गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

भोलाराम जीवित [ भगत -बुतरू सँवाद 2.0]

 

भोलाराम जीवित


[ भगत - बुतरू सँवाद 2.0]


वे भोलाराम जीवित हैं। पहले के जमाने में आपने भी इस तरह के नाम सुने होंगे-- कप्तान, मेजर आदि। जरूरी नहीं कि जो नाम है, आदमी वही हो भी! भोलाराम ने भी सोचा कि भले ही कोई उन्हें कितना भी मरा हुआ समझे, नाम पुकारते समय तो जीवित बोलेगा ही! और यह बुद्धि उनको तब ही आ गई थी, जिसके बाद मोटामोटी व्यक्ति का नाम फाइनल हो जाता है। वही यानी मैट्रिक, जिसे अब टेन्थ कहते हैं सब। 


नाम की एक दूसरी कथा यह है कि एक पुरानी कथा में भोलाराम का जीव प्रकट हुआ था। भोलाराम नहीं रहा था, उसका जीव था। भोलाराम तो जा चुका था, उसके जीव को मुक्ति नहीं मिल पा रही थी ।  दफ्तर के चक्कर! को नहीं जानत है जग में...!! भोलाराम को मृत्यु तो मिल गई थी, जीव अटक गया था। इस बार भोलाराम ही अटक गया है दुनिया के जंजाल में। भोलाराम जीवित रहते हुए मृत्यु का अनुभव कर रहा है। दिन प्रतिदिन। मृत भोलाराम जीवित! 


एक और कथा है। भोलाराम ने बचपन से देखा था, उनके पिता और पिता के मित्रों को हर वर्ष नवंबर माह में यह प्रमाणित करना पड़ता था कि वे जीवित हैं। प्रमाणित तो बैंक का अधिकारी करता था, लोग तो उस जीवन प्रमाण पत्र को जमा करा के जीवित बच जाते थे। जिसका प्रमाण पत्र नहीं, वह जीवित नहीं, उसे पेंशन नहीं। यह सब देख देख कर, भोलाराम ने स्वप्रमाणित कर लिया कि वे जीवित हैं-- भोलाराम जीवित। 


भोलाराम एक सरकारी टाइप के दफ्तर में काम करते हैं ।  मतलब एक सरकारी टाइप दफ्तर जाया करते हैं । दफ्तर में काम करने जाया करते हैं...अश्वत्थामा हतो हतः ...! 


यूँ तो जिनको दफ्तर से काम पड़ा करता है, वे ही उसके फेरे में पड़ते हैं। लेकिन एक अंदर की बात है, दफ्तर में काम करने वाले भी खुद अपने ही दफ्तर के फेरे में पड़ते रहते हैं। यह बात लोगों को पता नहीं होती। दफ्तर वाले भी भला किस किस को सुनाएँ हाले दिल? पेट के मार पेटकुनिए...! 


तो हुआ ऐसा है कि भोलाराम जीवित अपनी नौकरी में अच्छे खासे अनुभवी हो चुके हैं। इतने कि नौकरी के बालों में चाँदी दिखे भी साल बीत  चुका है। इतना अनुभवी अथवा प्रौढ़ हो जाने के बाद व्यक्ति स्वतः औरों से तमीज, सहानुभूति और कंसिडेरेशन की अपेक्षा करने लगता है। अभी वे एक ऐसी जगह से तबादले पर आए हैं, जो एक तगड़ी पोस्टिंग मानी जाती है। भोलाराम जीवित का कहना है कि पोस्टिंग के लिए उन्होंने किसी से कोई सिफारिश क्या ज़िक्र तक नहीं किया था। पोस्टिंग तो उनकी काबिलियत और वफादारी का प्रतिदान है। लोग कहाँ मानते हैं ऐसी घिसी पिटी बातों को! लोग तो बस इतना जानते हैं कि यदि उनकी भी पहुँच होती तो वे भी पहुँच गए होते। लोग तो प्रमोशन के बारे में भी ऐसी ही अनर्गल बातें किया करते हैं कि न कोई धक्का दे, न कोई खींचे, तो गाड़ी बस एक ही जगह खड़ी खड़ी 'गों- गों' करते रहती है। खासकर तब जब गाड़ी थोड़ी ऊँचाई पर पहुँच चुकी हो। 



दफ्तरों में एक होता है कार्मिक विभाग। हर दफ्तर, हर उपक्रम, हर कंपनी... हर जगह। नाम थोड़ा इधर उधर हो सकता है। इस विभाग का अधिकृत काम होता है मानव संसाधन का प्रबंधन। अनधिकृत तो जाने कितने काम होते हैं ! साहबों की तुनक मिजाजी, साहबों की सनक, साहबों की मौज को कार्यरूप देने वाले।  कभी कभी कार्मिक विभाग वाले बोर होने लगते हैं तो कुछ आदेश निकाल देते हैं। फिर उस आदेश में कुछ बदलाव लाते हैं। ज्यादा हुआ तो आदेश को निरस्त कर देते हैं।  यह सब करने- धरने में विभाग वालों की धाक जम जाती है, कितना पावर है उनके पास! 


भोलाराम जीवित इसी विभाग के समक्ष उपस्थित हैं।  इवेंचुअल पोस्टिंग की प्रत्याशा में। घर पर कोई मेहमान आए तो बेसिक कर्टसी है कि पूछा जाता है क्या लेंगे, चाय, कॉफी, ठंडा? कार्मिक वाले पूछते हैं कि कैसी और कहाँ पोस्टिंग चाहिए। ऐसा सुनकर अमूमन प्रत्याशियों के मन में लड्डू फूट पड़ते हैं। लेकिन वे मन के ही लड्डू साबित होते हैं। भोलाराम जीवित ने भी इच्छा प्रकट कर दी है। उन्हें एक फॉर्म पकड़ा दिया गया है। पसंद की तीन पोस्टिंग का नाम प्राथमिकता के आधार पर देने के लिए। भोलाराम जी ने फॉर्म भर दिया है। फॉर्म रख लिया गया है। जीवित जी को अगले दिन आने के लिए कहा गया है।  उन्हें इस आश्वासन के साथ विदा किया गया कि भोलाराम जीवित जैसे काबिल और अनुभवी व्यक्ति के लिए तो फॉर्म तो महज एक औपचारिकता भर है। उन्हें तो मनचाहा काम ही मिलेगा। जीवित जी जीवंत हो उठे हैं।  प्रसन्नवदन वहाँ से निकले। 


विभाग से बाहर निकले तो भोलाराम जी को अपने एक पूर्व परिचित बड़े अधिकारी का ध्यान आ गया। जो संयोग से वहीं पदस्थापित भी थे। भोलाराम जी उनसे मिलने पहुँच गए। सेक्रेटरी ने थोड़ी ना- नुकुर की, लेकिन भोलाराम जीवित ने अपने मोबाइल पर बड़े अधिकारी से सीधे बात कर ली। सेक्रेटरी को उन्हें अंदर जाने देना पड़ा। बड़े अधिकारी बड़े अच्छे थे ।  भोलाराम को देख वे बड़ा खुश हुए। भोलाराम से उन्होंने दरयाफ्त की इधर कैसे आना हुआ। भोलाराम ने बताया कि तबादले पर आए हैं और कार्मिक विभाग में फॉर्म भर कर आए हैं। भोलाराम जीवित ने बड़े अधिकारी को यह भी बताया कि पहला नाम उन्हीं के विभाग का दिया है। बड़े अधिकारी ने तुरंत इंटरकॉम पर कार्मिक विभाग बात की और हिदायत दी कि भोलाराम जीवित उन्हीं के विभाग में पदस्थापित किए जाएँ। फोन रखते समय बड़े अधिकारी के चेहरे पर भाव थे कि हो ही गया! तुमको शरण में ले ही लिया। भोलाराम जीवित कुर्सी पर एकदम आगे बैठे थे, अब थोड़ा झुक भी गए। 


अगली सुबह भोलाराम जीवित ठीक समय पर कार्मिक विभाग पहुँच गए। उन्हें हवा थोड़ी बदली- सी लगी। उन्हें बताया गया कि विभाग- प्रमुख उनसे मिलना चाहते हैं। कोई घंटा भर इंतजार करने के बाद विभाग- प्रमुख ने अंदर बुलवाया। भोलाराम जीवित के बैठते बैठते विभाग- प्रमुख ने कहा - " भोलाराम जी, आपके दिए गए तीनों नामों में कहीं भी जगह नहीं है। कोई और जगह हो तो बताइए।" भोलाराम जी ने बड़े अधिकारी के फोन का ज़िक्र किया, जिस पर विभाग- प्रमुख ने कहा- " जीवित जी, बड़े अधिकारी को कहाँ इन टुच्ची बातों का पता होगा कि वेकेन्सी है भी या नहीं। " भोलाराम जीवित ने भोलराम जी की जगह जीवित जी संबोधन के रूखेपन और कड़ेपन को समझ लिया। अनुभवी व्यक्ति समझ जाता है कि घी टेढ़ी ऊँगली से नहीं, पिघलाने से निकलता है। भोलाराम जीवित, जो उम्र और नौकरी दोनों ही लिहाज से सीनियर थे, ने विभाग- प्रमुख से सविनय कहा-- " सर, देख लेते। इतने सालों बाद इस शहर में आने का मौका मिला है। कोई भी जगह यदि निकाल पाते। "

विभाग- प्रमुख ने हँसते हुए कहा - " सारी मलाई आप ही खाएँगे जीवित जी! विदेश की पोस्टिंग का मजा लूट कर तो आ ही रहे हैं। बड़े अधिकारी महोदय की कृपा रही तो प्रमोशन भी पा लेंगे आप तो! " 

हँस कर बात कह देने से उसे धमकी या कटुतापूर्ण सिद्ध करना कठिन हो जाता है। भोलाराम यह समझते हैं। उन्होंने अपनी वही बात कहने की कोशिश की, कि उनको तो पता तक नहीं कि पोस्टिंग कैसे मिली। विभाग- प्रमुख ने काटते हुए कहा- " क्या बच्चों जैसी बात कर रहे हैं। बच्चा बच्चा जानता है कि कैसे क्या होता है। खैर छोड़िए, बड़े अधिकारी का फोन था। अभी उनकी बात को ज्यादा काटना ठीक नहीं। उन्हीं के विभाग में टेंपोररी काम है कुछ, कर लीजिए फिलहाल। "

भोलाराम - " कैसा काम? "

विभाग- प्रमुख - " कुछ फर्निचर और ऑफिस की मरम्मत का काम है। कुछ बड़े अधिकारी के पेंडिंग बिल बनाने और पास करवाने का काम है। कुछ कुछ पुराने रिकॉर्ड्स को हटवाने का काम है। इतना करने के बाद भी अगर आपकी फाइनल पोस्टिंग नहीं हो पाई, तो ऑफिस बिल्डिंग शिफ्ट करने का भी एक बड़ा काम है।  आप आज ही जा कर बड़े बाबू से मिल लीजिए।" यह कह कर विभाग- प्रमुख किसी काम से बाहर निकल गए। 


भोलाराम जीवित बैठे सोच रहे हैं -- काबिलियत, अनुभव, वफादारी... माइ फुट!  जहाँ बड़े अधिकारियों के हाथ इतने बँधे हों, ज़बान इतनी सिली हुई हो, गर्दन इतनी झुकी हुई हो... कोई बड़ा अधिकारी बनता ही क्यों है? 


भोलाराम जीवित भारी कदमों से बड़े बाबू से मिलने चल दिए हैं। उनका रहा सहा हौसला भी जाता रहा! 


***


भगत जी ने वक्तव्य समाप्त किया। हॉल में पिन ड्रॉप साइलेंस हो गया है। दर्शकों में अधिकांश दफ्तर के ही लोग हैं। मंच पर आसीन अध्यक्ष महोदय माइक पर आए। उन्होंने भगत जी को धन्यवाद कहने के बाद आगे कहा - " भगत जी ने भोलाराम जीवित की अद्भुत कहानी सुनाई है ।  अच्छी कहानियों के साथ होता यही है कि वे लगती सच हैं, पर होती नहीं। इस कहानी में वर्णित घटनाएँ भी ऐसी ही हैं। लगती सच हैं, पर सच हैं नहीं ।  कम से कम इस दफ्तर के लिए तो मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ। आपमें से किसी को कुछ पूछना हो तो, भगत जी प्रस्तुत हैं ।  


जैसा कि सरकारी किस्म की सभाओं में होता है कोई कुछ पूछ कर समय बर्बाद नहीं करना चाहता, यहाँ भी ऐसा ही हुआ। लग रहा था कि अब सभा विसर्जित हो जाएगी कि तीसरी लाइन में बैठे एक व्यक्ति ने हाथ उठाया। उसने पूछा --" मैं भगत जी से पूछना चाहता हूँ कि इस कहानी में वे खुद हैं क्या? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि बड़े अधिकारी भी कुछ स्टैंड लें ऐसा होने के लिए क्या करना होगा? "


भगत जी ने गोलमोल जवाब दिया, जैसा कि ऐसे प्रश्नों का दिया जाता है --  " आपके पहले प्रश्न का जवाब है, हाँ भी और ना भी। दूसरे प्रश्न का जवाब है कि हर बड़े अधिकारी को सही अर्थों में बड़ा होना होगा। "


अध्यक्ष ने प्रश्नकर्ता को उसकी जारुकता के लिए धन्यवाद दिया और साथ ही सभा समाप्ति की घोषणा, भगत जी की फ्लाइट का समय होने की चर्चा कर के, कर दी। अध्यक्ष दर्शकों को बाहर नाश्ते के लिए निमंत्रित करना नहीं भूले थे । 


***


कुछ देर बाद


भगत जी -  अच्छा हुआ तुम दर्शकों के बीच बैठे थे। तुम्हारे प्रश्न पूछ देने से बातचीत वास्तविक लगने लगी। 


बुतरू   -  यह तो आजकल का ट्रेंड है । अपने आदमियों की भीड़ जमा कर के वोटिंग करवाओ। तभी सबकुछ असली और सफल लगेगा। 


भगत जी -  क्या क्या सिखाओगे अभी भाई...? 


***

मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

पदचिह्न 👣 के बिना


पदचिह्न 👣 के बिना

मोहन बाबू की (आत्म)कथा डायरी के कुछ अंश



मोहन बाबू सब छोड़ छाड़ कर बैठ गए हैं । 

मोहन बाबू को अभी कुछ करना है। उन्हें सभी कुछ करना है। 


हालाँकि यह उम्र तो नहीं है कि कोई घर बैठ जाए। 

हालाँकि आजकल तो नौकरियों में भी घर बैठा ही दिया जाता है। 


यह उम्र ऐसी भी नहीं कि पूरी तरह आराम फरमाने लगें और ऐसी भी नहीं कि कमर कस कर जी जान से भिड़ जाएँ। 


मिड लाइफ क्राइसिस क्या इसी को कहते हैं? हालाँकि मोहन बाबू को देख कर तो ऐसा कतई नहीं लगता  ! 


***


मोहन बाबू से किसी ने कहा 

" आदमी आखिर करना क्या चाहता है? जीवन से चाहता क्या है? "


मोहन बाबू सोचने लगे

" जो कुछ नहीं कर रहा होता, उसे जीवन में कुछ नहीं करना? उसे कुछ नहीं चाहिए जीवन से? 

कहा उन्होंने कुछ नहीं। 


वे चुपचाप चाय पीते रहे । 


***


"तो अब तुम मेरी जासूसी करने लगे हो? "

मोहन बाबू सन्नाटे में! उनके सबसे प्यारे दोस्त का डायलॉग था यह। 


बरसों से मोहन बाबू को लगता आ रहा है कि वो जरूरत से थोड़ा ज्यादा कर जाते है -- लोगों से बातचीत, लोगों की चर्चा, उनके क्रिया कलापों की चर्चा। 


मोहन बाबू धीरे- धीरे चुप होते गए  उस दिन से...। 

सबंधों को बरतना सीखते... धीरे- धीरे.. 


***


" ऐसा ही होता है मोहन बाबू! आप उदास मत हुआ करिए।"


मोहन बाबू ने उदास आँखों से उसे देखा। 


" अरे भाई! हमको कोई सुनता नहीं, बर्दाश्त करता है। जब तक बर्दाश्त किए जाने का कोई भी कारण हो। एक बार कारण खतम, खेल खतम! "


मोहन बाबू जमीन को देखने लगे। 


" इसीलिए तो अपने यहाँ 'वानप्रस्थ' की अवधारणा है।"


" अवधारणा तो 'संन्यास' की भी है" मोहन बाबू धीमी आवाज़ में बोले। 


" हाँ तो, ये हाल रहा तो एक दिन आप अपने आप से भी दुखी हो जाइएगा, तब 'संन्यास' ही न काम आएगा! "


बड़ी देर बाद मुस्कान की एक क्षीण रेखा मोहन बाबू के चेहरे पर उभरी। 


***


" कितनी निर्लज्जता के साथ आदमी झूठ बोल जाता है।"


" निर्लज्ज व्यक्ति ही झूठ बोल सकता है।"


"हम जो हर बात को सच मान लेते हैं वो...?" 

मोहन बाबू आगे कुछ न बोल सके.... 


***


भाई भाई को सीढ़ी नहीं चढ़ने दे रहा। 


बेटा पिता को कुछ समझ ही नहीं रहा। 


बेटे का वैभव पिता को गर्वित कर रहा है। 


बेटा बहू को गाली दे रहा है। बेटा बहू को चाँटा मार रहा है। माता-पिता भगवान की ओर देख रहे हैं! 


बेटे का हर ऐब माँ ढँक रही है। 


माँ बेटे का विपक्ष हो गई है। 


पति को पत्नी शत्रु मान रही है, बेटे को उस शत्रु के विरुद्ध सेनापति। 


पैदल चलने से विचार चलते हैं, बदलते हैं। मोहन बाबू पैदल निकल पड़े हैं। 


***


सुबह- सुबह मोहन बाबू के मन में पंक्तियाँ गूँज रही थीं --


मन! मन! मन! खाक मन !  मन के अंदर घुस कर कौन देखता है जी? बोलिए, कभी बोलिए भी। यहाँ कोई अंतर्यामी नहीं बैठा हुआ है! 


मोहन बाबू ने कहना चाहा " ऐक्शंस स्पीक लाउडर दैन वर्ड्स " लेकिन कहा नहीं ।  चाय का कप लेकर धीरे- धीरे चलते हुए

छत पर आ गए। एक कोयल बड़े धीमे स्वर में कूक रही थी। 



***


"दुख ने तुम्हें अंधा कर दिया है।"


"अच्छा? 

सबका दुख बड़ा होता है। "


"अच्छा  ! 

आपकी नजदीक की नज़र कमज़ोर हो गई है। दुनिया जहान की बातें आपको दिखाई पड़ती हैं, आसपास से बेखबर हैं आप।"


"हो सकता है सब दिख रहा हो इसीलिए..." मोहन बाबू अखबार में डूब गए। 



***


"  दूसरों की समस्या का हल ढूँढते ढूँढते आप खुद समस्या बन चुके हैं मोहन बाबू। "


"हो सकता है। जो ठीक भँवर के केन्द्र में हो उसे कैसे पता चले कि भँवर का ज़ोर कैसा है ।"


मोहन बाबू ने टेप ऑन किया, आवाज़ तैरने लगी -" धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपद् काल परखिए चारी।"


***


" हद है! आपको कुछ नहीं पता कि दुनिया में क्या चल रहा है? आर्थिक, सामाजिक, सामरिक परिस्थितियों का आपको कुछ भी भान नहीं? देश- विदेश में आग लगी हुई है । इतने सारे अखबार देखते तो हैं?"


"मुझे सच में नहीं पता। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैंने दुकानों को बंद होते देखा है, बच्चों का स्कूल छूट जाना सुना है। एक बच्ची को अपने पिता से दो पेंसिलों के लिए मनुहार करते देखा है, बस दो पेंसिल!! घर में मेहमान आए हैं, उन्हें कैसे कोई मिठाई खिलाएँ किसी को यह चिंता करते देखा है! बड़ी बड़ी बातें क्या समझ पाऊँगा तुम्हीं बताओ?"


" फिर भी, पढ़े- लिखे बौद्धिक लोगों का कुछ तो कर्तव्य होता है?"


मोहन बाबू सर हिलाते बैठे रहे। मन ही मन दुहराते " पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ... "। 


***


बहस छिड़ी हुई थी - 


फ़ासीवाद आ चुका है। व्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है। आम आदमी की कोई सुनवाई नहीं। सेठों के खाते मोटे हुए जा रहे हैं। असमानता की खाई बढ़ती जा रही है। धर्म संविधान बना जा रहा है। 


मोहन बाबू ने पानी का ग्लास उठाते हुए पूछा, " आप अपनी एस यू वी छोड़ सकते हैं? "


"देखिए ये व्यक्तिगत हो रहा है कमेंट।"


मोहन बाबू ने पानी का एक ग्लास उनकी तरफ बढ़ा दिया। 


***


" इस देश को ये रहने लायक नहीं छोड़ेंगे। कट्टरता देखी है इनकी! ये किसी को नहीं छोड़ते। ये किसी के नहीं अपने।"


"आप ऐसे कितने लोगों को जानते हैं?"


" अरे, सब के सब ऐसे ही हैं। "


" नाम ले के बताइए न  !"


" नाम कोई भी हो, सब वैसे ही होते हैं।"


"फिर आप भी तो 'वैसे' ही हैं! एक नाम तक नहीं जानते और कितनी घृणा !! "


" मोहन बाबू, आप जैसे लोगों के कारण ही इनका मन बढ़ा हुआ है। "


" तो फिर आप जैसे लोगों के कारण ही मन छोटा हुआ है।"


***


मोहन बाबू बड़े सख्त हैं। 


उसी दिन तो फोन आया " एक बात कहें, बुरा तो नहीं मानोगे? "


" बिल्कुल नहीं, कहो। "


" जब तुम छठी क्लास में स्कूल छोड़ कर गए थे न, तो बहुत दिनों तक बड़ा सूना- सूना लगता था। फिर कभी मिल ही नहीं पाई तुमसे, न कुछ पता चला तुम्हारा।... सोचा तुम्हें बताऊँ कि न बताऊँ। कहीं बुरा तो नहीं मान जाओगे!" 


मोहन बाबू खुद को कवि भी समझते थे। उन्होंने साधारणीकरण कर दिया " अरे नहीं नहीं। कोई किसी को अच्छा लगे तो अच्छा ही लगता है। " 


मोहन बाबू कमबख्त हैं  ! 


***


मोहन बाबू कभी- कभी सोचा करते कि सारी दोस्तों को बता दें कि कौन- सी कविता उन्होंने किसके लिए लिखी है। 'मेरा नाम जोकर' के आखिरी दृश्य- सा कुछ कर के। 


फिर तुरत ही खयाल आता " यो ध्रुवाणि परित्यज्य... "। 


आज तक सिर्फ मोहन बाबू ही जानते हैं कौन सी कविता किस पर लिखी है। 


***


आप एकदम नीरस हो गए हैं। 


अच्छा! रस की परिभाषा क्या है, तुम्ही बतलाओ। 


आपसे तो बात करना ही बेकार है। 


मोहन बाबू अखबार में एक लेख पढ़ रहे हैं जिसमें बताया गया है कि एक बड़े नामी होटल में बड़े उचित दर पर मात्र पाँच- छः हजार रूपयों में दो आदमी आराम से खाना खा सकते हैं। 

मोहन बाबू के एक मित्र ने मेसेज किया हुआ है कि मात्र पाँच सौ रूपए की सहायता किसी एक परिवार के लिए महीने भर का राशन उपलब्ध करा सकती है। 


मोहन बाबू से बात करना बेकार ही है ! 


***


उम्मीद बड़ी बुरी चीज होती है, मोहन बाबू  ! 


हूँ... मोहन बाबू अपनी यादों में चले गए। बातें कितना मथ देती हैं उनको... 


उम्मीदें अपने साथ कातरता लाती हैं। इसीलिए किसी से छोटी से छोटी  चीज माँगने में भी मोहन बाबू के हाव भाव अजीब हो जाते थे। कम से कम मोहन बाबू ऐसा सोचने लगे थे। 


मोहन बाबू, आपने जावेद अख़्तर का ये शेर सुना है, नुसरत साहब ने गाया है? -


आज किसी ने दिल तोड़ा तो जैसे हमको ध्यान आया

जिसका दिल हमने तोड़ा था वो जाने कैसा होगा 


अनजाने कभी कुछ हुआ हो तो नहीं कह सकता, जान कर तो मैंने ऐसा कभी नहीं किया है। 


तो मोहन बाबू, दूसरों से भी तो अनजाने में कुछ हो सकता है! 



***


जिंदगी से जो कुछ चाहता नहीं है, जिंदगी उसे कुछ देती भी नहीं है।  और तो और आसपास के लोग भी यह मान बैठते हैं कि एक मोहन बाबू ही हैं जिन्हें सबकुछ स्वीकार हो जाता है। कोई डिमांड नहीं किसी से। 


कई बार लोग अपनी सहूलियत को दूसरे की इच्छा बना देते हैं। 


मोहन बाबू सब खेल समझते हैं, अलबत्ता खेलते नहीं। जो खेलता नहीं वो जीतता भी नहीं। 


मोहन बाबू हारे हुए हैं... 


***


मोहन बाबू को लगने लगा है कि उनके द्वारा किसी को बधाई देने या सांत्वना देने का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। वो इन बातों से कतराने लगे हैं। उनको लगता है उनके व्यक्तित्व, उनके अस्तित्व का ही पूरी तरह अवमूल्यन हो चुका है । वो दाम गिन नहीं सकते , दाम गिना नहीं सकते । 


मोहन बाबू खरी- खरी सुन तो सकते हैं, किसी को खरी- खरी सुना नहीं सकते। 


मोहन बाबू ने बैठे- बैठे टेपरेकॉर्डर ऑन किया  --


रख कदम फूँक- फूँक कर नादाँ

ज़र्रे ज़र्रे में जान है प्यारे


मोहन बाबू ने बड़े धीमे और टूटे हुए स्वरों में गुनगुनाया --


इश्क़ की दास्तान है प्यारे

अपनी अपनी ज़ुबान है प्यारे


एक उदास- सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर आते- आते रुक गई है । उन्होंने हल्के से सर को झटक दिया है । 


***


अंतिम पृष्ठ


शाम का झुटपुटा है। शाम अधिक ही गहरी हो चली है। मोहन बाबू मेज पर कुहनी टिकाए खिड़की से बाहर देख रहे हैं। बरगद के बड़े और गहरे हरे पेड़ पर शाम को लौटते हुए पंछियों का कलरव है। 


बाहर बरामदे पर  दो डॉक्टर बात कर रहे हैं -

" तीस बरस हो गए मोहन बाबू को। जाने क्या बात है कि पूरा ठीक होते ही नहीं।"


दूसरे डॉक्टर ने कहा, " पता नहीं कुछ ज्यादा ही दिल पर ले लेते हैं बातों को। जब घर वाले नहीं सह सके इनकी बातों को तो औरों का क्या?"


" फिर बोलना छोड़ा तो छोड़ ही दिया। सारा कुछ अंदर जमता गया। कहीं तो निकलना ही था! वैसे ठीक ही है, यहाँ हैं। ये किसी को और कोई इन्हें बर्दाश्त ही कहाँ कर पाएगा।"


बहुत देर तक बरगद को देखने और पंछियों की आवाज़ सुनने के बाद मोहन बाबू ने कमरे पर नज़र दौड़ाई। चौकी की बगल में स्टूल पर टू इन वन रखा था। उन्होंने प्ले बटन दबाया। मुकेश की आवाज़ में रामचरितमानस की पंक्तियाँ बज उठीं -- " उठहुँ  राम भंजहुँ भव चापा... "। 


मोहन बाबू ने डायरी खोली। बैंगनी रँग की स्याही वाली कलम से सामने खुले पेज पर  एक शब्द लिखा -


धन्यवाद


 फिर विस्मायादि बोधक चिह्न लगाया। फिर थोड़ी देर कलम हाथ में लिए बैठे रहे। फिर प्रश्न चिह्न लगाया और कलम बंद कर के रख दी। 


***




शनिवार, 29 मार्च 2025

इश्क के तीन सीजन : 'ऐसे क्यूँ...'

 

इश्क के तीन सीजन : 'ऐसे क्यूँ...'



कहते हैं फिल्मों की कहानियाँ दो ही होती हैं बदले की या प्रेम की। और इनमें भी प्रेम की कहानी तो हर कहानी में गुँथी हुई होती है। प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए भला गीत से बेहतर क्या हो सकता है! हिन्दी फिल्मों में प्रेम के कितने ही अनमोल गीत भरे पड़े हैं। प्रेम के हर आयाम को पकड़ता, मन के हर भाव को पकड़ता हुआ कोई न कोई गीत आपके ध्यान में आ ही जाता है। प्रेम जीवन की अंतः सलिला धारा है और हिंदी फिल्मों के गीत प्रेम के लिए अंतः सलिला हैं। हिंदी फिल्मों एक से एक दिग्गज गीतकार हुए हैं। आज भी अनेक गीतकार बेहतरीन गीत लिख रहे हैं। बहरहाल, बात फिल्मों की कहानियों में प्रेम और उस प्रेम को उद्‌गार देते हिंदी फिल्मों के गीतों की हो रही है। एक ही गीत या धुन का इस्तेमाल या विकास अलग-अलग फिल्मों में दिखे, ऐसा कम ही होता है। हमने ऐसा देखा है कि राज कपूर की कुछ फिल्मों में बजने वाला पार्श्व संगीत, उनकी बाद की फिल्मों में किसी गीत की धुन बना। आजकल फ्रेंचाइजी / सीक्वेल वाली फिल्में बन रही हैं, तो उनमें किसी गीत के एक फिल्म से दूसरी या बाद की फिल्मों तक भी सफर करना संभव हो गया है। हाल ही में आई फिल्म 'भूल-भुलैया-3' के 'मोरे ढोलना' गीत को याद किया जा सकता है। लेकिन उस गीत में प्रेम की बात नहीं है। प्रेम की बात है 'ऐसे क्यूँ में। नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई वेब सीरीज़ 'मिस मैच्ड' के तीन सीज़न आ चुके हैं। उनमें यह गाना पहले से दूसरे और फिर तीसरे सीजन तक चलता आ रहा है। विशुद्ध तकनीकी रूप से आँकेंगे तो शायद तीसरे सीजन के गीत को आप अलग रखना चाहें, लेकिन अगर भाव और अर्थ के विस्तार के हिसाब से देखेंगे तो एक ही गीत का विकास होता हुआ पाएँगे।


यह गीत 'ऐसे क्यूँ', पहले दोनों सीजन में इसी नाम से है। तीसरे सीजन का गीत है 'इश्क है'। संगीतकार हैं अनुराग सैकिया और गीतकार हैं राज शेखर। पहला सीजन 2020 में आया था। उसमें जो 'ऐसे क्यूँ' गीत है, उसकी धुन थोड़ी ट्रेंडी किस्म की है। पहला सीजन है, प्यार की कोंपलें अभी फूट ही रही हैं। गीत की शुरुआती पंक्तियाँ कुछ ऐसी हैं -


"ज़रा ज़रा अभी बात शुरू हुई 

मगर खुश हूँ मैं आजकल 

अभी तलक मेरी शाम तो ऐसी न थी 

जैसी हल्की है आजकल "


प्रेम जीवन को हल्का कर देता है। जीवन भारी नहीं लगता। प्रेम की पुलक व्यक्ति को जिजीविषा से भर देती है। उसके लिए दुनिया के रंग बदलने लगते हैं। उसका मन आशा और अपेक्षा से भर जाता है। तभी तो वह किसी से पूछना चाहता है -


"एक दिन हौले से

तुमसे है ये पूछना

रातें तेरी भी थोड़ी फ़िरोज़ी

फ़िरोज़ी सी हैं भी क्या"


हिंदी फिल्मों के गीतकार को बहुत सारी बंदिशों के साथ गीत लिखना होता है। लेकिन इसके बावजूद उसके लिखे में उसका अपना व्यक्तित्व, फिल्मी गीतों की परंपरा और उसका समय तो बोलता ही है। ऊपर की पंक्तियों में फ़िरोज़ी रंगा का जिक्र आते ही क्या वहीदा रहमान की याद नहीं आ जाती, "आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है" गाते हुए? क्या वही उल्लास, वही उन्मुक्तता 'ऐसे क्यूँ' की इन पंक्तियों में नहीं झलकती। प्रेम व्यक्ति को स्वतंत्र करता है, स्वतंत्र होने की प्रेरणा देता है। हौले से पूछता है और मन को उल्लसित कर जाता है। इसी उल्लास और उन्मुक्तता को 'ऐसे क्यूँ' पकड़ता है बखूबी।


गीत का अंतिम अंतरा नायिका की तरफ से है। वह कहती है "कुछ तो लिखती हूँ, लिख के मिटाती हूँ"। प्रेम यह बताता है कि बेवजह की जाने वाली बातें भी जीवन को अर्थपूर्ण बना जाती हैं कई बार। वैसे भी कविता या गीत सिर्फ अर्थ नहीं, उनमें सिर्फ कार्यकारण संबंध नहीं होता। उसी अंतरे की अगली पंक्तियों में एक प्रश्न है, जिसे हम नायिक की घोषणा भी समझ सकते हैं-


 "दिल को यूँ खोलना 

   सबकुछ कहकर ही

   सबको बताना ज़रूरी है क्या"


यह बात प्रेम के संबंध में कितनी सटीक है! और खासकर हमारे समाज में एक लड़की ओर से सोचें, तब तो और भी। जब लोग बात का बतंगड़ बनाने को तैयार बैठे हों, तब कहाँ-कहाँ सफाई दी जाएगी। मेंहदी हसन की गाई एक ग़ज़ल की पंक्तियाँ तो याद होंगी ही -


" किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम 

   तू मुझसे खफा है तो ज़माने के लिए आ"


बात वही है कि कुछ कहकर आफत क्यों मोल ली जाए। प्रेम का घटित होना ज्यादा जरूरी है, प्रेम के उद्घाटित होने से !


पहले सीजन का गीत इन्हीं पंक्तियों के साथ समाप्त होता है। कमाल की बात यह देखिए कि करीब दो साल बाद जब दूसरा सीजन आता है तो 'ऐसे क्यूँ' गीत की शुरुआत पहले सीजन के गीत की आखिरी पंक्तियों से ही होती है। प्यार का सफर जारी है, दो साल बाद भी। इस बार मौसम गजलनुमा है मगर ! यह पूरा गीत नायिका की तरफ से गाया गया है। गीत शुरू तो होता है उसी बात से कि " सबकुछ कहकर ही सबको बताना ज़रूरी है क्या"। लेकिन देखिए ख्वाहिश क्या है -


" उसके होठों पे

अच्छा लगता है मेरा नाम 

कुछ भी बोले वो 

मन में घुलता है ज़ाफ़रान 

गिरता है गुलमोहर 

ख़्वाबो में रात भर 

ऐसे ख़्वाबों से बाहर निकलना ज़रूरी है क्या"


प्रेम कितना विरोधाभासी होता है। एक तरफ तो यह तर्क कि सबकुछ कहकर ही कहा जाना कहाँ जरुरी है, और दूसरी तरफ यह इच्छा कि प्रियतम के होठों पर मेरा नाम आए! अगर बदनामी का अंदेशा था, तो अब कहाँ गया। और यदि बात को समझ लेने की बात है, तो दोनों पक्ष ही बात को क्यों न समझें? एक पक्ष ही क्यों बोले ? यहाँ पर गीतकार, संगीतकार और निर्देशक की चतुराई भी काम कर रही है। रेखा भारद्वाज से यह गीत गवा कर इसे नायिका का गीत होने आभास दिया गया है। आप यदि गीत को पढ़ें तो यह पाएँगे कि यह बात तो दोनों पक्षों में से कोई भी ये बातें कह सकता है। कहा ही गया है 'प्रेम गली अति साँकरी...!'


शैलेन्द्र के गीतों में अक्सर जीवन-दर्शन भी पिरोया हुआ रहता था। इस गीत के आखिरी अंतरे की पंक्तियाँ देखिए -


"बीता जो वाकया

 सोचूँ मैं क्यूँ भला

 बीती बातों से दिल को दुखाना जरूरी है क्या"


ये पंक्तियाँ सिर्फ प्रेम-संबंधों के बारे में नहीं है, बल्कि जीवन के हर पहलू में भी उतनी ही कारगर पंक्तियाँ हैं। हमें साहिर भी याद आ जाते हैं"मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया...।" हमें यह भी याद आ जाता है "बीती ताहि बिसारि के...।" और हमें राज शेखर का ही एक गीत याद आ जाता है-" मूव ऑन"।


'मिसमैच्ड' का तीसरा सीजन 2024 में आया। इसमें एक गीत है" इश्क़ है"। यह गीत एक कव्वाली की शक्ल में है। याद करें कि राज शेखर की पहली फिल्म 'तनु वेड्स मनु' का बहुचर्चित गीत 'ऐ रंगरेज़ मेरे' भी एक कव्वाली के रूप में ही था। वह गीत भी इश्क़ की एक अलग ही दास्तान था। जिसने भी वह गीत सुना हो, गीत फिर छूटता ही नहीं, बना रह जाता है। साथ ही रह जाता है, गाहे बगाहे याद आते। गीत के शीर्षक के अनुसर देखेंगे तो यह गीत 'इश्क़ है', 'ऐसे क्यूँ' से अलग गीत है। लेकिन गीत के भाव और अर्थ के विकास के अनुसार देखेंगे तो तीनों गीतों में एक तारतम्य दिखेगा। पहले गीत में प्रेम की प्रथम अनुभूति की बात है, उसे समझने, उसे छुपाने, सहेजने की बात है। दूसरे गीत में बार-बार सुनने-मिलने की इच्छा की बात है। प्रेम में नई शुरुआत की बात है, बीती हुई बातों को बिसार कर आगे बढ़ने की बात है। तीसरे गीत तक आते-आते प्रेम व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ चला है। प्रेम ही है जिसने दुनिया को रहने के लायक बनाया है। हर तरफ प्रेम ही प्रेम है। गीत की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-


" रोशनी ही रोशनी है चार सू, जो चार सू

  इश्क़ है ये इश्क़ है इश्क़ है ये इश्क़ है 

  जो छुपा है हर नज़र में हर तरफ़ जो रू-बरू 

  इश्क़ है ये इश्क़ है इश्क़ है ये इश्क़ है "


आगे गीत में पंक्ति आती है-


 "साया मेरा है तू और मैं तेरा

  तू दिखे या ना दिखे तेरी खुशबू कू-ब-कू"


प्रेम जब होता है तो ऐसी ही होता है। हर तरफ प्रेम ही प्रेम। प्रेम एकाकार कर देता है, मेरे व तेरे के भेद को मिटाकर। प्रेम इतना ही करता है। प्रेम बंधनमुक्त करता है। प्रेम व्यक्ति को स्वतंत्र कर देता है। प्रेम बाँधता भी है, उन्मुक्त भी करता है। गीत की पंक्तियाँ हैं-


"कोई कहता है इश्क़ हमें आबाद करता है 

कोई कहता है इश्क़ हमें बर्बाद करता है 

ज़ेहन की तंग दीवारों से उठकर मैं कहता हूँ 

इश्क़ हमें आज़ाद करता है"


हिंदी फिल्मों के दायरे में बँधकर, बहुत ही आसान शब्दों में यह गीत कितनी बड़ी घोषणा कर गया है। इश्क़ में तंगदिली के लिए कोई जगह नहीं होती। इश्क़ हमें तंगदिली से बाहर निकालता है, खुली हवा में साँस लेना सिखाता है। प्रेम हमें कृतज्ञ होना भी सिखाता है। आज के इस घोर प्रतिद्वंद्विता के समय में, जब हर व्यक्ति पूरी तरह

आत्मकेंद्रित हो गया है, प्रेम हमें दूसरों की महत्ता स्वीकार करने की सलाहियत देता है -


"तुमसे मिले तो बैठे बिठाए

 छूने लगे हैं आसमाँ

 तुमसे मिले तो छोटा-सा किस्सा

 बनने को है दास्ताँ"


गीत के शुरू में पंक्ति आती है "साया मेरा है तू और मैं तेरा"। यानी अभी ईगो के कुछ अंश बचे हुए हैं शायद। प्रेम में ईगो के लिए जगह नहीं होती। तभी तो बाद में गीत में पंक्ति आती है " सारा मेरा हो तू और मैं तेरा"। जिगर मुरादाबादी ने भी कहा है -


"तू नहीं मैं हूँ, मैं नहीं तू है 

अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे"


बिना 'स्व' को खोए प्रेम मिल ही नहीं सकता। प्रेम जब विस्तार पाता है तो पूरी दुनिया को अपना बना लेना चाहता है। पूरी दुनिया का हो जाना चाहता है। यह प्रेम का जादू है। जिगर मुरादाबादी ने ही कहा है -

"इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना ये फ़साना है

सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है"


'ऐसे क्यूँ' प्रेम की सहज अभिव्यक्ति है। यह गीत तीन सीजन का सफर पूरा करता है, भले ही तीसरे सीजन में एक अलग नाम से। पहले सीजन में संशय की थोड़ी गुंजाइश है-


"क्या है ये माजरा

कुछ तो है मिल रहा

या फिर मैं ही बस

मन ही मन किस्से बनाने लगा"


लेकिन तीसरे सीजन तक आते प्रेम पर विश्वास पूर्णता प्राप्त कर लेता है -


"सारा मेरा हो तू और मैं तेरा

तू दिखे या ना दिखे तेरी खुशबू कू-ब-कू"


प्रेम चार सू है, कू-ब-कू है और हर तरफ रू-ब-रू है। यह इच्छा कि सारा मेरा हो तू और मैं तेरा, यह अगर सचमुच किसी के मन में जग जाए तो पूरी भी होगी-


" जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥"


शर्त यह है कि 'सत्य सनेहू' होना चाहिए।


राज शेखर के गीतों में प्रेम के विविध आयाम मिलते हैं। 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' के एक गीत की पंक्तियाँ देखिए -


"हो गया है प्यार तुमसे 

तुम्हीं से एक बार फिर से 

बोलो अब क्या करें?"


सुपरहिट फिल्म 'एनिमल' के एक गीत की ये पंक्तियाँ देखिए -


" पहले भी मैं तुमसे मिला हूँ 

 पहली दफ़ा ही मिल के लगा"


प्रेम की कितनी अभिव्यक्तियाँ !


फरवरी फागुन का महीना है। आपके अंदर फाग के जागने का। दुपहर की धुक्कड़ का भी समय है। हल्के वॉल्यूम में 'ऐसे क्यूँ' बजाइए किसी दुपहर और महसूस कीजिए प्रेम का बरसना आसमान से, पैरों के नीचे ज़मीं का उड़ना। महसूस कीजिए 'इश्क़ में सफ़र आसमानी'। अगर इस गाने की आवाज पास वाले घर या इमारत से उठकर आप तक पहुँच रही हो, तो फिर आप यकीं मानिए कि फागुन का जादू चलकर ही रहेगा!


करीब पन्द्रह वर्षों से गीतकार के रूप में सक्रिय राज शेखर के गीतों की संख्या अभी सौ भी नहीं पहुँची है, लेकिन आप उनके गीतों को सुनेंगे तो समझेंगे, क्या असर होता है !



भोलाराम जीवित [ भगत -बुतरू सँवाद 2.0]

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