प्रकाशक : अभिधा प्रकाशन
कलाओं के तीन शिखर : कला की दुनिया में खुलती एक खिड़की
एक पतली- सी किताब है, महज अड़तालिस पृष्ठों की। उसकी भूमिका में सुप्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना ने कितनी तगड़ी अनुशंसा की है, ज़रा देखिए --" अब जब यह पुस्तक आ गई है तब साहित्य की परीक्षा के किसी भी साक्षात्कार में यह अनिवार्य रूप से पूछा जाना चाहिए कि अनीश अंकुर की इस पुस्तक के बारे में पता है या नहीं? या कम से कम इन विषयों से साहित्य का रिश्ता पता है या नहीं? नहीं पता तो फेल।" यह किताब है ' कलाओं के तीन शिखर लियोनार्दो दा विंची, विलियम शेक्सपीयर, लुडविग वान बीथोवन' और जैसा बताया जा चुका है, लेखक हैं अनीश अंकुर।
किताब में कला के तीन शिखर- पुरुषों पर पाँच लेख संकलित हैं। ये लेख दा विंची की मृत्यु के पंच शताब्दी वर्ष, शेक्सपीयर की मृत्यु के चार सौवें वर्ष और बीथोवन के जन्म की दो सौ पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर लिखे गए हैं। अच्छी कला कालजयी होती है, तभी कलाकार के जाने के सदियों बाद भी कला जीवित रहती है और उसी के साथ कलाकार की स्मृति भी ।
यों तो सारी कलाओं में एक अंतर्संबंध देखा जा सकता है, लेकिन लेखक अनीश अंकुर रंगमंच की पृष्ठभूमि से आते हैं इसलिए चित्रकला, रंगमंच- साहित्य और संगीत इन तीनों क्षेत्रों में उनकी सहज रुचि स्वाभाविक है।
कला और साहित्य में थोड़ी भी रुचि रखने वाला व्यक्ति किताब में उल्लिखित तीनों नामों से जरूर ही परिचित होगा। इस किताब को पढ़ लेने के बाद परिचय का यह दायरा निश्चित तौर पर बढ़ेगा। इस किताब को पढ़ हम यह जान पाते हैं कि तीनों के जीवन में औपचारिक शिक्षा का अभाव रहा, इसके बावजूद उन्होंने अपने अपने क्षेत्र में शिखरों को छुआ, नए शिखरों को बनाया। इसको ऐसे देखें कि कला या प्रतिभा औपचारिक शिक्षा की अनुगामिनी नहीं है । दूसरी जो बात पाठक सहज लक्षित कर सकता है कि तीनों ने ही अपने मुकाम को पाने के लिए कड़ा संघर्ष किया, और तमाम तरह के विरोधों का सामना किया। तीसरी और सबसे खास बात यह कि तीनों ने ही अपने समय में गलत का विरोध किया, देश और समाज में व्याप्त जड़ता पर प्रहार किया। कला और साहित्य में गलत के विरोध की क्षमता अंतर्निहित होती ही है।
दा विंची के प्रसिद्ध चित्र 'मोनालिसा' के बारे में बात करते हुए अनीश अंकुर कहते हैं - "इस चित्र में छुपी- दबी भावनाओं का अहसास मिलता है। ये भावनाएँ खतरनाक मानी जाती हैं क्योंकि ये स्थापित ऑर्डर के खिलाफ विद्रोह के रूप में देखी जाती हैं।" इस बात की पृष्ठभूमि में लेखक पाठक को चित्रकला के 'स्फूमातो' जैसे तकनीकी शब्द से भी परिचित कराता चलता है। 'मोनालिसा' के विभिन्न पहलुओं पर लेखक ने प्रकाश डाला है जिससे पाठक 'मोनालिसा' को देखने के साथ साथ समझ लेने की भी कोशिश कर सकता है। पाठक जान पाता है कि 'मोनालिसा' का असली नाम क्या है। इस तरह से यह लेख बड़ा ही रोचक बन पड़ा है।
शेक्सपीयर पर बात करते समय लेखक बताता चलता है कि शेक्सपीयर ने अलग- अलग क्षेत्रों की बड़ी हस्तियों को भी किस कदर प्रभावित किया। यह भी कि उसने अपने समय के समाज और मनोविज्ञान को बखूबी चित्रित किया। एक सच्चा कलाकार भविष्य की आहट को बहुत पहले से भाँप लेता है। लेखक बताता है कि पूंजीवाद और उसके कारण उपजी मन की बीमारी को शेक्सपीयर ने तब पहचान लिया था जब उसकी कहीं कोई चर्चा भी नहीं थी।
बीथोवन के बारे में लिखते हुए लेखक अनीश अंकुर लिखते हैं कि बीथोवन ने ऐसी धुनों और संगीत की रचना की जो सुनने वाले को सुकून पहुंचाने के बदले उन्हें चकित और विचलित करता रहा है। ऐसा माना जा सकता है कि फ्रांसीसी क्रांति की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति के धुनों और संगीत में ही हासिल हो सकी थी।
पूरी किताब से गुजरता हुआ पाठक तीनों कलाकारों के जीवन में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं से भी रूबरू होता है। उसकी यह समझ बनती है कि कला अपने समय का दस्तावेज होने के साथ- साथ भावी पीढ़ियों से भी संवाद कायम करती है।
किसी भी अच्छी किताब की तरह यह किताब भी अपने अंतिम पृष्ठ के साथ समाप्त नहीं होती बल्कि पढ़ने वाले के मन में और जानने, और समझने की इच्छा जगाती है । जैसे शेक्सपीयर के बारे में यह पढ़कर कि उसने कई कहावतों को भी जन्म दिया, पाठक शेक्सपीयर के समकालीन तुलसी की रचनाओं में कहावतों को ढूँढने को उद्यत हो सकता है। बीथोवन ( पश्चिम) के संगीत में सामूहिकता के बर- अक्स भारतीय संगीत में एकल साधना पर विचार करने की इच्छा पाठक के मन में जाग सकती है । वह यह ढूँढना चाह सकता है कि अहिंसा के पक्षधर गाँधी जी को जब बीथोवन की पाँचवी सिंफनी सुनाई गई तो उनकी प्रतिक्रिया क्या रही ।
कला और साहित्य में साधारण रुचि भी रखने वाले व्यक्ति के लिए यह किताब एक नई खिड़की खोलने का काम कर सकती है। अपने आकार और कीमत दोनों के लिहाज से यह किताब पहुँच के भीतर है । अगर किताब की दुकानों पर प्रतियाँ उपलब्ध कराना आसान नहीं भी हो तो ई बुक के रूप में इस किताब का प्रचार- प्रसार होना ही चाहिए। नहीं तो सब फेल !!