शनिवार, 21 जून 2025

तुम्हारे लिए


 

तुम्हारे लिए

 

सँभालता हूँ चीजों को 

सजाता हूँ घर को भी 

खींचता हूँ

उतरती हुई शाम की तस्वीरें 

बाँधता हूँ मंसूबे 

यहाँ-वहाँ जाने के 

बनाता हूँ फेहरिस्त 

कि क्या-क्या लेना है सामान.... 

गैरहाजिरी में तुम्हारी 

करता हूँ वो सब 

जो करना था तुम्हारे साथ 

तुम्हारे लिए ।


शुक्रवार, 20 जून 2025

खूबरू चेहरा


 

खूबरू चेहरा

 

इतना हसीन चेहरा और मेरे इतने करीब 

या खुदा, मैं होश में तो हूँ!

 

एक खूबरू चेहरा है 

मेरे रूबरू है 

मगर अपने ही खयालों में गुम....!

 

ये धड़कनों का सुकूत, ये निगाहों का ख्वाबीदापन 

इन आँखों में कई ख्वाब जगाए जाता है-

कि अब से कुछ देर पहले 

न ये चेहरा मेरे लिए था, न मेरी आँखें इस चेहरे के लिए 

और अब 

जब कुछ देर बाद राहें फिर से जुदा होंगी 

एक याद-सी साथ होगी 

अजनबी ही सही, मगर अपनी 

निहायत अपनी !


ख्वाब की जरूरत


 

ख्वाब की जरूरत

 

दिले-बेताब में 

एक नामुमकिन-सा ख्वाब 

कुछ शक्लें इख्तियार कर रहा है 

और ख्वाब कुछ ऐसा कि 

एकबारगी हकीकत का गुमां हो जाए... 

धड़कनें फिर कोई नाजुक-सा गीत गुन रहीं हैं

कोई और न सुन सके

बस खुद ही सुन रहीं हैं

               एक गीत गुन रहीं हैं।

 

ख्वाबों से परे जो दुनिया है 

उसकी तो कुछ खबर ही नहीं 

जिंदगी जो हक़ीक़त है 

उसका कुछ असर ही नहीं 

बस सुब्हो-शाम ख्वाब है 

ये जिंदगी है कि सराब है?

 

मगर

ये ख्वाब ही तो है शायद 

कि जिसकी ताबीर हुई 

तो हम चाँद के दर

उसके आँगन तक जा पहुँचे 

और ख्वाब ही तो है कि जिसके दम पर

हम सभी जिंदा हैं, वरना

इस जिंदगी का क्या, इससे 

कहीं-न-कहीं

हम सभी शर्मिंदा हैं!

तो दिले-बेताब

तू देखता जा ख्वाब

ताबीर की कर कोशिशें पुरज़ोर, क्योंकि 

ताबीर जितनी जल्दी होगी 

उतने ही नए ख्वाब 

दिल में शक्लें इख्तियार कर पायेंगे

और हर बार 

नई जिंदगी दे जायेंगे ।


वजूद


 

वजूद

 

ये मौसम है 

ये मैं हूँ, ये तू है 

बस और कुछ भी तो नहीं 

मौसम का तो खैर कुछ वजूद ही नहीं 

ये जो 'मैं' है, वो 'तू' के रहमो-करम पर है 

और ये जो 'तू' है-

खुदा से भी किसी ने पूछा है 

कि वो क्या है, क्यूँ है ?!


कड़वा सच


 

कड़वा सच

 

हर रोज

अखबारों में, भाषणों में, टीवी पर 

हम देखते-सुनते हैं-

'बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करना है'

और हर रोज हमारे घरों में 

ये चर्चा होती है

कहीं से एक नौकर मिल जाए

छोटा हो, थोड़े कम पैसे ले।

 

माना कि हम लाचार हो सकते हैं 

या फिर जरूरत से ज्यादा व्यस्त 

और किसी एक सहारे की

काम करने वाले की 

हमें सख्त जरूरत हो 

पर ऐसे में

किसी एक बचपन की 

लाचारगी, उसकी जरूरतों का 

फायदा उठाना क्या जरूरी है

क्या अपनी सुविधा 

बिना दूसरे को असुविधा पहुँचाए 

नहीं पाई जा सकती

क्या जरूरी है

कि जब हमारे घरों के बच्चे 

किताबों, कॉमिक्सों का मजा ले रहे हों,

घर के किसी कोने में 

कोई एक बच्चा 

अपने घर से आई 

चिट्ठी भी न पढ़ पा रहा हो

क्या यह जरूरी है 

कि हर नई चीज 

जो वो हमारे हाथों से पाए

उसे उपकार समझने को मजबूर हो

हक़ नहीं...

हम इतने कमजोर क्यों हो गए हैं

इतने लाचार ?!

हम अपने, और हमारे अपनों के 

हाथ क्यों नहीं बन सकते ?

... या यह हमारे बीच की दीवार है,

अलगाव है,

जो हम

छोटे-छोटे हाथों में/पर

कई-कई भार डालने को मजबूर हैं?


इल्म


 

इल्म

 

मैं गिरता हूँ 

मगर इसलिए कि मैं इंसान हूँ 

मुझे गिर के फिर उठना है। 

अपनी सारी कमियाँ, सारी कमजोरियाँ 

मुझे मालूम हैं, मगर 

अपनी खूबियों का भी इल्म है मुझे ।


इंसान की पहचान


 

इंसान की पहचान

 

सहर के आ जाने से ही 

दिन तो नहीं फिरते हैं दोस्त !

ये तो पिछली रातों की सियाही है 

जो तय करती है 

कि दिन किस हद तक काला रहेगा 

कितनी चीजें मुकम्मिल नज़र आयेंगी 

कितनी खो के रह जाएंगी 

और सियाही कम करने की तरकीब 

वही पुरानी, आजमाई हुई है-

मिहनत और बस मिहनत 

मगर मोहलत नहीं है भाई 

और अगर कुछ वक्त है भी 

तो लोग सब्र करने को तैयार नहीं 

एतबार करने से डरते हैं 

और इस हाल में जब 

हर चीज़ की कीमत आँकी जा रही हो 

हम खुद भी 

रुक के कुछ सोचने को तैयार नहीं 

बस इस मुकाम से उस मुकाम 

कि कब, कहाँ, कैसे 

अधिकतम दामों पर बिका जाए 

हमें ये समझने की फुर्सत नहीं

कि जिंदगी 

सिर्फ मृग-मरीचिकाओं के पीछे भागने का नाम नहीं 

सिर्फ हवस नहीं, ऐशो-आराम नहीं 

जरूरतें तो रबर की थैली हैं 

जितना बढ़ायेंगे, बढ़ेंगी 

जितना घटायेंगे, घटेंगी 

ये तय तो आखिरकार 

हमें ही करना है कि थैली बड़ी कितनी हो ! 

और ये ज़िम्मेदारी भी 

शायद हमारे ही जिम्मे है 

कि लोग दूसरों को पूछें 

इंसान होने की खातिर

उनकी शख्सियत, उनके वजूद की खातिर 

न कि उन पे लगे 'प्राईस-टैग' की खातिर.... 

न कि उनकी चमक-दमक की खातिर....!


सब कुछ कितना असहज है


 

सब कुछ कितना असहज है

 

सबकुछ कितना सहज रूप से असहज है! 

मिलते अब भी हैं, मगर डरते-डरते 

बात अब भी होती है, पर दायरों में बँध के 

रिश्ते के नाम पर तकल्लुफ महज है 

सब कुछ कितना असहज है!


करें कुछ बातें हल्की-फुल्की


 

करें कुछ बातें हल्की-फुल्की

 

आओ बैठें कुछ देर 

करें कुछ बातें हल्की-फुल्की । 

 

यूँ तो ओढ़ लेता हूँ संजीदगी रोजाना 

आदमी ही हूँ, सो 

लाज़िम है परेशान हो जाना 

दिलो-दिमाग को ज़रा राहत दे लूँ 

कुछ पल बिना बँधे भी जी लूँ 

दफ्तर-की-सी बातें भूल जाऊँ बिल्कुल ही 

आओ, करें कुछ बातें हल्की-फुल्की ।

 

ये फ़िज़ा, ये हवा, ये चाँदनी 

ये सुबह, ये सूरज, ये रोशनी 

दुनिया में है यह सब भी 

नज़र डालें ज़रा इन पर भी 

लहरों की सुनें रागिनी, और 

सुनें चहचहाहट बुलबुल की 

करें कुछ बातें हल्की-फुल्की ।