कहीं पढ़ा था कि निराला कहते थे हर कविता के कई पाठ होते हैं । ऐसा ही कुछ हुआ जब वडाली ब्रदर्स के प्यारे जी के निधन की खबर के बाद उनकी लाइव परफॉर्मेंस का एक वीडियो देख रहा था । वो गा रहे थे राजशेखर का लिखा तनु वेड्स मनु का गाना रंगरेज़ मेरे । गाने के पहले बुल्ले शाह की पंक्तियाँ उन्होंने गाईं जो रंगरेज़ के साथ एकदम फिट बैठ गईं । और फिर उस गाने का एक नया ही आयाम खुलने लगा । फ़िल्म के गाने को फिर से सुना । और लीजिए, गाना तो कुछ और ही उभर कर सामने आ गया । बरसों पहले एक दोस्त ने इन्हीं लोगों ने ले लीना दुप्पट्टा मेरा की व्याख्या की थी तो उसका भी नया अर्थ खुल गया था । क्या है रंगरेज़ मेरे ? एक फिल्मी गाना , एक कव्वाली, एक सूफी भजन, एक प्रेम में समर्पण का गान , एक बगावत से भरे प्रेम का आख्यान ? किसी भी गीत या रचना की खूबसूरती यही है कि जहाँ पंक्तियाँ खत्म होती हैं, वो उसका प्रस्थान बिंदु होता है । उसके बाद वो रचनाकार और संदर्भों से आगे निकल जाता है अपना विस्तार करते हुए । और यही उसकी सफलता है । यह गाना किसी को भी संबोधित हो सकता है, ईश्वर को, प्रेमी को, तारणहार को, मित्र को । यह घर से दूर बैठी किसी लड़की की अरज भी हो सकती है, निछावर होने की ज़िद लिए प्रेम भी ।
जो बच्चे अच्छे लगते हैं, हम उसमें उसके पूरे खानदान के लोगों की झलक देखने लगते हैं । यह गाना भी कुछ ऐसा ही है । रंगरेज़ सुनते वक्त अनायास इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा और चलत मुसाफ़िर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया की याद आ जाती है । साथ ही लागा चुनरी में दाग की भी । और इस गाने में जो ताली बजते रहती है वो पाकीज़ा के ही चलते चलते की याद दिलाती है । गाने के शब्दों पर गौर करेंगे तो शैलेन्द्र और गुलज़ार भी याद आ जाएंगे बरबस । इतनी तुलना ठीक नहीं ।एकदम जरूरी नहीं ।दरअसल कुछ पसन्द आए तो समझ में जो बेहतरीन चीज़ होती है आप उपमा उसी की देने लगते हैं ।
राजशेखर जिस मिट्टी से आते हैं उसका स्वाद उन्होंने बचा रखा है । इस गाने में इस्तेमाल किए गए शब्दों की बानगी देखिए - मुए कपास, अफ़ीम, कारोबार, बालम, साजन, कातिक, अगहन, फागुन, सावन, आठों पहर , नैहर, पीहर, सातों समंदर, । कुछ बिम्ब भी - मंदिर, मस्जिद, मैकद/ ख्वाबों से पड़े सलवट । भाषाएँ शायद ऐसे ही बचती हैं ।
कबीर ने कहा था ' मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा' । यहाँ मुए कपास तक रँग रुकते ही नहीं । 'मंदिर, मस्जिद, मैकद भी' - जब सब एक हैं तो बैर कराएगा कौन ! ऐसा नहीं होगा कि राज शेखर ने सायास , इन बातों को ध्यान में रखते हुए ऐसा लिखा होगा । बल्कि यह तो उनके व्यक्तित्व में रची-बसी बातें हैं जो आ ही जाती हैं । जो आ ही जानी चाहिए । इसको अगर ऐसे भी देखें कि गीतों में आँचलिकता का समावेश बिना मज़ाकिया बने या बिना स्तर को हल्का किए हुआ है । हो भी क्यों न, वो जहाँ से आते हैं वो इलाका रेणु का है ! यतीन्द्र मिश्र ने तीस साल के तीस गानों में इसको स्थान दिया है, ऐंवे ही नहीं !
यहाँ पर एक सवाल कि ऐसे बेहतरीन गाने क्या साहित्य नहीं हैं ? फिल्मों में इस्तेमाल कर लिए जाने से अर्थ गुम हो जाते हैं ? क्या इसी गाने को वडाली ब्रदर्स सिर्फ मंच पर गाते और बुल्ले शाह के साथ साथ गाते रहते तो मामला कुछ और होता ? क्या नागार्जुन ने शैलेन्द्र को गीतों का जादूगर यूँही कहा था ? क्या साहिर की नज़्में फिल्मों में इस्तेमाल होने से अपना महत्व खो देती हैं ? क्या लोकप्रिय होना कमतर होना है ? क्या गाने को नोबेल नहीं मिला ?
राजशेखर एक कार्यक्रम करते हैं "मजनू का टीला" । कविताओं/गीतों की संगीतमय प्रस्तुति । फिल्मों और साहित्य या लोकप्रिय और गंभीर साहित्य के बीच एक सेतु का यह बखूबी काम कर सकता है । यू ट्यूब पर इसके वीडियो उपलब्ध हैं । देखिए फिर मानिए ।
अभी राजशेखर को बहुत लंबा रास्ता तय करना है । उनके गीतों को सुनना आश्वस्तिकारक है ।
जो बच्चे अच्छे लगते हैं, हम उसमें उसके पूरे खानदान के लोगों की झलक देखने लगते हैं । यह गाना भी कुछ ऐसा ही है । रंगरेज़ सुनते वक्त अनायास इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा और चलत मुसाफ़िर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया की याद आ जाती है । साथ ही लागा चुनरी में दाग की भी । और इस गाने में जो ताली बजते रहती है वो पाकीज़ा के ही चलते चलते की याद दिलाती है । गाने के शब्दों पर गौर करेंगे तो शैलेन्द्र और गुलज़ार भी याद आ जाएंगे बरबस । इतनी तुलना ठीक नहीं ।एकदम जरूरी नहीं ।दरअसल कुछ पसन्द आए तो समझ में जो बेहतरीन चीज़ होती है आप उपमा उसी की देने लगते हैं ।
राजशेखर जिस मिट्टी से आते हैं उसका स्वाद उन्होंने बचा रखा है । इस गाने में इस्तेमाल किए गए शब्दों की बानगी देखिए - मुए कपास, अफ़ीम, कारोबार, बालम, साजन, कातिक, अगहन, फागुन, सावन, आठों पहर , नैहर, पीहर, सातों समंदर, । कुछ बिम्ब भी - मंदिर, मस्जिद, मैकद/ ख्वाबों से पड़े सलवट । भाषाएँ शायद ऐसे ही बचती हैं ।
कबीर ने कहा था ' मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा' । यहाँ मुए कपास तक रँग रुकते ही नहीं । 'मंदिर, मस्जिद, मैकद भी' - जब सब एक हैं तो बैर कराएगा कौन ! ऐसा नहीं होगा कि राज शेखर ने सायास , इन बातों को ध्यान में रखते हुए ऐसा लिखा होगा । बल्कि यह तो उनके व्यक्तित्व में रची-बसी बातें हैं जो आ ही जाती हैं । जो आ ही जानी चाहिए । इसको अगर ऐसे भी देखें कि गीतों में आँचलिकता का समावेश बिना मज़ाकिया बने या बिना स्तर को हल्का किए हुआ है । हो भी क्यों न, वो जहाँ से आते हैं वो इलाका रेणु का है ! यतीन्द्र मिश्र ने तीस साल के तीस गानों में इसको स्थान दिया है, ऐंवे ही नहीं !
यहाँ पर एक सवाल कि ऐसे बेहतरीन गाने क्या साहित्य नहीं हैं ? फिल्मों में इस्तेमाल कर लिए जाने से अर्थ गुम हो जाते हैं ? क्या इसी गाने को वडाली ब्रदर्स सिर्फ मंच पर गाते और बुल्ले शाह के साथ साथ गाते रहते तो मामला कुछ और होता ? क्या नागार्जुन ने शैलेन्द्र को गीतों का जादूगर यूँही कहा था ? क्या साहिर की नज़्में फिल्मों में इस्तेमाल होने से अपना महत्व खो देती हैं ? क्या लोकप्रिय होना कमतर होना है ? क्या गाने को नोबेल नहीं मिला ?
राजशेखर एक कार्यक्रम करते हैं "मजनू का टीला" । कविताओं/गीतों की संगीतमय प्रस्तुति । फिल्मों और साहित्य या लोकप्रिय और गंभीर साहित्य के बीच एक सेतु का यह बखूबी काम कर सकता है । यू ट्यूब पर इसके वीडियो उपलब्ध हैं । देखिए फिर मानिए ।
अभी राजशेखर को बहुत लंबा रास्ता तय करना है । उनके गीतों को सुनना आश्वस्तिकारक है ।
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