भोलाराम जीवित
[ भगत - बुतरू सँवाद 2.0]
वे भोलाराम जीवित हैं। पहले के जमाने में आपने भी इस तरह के नाम सुने होंगे-- कप्तान, मेजर आदि। जरूरी नहीं कि जो नाम है, आदमी वही हो भी! भोलाराम ने भी सोचा कि भले ही कोई उन्हें कितना भी मरा हुआ समझे, नाम पुकारते समय तो जीवित बोलेगा ही! और यह बुद्धि उनको तब ही आ गई थी, जिसके बाद मोटामोटी व्यक्ति का नाम फाइनल हो जाता है। वही यानी मैट्रिक, जिसे अब टेन्थ कहते हैं सब।
नाम की एक दूसरी कथा यह है कि एक पुरानी कथा में भोलाराम का जीव प्रकट हुआ था। भोलाराम नहीं रहा था, उसका जीव था। भोलाराम तो जा चुका था, उसके जीव को मुक्ति नहीं मिल पा रही थी । दफ्तर के चक्कर! को नहीं जानत है जग में...!! भोलाराम को मृत्यु तो मिल गई थी, जीव अटक गया था। इस बार भोलाराम ही अटक गया है दुनिया के जंजाल में। भोलाराम जीवित रहते हुए मृत्यु का अनुभव कर रहा है। दिन प्रतिदिन। मृत भोलाराम जीवित!
एक और कथा है। भोलाराम ने बचपन से देखा था, उनके पिता और पिता के मित्रों को हर वर्ष नवंबर माह में यह प्रमाणित करना पड़ता था कि वे जीवित हैं। प्रमाणित तो बैंक का अधिकारी करता था, लोग तो उस जीवन प्रमाण पत्र को जमा करा के जीवित बच जाते थे। जिसका प्रमाण पत्र नहीं, वह जीवित नहीं, उसे पेंशन नहीं। यह सब देख देख कर, भोलाराम ने स्वप्रमाणित कर लिया कि वे जीवित हैं-- भोलाराम जीवित।
भोलाराम एक सरकारी टाइप के दफ्तर में काम करते हैं । मतलब एक सरकारी टाइप दफ्तर जाया करते हैं । दफ्तर में काम करने जाया करते हैं...अश्वत्थामा हतो हतः ...!
यूँ तो जिनको दफ्तर से काम पड़ा करता है, वे ही उसके फेरे में पड़ते हैं। लेकिन एक अंदर की बात है, दफ्तर में काम करने वाले भी खुद अपने ही दफ्तर के फेरे में पड़ते रहते हैं। यह बात लोगों को पता नहीं होती। दफ्तर वाले भी भला किस किस को सुनाएँ हाले दिल? पेट के मार पेटकुनिए...!
तो हुआ ऐसा है कि भोलाराम जीवित अपनी नौकरी में अच्छे खासे अनुभवी हो चुके हैं। इतने कि नौकरी के बालों में चाँदी दिखे भी साल बीत चुका है। इतना अनुभवी अथवा प्रौढ़ हो जाने के बाद व्यक्ति स्वतः औरों से तमीज, सहानुभूति और कंसिडेरेशन की अपेक्षा करने लगता है। अभी वे एक ऐसी जगह से तबादले पर आए हैं, जो एक तगड़ी पोस्टिंग मानी जाती है। भोलाराम जीवित का कहना है कि पोस्टिंग के लिए उन्होंने किसी से कोई सिफारिश क्या ज़िक्र तक नहीं किया था। पोस्टिंग तो उनकी काबिलियत और वफादारी का प्रतिदान है। लोग कहाँ मानते हैं ऐसी घिसी पिटी बातों को! लोग तो बस इतना जानते हैं कि यदि उनकी भी पहुँच होती तो वे भी पहुँच गए होते। लोग तो प्रमोशन के बारे में भी ऐसी ही अनर्गल बातें किया करते हैं कि न कोई धक्का दे, न कोई खींचे, तो गाड़ी बस एक ही जगह खड़ी खड़ी 'गों- गों' करते रहती है। खासकर तब जब गाड़ी थोड़ी ऊँचाई पर पहुँच चुकी हो।
दफ्तरों में एक होता है कार्मिक विभाग। हर दफ्तर, हर उपक्रम, हर कंपनी... हर जगह। नाम थोड़ा इधर उधर हो सकता है। इस विभाग का अधिकृत काम होता है मानव संसाधन का प्रबंधन। अनधिकृत तो जाने कितने काम होते हैं ! साहबों की तुनक मिजाजी, साहबों की सनक, साहबों की मौज को कार्यरूप देने वाले। कभी कभी कार्मिक विभाग वाले बोर होने लगते हैं तो कुछ आदेश निकाल देते हैं। फिर उस आदेश में कुछ बदलाव लाते हैं। ज्यादा हुआ तो आदेश को निरस्त कर देते हैं। यह सब करने- धरने में विभाग वालों की धाक जम जाती है, कितना पावर है उनके पास!
भोलाराम जीवित इसी विभाग के समक्ष उपस्थित हैं। इवेंचुअल पोस्टिंग की प्रत्याशा में। घर पर कोई मेहमान आए तो बेसिक कर्टसी है कि पूछा जाता है क्या लेंगे, चाय, कॉफी, ठंडा? कार्मिक वाले पूछते हैं कि कैसी और कहाँ पोस्टिंग चाहिए। ऐसा सुनकर अमूमन प्रत्याशियों के मन में लड्डू फूट पड़ते हैं। लेकिन वे मन के ही लड्डू साबित होते हैं। भोलाराम जीवित ने भी इच्छा प्रकट कर दी है। उन्हें एक फॉर्म पकड़ा दिया गया है। पसंद की तीन पोस्टिंग का नाम प्राथमिकता के आधार पर देने के लिए। भोलाराम जी ने फॉर्म भर दिया है। फॉर्म रख लिया गया है। जीवित जी को अगले दिन आने के लिए कहा गया है। उन्हें इस आश्वासन के साथ विदा किया गया कि भोलाराम जीवित जैसे काबिल और अनुभवी व्यक्ति के लिए तो फॉर्म तो महज एक औपचारिकता भर है। उन्हें तो मनचाहा काम ही मिलेगा। जीवित जी जीवंत हो उठे हैं। प्रसन्नवदन वहाँ से निकले।
विभाग से बाहर निकले तो भोलाराम जी को अपने एक पूर्व परिचित बड़े अधिकारी का ध्यान आ गया। जो संयोग से वहीं पदस्थापित भी थे। भोलाराम जी उनसे मिलने पहुँच गए। सेक्रेटरी ने थोड़ी ना- नुकुर की, लेकिन भोलाराम जीवित ने अपने मोबाइल पर बड़े अधिकारी से सीधे बात कर ली। सेक्रेटरी को उन्हें अंदर जाने देना पड़ा। बड़े अधिकारी बड़े अच्छे थे । भोलाराम को देख वे बड़ा खुश हुए। भोलाराम से उन्होंने दरयाफ्त की इधर कैसे आना हुआ। भोलाराम ने बताया कि तबादले पर आए हैं और कार्मिक विभाग में फॉर्म भर कर आए हैं। भोलाराम जीवित ने बड़े अधिकारी को यह भी बताया कि पहला नाम उन्हीं के विभाग का दिया है। बड़े अधिकारी ने तुरंत इंटरकॉम पर कार्मिक विभाग बात की और हिदायत दी कि भोलाराम जीवित उन्हीं के विभाग में पदस्थापित किए जाएँ। फोन रखते समय बड़े अधिकारी के चेहरे पर भाव थे कि हो ही गया! तुमको शरण में ले ही लिया। भोलाराम जीवित कुर्सी पर एकदम आगे बैठे थे, अब थोड़ा झुक भी गए।
अगली सुबह भोलाराम जीवित ठीक समय पर कार्मिक विभाग पहुँच गए। उन्हें हवा थोड़ी बदली- सी लगी। उन्हें बताया गया कि विभाग- प्रमुख उनसे मिलना चाहते हैं। कोई घंटा भर इंतजार करने के बाद विभाग- प्रमुख ने अंदर बुलवाया। भोलाराम जीवित के बैठते बैठते विभाग- प्रमुख ने कहा - " भोलाराम जी, आपके दिए गए तीनों नामों में कहीं भी जगह नहीं है। कोई और जगह हो तो बताइए।" भोलाराम जी ने बड़े अधिकारी के फोन का ज़िक्र किया, जिस पर विभाग- प्रमुख ने कहा- " जीवित जी, बड़े अधिकारी को कहाँ इन टुच्ची बातों का पता होगा कि वेकेन्सी है भी या नहीं। " भोलाराम जीवित ने भोलराम जी की जगह जीवित जी संबोधन के रूखेपन और कड़ेपन को समझ लिया। अनुभवी व्यक्ति समझ जाता है कि घी टेढ़ी ऊँगली से नहीं, पिघलाने से निकलता है। भोलाराम जीवित, जो उम्र और नौकरी दोनों ही लिहाज से सीनियर थे, ने विभाग- प्रमुख से सविनय कहा-- " सर, देख लेते। इतने सालों बाद इस शहर में आने का मौका मिला है। कोई भी जगह यदि निकाल पाते। "
विभाग- प्रमुख ने हँसते हुए कहा - " सारी मलाई आप ही खाएँगे जीवित जी! विदेश की पोस्टिंग का मजा लूट कर तो आ ही रहे हैं। बड़े अधिकारी महोदय की कृपा रही तो प्रमोशन भी पा लेंगे आप तो! "
हँस कर बात कह देने से उसे धमकी या कटुतापूर्ण सिद्ध करना कठिन हो जाता है। भोलाराम यह समझते हैं। उन्होंने अपनी वही बात कहने की कोशिश की, कि उनको तो पता तक नहीं कि पोस्टिंग कैसे मिली। विभाग- प्रमुख ने काटते हुए कहा- " क्या बच्चों जैसी बात कर रहे हैं। बच्चा बच्चा जानता है कि कैसे क्या होता है। खैर छोड़िए, बड़े अधिकारी का फोन था। अभी उनकी बात को ज्यादा काटना ठीक नहीं। उन्हीं के विभाग में टेंपोररी काम है कुछ, कर लीजिए फिलहाल। "
भोलाराम - " कैसा काम? "
विभाग- प्रमुख - " कुछ फर्निचर और ऑफिस की मरम्मत का काम है। कुछ बड़े अधिकारी के पेंडिंग बिल बनाने और पास करवाने का काम है। कुछ कुछ पुराने रिकॉर्ड्स को हटवाने का काम है। इतना करने के बाद भी अगर आपकी फाइनल पोस्टिंग नहीं हो पाई, तो ऑफिस बिल्डिंग शिफ्ट करने का भी एक बड़ा काम है। आप आज ही जा कर बड़े बाबू से मिल लीजिए।" यह कह कर विभाग- प्रमुख किसी काम से बाहर निकल गए।
भोलाराम जीवित बैठे सोच रहे हैं -- काबिलियत, अनुभव, वफादारी... माइ फुट! जहाँ बड़े अधिकारियों के हाथ इतने बँधे हों, ज़बान इतनी सिली हुई हो, गर्दन इतनी झुकी हुई हो... कोई बड़ा अधिकारी बनता ही क्यों है?
भोलाराम जीवित भारी कदमों से बड़े बाबू से मिलने चल दिए हैं। उनका रहा सहा हौसला भी जाता रहा!
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भगत जी ने वक्तव्य समाप्त किया। हॉल में पिन ड्रॉप साइलेंस हो गया है। दर्शकों में अधिकांश दफ्तर के ही लोग हैं। मंच पर आसीन अध्यक्ष महोदय माइक पर आए। उन्होंने भगत जी को धन्यवाद कहने के बाद आगे कहा - " भगत जी ने भोलाराम जीवित की अद्भुत कहानी सुनाई है । अच्छी कहानियों के साथ होता यही है कि वे लगती सच हैं, पर होती नहीं। इस कहानी में वर्णित घटनाएँ भी ऐसी ही हैं। लगती सच हैं, पर सच हैं नहीं । कम से कम इस दफ्तर के लिए तो मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ। आपमें से किसी को कुछ पूछना हो तो, भगत जी प्रस्तुत हैं ।
जैसा कि सरकारी किस्म की सभाओं में होता है कोई कुछ पूछ कर समय बर्बाद नहीं करना चाहता, यहाँ भी ऐसा ही हुआ। लग रहा था कि अब सभा विसर्जित हो जाएगी कि तीसरी लाइन में बैठे एक व्यक्ति ने हाथ उठाया। उसने पूछा --" मैं भगत जी से पूछना चाहता हूँ कि इस कहानी में वे खुद हैं क्या? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि बड़े अधिकारी भी कुछ स्टैंड लें ऐसा होने के लिए क्या करना होगा? "
भगत जी ने गोलमोल जवाब दिया, जैसा कि ऐसे प्रश्नों का दिया जाता है -- " आपके पहले प्रश्न का जवाब है, हाँ भी और ना भी। दूसरे प्रश्न का जवाब है कि हर बड़े अधिकारी को सही अर्थों में बड़ा होना होगा। "
अध्यक्ष ने प्रश्नकर्ता को उसकी जारुकता के लिए धन्यवाद दिया और साथ ही सभा समाप्ति की घोषणा, भगत जी की फ्लाइट का समय होने की चर्चा कर के, कर दी। अध्यक्ष दर्शकों को बाहर नाश्ते के लिए निमंत्रित करना नहीं भूले थे ।
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कुछ देर बाद
भगत जी - अच्छा हुआ तुम दर्शकों के बीच बैठे थे। तुम्हारे प्रश्न पूछ देने से बातचीत वास्तविक लगने लगी।
बुतरू - यह तो आजकल का ट्रेंड है । अपने आदमियों की भीड़ जमा कर के वोटिंग करवाओ। तभी सबकुछ असली और सफल लगेगा।
भगत जी - क्या क्या सिखाओगे अभी भाई...?
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