फागुन
१
फागुन की आहट
मौसम की सुगबुगाहट
देह की चुनचुनाहट
कैसे सबर करें
कुछ कर गुजरें
बरसों की छटपटाहट
पी ली गई कड़वाहट
उफ़्फ़ ! ये अकुलाहट
कैसे सबर करें
कुछ कर गुजरें
२
फागुन मन
रँग
जाता है
कपड़े चाहे रँगे ना रँगे
मन
नया- नया हो जाता है
चाहे
कपड़े नए, ना नए
मन
में मंजर- से खिलते हैं
मन- कोयल गाने लगता
है
भवनों- महलों, चौक- चौर में
रँग -फागुन छाने लगता है
यह
फागुन है हर
तबके का
इस
फागुन का हर तबका है
मेरा
तेरा इसका
उसका
है
फागुन, फागुन सबका है
फागुन भेद नहीं
करता है
हमें
और यही सिखाता है
छोटा
बड़ा है
कोई नहीं
फागुन यह राह दिखाता है
इस
फागुन में हम रँग बदलें
हम
जीने के कुछ ढँग बदलें
आज
से थोड़ा बेहतर हो
हम जीवन को सँग-सँग बदलें
३
कोयल आ गई
अब फागुन आ गया है
रंग भीतर छा रहा है
मन भीतर गा रहा है
जाने न दें
जुगा रखें
ऐसे अनगिनत क्षणों को
मन के
फागुन वाले दिनों को...
४
भय और संशय का नहीं
फागुन
उमंग और उल्लास का
समय है
लेकिन
क्या कहें
समय, समय है
कभी नरम
कभी गरम !
५
फागुन को रँग देने
फागुन के रँग में
अपने ही ढँग में
टह-टह हैं खूब लाल
सेमल के फूल लाल-लाल
लक्षित-अलक्षित हैं
नहीं कहीं रक्षित हैं
फिर भी खिल जाते हैं
हमसे मिल जाते हैं
बड़े-बड़े नाम वाले
जाने यहाँ कितने हैं
पर इनकी धज देखो
इन जैसे कितने हैं !!
६
बीती ऋतुओं में
चाहे जो कुछ हुआ हो
चक्र चलता जाता है
सब बदल जाता है
सुस्त पड़े जीवन में
जैसे प्राण फूँक जाता
है
फागुन
प्रकृति की
जाग्रत अवस्था है !
मन की प्रकृति
है प्रेम
जगने दें !!
मौसम टेरे फागुन में
मन को फेरे फागुन में
कस के घेरे फागुन में
८
ऋतु हर नयी
हर दिन नया
हर क्षण नया
फूल-पत्ते नये
रँग-रोगन नया
जाता पुराना
आता नया
फागुन बताए
क्या यही कोयल गाए ?--
वासांसि जीर्णानि यथा
विहाय...
९
राँची की सड़कों पर
फागुन महीने में
कुछ बीते दिनों की बातें
रँग भरे कुछ मंज़र
बन रही कुछ यादें
धूप भरी सड़कों पर
राँची की सड़कों पर
फागुन महीने में
निकलो तो कभी देखो...
१०
उदासी
फागुन में
फबती नहीं है
और
हँसते ही रहें
ऐसी भी
ज़बरदस्ती नहीं है !
११
फागुन फागुन, कितना रँग
जितना चाहो उतना रँग
फागुन फागुन, कैसा रँग
जैसा देखो वैसा रँग
फागुन फागुन,किसका रँग
जिसका पावर उसका रँग
फागुन फागुन, किसके सँग
जो हित साधे उसके सँग
फागुन फागुन, मेरा रँग ?
किसने ऐसा फेरा रँग !
१२
प्रकृति के समवेत सुरों में
और विविध रंगों में
हो रही उद्घोषणा –
आ गया, आ गया !
फागुन आ गया है !
रँगिए, रँग जाइए
रँगवाइए खुद को
रंग चढ़ने दीजिए
इस रुत, इस मौसम का
भंग कीजिए जीवन की
एकरसता, नीरसता को
यथासंभव, यथाशीघ्र !!
आम बौराए
मौसम भी
महकने-चटकने लगा है
मन-पलाश
दहकने लगा है
बरस बीते
मानो मन को रीते
बरसों से
कुछ किया नहीं है
किसी पर
ध्यान दिया नहीं है
इस फागुन
मन को जगाते हैं
चलो, फिर वही
वैसे ही निभाते हैं
इस बार
मलमल तय रहा !
१४
स्फुरण में
संवरण कैसे हो
फागुन है
विरह का
वरण कैसे हो
दूत वसंत ने भी
दिए हैं संदेश
भाँति-भाँति से
कोण-कोण से
किया है
इंगित
मन विस्मित !
पिछला
फागुन
कब चढ़ा था ?
१५
नशा
मेरे मन में है
तुम्हारी आँखों में है
या
इस मौसम में है ?
लगता है
कुएँ में ही
भाँग
घुल गई है
अल्हड़ता है
तरुणाई है
जैसे पूरी दुनिया ही
कसमसाई है
फागुन में
सावन का अंधा ?
१६
फागुन की सुबह
एकदम सुबह-सुबह
ठंडी-ठंडी हवा
मन को
ले जाती है
दूसरे ही लोक में
उठ रहो
घूमने चलेंगे साथ
तुम्हारी
स्कूटी पर ।
१७
क्या करूँ
क्या करूँ
सोचो
जल्दी सोचो
यह फागुन भी
बीत रहा है
कुछ सोचो
कुछ करो
कि यह फागुन
न बीते मन का
मौसम को बदलने दो
देखो,
काम बहुत हैं करने
को...
[ कविता संख्या १३ से १७ संग्रह ‘ख़ास तुम्हारे लिए...’ में संकलित]
१८
आज फागुन चढ़ गया है !
कुछ उमंगें, कुछ उम्मीदें, कुछ तुम्हारे
बिंब प्यारे
अंत:करण में जैसे
कोई आज आकर मढ़ गया है ।
तन तरंगित, मन तरंगित, बदला हुआ वातावरण
है
मन का मिलन है पूर्ण, अपितु उस पर विरह का आवरण है
मूक हैं शब्द, मन मुखर है, भाव सारे संचरित
हैं
लगता है मनोभाव
सारे ऋतुराज जैसे पढ़ गया है ।
[ संग्रह ‘चाँद के दर पर दस्तक’ में संकलित]
बहुत खूब चेतन भाई
जवाब देंहटाएंफ़ागुन आयो रे