘जड़ों की ज़मीन’ संग्रह की यह छोटी-सी कविता भी इस बात को बहुत पैनेपन के साथ प्रस्तुत करती है –


मेरा पालतू कुत्ता

सिर्फ़ इसलिए मारा गया

क्योंकि खतरा देखकर वह भौंका था ।

मारने से पहले उन्होंने 

उसे घोषित किया पागल

और मुझे नक्सल...

जनहित में । 


इसी तरह पारा मिलिटरी सेना के द्वारा चलाए जा रहे अभियानों के परिप्रेक्ष्य  में वाजिब सवाल उठाती ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ संग्रह की कविताएँ ‘ गाँव पर गोली कौन चलाता है’, ‘मारे जाने के लिए’, ‘ हथियार’ और ‘सेना का रुख’ हमारे सामने प्रस्तुत होती हैं । इसी तरह शहर की ओर पलायन, शहर का अहंकार, शहर का अपने को गाँवों से ऊँचा समझना जैसे विषय भी जसिंता की कविताओं में जगह पाते हैं । 


      जसिंता की कविताएँ अपने आसपास के जीवन को बहुत संवेदनशीलता के साथ देखती हैं । वे परिस्थितियों की आँख से आँख मिलाकर खड़ी होती हैं । सारी कठिनाइयों, अत्याचारों, विरोध के बावजूद उनकी कविता नारेबाज़ी नहीं बनती । स्थितियों को देखने, समझने और स्वीकार करने का माद्‍दा है उनमें । वे समझती हैं कि अक्सर वे ही लोग फँस जाते हैं जो किसी के पक्षपाती नहीं होते, जिन्हें सिर्फ़ अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करना है । लेकिन विडंबना यही है कि वही सबसे ज्यादा पकड़े जाते हैं । अपनी ‘ख़ेमा’ शीर्षक कविता में वे यही तो कहती हैं –


एक अदना-सा आदमी 

जो इंसान-भर होने की चाहत के लिए  

सही को सही और

ग़लत को ग़लत कहता है 

किसी भी ख़ेमे को वह

सबसे ज़्यादा ख़तरनाक क्यों लगता है? 


इसी अदने-से आदमी के साथ जसिंता खड़ी हैं । उनकी कविता खड़ी है । अपने सारे विरोध के स्वर और दृढ़ता के साथ अपना पक्ष रखने के बावजूद उनकी कविता भार नहीं लगती, कहीं कसैली नहीं होती । कविता सारी निराशाओं और ज़ुल्मों के बीच उम्मीद की किरण होती है । एक साक्षात्कार में अपने नाम का मतलब बताते हुए जसिंता ने कहा था कि जसिंता एक फ्रेंच फूल का नाम है और मिथक यह है कि एक लीजेंड थे जिनकी हत्या कर दी गई थी । उनके खून की पहली बूंद जहाँ गिरी थी वहाँ एक फूल उग आया था जिसे जसिंता कहा गया । एक हत्या के जवाब में फूल का खिल आना , ठीक वैसे ही उनकी कविता अंतत: उम्मीद की कविता है । 


जसिंता की कविता की यह खासियत है कि यह बहुत बारीकी से जीवन का अध्ययन कर रही है और जीवन उनकी कविताओं में दर्ज़ हो रहा है । साथ ही दर्ज़ हो रहा है हमारा समय, अपनी सारी सुंदरता और विद्रूपता के साथ । उनकी कविता जीवन के ‘एसेन्‍स’ को अपने में समाहित करती चल रही है । यही कारण है कि हर पढ़ने वाले को अपनी कविता लगती है, अपने आसपास की कविता । जैसा कि शुरु में भी कहा गया था कि जब आप जसिंता की कविताओं से गुज़र रहे होते हैं तो उनकी सच्चाई आपको लगातार प्रभावित करती चलती है । यही वजह है कि उनकी हर कविता में उद्धृत किए जाने लायक पंक्तियाँ आपको मिल जाती हैं । उनकी कविता पर इतनी सारी बातें कर लेने के बाद भी यही लग रहा है कि कुछ और कविताओं पर कुछ और बात हो सकती है । यही तो असर है उनकी कविताओं का जो लगातार आपसे जैसे कहती चलती हैं  "होठों पे सच्चाई रहती है, जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है” और संग-संग आप भी गुनगुनाते चलते हैं ! 


         कुछ बात किताबों के प्रकाशन के संबंध में । ‘अंगोर’ अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित है, ‘जड़ों की ज़मीन’ भारतीय ज्ञानपीठ से और ‘ईश्‍वर और बाज़ार’ राजकमल प्रकाशन से । तीनों प्रकाशकों ने जसिंता की कविताओं का प्रकाशन कर हिन्‍दी का बड़ा भला किया है । कविताएँ ज़्यादा से ज़्यादा लोग पढ़ सकें तो और भला हो । अगर इन किताबों के छात्र-संस्करण (यानी सस्ते दामों पर)  भी निकालने पर विचार किया जाए तो निश्‍चित ही युवा-वर्ग में इन कविताओं का प्रसार ज्यादा हो पाएगा । युवाओं का कविताओं से, खासकर ऐसी कविताओं से जो सच्चाई से भरी हों, परिचय होना आवश्यक न भी हो तो वांछनीय ज़रूर है । 

         जसिंता ने कविताओं की एक नई ज़मीन तैयार की है - ताज़ा और निष्कपट। उनकी कविताएँ और ज़्यादा पढ़ी जानी चाहिए, और ज़्यादा सुनाई जानी चाहिए और उनकी कविताओं की और ज़्यादा चर्चा की जानी चाहिए।

 जसिंता कविता को जीती रहें । उनकी कविता ‘अंगोर’ बन हर तरफ फैले , जैसा कि उनकी ‘अंगोर’ कविता कहती है –


शहर का अंगार 

जलता है, जलाता है 

फिर राख हो जाता है 

गाँव के अंगोर

एक चूल्हे से 

जाते हैं दूसरे चूल्हे तक 

और सभी चूल्हे सुलग उठते हैं ॥ 


***

 

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