राज शेखर होने के मायने
बरसों पहले कोसी की एक कथा पर एक फिल्म
बनी थी । नाम तो आप जानते ही होंगे – तीसरी कसम । इस फिल्म में एक गीत था –‘ पान खाए सैंया
हमारो’ । इस गाने में दो लाइनें कुछ ऐसी थीं –
हमने मँगाई सुरमेदानी , ले आया ज़ालिम बनारस का ज़र्दा
अपनी ही दुनिया में खोया
रहे वो, हमरे दिल की न पूछे बेदरदा
आज एक गीत सुन रहा था तो बरबस यह गीत याद आ गया । गाना है 2019 में
आई फिल्म ‘साँड की आँख’ का । झुन्ना, झुन्ना, झुन्ना । इस गाने की एक लाइन है – “ सैंया बेदरदा फूँके है ज़र्दा” । आप बताइए कि बेदरदा और ज़र्दा शब्द
हिंदी फिल्म के किस गाने में आपने सुना है, कम से कम इधर के
20-25 बरसों में ? आप सवाल पूछ सकते हैं कि ये शब्द क्यों याद रखे जाने
चाहिए ? वाजिब सवाल है । अच्छा यह बताइए कि कातिक, अगहन, फागुन जेठ, काँसा,
पीतल, सिलवट, रूई,
रेशा, अरदास, मच्छरदानी,
गाँव-जवारी, सदाबहार, चमकदार,
उजला, हुक्का, गुड़गुड़,
बुलबुला, माथापच्ची,जुगनू,
रफ़ा-दफ़ा, बवंडर, गँड़ासा,
टिमटिम – ऐसे शब्द याद रखे जाने चाहिए या नहीं ? जब सारी दुनिया ‘ ओ या’, ‘ आइ
नो’, ‘यू नो’ में लगी हुई है तब ऐसे
शब्द क्यों याद रखे जाने चाहिए ?
हम देखें तो सँस्कृति के निर्वहन और
निरंतरता में हमारी भाषा का बहुत बड़ा योगदान होता है । और सरकारी या किताबी भाषा
नहीं बल्कि लोक की भाषा । ऊपर जो शब्द उदाहरण के तौर पर रखे गए हैं, आप ग़ौर करेंगे तो पाएँगे कि ये लोक से उठाए हुए शब्द हैं । हम अगर अपनी
भाषा, अपने शब्दों से दूर होते जाएँगे तो हम धीरे-धीरे अपनी
सँस्कृति से भी दूर होते जाएँगे । हमें अपनी भाषा का सम्मान करना ही होगा, उसे बचा कर रखना ही होगा । ‘तीसरी कसम’ के गीत को लिखा था शैलेन्द्र ने और ‘साँड की आँख’ के गीत को लिखा है राज शेखर ने । वही
राज शेखर जो कोसी के हैं, मधेपुरा के हैं । वही राज शेखर
जिनका आज जन्मदिन है ।
बकौल राज शेखर वो एक ‘एक्सीडेंटल’
गीतकार हैं । उस ‘एक्सीडेंट’ के भी दस वर्ष पूरे हो चले हैं । उनके लिखे गीतों की सूची देखें तो कुल
जमा चालीस- इकतालीस गीत हैं , यानी कि साल के तकरीबन चार गीत
। आज के इस ‘ जो दिखता है वो बिकता है’ के दौर में यह सूची काफी छोटी लगती है । लेकिन बावजूद इसके वे बराबर
फिल्मों में बने हुए हैं । उनके गीत पसंद किए जा रहे हैं – जनता के द्वारा भी और
फिल्म-वाले लोगों के द्वारा भी । उनके द्वारा लिखे गए पहले गीत ‘ ऐ रंगरेज़ मेरे’ ने ही अपार सफलता का स्वाद चखा दिया
। अमूमन ऐसा होता नहीं है । फिल्म थी ‘तनु वेड्स मनु’
। इस फिल्म में उनके लिखे सारे गीत एक से बढ़कर एक । साल था 2011 ।
एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि ‘ऐ रंगरेज़ मेरे’
और ‘ मन्नू भैया का करिहैं’ एक ही दिन बल्कि एक ही बैठक में लिखे गए गीत हैं । अगर आपने दोनों गाने
सुने हैं तो राज शेखर की ‘रेंज’ पर
विस्मित हुए बिना नहीं रह पाए होंगे । उसके बाद 2013 में एक गाना आता है फिल्म ‘इसक़’ में – ‘ एन्ने-ओन्ने’
। होली का मस्ती भरा गाना । इस गाने को देखें तो इसमें गीतकार
द्वारा होली के नाम पर छूट लेने की पूरी संभावना थी , पर
उसको जिस नज़ाकत से वो संभाल ले गए हैं वह देखिए – “ तुझे
सिलवट-सिलवट चख लें /हम पारा- पारा पिघलें” । गुलज़ार राज शेखर के पसंदीदा
गीतकार हैं, मालूम नहीं उन्होंने यह गीत सुना है कि नहीं ?
‘इसक’ के बाद 2105 में ‘तनु
वेड्स मनु रिटर्न्स’ । इस फिल्म का एक गीत, जो शायद उतना चर्चित नहीं हुआ, - “हो गया है प्यार
तुमसे / तुम्हीं से एक बार फिर से” । प्यार की एक नई व्याख्या । और इतनी
मखमली! 2016 में आई ‘ क्यूट कमीना’ । इसके गानों की
भी चर्चा उतनी नहीं हुई । भोपाल शहर पर लिखी गई कव्वाली भोपाल शहर के किरदार को
आँखों के सामने रख देती है । ‘ सिंगल चल रिया हूँ’ गीत में एक पंक्ति है ‘ मालवा के आसमाँ पे / किसने
की फुलकारियाँ ये’ । किसी जगह , किसी
प्रदेश को इतने रोमांटिक रूप में गाने में शामिल कर लेना गाने में एक अलग कशिश
पैदा कर देता है । कशिश तो इसी फिल्म के एक और गीत ‘ शाम
होते ही’ में यह लाइन भी पैदा करती है – ‘ नीले सैटिन में लिपटा ये शहर / चमके जुगनू-सा’ । ‘ तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’
का एक गीत ‘ ओ साथी मेरे’ , उसके गायक सोनू निगम को हद से ज्यादा पसंद है । 2017 में एक फिल्म आई थी ‘
फ्रेंडशिप अनलिमिटेड’ इसमें भी सोनू निगम का
गाया , राज शेखर का लिखा एक गीत है – ‘ तेरे बिन ओ यारा’ । यह गीत भी ‘ ओ साथी मेरे’ की टक्कर का ही है । इसी साल एक फिल्म
आई ‘ करीब करीब सिंगल’ । इसमें राज
शेखर के दो गीत थे । ‘ जाने दे’ जो
लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया, और उतरा ही नहीं । पर इसी फिल्म
का एक दूसरा गीत ‘ खतम कहानी’ एक अलग
ही चोखे रंग का गीत है । 2018 में एक
छोटी-सी फिल्म आई ‘ मेरी निम्मो’ । यह
उस समय भी ओ.टी.टी पर ही रिलीज़ हुई थी । इस फिल्म में तीन
गीत । एक गीत की कुछ लाइनें देखिए – “ आते-जाते पल से न जी लगाओ...क्या
ये भी बीत जाएगा / हाँ ये भी बीत जाएगा” । यह गीत
अंग्रेज़ी की एक कविता “ This, too, shall pass
away” ( Paul Hamilton Hayne) की बरबस ही याद
दिलाता है जैसे शैलेन्द्र का लिखा गीत “ हैं सबसे मधुर
वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं” , “ Our sweetest songs are those that tell of saddest thought” ( P.B.
Shelley) कविता की । शैलेन्द्र भी राज शेखर के पसंदीदा गीतकार हैं
।
2018
में तीन फिल्में और चार गीत और आए । ‘हिचकी’ में ‘ खोल दे पर’ और ‘मैडम जी गो ईज़ी’, ‘वीरे दी
वेडिंग’ में ‘आ जाओ ना’ और ‘तुम्बाड’ का टाइटिल सॉन्ग
। ‘ तुम्बाड’ का गीत जरूर सुना जाना
चाहिए । इसमें शब्दों से जो ध्वनियाँ उत्पन्न की गई हैं वो एक दूसरे ही लोक में ले जाती हैं । ऐसा कर
पाना भी संभवत: राज शेखर के बस का ही था । 2019 में तीन फिल्में । ‘उरी’ , ‘जबरिया जोड़ी’ और ‘
साँड की आँख’ । ‘उरी’
के गीत ‘बह चला’ की यह
लाइन देखिए –“ छोटी-सी ज़िद होगी, लंबी-सी रातें /फिर भी प्यार रह जाएगा” । यह पंक्ति चमत्कृत कर
देती है । ‘जबरिया जोड़ी’ के ‘ मच्छरदानी’
में एक तरफ तो मच्छरदानी शब्द का इस्तेमाल होता है तो दूसरी तरफ ‘क्वीन, स्वीटी, पासवर्ड’
जैसे शब्द । यानी कि शब्द सहज रूप से ही चले आते हैं गीतों में
बेखटके, बिना किसी को खटके । ‘ साँड की
आँख’ पूरा एल्बम ही खास है । गीतों की विविधता के कारण और
आशा भोंसले के गाए गीत ‘ आसमाँ’ के
कारण । इस गीत के बारे में आशा जी ने किसी साक्षात्कार में कहा है कि ऐसे गाने अब
बनते नहीं हैं । 2020 में फिर से एक बार ‘बम्फाड़’ सिनेमाघरों में न रिलीज़ हो कर ओ.टी.टी पर हुई , हालाँकि
तब तक देश में लॉकडाउन भी लग गया था । मालूम नहीं इस फिल्म के गानों का एल्बम
क्यों नहीं रिलीज़ किया गया है अब तक । यू ट्यूब पर बिखरे हुए इसके गानों को सुनिए ,
या फिर फिल्म देख कर सुनिए । ‘बम्फाड़’ के गीतों की कुछ पंक्तियाँ – “ ऐसे तो कोई खास बात है नहीं
/ तू है तो ज़िंदगी ये कीमती लगे” , “ ज़िक्र गुलाबी तेरा
जितना है / उतना ही मैं भी गुलाबी अब हो रहा” , “ मैं मुंतज़िर नहीं / पर इंतज़ार-सा” या फिर “ जीभ है गँड़ासा इनकी” । एक तरफ नर्मो-नाज़ुक इश्क
की बातें तो दूसरी तरफ गँड़ासा – उतनी ही सहजता से । ओ.टी.टी पर ही रिलीज़ हुई ‘ रात अकेली है’
में राज शेखर का एक गीत है ‘ आधे-आधे-से हम’
। इस गीत को सुनिए और सोचिए कि कविता और क्या होती है ? राज शेखर ने एक ‘शॉर्ट फिल्म’ ‘द गाइड’ के लिए भी एक गीत लिखा है , उसका भी उल्लेख जरुरी है । 2016 में आई इस ‘शॉर्ट
फिल्म’ के गीत की कुछ पंक्तियाँ – “ अगहन, फागुन , तुमसे ही जेठ” , या फिर “ बँध गए हैं मौसमों के / सारे ही अब छोर
तुमसे” – क्या यह कविता नहीं है ?
राज
शेखर के गीतों में उनका लोक उनके साथ चलता है । लोक जहाँ पर वे रमते हैं, लोक जहाँ से वे आते
हैं । बिहार के , खास कर मिथिला/कोसी क्षेत्र के शब्दों को
वे अपने गीतों में बड़ी सहजता से ले आते हैं । खिसियाना, धकधकाना,
हकबकाना – जैसे शब्द मुख्य धारा की हिंदी
फिल्मों में आ रहे हैं और स्वीकार किए जा रहे हैं । इसका कुछ श्रेय राज शेखर को भी
जरूर जाता है । अंग्रेज़ी और पंजाबी शब्दों को हम पहले ही हिंदी फिल्मों के गीत में
स्वीकार कर चुके हैं । राज शेखर ने संख्या की दृष्टि से कम ही गीत लिखे हैं । यह
दो बातों को इंगित करता है – एक कि राज शेखर हड़बड़ी में नहीं हैं दूसरे उनके काम की
गुणवत्ता लोगों को उनसे बाँधे रखी है । अब जबकि फिल्मों में एक तरह से गानों की
जगह कम होती जा रही है, राज शेखर के गीतों का आते रहना और भी
जरुरी है ।
शैलेन्द्र ने अपने
आत्म-परिचय में लिखा था –“ फिल्म-गीत लिखना अधिकतर बहुत आसान समझा जाता है ।
सीधे-सादे शब्द , घिसी-पिटी तुकें, कहा जाता है कि फिल्म-गीत और है
क्या ? मेरा अनुभव
कुछ और है । फिल्म-गीत-रचना मेरी समझ से एक विशेष कला है” । शैलेन्द्र पर चर्चा करते
हुए डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने लिखा है – “ मेरी बड़ी इच्छा है कि शैलेन्द्र के
गीतों की साहित्यिक व्याख्या की जाए । ... यदि शैलेन्द्र के गीतों को समुचित ढंग
से व्याख्यायित किया जाता तो यह दुरवस्था फिल्मों भी नहीं आई होती” ।
हालाँकि यह कहना अभी शायद
जल्दी होगा, लेकिन जिस तरह से वे चल रहे हैं, शैलेन्द्र और डॉ,
बुद्धिनाथ मिश्र , दोनों, की बात भविष्य में राज शेखर पर भी लागू होगी ।
राज शेखर खूब लिखें, खूब अच्छा लिखें ।