शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

आलोचना के इलाके में एक कवि की अड्डेबाजी

 



आलोचना के इलाके में एक कवि की अड्डेबाजी

[आलोचनाअंक-75 में प्रकाशित कवि-आलोचक निशान्‍त की किताब कविता पाठक आलोचनाकी समीक्षा ]

 

जो लोग महाविद्यालयों/ विश्‍वविद्यालयों में हिन्‍दी साहित्य के विद्यार्थी नहीं हैं, जो हिन्‍दी के डॉक्टर नहीं बन चुके हैं, या बनने की प्रक्रिया में नहीं हैं उनके के लिए आलोचना एक अबूझ पहेली-सी ही है । एक गिरा गम्भीर, एक भार अवहनीय । जबकि आलोचना साहित्य के प्रति एक दृष्‍टि विकसित करने का एक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक साधन है। दरअसल आलोचना का ऐसा प्रारूप बना हुआ है कि उसमें प्रवेश की पात्रता ही है वीरोचित धैर्य और पदोचित गांभीर्य । यदि आप धैर्य और गंभीरता के साथ इस क्षेत्र में नहीं उतरते हैं तो फिसलना और मैदान छोड़कर भाग खड़े होना अवश्यंभावी है । आलोचना के मैदान के बाहर से हिन्‍दी कविता का कैच पकड़ना आसान है, मैदान में उतरना कठिन । और अगर मैदान में उतर भी गए तो सूर्य कुमार यादव की तरह एक छक्के में जाती हुई गेंद को कैच करना तो असंभव ही है । लेकिन यह संभव होता हुआ है दिखता है सेतु प्रकाशन से आई आलोचना-पुस्तक, जो अब देवीशंकर स्मृति सम्मानसे प्रतिष्ठित भी है, ‘ कविता पाठक आलोचना  में । लेखक हैं तीन कविता-पुस्तकों के कवि निशांत । आलोचना की किताब उपन्यास जैसी रोचकता के साथ लिखना आसान काम तो नहीं ही है, वह भी तब जब लेखक बाकायदा एक विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी साहित्य का अध्यापक भी हो। किताब की भूमिका शुरू करने से पहले  में किताब के बारे में लेखक की दो उक्तियाँ किताब का टोन तय कर देती हैं – 1) एक कवि के प्रश्‍नों का उत्तर उसी के आत्मन् द्वारा । 2) इसे लिखते हुए बांग्ला में जिसे अड्‍डा मारना ( बैठकर खूब बातें करना) कहते हैं, ऐसा ही सुख मिला ।  पाठक इन दोनों बातों से सहमत हुए बिना नहीं रह सकता ।

आलोचना के इतना भारी होने या भारी महसूस होने का एक कारण तो उसका टेक्स्टबुकीयहो जाना है । टेक्स्टबुक की किताबों का रंग-रूप ही पाठकों को विकर्षित करने के लिए काफी है। यह ठीक बात है कि हिन्‍दी के जो विधिवत विद्यार्थी या पढ़ने-पढ़ाने वाले हैं, उनके लिए विशेष अनुशासन की आवश्यकता है भी । एक आम हिन्‍दी प्रेमी के लिए भी आलोचना की पुस्तक जरूरी है, ताकि वह हिन्‍दी साहित्य की अपनी परंपरा और विशेषताओं से परिचित हो सके । पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाला व्यक्ति एक समय के बाद स्वत: गुरुतर विषयों की ओर आकर्षित होता है । इस आकर्षण को रुचि में बदलने के लिए उसे ऐसी सामग्री हस्तगत होनी चाहिए जो उसे  बोझिल न हो । एक आम हिन्‍दी प्रेमी या पाठक आलोचना की ओर तभी आएगा जब विषय को उसके सामने रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जाए । निशान्‍त अपनी किताब में यह काम कर गए हैं ।

एक और बात यह लगती है कि जो पारंपरिक रूप से चली आ रही आलोचना की पुस्तकें हैं उससे हटकर भी पुस्तकें आएँ । वैसे भी एक कालखंड गुजर जाने के बाद चीजों को एक अलग दृष्‍टि से, अलग प्रकाश में देखा ही जाना चाहिए । जो पारंपरिक या स्थापित आलोचना की पुस्तकें हैं वे पाठक को पढ़ाने लग जाती हैं । निशान्‍त की किताब अलग रास्ता पकड़ती है । यह पाठक के साथ-साथ चलती है । एक सामान्य रुचि रखने वाला पाठक भी कुछ न कुछ तो अपनी राय बनाता चलता है । कविता पाठक आलोचनामें पाठक यह पाता है कि किताब उसके साथ-साथ चल रही है, बल्कि जिन प्रश्नों से वह दो-चार हो रहा है, उनके बारे में जैसा सोच रहा है, किताब भी उसी रास्ते चल रही है । इस किताब की यह एक बड़ी सफलता है । इस बात को इस तरह से भी कह सकते हैं कि आमतौर पर आलोचना की मेज की जिस तरफ आलोचकगण बैठते हैं, निशान्त उसकी दूसरी तरफ से आलोचना में प्रवेश करते हैं । एक छात्रोचित/पाठकोचित उत्साह, उत्सुकता और जिज्ञासा के साथ ।

आलोचक निशान्‍त कवि भी हैं । बल्कि कवि ही आलोचक है । इसलिए भी आलोचना के क्षेत्र में उनके प्रवेश का रास्ता आलोचना के सामने से आता हुआ दिखता है । हालाँकि इस किताब में निशान्‍त अपने को युवा कवि मानने से इन्‍कार करते हैं, लेकिन हैं वे युवा ही । इस किताब की प्रवाह-गति तो यही कहती है । इस किताब की जो पहली बात पाठक की समझ में आती है वह यह कि यह किताब एक फ़ास्ट पेस्डकिताब है । पाठक खुद को रोक ही नहीं पाता है। बस दो पेज और, दो पेज और करते-करते किताब को पूरा पढ़ जाता है । किताब खुद को पढ़वा ले जाती है । दूसरी बात जो इस किताब में है वह यह कि लेखक लगातार बात कर रहा है । जैसा भूमिका में उसने कहा भी है कि “ एक कवि के प्रश्नों के उत्तर, उसी के आत्मन् के द्वारा ।” पूरी किताब इसी बोलचाल के अंदाज में संवाद करती है । किताब चूँकि संबोधन के रूप में लिखी गई लगती है, और पूरी किताब में लेखक लगातार कविता पर सोचता जा रहा है , कुछ बातों की पुनरावृत्ति होना लाजिमी है । लेकिन यह पुनरावृत्ति खटकती नहीं है । कविता-पाठ के दौरान कवि द्वारा पंक्तियों को दुहराना कहाँ खटकता है, यदि वह उचित समय और तरीके से हो। 

आलोचक निशान्‍त को जो भी कहना है वह उन्होंने बड़ी पारदर्शिता के साथ कहा है । पारदर्शिता एक दुर्लभ गुण है आज के समय में । कहीं भी आप यह महसूस नहीं करते कि कुछ छुपा कर, कुछ घुमा कर बात कही जा रही है । यों तो हर लेखन ही नाना पुराण निगमागम सम्मतं होता है, पर आलोचना विशेष कर । इस किताब को पढ़ते हुए भी यह महसूस किया जा सकता है। बात यह है कि आपने बातों को कितना आत्मसात कर के, कितना अपना बना के प्रस्तुत किया है कि बात नई-सी लगे, अपनी-सी लगे ।

एक कवि जो कविता के परिदृश्य के बारे में लगातार सोच रहा है, जब अपनी बात कहता है तो सिर्फ परकी बात नहीं करता आत्मकी भी बात करता है । निशान्‍त के यहाँ आलोचना में सिर्फ बाहर ही नहीं देखा जा रहा, लगातार अंदर भी देखा जा रहा है । स्वयं को और अपनी पीढ़ी को । आत्मालोचना इस किताब में हर जगह उपस्थित है । खास तौर पर किताब के तीन अध्यायों -- समकालीन हिन्‍दी कविता’, ‘सिंहावलोकन : कविता, समय, समाज और कविऔर कविता का शून्यकाल और क्रमभंग कवितामें। जितने मन से और जितनी बेबाकी से निशान्‍त ने लिखा है, वह शायद एक कवि ही लिख सकता है । निशान्‍त के आत्मालोचक मन को समझने के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्ति पर दिए गए उनके वक्तव्य और उनकी मिठाईलाल : मेरा एक नामशीर्षक कविता को भी पढ़ कर देखिए ।  निशान्‍त ने इक आग का दरिया है, और डूब के जाना हैको याद किया है, पर मैं समझता हूँ ज्यादा मौजूँ नरेश सक्सेना की यह पंक्ति है – “ नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना ।” निशान्‍त ने कविता में धँस कर कविता के बारे में लिखा है ।  शुरु के दस अध्यायों में लेखक ने कविता और उसके वर्तमान परिदृश्य पर दिल खोलकर बात की है । एक कविता की पंक्ति याद आ रही है - “ आज के कवि बातों को खोलकर कहते हैं” ।  इन दसों अध्यायों के शीर्षक इस तरह हैं – प्रकृति और कलाकृति’, ‘रचनाकार का आलोचक होना’, ‘कविता कहाँ है’, ‘कविता लिखने में मेहनत नहीं लगती’, ‘छन्‍द और तुक का जाना’, ‘कविताई ( साहित्य) और पाठक’: उर्फ़ एक टका मुर्गी, नौ टका पकड़ाई’, ‘समकालीन हिन्‍दी कविता’, ‘सिंहावलोकन : कविता, समय, समाज और कवि’, ‘कविता का शून्यकाल और क्रमभंग कविता’, और आलोचना-समीक्षा के बीच कविता।  अगले दो अध्याय स्त्री-मुक्ति की आकांक्षाएवं आधी दुनिया में पूरी दुनिया स्त्री-मुक्ति और स्त्री कविता के चुनिंदा हस्ताक्षरों पर हैं । किताब के अंतिम दो अध्याय, ‘वह जवान होकर बूढ़ों की तरह लिखता थातथा उम्मीद अब भी बाकी है  किताब के स्तर को कुछ दर्जा ऊपर उठा देते हैं । ये दो लेख एक आत्मीय संस्मरण, लेखक का आत्मनिरीक्षण और हिन्‍दी कविता की स्थिति का आँखें खोल देनेवाला वाला जायजा हैं। 

   आलोचक-कवि निशान्‍त की चिंता में साहित्य का लोकप्रियकरणहै । लेखक यह समझता है कि साहित्य को लोकप्रिय करने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वाविद्यालयों से ही उनके विद्यार्थियों के अन्‍दर साहित्य के बीज डालने की आवश्यकता है । वे प्रश्न उठाते हैं कि क्या लोकप्रिय धारा को साहित्यिक धारा के करीब लाने के लिए जनता के बीच जा हम रचनाकारों-सम्पादकों को इसके लिए पहल नहीं करनी चाहिए?’ आज की युवा पीढ़ी के बीच हिन्‍दी साहित्य, और उसमें भी कविता की कितनी पैठ है यह किसी से छिपा नहीं है । सीबीएसई और आइसीएसई बोर्ड में प्लस टू के स्तर पर हिन्‍दी पढ़ना अनिवार्य नहीं है । उसके पहले की कक्षाओं में भी हिन्‍दी के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का जो स्तर है वह किसी के रडार पर ही नहीं है । और जो (लोग) कवि, लेखक , आलोचक हो गए हैं वे धीर-गंभीर चिंताओं-समस्याओं में इतने निमग्न हैं कि हिन्‍दी साहित्य को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का जिम्मा उठाना एक कमस्तरीय बात हो गई लगती है । निशान्‍त द्वारा बच्चों तक पहुँचने वाली बात का आज के समय से अधिक महत्त्व शायद कभी नहीं था ।

निशान्‍त इस किताब में एक जगह कहते हैं “ कवियों-कलाकारों को अपार धैर्यशील होना चाहिए । धीरज, कला का एक अपरिहार्य गुण है।” लेकिन समय “टू मिनट्स मैगी वाला हो गया है । लेखक तो लेखक, निशान्‍त के ही शब्दों में, पाठक भी तुरन्‍ता पाठकहो गया है । इस तरह की बहुत-सी बातें  इस किताब में हैं । पाठकों की उपलब्धता, रचानाकार एवं पाठक का आलोचक होना, ‘पन्‍द्रह सेकेंड की लोकप्रियता वालेसोशल मीडिया के मार्फत स्थाई साहित्य के प्रांगण में पहुँचना, असली और नकली रचना – ऐसी जाने कितनी चिंताओं पर बात करती है यह किताब । बड़ी रचनाओं के विषय में वे कहते हैं “ वास्तव में बड़ी रचनाएँ वन वेनहीं टू वे होती हैं । जितना उत्सुकता का शमन करती हैं, उतना ही उनका निर्माण ।” कविता पाठक आलोचनाको भी यही करता हुआ पाएँगे । निशान्‍त के लेखन की यह खूबी है कि यह पाठक को आमंत्रित करता है सहभागिता के लिए। उन्होंने अपनी बातों को अपने तर्कों के साथ सामने रख दिया है । पाठक भी अपने तर्क निकाले और लेखक के तर्कों से पंजा लड़ा कर देखे । आलोचक और पाठक दोनों की ही ताकत बढ़ेगी ।  

इस किताब के हाइ प्वाइंटकी तरह अगर देखना हो तो इस किताब में सन् पैंसठ के बाद जन्म लेने वाले कवियों या दूसरे शब्दों में उन्नीस् सौ नब्बे से सन् दो हजार तक की कविताओं के विषय में रखे गए विचार हैं । ये विचार बहुत बेबाकी और दिलेरी के साथ रखे गए हैं । निशान्‍त खुद उस पीढ़ी के बाद वाली पीढ़ी के कवि हैं । ऐसा हो सकता था कि बातें ईर्ष्या एवं पूर्वाग्रह से ग्रसित या अमर्यादित हो जाएँ । लेकिन उन्होंने बहुत ही तर्कपूर्ण तरीके से अपनी बातों को पेश किया है । किसी का सहमत या असहमत होना अलग मुद्दा है । आलोचना रास्ता दिखाती है । अपनी मंजिल तक पहुँचना पाठक का काम है । कोई भी मंजिल सही या गलत नहीं होती , अलग भले ही हो । आलोचना संवाद का, चर्चा का रास्ता खोलती है , निशान्‍त की यह किताब भी । वैसे भी दोस्त आलोचनासे किसी का भला नहीं होने वाला। दुश्मन आलोचनासे भी !

इस किताब के अंतिम दो अध्याय संभवत: इस किताब के सबसे अच्छे हिस्से हैं । दो दिवंगत संभावनाशील युवा कवियों पर लिखे गए बहुत आत्मीय और मार्मिक संस्मरण । ये संस्मरण सिर्फ दो मित्रों के स्मरण- मात्र नहीं हैं । इन संस्मरणों में एक युवा कवि का संघर्ष, उसकी रचनाशीलता, उसके भय, उसका एक युवा से एक कवि बनना, एक ही समय के दो कवियों का व्यक्तित्व-वैविध्य, सब एक साथ पाठक के सामने प्रस्तुत होते हैं । इन सबके बीच निशान्‍त हमेशा एक सहयात्री के रूप में खड़े हैं ।  वैसे सहयात्री नहीं कि “ ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह” बल्कि वैसे, जो इस शेर के अगले मिसरे की ख़्वाहिश को पूरा करते चारासाज़और ग़मग़ुसारहों !

आज की कविता पर बात करते हुए निशान्‍त लिखते हैं – “ ये पढ़े-लिखे, मध्यवर्गीय लोग हैं और आज की कविता पढ़े लिखे लोगों का शगल है ।” कुछ इसी तरह की बात सुधीश पचौरी अपनी पुस्तक नयी साहित्यिक सांस्कृतिक सिद्धान्‍तिकियाँमें लिखते हैं । वे लिखते हैं –“ जिसे परिनिष्‍ठ साहित्य कहा जाता है उसे वही कर पाता है जो उसे अफोर्ड कर पाता है । इसीलिए खाते पीते मध्यवर्ग के फुरसत के वक्त का शौक है । इसीलिए वह मध्यवर्ग का मध्यवर्ग के द्वारा मध्यवर्ग के लिए होता है भले ही लेखक उसे जनता के लिए लिखने का दावा करता रहे ।”  आलोचना के विषय में भी इसी बात को थोड़ा बदल कर कहा जा सकता है कि आलोचना का काम आलोचक/अध्यापकवर्ग का आलोचक/अध्यापकवर्ग  के द्वारा आलोचक/अध्यापकवर्ग के लिए होता है।  कविता पाठक आलोचनाजैसी किताब आलोचना का थोड़ा सरलीकरण, थोड़ा लोकप्रियकरण करती है । यही इसका अभीष्‍ट भी है । यहाँ श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी का एक कथन उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा । इसी उद्धरण के साथ बात खत्म करूँगा । वे जिस जकड़न की बात करते हैं, निशान्‍त की यह किताब उससे निकलने की सार्थक कोशिश है ।  उन्‍होंने (बेनीपुरी जी ने)  बात कविता के संबंध में कही है लेकिन आलोचना के लिए भी उतनी ही सही बैठती है –

“ पहले दरबारों के लिए कविता की जाती थी ; अब कॉलेजों के लिए कविता लिखी जाने लगी है ! कविता वह, जब राजासाहब झूम उठें ; अब कविता वह, जब प्रोफेसर साहब के रसहीन हृदय को प्रगट करनेवाले उनके झुर्रीदार चेहरे पर एक हल्की-सी चमक आ जाय ! और, वह ऐसी पेचीदा हो, जिसकी गुत्थियाँ सुलझाकर हमारे प्रोफेसर दोस्त अपने ज्ञान की धौंस छात्रों पर जमा सकें ! तभी तो उसे वह पाठ्‍य-पुस्तकों में स्थान देंगे !”


‘बख़्तियारपुर’ के बहाने


               बख़्तियारपुरके बहाने

( अन्‍वेषा वार्षिकी 2024में प्रकाशित विनय सौरभ के कविता-संग्रह बख़्तियारपुरकी समीक्षा )

 

कवि विनय सौरभ के बहुप्रतीक्षित और अब बहुचर्चित कविता संग्रह बख़्तियारपुरसे गुजरते हुए खुद को उन कविताओं के बीच खड़ा पाया । मेरा विश्वास है कि रुचि लेकर पढ़ने वाले हर पाठक का अनुभव ऐसा ही होगा ।  बख़्तियारपुरकी कविताएँ पढ़ लिए जाने के बहुत देर बाद तक साथ रहती हैं ।

 किसी भी साहित्यिक कृति की तरह इस संग्रह को भी स्वतंत्र ( स्टैण्ड अलोन) रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए । कोई भी अच्छी रचना एकांगी नहीं होती । उसमें उसका समय बोलता है ।

 देखा जाए तो  एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं कवि विनय सौरभ । विनय सौरभ का जन्म 1972 का है। उनको  1965-75 के बीच जन्म लेने वाली पीढ़ी का कहा जा सकता है । यह वह पीढ़ी है जिसे हिन्दी खड़ी बोली के प्रति जागरुक किया जा रहा था।  इस पीढ़ी के इस दुनिया में आँखें खोलने के समय जो कुछ चीजें हो रहीं थीं, मुख्यत: भारत के संदर्भ में, उन पर एक नजर डालते हैं ।  आजादी के पहले, और उसके ठीक बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास हर ओर हो रहे थे । हिन्दी के कई, बल्कि सारे ही बड़े लेखक अपनी बोलियों/ मातृभाषाओं से ऊपर हिन्दी को रख रहे थे । भाषाओं के आधार पर 1956 में राज्यों का पुनर्गठन किया गया। बाद के दिनों में अंग्रेजी सारी भाषाओं पर हावी होती चली गई । बिहार के परिदृश्य को लेकर चलें तो अस्सी के दशक से अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का चलन बढ़ने लगा। छोटे शहर शिक्षा के केंद्र के तौर पर पिछड़ने लगे।

 यह समय भारतीय अर्थव्यवस्था में हिंदू विकास दरका समय भी था, जिसमें 1991 में शुरू किए गए उदारीकरण के बाद उछाल आया । भारत एक निम्न-मध्यवर्गीय आय वाला देश था । यानी आमजन की आमदनी इतनी ही थी कि रोजमर्रा की जरूरतें भी बमुश्किल पूरी हो पाती थीं । यह पीढ़ी कुछ छूट जाने के, पीछे रह जाने के, जीवन में कुछ अभाव रहने के भाव को साथ लिए चलती है। ऐसा न भी हो तो भी दिखावे- प्रदर्शन वाली यह पीढ़ी नहीं है। एक छोटी-मोटी नौकरी का भी बहुत महत्त्व था । नौकरी पाना और निभाना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी ।

 यह पीढ़ी फिर भी संयुक्त परिवार वाली पीढ़ी है ।  नाते-रिश्ते अहमियत रखते हैं, उनको निभाए जाने की कोशिशें होती हैं ।  हालाँकि सुविधाओं और साधनों के बढ़ने के साथ संयुक्त परिवार की जरूरत ही शायद कम होती चली गई । सीमित आय और संसाधन ने संभवत: इस पीढ़ी को बहुत मुखर नहीं होने दिया । पारिवारिक जिम्मेदारियाँ/ तानाबाना इस पीढ़ी का सत्य है।

 यह तो कुछ बातें हुईं उस पीढ़ी की जिसके विनय सौरभ हैं । इतनी बातें इसलिए कि किसी भी व्यक्ति के सोचने-समझने का तरीका, उसकी संवेदनशीलता , उसकी प्रतिक्रिया की प्रक्रिया उसके परिवेश से प्रभावित होती है । कवि विनय सौरभ भी अपने परिवेश, अपने जीवन की घटनाओं से प्रभावित हुए ही होंगे । संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए आप पाते हैं कि उनके जीवन में पाँच प्रिय व्यक्तियों की मृत्यु का दु:ख उपस्थित है । आप यह भी गौर करते हैं कि इनमें से किसी की भी मृत्यु सहज/स्वाभाविक नहीं है, और इसलिए इन सभी आत्मीय जनों को खोने की पीड़ा बहुत तीखी है, जिसे पाठक भी महसूस कर सकता है ।

  इस भूमिका के बाद अब बातें संग्रह बख़्तियारपुरकी । यह कहा जा रहा है कि विनय सौरभ स्मृतियों के कवि हैं, नॉस्टेल्जिया में रहने वाले कवि हैं । ऐसा कहने के पीछे जो मुख्य आधार है, वह कवि ने ही उपलब्ध कराया है । इस संग्रह में कवि ने स्मृति और याद’  इन दोनों शब्दों का कुल सत्तर बार से भी ज्यादा प्रयोग किया है । संग्रह में अट्ठासी कविताएँ हैं । लेकिन इन शब्दों के प्रयोग आधार पर विनय सौरभ को किसी खाँचे में डालना उचित नहीं । बार-बार इन शब्दों का आना शायद भ्रामक है ।  ऊपर जब विनय सौरभ की पीढ़ी की बात हो रही थी तो वहाँ एक बात स्पष्ट नहीं हुई शायद । वैसे तो हर पीढ़ी अलग- लग कालों की संधि पर खड़ी होती हैइस पीढ़ी का संधि-स्थलइसलिए खास है क्योंकि इसके बाद दुनिया की आर्थिक और तकनीकी प्रगति की गति तीव्रतम स्तर पर है । तो यह पीढ़ी अपने छूटते हुए वर्तमान, अपने पीछे छूट जाने की कसक को दर्ज करना चाहती है । विनय सौरभ की कविताओं को हमें इसी रूप में देखना चाहिए ।

 विनय सौरभ की कविता में पिता आते हैं बार-बार । छायावाद/छायावादोत्तर काल के बाद के कवियों ने जैसे माँको याद करते हुए कविताएँ लिखी हैं,  पिता को कविता में आत्मीयता के साथ याद किया जाना संभवत: इनकी( विनय सौरभ की) पीढ़ी के कवियों की एक खासियत है । प्रेम रंजन अनिमेष, संजय कुंदन,  नीलेश रघुवंशी और जितेन्‍द्र श्रीवस्तव ऐसे कुछ नाम हैं जिनकी की कविताओं में पिता की आत्मीय उपस्थिति है । प्रसंगवश यह उल्लेख कर दूँ कि स्मृतिऔर यादके बाद पिताशब्द की आवृत्ति संग्रह की कविताओं में सबसे ज्यादा है । इसी तरह घर’,  जगहों के नाम और याद – ये शब्द भी विनय सौरभ और ऊपर उल्लिखित कुछ कवियों की कविताओं में बार-बार आते हैं । इस पीढ़ी के कवियों की कविताओं पर यदि समग्रता से विचार किया जाए, तो संभव है किसी प्रवृत्ति को रेखांकित किया जा सके ।  

 विनय सौरभ  अपनी कविताओं में अपने समय को दर्ज कर रहे हैं, अपनी पीढ़ी के इतिहास को, उसके सत्य को दर्ज कर रहे हैं। कवि के हिस्से में बड़े-बड़े शहर नहीं हैं ।  यात्रा करने के लिए भी बड़ी मुश्किल से रेल का स्लीपर क्लास है। नौकरी एक आवश्यक आवश्यकता है। कवि आसपास की विसंगतियों को भी देख-समझ रहा है और उसे दर्ज कर रहा है। परिवार और उसके आसपास के लोग, आसपास की जगहें उसकी चेतना को बना रही हैं, प्रभावित कर रही हैं ।  दोस्तों में बेफिक्री बाकी है। यहाँ तक कि दोस्त के पिताजी तक भी दोस्त पहुँच सकता है, दोस्त की बात रखने के लिए। गौर कीजिए तो यह विनय सौरभ की नहीं, उनकी पीढ़ी की बात है ।

  'मन की नहीं, जन की कविता हो' यह एक मुहावरा अक्सर दुहराया जाता है । जन की कविता, बिना मन की कविता हुए कैसे संभव है? दिनकर ने कहा है कि कवि क्या कहता है, यह उनकी नजर में गौण है।  कवि जो कहना चाहता है उसे वह ठीक ठीक कह पा रहा है या नहीं ,  यह देखने की बात है। उनका ज़ोर अभिव्यक्ति की सफाई पर है। हर व्यक्ति अपने हिसाब से चीजों को देखता है और उससे प्रभावित होता है ।  कविता में कवि ने क्या देखा है, हमें उस पर ध्यान देना चाहिए, बजाय इसके कि उसने क्या नहीं देखा, या वह क्या नहीं देख सका है । कविता में विचार का होना अच्छी बात है, लेकिन विचार को भाव के साथ इस तरह सना हुआ होना चाहिए कि निगलने में आसानी हो। अर्जित  किए हुए विचार अच्छी तरह पका कर आत्मसात किए जाएँ तभी पच सकते हैं। वैसे भी कविता में अंत में जो बचता है वह छना हुआ भाव/ अनुभूति ही है । बच्चन ने लिखा है “ सृजनशील लेखन तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक लेखक समाजभोगी स्थिति को आत्मभोगी न बना ले, या वह किसी तीव्र अनुभूति से खुद-ब-खुद ऐसी न बन जाए ।” मुक्तिबोध ने कुछ इस तरह लिखा है “ आज ऐसे कवि- चरित्र की आवश्यकता है, जो मानवीय वास्तविकता का बौद्धिक और हार्दिक आकलन करते हुए सामन्य जनों के गुणों और उनके संघर्षों से प्रेरणा और प्रकाश ग्रहण करे, उनके संचित जीवन-विवेक को स्वयं ग्रहण करे तथा उसे और अधिक निखारकर कलात्मक रूप में उन्हीं की चीज को उन्हें लौटा दे ।” कुमार अम्बुज भी इस बात को अपनी तरह से कहते हैं –“ जीवन की अनन्‍त भंगिमाओं और उनकी जीवनियों का संक्षेपीकरण ही कविता में होता है । कविता जीवन की लय है । कविता का मुख्य सरोकार और व्यापार अपने समय की और अपने मनुष्य समाज की समीक्षा करना है, और साथ ही अनैतिकता और अमानवीयता का प्रतिरोध ।”  

 संग्रह में भी ऐसी कविताएँ हैं जो घटनाओं/विचारों से उद्वेलित हैं। लेकिन इन कविताओं में कवि शायद सायास उतरा है। ऐसी कविताओं में भी कविता की कुछ पंक्तियाँ चमक उठती हैं । ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ दो औरतों की नियति कथा से’ –

 

                        “ विडम्बना है

                          अकेली और जवान औरतों के बारे में कुछ

                          भी कहने से इस समाज का मुँह स्वाद से भर जाता है”

 इन तीन पंक्तियों से ही कवि वह चोट कर जाता है कि कविता की बाकी सारी पंक्तियों पर ध्यान न भी दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं । कविता जहाँ स्वाभाविक है/ लगती है, पाठक वहीं रुकता भी है। विनय सौरभ इस बात से बखूबी वाकिफ लगते हैं ।

 कविताओं में स्थानीय शब्दों, जगहों, नामों के कम आने की बात कही जा सकती है ।  लेकिन हमें देखना होगा कि कवि देख कहाँ से रहा है ।  और क्या उसकी दृष्टि में बाकी चीजों के लिए सहानुभूति/ सम- अनुभूति नहीं है ?  ‘कविता के नए प्रतिमानमें नामवर सिंह ने लिखा है “ कवि को बोलचाल की भाषा के निकट लाने का अर्थ केवल बोल-चाल के शब्दों को अपनाने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सही माने में आज के जीवन की धड़कन को व्यक्त करने वाली लय को गहरे स्तर पर पकड़ना है ।” कवि जितनी चीजों को देखता-सुनता है, अनुभव करता है सब तो जस की तस कविता में नहीं आ सकतीं । फिर, जैसा ऊपर भी उल्लेख किया गया है, विनय सौरभ के बड़े होने का समय वह भी है जब खड़ी बोली को सही-सही सीखना और उसका सही प्रयोग करना भी एक प्रमुख ध्येय रहा । बाद के दिनों में, अब तो बहुत सारी अस्मिताओं की चर्चा होती है । इसका अर्थ यह भी हुआ कि बहुत सारे शब्द, स्थान, नाम जो उन अस्मिताओं का आग्रह करें, साहित्य में भी आ रहे हैं । यह बात किसी मूल्यांकन के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि विनय सौरभ के मानस को पकड़ सकने के प्रयास में कही गई है ।  यह भी मन हुआ कि कवि से पूछ जाए कि संथाल क्यों, सताल क्यों नहीं ? फिर खुद ही सोचा,  क्या संताल परगना को संथाल परगना लिख देने से वह कम  संताली हो गया ?  वह भी तब जबकि सरकारी दस्तावेजों में भी संताल या संथाल के इस्तेमाल को लेकर एकरूपता नहीं है।

 फिर यह भी बात है कि मूल भावनाएँ तो वही रहेंगी। भाषा उनके प्रकटीकरण को बदल सकती है बस। यह सही है कि कवि अपने परिवेश से कट कर नहीं रह सकता है ।  लेकिन दर्ज तो वह अपने तरीके से ही करेगा ।  उसको पढ़ते समय पाठक/आलोचक को भी जजमेंटल नहीं होना चाहिए। कवि कवि है राजनयिक नहीं कि हमेशा पॉलिटिकली करेक्ट होने की कोशिश करता रहे।

 स्मृति की बात करना, अपनी बातों को स्मृतियों की तरह पेश करना विनय सौरभ का एक टूल भी है । इस कारण भी यह भ्रम कि वे स्मृतियों के कवि हैं । दरअसल, जब वे स्मृतियों की बातें कर रहे हैं तो वे वर्तमान की बात कर रहे हैं, जिस समय में वे खड़े हैं उसकी बात कर रहे हैं । थोड़ा-सा ध्यान दें तो आप पाएँगे कि कवि तो भविष्य में खड़ा हो कर आज की, वर्तमान की बात कर रहा है । दो कविताओं से ये पंक्तियाँ इसे स्पष्ट करेंग़ी –

 

संसदकविता की पहली पंक्ति – “अब तो नकाबपोशों से भर गई थी यह!”

 

और बस इतना भर पानी मौलाकी ये पंक्तियाँ –

                        “ बारिश वक़्त के साथ कम हो गई थी

                          जैसे आपस में लोगों का मिलना-जुलना कम हो गया था” 

 

इन दोनों कविताओं को पूरा पढ़कर देखिए, बात वर्तमान की है लेकिन भविष्य में खड़े होकर । और इसीलिए कविताएँ स्मृतियों की कविताएँ लगती हैं । संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं ।

संग्रह की कविताएँ यह भ्रम भी पैदा कर सकती हैं कवि यथास्थिति में लीन हो चुका है, उसके अंदर प्रतिरोध है ही नहीं। हर रचनाशील व्यक्ति स्वभावत: यथास्थितिवादके खिलाफ खड़ा होता है । हाँ, यह संभव है कि प्रतिरोध का तरीका, स्थान और समय उसके अपने हिसाब से हो । विनय सौरभ के इस संग्रह की सिर्फ एक कविता पढ़ने का आग्रह करूँगा, कवि के प्रतिरोध, उसके क्रोध की तीव्रता को समझने के लिए । कविता का शीर्षक है छोटकी दिदिया : दो। इस कविता को पढ़ते समय पाठक अपने अंदर एक ही साथ गुस्से को, अपनी विवशता हो  और समाज की क्रूरता के प्रहार को महसूस करता है और स्तब्ध रह जाता है । कविता बहुत देर तक पाठक का साथ छोड़कर जाती ही नहीं ।  

मुक्तिबोध ने कहा है “ प्रत्येक साहित्य मूलत: और सारत: आत्मचरित्रात्मक है, भले ही बाहर से वह चाहे जितना वस्तुवादी क्यों न दिखाई दे ।” संग्रह की कविताएँ भी आत्मचरित्रात्मक हैं । लेकिन यह संग्रह कवि की आत्मकथा नहीं है । जरा-सा ध्यान देने पर पाठक यह समझ जाएगा कि कविताओं में सिर्फ कवि के जीवन की ही बात नहीं हो रही है । वैसे भी प्रकाशित होने के बाद कुछ भी कवि का निजी नहीं रह जाता । कविता का काम ही है निजी होने से सबका होने की यात्रा । इस संग्रह की कविताएँ भी यह काम करती हैं ।

विनय सौरभ के इस संग्रह में लंबी कविताओं की संख्या कम है । तीन कविताएँ हैं जो पाँच से सात पृष्ठों की हैं । सोलह कविताएँ तीन से चार पृष्ठों की हैं । बाकी सारी कविताएँ एक या दो पृष्ठों  की । कविताओं को पढ़ने के बाद आप पाएँगे कि ज्यादातर कविताओं में घनीभूत संवेदना है । अंतरों के बीच की पंक्तियाँ भी पाठक को भावों को अंदर लेने का अवकाश देती हैं, साथ ही कविता के प्रवाह को एक सूत्र में बाँधे रखती हैं । इस संग्रह को पढ़ते समय एक और खासियत पर ध्यान जाता है। कविताओं को पढ़ते समय यह लगता ही नहीं कि आप नई कविताओं को पढ़ रहे हैं ।  ऐसा लगता है कविताएँ आपके अंदर ही थीं और सदा से ही चली आ रही हैं। आप उस बहाव में आकर खड़े हो  गए हैं । कविताएँ कवि की नहीं,पाठक की ही हैं, कवि ने तो बस उसे निकाल कर सामने रख दिया है। कविताओं के बीच, और कविताओं में पंक्तियों के बीच की जगह भी अपने आप भरने लगती है, जैसे-जैसे पाठक कविताओं में उतरता जाता है ।

 संग्रह के कवर पर यह उद्धरण एकदम सही है कि “ कविता-प्रेमी पाठक को इस किताब में ऐसे अनेक स्थल मिलते हैं जहाँ वह ठहरकर अपने आप और अपनी दुनिया को दुबारा से देखना चाहता है ।” ' बख्तियारपुर' के इतने स्वागत के बाद, मैं समझता हूँ कि विनय सौरभ पर अगले संग्रह को लेकर जिम्मेदारी थोड़ी बढ़ गई है। यह अच्छी बात ही है। 


शनिवार, 21 जून 2025

तुम्हारे लिए


 

तुम्हारे लिए

 

सँभालता हूँ चीजों को 

सजाता हूँ घर को भी 

खींचता हूँ

उतरती हुई शाम की तस्वीरें 

बाँधता हूँ मंसूबे 

यहाँ-वहाँ जाने के 

बनाता हूँ फेहरिस्त 

कि क्या-क्या लेना है सामान.... 

गैरहाजिरी में तुम्हारी 

करता हूँ वो सब 

जो करना था तुम्हारे साथ 

तुम्हारे लिए ।


शुक्रवार, 20 जून 2025

खूबरू चेहरा


 

खूबरू चेहरा

 

इतना हसीन चेहरा और मेरे इतने करीब 

या खुदा, मैं होश में तो हूँ!

 

एक खूबरू चेहरा है 

मेरे रूबरू है 

मगर अपने ही खयालों में गुम....!

 

ये धड़कनों का सुकूत, ये निगाहों का ख्वाबीदापन 

इन आँखों में कई ख्वाब जगाए जाता है-

कि अब से कुछ देर पहले 

न ये चेहरा मेरे लिए था, न मेरी आँखें इस चेहरे के लिए 

और अब 

जब कुछ देर बाद राहें फिर से जुदा होंगी 

एक याद-सी साथ होगी 

अजनबी ही सही, मगर अपनी 

निहायत अपनी !


ख्वाब की जरूरत


 

ख्वाब की जरूरत

 

दिले-बेताब में 

एक नामुमकिन-सा ख्वाब 

कुछ शक्लें इख्तियार कर रहा है 

और ख्वाब कुछ ऐसा कि 

एकबारगी हकीकत का गुमां हो जाए... 

धड़कनें फिर कोई नाजुक-सा गीत गुन रहीं हैं

कोई और न सुन सके

बस खुद ही सुन रहीं हैं

               एक गीत गुन रहीं हैं।

 

ख्वाबों से परे जो दुनिया है 

उसकी तो कुछ खबर ही नहीं 

जिंदगी जो हक़ीक़त है 

उसका कुछ असर ही नहीं 

बस सुब्हो-शाम ख्वाब है 

ये जिंदगी है कि सराब है?

 

मगर

ये ख्वाब ही तो है शायद 

कि जिसकी ताबीर हुई 

तो हम चाँद के दर

उसके आँगन तक जा पहुँचे 

और ख्वाब ही तो है कि जिसके दम पर

हम सभी जिंदा हैं, वरना

इस जिंदगी का क्या, इससे 

कहीं-न-कहीं

हम सभी शर्मिंदा हैं!

तो दिले-बेताब

तू देखता जा ख्वाब

ताबीर की कर कोशिशें पुरज़ोर, क्योंकि 

ताबीर जितनी जल्दी होगी 

उतने ही नए ख्वाब 

दिल में शक्लें इख्तियार कर पायेंगे

और हर बार 

नई जिंदगी दे जायेंगे ।


वजूद


 

वजूद

 

ये मौसम है 

ये मैं हूँ, ये तू है 

बस और कुछ भी तो नहीं 

मौसम का तो खैर कुछ वजूद ही नहीं 

ये जो 'मैं' है, वो 'तू' के रहमो-करम पर है 

और ये जो 'तू' है-

खुदा से भी किसी ने पूछा है 

कि वो क्या है, क्यूँ है ?!


कड़वा सच


 

कड़वा सच

 

हर रोज

अखबारों में, भाषणों में, टीवी पर 

हम देखते-सुनते हैं-

'बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करना है'

और हर रोज हमारे घरों में 

ये चर्चा होती है

कहीं से एक नौकर मिल जाए

छोटा हो, थोड़े कम पैसे ले।

 

माना कि हम लाचार हो सकते हैं 

या फिर जरूरत से ज्यादा व्यस्त 

और किसी एक सहारे की

काम करने वाले की 

हमें सख्त जरूरत हो 

पर ऐसे में

किसी एक बचपन की 

लाचारगी, उसकी जरूरतों का 

फायदा उठाना क्या जरूरी है

क्या अपनी सुविधा 

बिना दूसरे को असुविधा पहुँचाए 

नहीं पाई जा सकती

क्या जरूरी है

कि जब हमारे घरों के बच्चे 

किताबों, कॉमिक्सों का मजा ले रहे हों,

घर के किसी कोने में 

कोई एक बच्चा 

अपने घर से आई 

चिट्ठी भी न पढ़ पा रहा हो

क्या यह जरूरी है 

कि हर नई चीज 

जो वो हमारे हाथों से पाए

उसे उपकार समझने को मजबूर हो

हक़ नहीं...

हम इतने कमजोर क्यों हो गए हैं

इतने लाचार ?!

हम अपने, और हमारे अपनों के 

हाथ क्यों नहीं बन सकते ?

... या यह हमारे बीच की दीवार है,

अलगाव है,

जो हम

छोटे-छोटे हाथों में/पर

कई-कई भार डालने को मजबूर हैं?