सोमवार, 25 दिसंबर 2023

तुम्हारा जाना, रवि

          

   तुम्हारा जाना, रवि 
    (24.12.2023) 


(1)


यार, तुम गलत किए ! 

बहुत गलत हुआ यार ! 


लेकिन मैं गलती नहीं करूँगा

संवेदना के संदेश भेजूँगा

इमोजी डालूँगा ग्रुप में

चर्चा करूँगा


क्या हुआ जो तुमसे

आखिरी बार बात

दो- सवा दो साल पहले हुई थी

आखिरी मेसेज भी अगर

साल भर पहले का है, तो क्या हुआ

और तो और

जो ग्रुप में आकाशवाणी-सी हुआ करती है

जिसमें हर आवाज़

नक्कारखाने में तूती ही है

और जिसमें

जिसमें रोज सुबह- सुबह 

'गुड मॉर्निंग' कहने वाले तुम

खामोश रहे हफ्ते भर से

और धेला भर भी फर्क

नहीं पड़ा मुझे


मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ

बहुत व्यस्त, एकदम प्रोफेशनल

I mean business, always

कहाँ है मेरे पास समय

फालतू बातों के लिए

कब जानना चाहा मैंने 

कैसे हो तुम, कब सराहा तुम्हें

कैसे खड़ा कर लिया स्कूल

कब बताना चाहा तुम्हें

अपनी जिंदगी का हाल

अरे, कौन कहाँ कब

हर तरह पसंद आता है

हरेक कभी न कभी

किसी न किसी का

दिल तो दुखाता है

मैंने भी दुखाया हो कभी

तो क्या हुआ....


तो क्या हुआ कि मन के कोने में

बीती बातों की याद बैठी है

क्या हुआ कि भूलकर सबकुछ

फिर से मिलने की है तमन्ना दिल में

लेकिन, मन के पेंच कस दिए मैंने

तन गई पीठ, तन गया चेहरा

भाव शून्य हो गईं आँखें

सुन रक्खा है मैंने

' इमोशनल आदमी

हारता ज्यादा है, जीतता कम'

कौन हारा है? 


अरे क्या करते तुम

क्या करे कोई? 

मर जाए? 

मर तो गए तुम

खत्म हो गए साथ-

साथ सारे उपाय... 

करिए 

करिए अब जो मन भाए  !! 


           (2) 


नहीं भूल रही हैं

तुम्हारी बड़ी- बड़ी आँखें

तुम्हारी आवाज़

जो गंभीर और खिलंदड़ दोनों

थी साथ-साथ


सोए हुए हो तुम

चिर निद्रा में

मुँद चुकी पलकों के भीतर

स्थिर हैं तुम्हारी चंचल आँखें

पसरी हुई है शांति स्तब्ध


'जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु'

जो आया है वो जाएगा 

उम्र के इस पड़ाव पर

'वेक अप कॉल' है

जाना तुम्हारा


लगती रहती है

दूर की चीज़ कोई पराई

एक दिन मगर

मृत्यु अपनी सत्ता का अहसास

करा ही देती है

देर सबेर


याद आ रही हैं

उषा दी

कितना मन था उनसे मिलने का

भला अब क्या मुँह दिखाऊँगा

कितनी ही छोटी- छोटी बातें

छोड़ते जाते हैं हम

जाने किस बड़ी बात की खातिर


तुम्हारा जाना, रवि

सिर्फ तुम्हारा जाना नहीं है

हम सब भी 'जा रहे' हैं

रोज़ के रोज़ थोड़ा थोड़ा


सब बस चलते चले जाते हैं

एक दिन चले जाने के लिए

जीना इसी का नाम तो नहीं

शिकायतों का पुलिंदा लिए

डोलते रहना

महत्वाकांक्षा के पहाड़ पर

चढ़ जाने को

शुतुर्मुर्ग- सा बालू में सर घुसाए

दुनिया से कटते जाना


'कृतघ्ने नास्ति निष्कृति'

कृतघ्न का नहीं निस्तार

फिर भी अहंकार

किस हेतु 

जीवन से बड़ी बात क्या है

छोटी बड़ी औकात क्या है  ? 


'अब तक क्या किया ? 

जीवन क्या जिया!! 

बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,

करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,

बन गये पत्थर,

बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,

दिया बहुत-बहुत कम,

मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम'

मक्तिबोध की यह चिंता दिनोंदिन

बढ़ती ही जा रही 

देश कौन है? क्या है? 

सोचें तो ज़रा... 


काँटे उग आए हैं

ज़बानों पर, हाथों पर 

ज़र्द हो चले हैं चेहरे

सर्द हो चला है लहू

अपने शीशे के घरों में बैठे हैं लोग

हाथों में पत्थर उठाए


ज़िंदगी देती है मौके

मौत नहीं

क्या समझेंगे कभी  ? 



                   (3) 

  कैसी बीती होगी रातें? 

        कैसे बीती होंगी रातें? 

 दो सर्द रातें  । 


        तुम थे

        तुम नहीं थे

        थी तुम्हारी देह-मात्र, वह भी

        अब सुपुर्दे- ख़ाक है


         सब छोड़ चल देता है आदमी

         घर- दुआर

         साजो- सामान

         नाते- रिश्ते

         दोस्त- यार

         और अन्ततः देह

सबकुछ कितना बेमा'नी है

सच है, दुनिया फ़ानी है 


         अस्वाभाविक है तुम्हारा जाना

         दोस्त जो गए पहले, उनका भी

         स्वाभाविक नहीं था जाना

         स्वाभाविक कहाँ होता है

         किसी का जाना कभी... 

अशक्तता मथ रही है

मथ रही है विवशता अपनी


       ख़ाक में मिल जाना है

       राख हो जाना है

       एक दिन यही होना है

       सबको चले जाना है

किसको क्या समझाएँ

मन को कैसे मनाएँ


       मधुर- कटु व्यवहार किसी का

       भली- बुरी बातें किसी की

       क्या ही तय करें और भला क्यों

       है ठहरा हुआ समय, गुज़र रहे हैं हम

       जीवन-- बालू का एक कण

जीवन कितना छोटा है

और कितने छोटे हैं हम


        सच्चाई के क्षणों में

        खुद को हम पाते हैं, फिर

        खुद को खो आते हैं

        दु नि या दा री  की बातों में 

        सब जानते हैं सब --

        " ज़िंदगी ख़्वाब है

          ख़्वाब में

          झूठ क्या

          और भला सच है क्या? 

          सब सच है !" 

सुई की नोक- सा क्षण तुमने चुभाया है

हम ज़िंदा हैं अभी, हमें यह याद कराया है

        




























भोलाराम जीवित [ भगत -बुतरू सँवाद 2.0]

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