आलोचना के इलाके में एक
कवि की अड्डेबाजी
[‘आलोचना’ अंक-75 में प्रकाशित कवि-आलोचक
निशान्त की किताब ‘कविता पाठक आलोचना’ की समीक्षा ]
जो लोग महाविद्यालयों/
विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी नहीं हैं, जो
हिन्दी के डॉक्टर नहीं बन चुके हैं, या बनने की प्रक्रिया
में नहीं हैं उनके के लिए आलोचना एक अबूझ पहेली-सी ही है । एक गिरा गम्भीर,
एक भार अवहनीय । जबकि आलोचना साहित्य के प्रति एक दृष्टि विकसित
करने का एक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक साधन है। दरअसल आलोचना का ऐसा प्रारूप बना हुआ
है कि उसमें प्रवेश की पात्रता ही है वीरोचित धैर्य और पदोचित गांभीर्य । यदि आप
धैर्य और गंभीरता के साथ इस क्षेत्र में नहीं उतरते हैं तो फिसलना और मैदान छोड़कर
भाग खड़े होना अवश्यंभावी है । आलोचना के मैदान के बाहर से हिन्दी कविता का कैच
पकड़ना आसान है, मैदान में उतरना कठिन । और अगर मैदान में उतर
भी गए तो सूर्य कुमार यादव की तरह एक छक्के में जाती हुई गेंद को कैच करना तो
असंभव ही है । लेकिन यह संभव होता हुआ है दिखता है सेतु प्रकाशन से आई
आलोचना-पुस्तक, जो अब ‘देवीशंकर स्मृति
सम्मान’ से प्रतिष्ठित भी है, ‘ कविता
पाठक आलोचना’ में ।
लेखक हैं तीन कविता-पुस्तकों के कवि निशांत । आलोचना की किताब उपन्यास जैसी रोचकता
के साथ लिखना आसान काम तो नहीं ही है, वह भी तब जब लेखक
बाकायदा एक विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य का अध्यापक भी हो। किताब की भूमिका
‘शुरू करने से पहले’
में किताब के बारे में लेखक की दो उक्तियाँ किताब का टोन तय
कर देती हैं – 1) एक कवि के प्रश्नों का उत्तर उसी के आत्मन् द्वारा । 2) इसे
लिखते हुए बांग्ला में जिसे अड्डा मारना ( बैठकर खूब बातें करना) कहते हैं,
ऐसा ही सुख मिला । पाठक इन
दोनों बातों से सहमत हुए बिना नहीं रह सकता ।
आलोचना के इतना भारी होने या भारी महसूस होने का एक कारण तो उसका ‘टेक्स्टबुकीय’ हो जाना है । टेक्स्टबुक की किताबों का रंग-रूप ही पाठकों को विकर्षित करने के लिए काफी है। यह ठीक बात है कि हिन्दी के जो विधिवत विद्यार्थी या पढ़ने-पढ़ाने वाले हैं, उनके लिए विशेष अनुशासन की आवश्यकता है भी । एक आम हिन्दी प्रेमी के लिए भी आलोचना की पुस्तक जरूरी है, ताकि वह हिन्दी साहित्य की अपनी परंपरा और विशेषताओं से परिचित हो सके । पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाला व्यक्ति एक समय के बाद स्वत: गुरुतर विषयों की ओर आकर्षित होता है । इस आकर्षण को रुचि में बदलने के लिए उसे ऐसी सामग्री हस्तगत होनी चाहिए जो उसे बोझिल न हो । एक आम हिन्दी प्रेमी या पाठक आलोचना की ओर तभी आएगा जब विषय को उसके सामने रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जाए । निशान्त अपनी किताब में यह काम कर गए हैं ।
एक और बात यह लगती है कि जो पारंपरिक रूप से चली आ रही आलोचना की पुस्तकें हैं उससे हटकर भी पुस्तकें आएँ । वैसे भी एक कालखंड गुजर जाने के बाद चीजों को एक अलग दृष्टि से, अलग प्रकाश में देखा ही जाना चाहिए । जो पारंपरिक या स्थापित आलोचना की पुस्तकें हैं वे पाठक को पढ़ाने लग जाती हैं । निशान्त की किताब अलग रास्ता पकड़ती है । यह पाठक के साथ-साथ चलती है । एक सामान्य रुचि रखने वाला पाठक भी कुछ न कुछ तो अपनी राय बनाता चलता है । ‘कविता पाठक आलोचना’ में पाठक यह पाता है कि किताब उसके साथ-साथ चल रही है, बल्कि जिन प्रश्नों से वह दो-चार हो रहा है, उनके बारे में जैसा सोच रहा है, किताब भी उसी रास्ते चल रही है । इस किताब की यह एक बड़ी सफलता है । इस बात को इस तरह से भी कह सकते हैं कि आमतौर पर आलोचना की मेज की जिस तरफ आलोचकगण बैठते हैं, निशान्त उसकी दूसरी तरफ से आलोचना में प्रवेश करते हैं । एक छात्रोचित/पाठकोचित उत्साह, उत्सुकता और जिज्ञासा के साथ ।
आलोचक निशान्त कवि भी हैं । बल्कि कवि ही आलोचक है । इसलिए भी आलोचना के क्षेत्र में उनके प्रवेश का रास्ता आलोचना के सामने से आता हुआ दिखता है । हालाँकि इस किताब में निशान्त अपने को युवा कवि मानने से इन्कार करते हैं, लेकिन हैं वे युवा ही । इस किताब की प्रवाह-गति तो यही कहती है । इस किताब की जो पहली बात पाठक की समझ में आती है वह यह कि यह किताब एक ‘फ़ास्ट पेस्ड’ किताब है । पाठक खुद को रोक ही नहीं पाता है। बस दो पेज और, दो पेज और करते-करते किताब को पूरा पढ़ जाता है । किताब खुद को पढ़वा ले जाती है । दूसरी बात जो इस किताब में है वह यह कि लेखक लगातार बात कर रहा है । जैसा भूमिका में उसने कहा भी है कि “ एक कवि के प्रश्नों के उत्तर, उसी के आत्मन् के द्वारा ।” पूरी किताब इसी बोलचाल के अंदाज में संवाद करती है । किताब चूँकि संबोधन के रूप में लिखी गई लगती है, और पूरी किताब में लेखक लगातार कविता पर सोचता जा रहा है , कुछ बातों की पुनरावृत्ति होना लाजिमी है । लेकिन यह पुनरावृत्ति खटकती नहीं है । कविता-पाठ के दौरान कवि द्वारा पंक्तियों को दुहराना कहाँ खटकता है, यदि वह उचित समय और तरीके से हो।
आलोचक निशान्त को जो भी कहना है वह उन्होंने बड़ी पारदर्शिता के साथ कहा है । पारदर्शिता एक दुर्लभ गुण है आज के समय में । कहीं भी आप यह महसूस नहीं करते कि कुछ छुपा कर, कुछ घुमा कर बात कही जा रही है । यों तो हर लेखन ही नाना पुराण निगमागम सम्मतं होता है, पर आलोचना विशेष कर । इस किताब को पढ़ते हुए भी यह महसूस किया जा सकता है। बात यह है कि आपने बातों को कितना आत्मसात कर के, कितना अपना बना के प्रस्तुत किया है कि बात नई-सी लगे, अपनी-सी लगे ।
एक कवि जो कविता के परिदृश्य के बारे में लगातार सोच रहा है, जब अपनी बात कहता है तो सिर्फ ‘पर’ की बात नहीं करता ‘आत्म’ की भी बात करता है । निशान्त के यहाँ आलोचना में सिर्फ बाहर ही नहीं देखा जा रहा, लगातार अंदर भी देखा जा रहा है । स्वयं को और अपनी पीढ़ी को । आत्मालोचना इस किताब में हर जगह उपस्थित है । खास तौर पर किताब के तीन अध्यायों -- ‘समकालीन हिन्दी कविता’, ‘सिंहावलोकन : कविता, समय, समाज और कवि’ और ‘कविता का शून्यकाल और क्रमभंग कविता’ में। जितने मन से और जितनी बेबाकी से निशान्त ने लिखा है, वह शायद एक कवि ही लिख सकता है । निशान्त के आत्मालोचक मन को समझने के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्ति पर दिए गए उनके वक्तव्य और उनकी ‘ मिठाईलाल : मेरा एक नाम’ शीर्षक कविता को भी पढ़ कर देखिए । निशान्त ने ‘इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है’ को याद किया है, पर मैं समझता हूँ ज्यादा मौजूँ नरेश सक्सेना की यह पंक्ति है – “ नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना ।” निशान्त ने कविता में धँस कर कविता के बारे में लिखा है । शुरु के दस अध्यायों में लेखक ने कविता और उसके वर्तमान परिदृश्य पर दिल खोलकर बात की है । एक कविता की पंक्ति याद आ रही है - “ आज के कवि बातों को खोलकर कहते हैं” । इन दसों अध्यायों के शीर्षक इस तरह हैं – ‘ प्रकृति और कलाकृति’, ‘रचनाकार का आलोचक होना’, ‘कविता कहाँ है’, ‘कविता लिखने में मेहनत नहीं लगती’, ‘छन्द और तुक का जाना’, ‘कविताई ( साहित्य) और पाठक’: उर्फ़ एक टका मुर्गी, नौ टका पकड़ाई’, ‘समकालीन हिन्दी कविता’, ‘सिंहावलोकन : कविता, समय, समाज और कवि’, ‘कविता का शून्यकाल और क्रमभंग कविता’, और ‘आलोचना-समीक्षा के बीच कविता’ । अगले दो अध्याय ‘स्त्री-मुक्ति की आकांक्षा’ एवं ‘आधी दुनिया में पूरी दुनिया’ स्त्री-मुक्ति और स्त्री कविता के चुनिंदा हस्ताक्षरों पर हैं । किताब के अंतिम दो अध्याय, ‘वह जवान होकर बूढ़ों की तरह लिखता था’ तथा ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ किताब के स्तर को कुछ दर्जा ऊपर उठा देते हैं । ये दो लेख एक आत्मीय संस्मरण, लेखक का आत्मनिरीक्षण और हिन्दी कविता की स्थिति का आँखें खोल देनेवाला वाला जायजा हैं।
आलोचक-कवि निशान्त की चिंता में ‘साहित्य का लोकप्रियकरण’ है । लेखक यह समझता है कि साहित्य को लोकप्रिय करने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वाविद्यालयों से ही उनके विद्यार्थियों के अन्दर साहित्य के बीज डालने की आवश्यकता है । वे प्रश्न उठाते हैं कि क्या लोकप्रिय धारा को साहित्यिक धारा के करीब लाने के लिए ‘ जनता के बीच जा हम रचनाकारों-सम्पादकों को इसके लिए पहल नहीं करनी चाहिए?’ आज की युवा पीढ़ी के बीच हिन्दी साहित्य, और उसमें भी कविता की कितनी पैठ है यह किसी से छिपा नहीं है । सीबीएसई और आइसीएसई बोर्ड में प्लस टू के स्तर पर हिन्दी पढ़ना अनिवार्य नहीं है । उसके पहले की कक्षाओं में भी हिन्दी के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का जो स्तर है वह किसी के रडार पर ही नहीं है । और जो (लोग) कवि, लेखक , आलोचक हो गए हैं वे धीर-गंभीर चिंताओं-समस्याओं में इतने निमग्न हैं कि हिन्दी साहित्य को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का जिम्मा उठाना एक कमस्तरीय बात हो गई लगती है । निशान्त द्वारा बच्चों तक पहुँचने वाली बात का आज के समय से अधिक महत्त्व शायद कभी नहीं था ।
निशान्त इस
किताब में एक जगह कहते हैं “ कवियों-कलाकारों को अपार धैर्यशील होना चाहिए । धीरज, कला का
एक अपरिहार्य गुण है।” लेकिन समय “टू मिनट्स मैगी’ वाला हो गया है । लेखक तो लेखक, निशान्त के ही शब्दों में, पाठक भी ‘तुरन्ता पाठक’ हो गया है । इस तरह की बहुत-सी बातें
इस किताब में हैं । पाठकों की उपलब्धता,
रचानाकार एवं पाठक का आलोचक होना, ‘पन्द्रह सेकेंड
की लोकप्रियता वाले’ सोशल मीडिया के मार्फत स्थाई साहित्य के
प्रांगण में पहुँचना, असली और नकली रचना – ऐसी जाने कितनी
चिंताओं पर बात करती है यह किताब । बड़ी रचनाओं के विषय में वे कहते हैं “ वास्तव
में बड़ी रचनाएँ ‘वन वे’ नहीं ‘टू वे’ होती हैं । जितना उत्सुकता का शमन करती हैं,
उतना ही उनका निर्माण ।” ‘कविता पाठक आलोचना’
को भी यही करता हुआ पाएँगे । निशान्त के लेखन की यह खूबी है कि यह
पाठक को आमंत्रित करता है सहभागिता के लिए। उन्होंने अपनी बातों को अपने तर्कों के
साथ सामने रख दिया है । पाठक भी अपने तर्क निकाले और लेखक के तर्कों से पंजा लड़ा
कर देखे । आलोचक और पाठक दोनों की ही ताकत बढ़ेगी ।
इस किताब के ‘हाइ
प्वाइंट’ की तरह अगर देखना हो तो इस किताब में सन् पैंसठ के
बाद जन्म लेने वाले कवियों या दूसरे शब्दों में उन्नीस् सौ नब्बे से सन् दो हजार
तक की कविताओं के विषय में रखे गए विचार हैं । ये विचार बहुत बेबाकी और दिलेरी के
साथ रखे गए हैं । निशान्त खुद उस पीढ़ी के बाद वाली पीढ़ी के कवि हैं । ऐसा हो सकता
था कि बातें ईर्ष्या एवं पूर्वाग्रह से ग्रसित या अमर्यादित हो जाएँ । लेकिन
उन्होंने बहुत ही तर्कपूर्ण तरीके से अपनी बातों को पेश किया है । किसी का सहमत या
असहमत होना अलग मुद्दा है । आलोचना रास्ता दिखाती है । अपनी मंजिल तक पहुँचना पाठक
का काम है । कोई भी मंजिल सही या गलत नहीं होती , अलग भले ही
हो । आलोचना संवाद का, चर्चा का रास्ता खोलती है , निशान्त की यह किताब भी । वैसे भी ‘दोस्त आलोचना’
से किसी का भला नहीं होने वाला। ‘दुश्मन
आलोचना’ से भी !
इस किताब के अंतिम दो अध्याय संभवत: इस किताब के सबसे अच्छे हिस्से हैं । दो दिवंगत संभावनाशील युवा कवियों पर लिखे गए बहुत आत्मीय और मार्मिक संस्मरण । ये संस्मरण सिर्फ दो मित्रों के स्मरण- मात्र नहीं हैं । इन संस्मरणों में एक युवा कवि का संघर्ष, उसकी रचनाशीलता, उसके भय, उसका एक युवा से एक कवि बनना, एक ही समय के दो कवियों का व्यक्तित्व-वैविध्य, सब एक साथ पाठक के सामने प्रस्तुत होते हैं । इन सबके बीच निशान्त हमेशा एक सहयात्री के रूप में खड़े हैं । वैसे सहयात्री नहीं कि “ ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह” बल्कि वैसे, जो इस शेर के अगले मिसरे की ख़्वाहिश को पूरा करते ‘चारासाज़’ और ‘ग़मग़ुसार’ हों !
आज की कविता पर बात करते हुए निशान्त लिखते हैं – “ ये पढ़े-लिखे, मध्यवर्गीय लोग हैं और आज की कविता पढ़े लिखे लोगों का शगल है ।” कुछ इसी तरह की बात सुधीश पचौरी अपनी पुस्तक ‘नयी साहित्यिक सांस्कृतिक सिद्धान्तिकियाँ’ में लिखते हैं । वे लिखते हैं –“ जिसे परिनिष्ठ साहित्य कहा जाता है उसे वही कर पाता है जो उसे अफोर्ड कर पाता है । इसीलिए खाते पीते मध्यवर्ग के फुरसत के वक्त का शौक है । इसीलिए वह मध्यवर्ग का मध्यवर्ग के द्वारा मध्यवर्ग के लिए होता है भले ही लेखक उसे जनता के लिए लिखने का दावा करता रहे ।” आलोचना के विषय में भी इसी बात को थोड़ा बदल कर कहा जा सकता है कि ‘ आलोचना का काम आलोचक/अध्यापकवर्ग का आलोचक/अध्यापकवर्ग के द्वारा आलोचक/अध्यापकवर्ग के लिए होता है’ । ‘कविता पाठक आलोचना’ जैसी किताब आलोचना का थोड़ा सरलीकरण, थोड़ा लोकप्रियकरण करती है । यही इसका अभीष्ट भी है । यहाँ श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी का एक कथन उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा । इसी उद्धरण के साथ बात खत्म करूँगा । वे जिस जकड़न की बात करते हैं, निशान्त की यह किताब उससे निकलने की सार्थक कोशिश है । उन्होंने (बेनीपुरी जी ने) बात कविता के संबंध में कही है लेकिन आलोचना के लिए भी उतनी ही सही बैठती है –
“ पहले दरबारों के लिए कविता की जाती थी ; अब कॉलेजों के लिए कविता लिखी जाने लगी है ! कविता वह, जब राजासाहब झूम उठें ; अब कविता वह, जब प्रोफेसर साहब के रसहीन हृदय को प्रगट करनेवाले उनके झुर्रीदार चेहरे पर एक हल्की-सी चमक आ जाय ! और, वह ऐसी पेचीदा हो, जिसकी गुत्थियाँ सुलझाकर हमारे प्रोफेसर दोस्त अपने ज्ञान की धौंस छात्रों पर जमा सकें ! तभी तो उसे वह पाठ्य-पुस्तकों में स्थान देंगे !”