मजनू के टीले
पर राज शेखर
मजनू संज्ञा भी है, विशेषण भी है और कभी- कभी क्रिया भी ! आप
भी सोचिए । चर्चा की जाएगी आगे ।
दिल्ली में है दिल्ली विश्वविद्यालय यानी कि
नॉर्थ कैम्पस । उसके पास एक इलाका है जिसका सरकारी नाम रख दिया गया है ‘न्यू अरुणा नगर’ लेकिन लोग जिस नाम से उसे पहचानते हैं
वो है ‘ मजनू का टीला’ । लैला-
मजनू वाले मजनू नहीं, बल्कि एक सूफ़ी संत । कहते हैं मजनू के
टीले के धागे एक सूफ़ी फ़कीर, एक सिख गुरु से लेकर तिब्बती संस्कृति
से बँधे हुए हैं । होने को तो मजनूँ का टीला थोडा बदनाम भी है । लेकिन यही मजनू का
टीला राज शेखर,
हमारे और आपके राज शेखर के लिए उम्मीद
का दूसरा नाम है । वे कहते हैं “
मजनू का टीला हमेशा मेरे लिए एक उम्मीद का दूसरा नाम लगता है मुझे वो । जब मैं
वहाँ पचास- साठ साल की किसी महिला की आँखों में देखता हूँ वो धूप जिसमें कि वो
अपने संदूक से कपड़े निकाल कर सुखाती है कि शायद किसी दिन उनका देश तिब्बत आज़ाद हो
जाएगा और वो वहाँ लौट जाएँगे तो मुझे उस धूप की याद आती है हमेशा ‘मजनू का टीला’ से” । फिल्मों
के गीतकार राज शेखर अपनी बात, अपनी तरह की बात करने के लिए आ पहुँचते
हैं ‘ मजनू के टीले’ पर
। दिल्ली वाले मजनू के टीले पर नहीं, बल्कि इस पर, जैसा कि वो कहते हैं –
“ ये जो कुछ भी है
कविता
कविता- कहानी के बीच की
कुछ चीज़ें
कुछ घटनाएँ
संस्मरण
बतकही
इस सब को एक नाम दिया है –
‘ मजनू
का टीला’” ।
मजनू का टीला एक कार्यक्रम है जिसे राज शेखर स्वरूप भात्रा के साथ
मिलकर प्रस्तुत करते हैं । ज्यादातर इसमें राज शेखर की लिखी हुई कविताओं की
प्रस्तुति होती है । स्वरूप इस प्रस्तुति में संगीत के स्वर भरते हैं अपने गिटार
से और कभी- कभी गायन से । फिल्म निर्माण की बंदिशों के बाहर राज शेखर का कवि मन
अपने इसी मजनू के टीले पर आकर आराम करता है, उडान
भरता है नए क्षितिजों की तरफ़ । आज कविताएँ मनों नहीं टनों के हिसाब से लिखी जा रही
हैं । उनमें अच्छी कविताओं का प्रतिशत कितना होता है, कहने की आवश्यकता नहीं । और उन कुछ अच्छी कविताओं में कितनों का पाठ, खुद कवियों द्वारा भी, अच्छे से निभ पाता है, इसको
भी अलग से कहने की जरूरत नहीं । अमिताभ बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का
पाठ किया है, जो एक रिकॉर्ड के रूप में आया था ‘ बच्चन की आवाज़ में बच्चन’ । उस बारे में हरिवंश राय
बच्चन की टिप्पणी की थी - “ कविता लिखना कला है तो कविता पढ़ना भी
कला है । अच्छी कविता यदि अच्छी तरह से पढ़ी जाए, यानी कलापूर्ण ढंग से,
तो निश्चय वह अधिक प्रभावकारी सिद्ध होगी” । ‘मजनू
का टीला’ में प्रस्तुत कविताएँ लिखने और पढ़ने दोनों ही कलाओं
के कारण मन मोह लेती हैं । अच्छी कविता की अच्छी प्रस्तुति ।
राज
शेखर ने कहा है कि ‘मजनू का टीला’ कविता- कहानी के
बीच की भी कुछ चीज़ है । कहानी सुनाने वाला तत्त्व उनकी कविताओं में आसानी से
लक्षित किया जा सकता है । और मजनू का टीला की प्रस्तुतियों में आप आसानी से इस बात
को देख सकते हैं कि सिर्फ एक कहानी कहने वाला ही नहीं फिल्मों का एक निर्देशक भी
वहाँ उपस्थित है । वे जिस तरह से पाठ के प्रवाह को संचालित करते हैं , जिस तरह से संगीत का इस्तेमाल किया जाता है वह आपके सामने एक पूरी पिक्चर
को सामने रख देता है । उनकी कविताओं के शीर्षक भी इस बात की तस्दीक़ करते हैं । कुछ
उदाहरण - ‘ प्रेम
बारिश और इन्क़लाब’ , ‘ Once in a Blue Moon’, ‘नमकीन
हवा’, ‘ यक़ीन’ । कविता की छंदों से
मुक्ति के बाद कविता के पाठ, उसकी अदायगी का महत्त्व बहुत
बढ़ गया है । छपी हुई कविता को पढ़ते समय लय को पकड़ पाना आसान नहीं है । और यह भी तय
है कि लय में भी कविता के अर्थ के कुछ हिस्से छिपे होते हैं । इसीलिए किसी कवि से
उसकी कविता का पाठ सुनना एक अलग ही अनुभूति देता है । ऊपर चर्चा की गई कविता ‘
प्रेम बारिश और इन्क़लाब’ की कुछ पंक्तियाँ
ऐसी हैं –
पता है मुझे
कविता से
कम से कम मेरी कविता से
न निज़ाम बदलता है
न प्रेमिका मानती है
न ही बादल आते हैं
बहेलिया नहीं बदलता अपना मन
कुल्हाड़े लिए हाथ नहीं रुकते
कोई इन्क़लाब कहाँ आ पाता है
इन कविताओं से ?
इन कविताओं को
सिर्फ पढ़ते हुए जो अर्थ और भाव पकड़ में आते हैं, वही जब इसको आप
यूट्यूब पर प्रस्तुत किया जाता देखते हैं तो उसका एक अलग ही असर, अलग ही रंग चढ़ता है ।
राज
शेखर की कविताओं को देखते- सुनते और बाद में फिर गुनते हुए इस बात पर ध्यान जाता
है कि वे लगातार उम्मीद की उस धूप की तलाश, उसकी उम्मीद में हैं
जिसकी चर्चा वो ‘मजनू का टीला’ की बात
के साथ करते हैं । ऐसी कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं – “
क्या पता / अगर ज़िंदा रह गया/ तो/ प्रेम बारिश और इन्क़लाब/ सब आ जाए किसी दिन” । “ ताकि
सूखती धोती पर / एक बाबा और पोते के बीच / बातचीत हो अपने पुरखों पर” । या
फिर यह पंक्ति “ और
माँ/ जब पचफोरन से दाल छौंकती है/ तो लगता है/ सब ठीक हो जाएगा” ।
उम्मीद की धूप बार- बार जगह- जगह राज शेखर की कविताओं में आती रहती है।
राज
शेखर की कविताओं में संगीत के लिए खास जगह रहती है । लगता है कि राज
शेखर एक निर्देशक की नज़र से अपनी कविताओं और उनकी प्रस्तुति को भी देखते हैं । इस
कारण उनकी प्रस्तुति एक अपनी संपूर्णता, अपने पूरे पैकेज के
साथ उपस्थित होती है । कई कविताओं में स्वरूप के गुनगुनाने के अंश होते हैं जो
कविता को और भी मार्मिक बना देते हैं । Once
in a Blue Moon के अंत में बांग्ला गीत की कुछ पंक्तियों को स्वरूप द्वारा गुनगुनाना या
फिर किसी लंबे सूने रस्ते पर के अंत में ‘ ओ निर्मोही’ का गुनगुनाया जाना । ‘सब
ठीक हो जाएगा’ कविता के अंत में स्वरूप छठ के गीत की धुन गुनगुनाते
हैं, यह भी इस छोटी -सी कविता को भाव-विस्तार देता है । जिस पैकेज की बात कर रहा हूँ , उसके एक शानदार उदाहरण के लिए कम से कम एक
बार ‘जंतर मंतर पर
लोरी’ को ज़रूर
सुनना चाहिए । यूट्यूब पर उपलब्ध है । उसमें भी अगर GIFLIF
वाला वीडियो देखा जाए तो उस असर को ज्यादा समझा जा सकेगा जो राज शेखर
की यह कविता/ गीत या कहानी बल्कि क्या नहीं, मन पर डालती है । ‘कुइयां-मुइयां’ गीत भी इसी तरह का है । इसकी संगीतात्मकता
देखने योग्य है । इसकी चार पंक्तियों को पेश करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा –
चंदा के पंजे में
मेघों का छत्ता है
छत्ते में मम मम मम
महुए का पत्ता है
पत्ते से हरे भरे
टहनी वाले पेड़ हम
ऊपर कहा गया है
कि मजनू संज्ञा भी है, विशेषण भी और कभी- कभी क्रिया भी । बृहत् हिन्दी
शब्दकोश बताता है कि मजनू संज्ञा है यानी प्रेमकथा लैला- मजनू का नायक । मजनू
विशेषण भी है जिसका अर्थ हुआ पागल, बावला, आशिक, किसी पर मर मिटने वाला । शब्दकोश यहीं पर रुक
जाता है । अब इसे हम मजनू का टीला से जोड़कर भी देखें । एक ‘मजनू
का टीला’ वो है जो दिल्ली में है यानी कि संज्ञा । एक ‘
मजनू का टीला’ राज शेखर का जो कि अब विशेषण हो
गया है । अपने हुस्नो- अंदाज़ की वजह से । अब रही बात क्रिया बनने की । मजनू होना
या मजनू- सा होना/ दिखना अलग बात है लेकिन
कभी- कभी आदमी मजनू बनता जाता है, मजनू बना रहता है यानी कि
वह कर्म नहीं क्रिया हो जाता है । ठीक वैसे ही राज शेखर ‘मजनू
का टीला’ बनाते हैं, बनते हैं ,
बने रहते हैं – ‘ वर्क इन प्रोग्रेस’ । संज्ञा या विशेषण हो जाना, रूढ़ हो जाना है जो कवि
राज शेखर को पसंद नहीं । तभी तो वे कहते हैं –
मैं प्रतिक्रिया था
अब संज्ञा हूँ
मेरा विशेषण बन जाना
मेरी उपलब्धि होगी
पर मुझे विशेषण नहीं बनना
क्रिया होना है
क्योंकि वो मेरी संभावना है
और
हम सब में
ये संभावनाएँ हैं !
इसी संभावना, इसी धूप की याद उन्हें ‘ मजनू का टीला’ से आती है और हमें उनके मजनू के टीले से।
पुराने
कवियों के बारे में सुनता था कि फक्कड़पन और मस्ती उनका स्वभाव होता था। राज शेखर
ने भी क्या वही स्वभाव पा लिया है? न कविताओं को सामने
लाने की तत्परता , न उन्हें सँजोने की सजगता । इनका जो मजनू
का टीला है या और भी जो कविताएँ हैं वो ऐसे ही बिखरी पड़ी हैं , यूट्यूब पर , ट्विटर पर, फेसबुक
पर । ऐसी ही एक बहुत खूबसूरत कविता ‘छठ’ पर है । उसे ढूँढ कर सुनिएगा । क्या ऐसी कविताओं को सँजो कर नहीं रखा जाना
चाहिए ? लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि राज शेखर किसी ह्ड़बड़ी
में, किसी आतुरता में आ जाएँ । वे खुद भी इस बात को
भली-भाँति समझते हैं । अपनी एक कविता में अपने पाठकों, श्रोताओं,
दर्शकों से वे कहते हैं – “ ...
पर आज तुमने एक शर्त रखी/ तभी मिलेगा तुम्हारा प्यार/ तभी बना रहूँगा/ तुम्हारा
कलाकार” ।
फिर इसी कविता में आगे कहते हैं – “ तो मैं इन्कार करता हूँ/ इस एकतरफा/
मोल-भाव से, बारगेन से/ मुझे तुम्हारी शर्तें कबूल नहीं हैं” ।
लेकिन वे अपने पाठकों के प्रति प्रतिबद्ध हैं , तभी इस कविता के अंत
में वे कहते हैं –
तुम जानो
क्या रिश्ता रखना है मुझसे
मेरी बात और है
मैंने तो मुहब्बत की है !
किसी कवि को
सँभालना पाठकों, श्रोताओं का भी काम है और प्रकाशकों का भी । यह बात
समझ लेने में देर नहीं की जानी चाहिए ।
Begaluru Poetry Festival,
2016 से ‘मजनू का
टीला’ की औपचारिक
प्रस्तुति शुरू हुई । फिर बहुत सारी जगहों, बहुत सारे मंचों तक
यह मजनू का टीला पहुँचा । कोरोना के लॉकडाउन के पहले मुम्बई के प्रतिष्ठित पृथ्वी
थियेटर में इसकी दो हाऊसफ़ुल प्रस्तुतियाँ हुईं । उम्मीद करें कि अब स्थितियाँ
बेहतर होती जाएँगी और यह भी कि कवि भले ही फक्कड़ हो जनता उसके प्रति लापरवाह नहीं
होगी । उम्मीद की गवाही देती राज शेखर की इन पंक्तियों के साथ आपको छोड़ जाता हूँ
-
यक़ीन
सबसे स्याह रात के पूरब से
आएगा सबसे लाल सूरज
बस, तुम्हारी उम्मीद भरी आँखों के लिए ।
अंत में एक
डिस्क्लेमर कि कविताओं के जो उद्धरण ऊपर दिए गए हैं , उन्हें सुन कर लिखा गया है , इसलिए पंक्तियों का
संयोजन इन पंक्तियों के लेखक के हिसाब से दिया गया है ।