पदचिह्न 👣 के बिना
मोहन बाबू की (आत्म)कथा डायरी के कुछ अंश
मोहन बाबू सब छोड़ छाड़ कर बैठ गए हैं ।
मोहन बाबू को अभी कुछ करना है। उन्हें सभी कुछ करना है।
हालाँकि यह उम्र तो नहीं है कि कोई घर बैठ जाए।
हालाँकि आजकल तो नौकरियों में भी घर बैठा ही दिया जाता है।
यह उम्र ऐसी भी नहीं कि पूरी तरह आराम फरमाने लगें और ऐसी भी नहीं कि कमर कस कर जी जान से भिड़ जाएँ।
मिड लाइफ क्राइसिस क्या इसी को कहते हैं? हालाँकि मोहन बाबू को देख कर तो ऐसा कतई नहीं लगता !
***
मोहन बाबू से किसी ने कहा
" आदमी आखिर करना क्या चाहता है? जीवन से चाहता क्या है? "
मोहन बाबू सोचने लगे
" जो कुछ नहीं कर रहा होता, उसे जीवन में कुछ नहीं करना? उसे कुछ नहीं चाहिए जीवन से?
कहा उन्होंने कुछ नहीं।
वे चुपचाप चाय पीते रहे ।
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"तो अब तुम मेरी जासूसी करने लगे हो? "
मोहन बाबू सन्नाटे में! उनके सबसे प्यारे दोस्त का डायलॉग था यह।
बरसों से मोहन बाबू को लगता आ रहा है कि वो जरूरत से थोड़ा ज्यादा कर जाते है -- लोगों से बातचीत, लोगों की चर्चा, उनके क्रिया कलापों की चर्चा।
मोहन बाबू धीरे- धीरे चुप होते गए उस दिन से...।
सबंधों को बरतना सीखते... धीरे- धीरे..
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" ऐसा ही होता है मोहन बाबू! आप उदास मत हुआ करिए।"
मोहन बाबू ने उदास आँखों से उसे देखा।
" अरे भाई! हमको कोई सुनता नहीं, बर्दाश्त करता है। जब तक बर्दाश्त किए जाने का कोई भी कारण हो। एक बार कारण खतम, खेल खतम! "
मोहन बाबू जमीन को देखने लगे।
" इसीलिए तो अपने यहाँ 'वानप्रस्थ' की अवधारणा है।"
" अवधारणा तो 'संन्यास' की भी है" मोहन बाबू धीमी आवाज़ में बोले।
" हाँ तो, ये हाल रहा तो एक दिन आप अपने आप से भी दुखी हो जाइएगा, तब 'संन्यास' ही न काम आएगा! "
बड़ी देर बाद मुस्कान की एक क्षीण रेखा मोहन बाबू के चेहरे पर उभरी।
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" कितनी निर्लज्जता के साथ आदमी झूठ बोल जाता है।"
" निर्लज्ज व्यक्ति ही झूठ बोल सकता है।"
"हम जो हर बात को सच मान लेते हैं वो...?"
मोहन बाबू आगे कुछ न बोल सके....
***
भाई भाई को सीढ़ी नहीं चढ़ने दे रहा।
बेटा पिता को कुछ समझ ही नहीं रहा।
बेटे का वैभव पिता को गर्वित कर रहा है।
बेटा बहू को गाली दे रहा है। बेटा बहू को चाँटा मार रहा है। माता-पिता भगवान की ओर देख रहे हैं!
बेटे का हर ऐब माँ ढँक रही है।
माँ बेटे का विपक्ष हो गई है।
पति को पत्नी शत्रु मान रही है, बेटे को उस शत्रु के विरुद्ध सेनापति।
पैदल चलने से विचार चलते हैं, बदलते हैं। मोहन बाबू पैदल निकल पड़े हैं।
***
सुबह- सुबह मोहन बाबू के मन में पंक्तियाँ गूँज रही थीं --
मन! मन! मन! खाक मन ! मन के अंदर घुस कर कौन देखता है जी? बोलिए, कभी बोलिए भी। यहाँ कोई अंतर्यामी नहीं बैठा हुआ है!
मोहन बाबू ने कहना चाहा " ऐक्शंस स्पीक लाउडर दैन वर्ड्स " लेकिन कहा नहीं । चाय का कप लेकर धीरे- धीरे चलते हुए
छत पर आ गए। एक कोयल बड़े धीमे स्वर में कूक रही थी।
***
"दुख ने तुम्हें अंधा कर दिया है।"
"अच्छा?
सबका दुख बड़ा होता है। "
"अच्छा !
आपकी नजदीक की नज़र कमज़ोर हो गई है। दुनिया जहान की बातें आपको दिखाई पड़ती हैं, आसपास से बेखबर हैं आप।"
"हो सकता है सब दिख रहा हो इसीलिए..." मोहन बाबू अखबार में डूब गए।
***
" दूसरों की समस्या का हल ढूँढते ढूँढते आप खुद समस्या बन चुके हैं मोहन बाबू। "
"हो सकता है। जो ठीक भँवर के केन्द्र में हो उसे कैसे पता चले कि भँवर का ज़ोर कैसा है ।"
मोहन बाबू ने टेप ऑन किया, आवाज़ तैरने लगी -" धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपद् काल परखिए चारी।"
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" हद है! आपको कुछ नहीं पता कि दुनिया में क्या चल रहा है? आर्थिक, सामाजिक, सामरिक परिस्थितियों का आपको कुछ भी भान नहीं? देश- विदेश में आग लगी हुई है । इतने सारे अखबार देखते तो हैं?"
"मुझे सच में नहीं पता। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैंने दुकानों को बंद होते देखा है, बच्चों का स्कूल छूट जाना सुना है। एक बच्ची को अपने पिता से दो पेंसिलों के लिए मनुहार करते देखा है, बस दो पेंसिल!! घर में मेहमान आए हैं, उन्हें कैसे कोई मिठाई खिलाएँ किसी को यह चिंता करते देखा है! बड़ी बड़ी बातें क्या समझ पाऊँगा तुम्हीं बताओ?"
" फिर भी, पढ़े- लिखे बौद्धिक लोगों का कुछ तो कर्तव्य होता है?"
मोहन बाबू सर हिलाते बैठे रहे। मन ही मन दुहराते " पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ... "।
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बहस छिड़ी हुई थी -
फ़ासीवाद आ चुका है। व्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है। आम आदमी की कोई सुनवाई नहीं। सेठों के खाते मोटे हुए जा रहे हैं। असमानता की खाई बढ़ती जा रही है। धर्म संविधान बना जा रहा है।
मोहन बाबू ने पानी का ग्लास उठाते हुए पूछा, " आप अपनी एस यू वी छोड़ सकते हैं? "
"देखिए ये व्यक्तिगत हो रहा है कमेंट।"
मोहन बाबू ने पानी का एक ग्लास उनकी तरफ बढ़ा दिया।
***
" इस देश को ये रहने लायक नहीं छोड़ेंगे। कट्टरता देखी है इनकी! ये किसी को नहीं छोड़ते। ये किसी के नहीं अपने।"
"आप ऐसे कितने लोगों को जानते हैं?"
" अरे, सब के सब ऐसे ही हैं। "
" नाम ले के बताइए न !"
" नाम कोई भी हो, सब वैसे ही होते हैं।"
"फिर आप भी तो 'वैसे' ही हैं! एक नाम तक नहीं जानते और कितनी घृणा !! "
" मोहन बाबू, आप जैसे लोगों के कारण ही इनका मन बढ़ा हुआ है। "
" तो फिर आप जैसे लोगों के कारण ही मन छोटा हुआ है।"
***
मोहन बाबू बड़े सख्त हैं।
उसी दिन तो फोन आया " एक बात कहें, बुरा तो नहीं मानोगे? "
" बिल्कुल नहीं, कहो। "
" जब तुम छठी क्लास में स्कूल छोड़ कर गए थे न, तो बहुत दिनों तक बड़ा सूना- सूना लगता था। फिर कभी मिल ही नहीं पाई तुमसे, न कुछ पता चला तुम्हारा।... सोचा तुम्हें बताऊँ कि न बताऊँ। कहीं बुरा तो नहीं मान जाओगे!"
मोहन बाबू खुद को कवि भी समझते थे। उन्होंने साधारणीकरण कर दिया " अरे नहीं नहीं। कोई किसी को अच्छा लगे तो अच्छा ही लगता है। "
मोहन बाबू कमबख्त हैं !
***
मोहन बाबू कभी- कभी सोचा करते कि सारी दोस्तों को बता दें कि कौन- सी कविता उन्होंने किसके लिए लिखी है। 'मेरा नाम जोकर' के आखिरी दृश्य- सा कुछ कर के।
फिर तुरत ही खयाल आता " यो ध्रुवाणि परित्यज्य... "।
आज तक सिर्फ मोहन बाबू ही जानते हैं कौन सी कविता किस पर लिखी है।
***
आप एकदम नीरस हो गए हैं।
अच्छा! रस की परिभाषा क्या है, तुम्ही बतलाओ।
आपसे तो बात करना ही बेकार है।
मोहन बाबू अखबार में एक लेख पढ़ रहे हैं जिसमें बताया गया है कि एक बड़े नामी होटल में बड़े उचित दर पर मात्र पाँच- छः हजार रूपयों में दो आदमी आराम से खाना खा सकते हैं।
मोहन बाबू के एक मित्र ने मेसेज किया हुआ है कि मात्र पाँच सौ रूपए की सहायता किसी एक परिवार के लिए महीने भर का राशन उपलब्ध करा सकती है।
मोहन बाबू से बात करना बेकार ही है !
***
उम्मीद बड़ी बुरी चीज होती है, मोहन बाबू !
हूँ... मोहन बाबू अपनी यादों में चले गए। बातें कितना मथ देती हैं उनको...
उम्मीदें अपने साथ कातरता लाती हैं। इसीलिए किसी से छोटी से छोटी चीज माँगने में भी मोहन बाबू के हाव भाव अजीब हो जाते थे। कम से कम मोहन बाबू ऐसा सोचने लगे थे।
मोहन बाबू, आपने जावेद अख़्तर का ये शेर सुना है, नुसरत साहब ने गाया है? -
आज किसी ने दिल तोड़ा तो जैसे हमको ध्यान आया
जिसका दिल हमने तोड़ा था वो जाने कैसा होगा
अनजाने कभी कुछ हुआ हो तो नहीं कह सकता, जान कर तो मैंने ऐसा कभी नहीं किया है।
तो मोहन बाबू, दूसरों से भी तो अनजाने में कुछ हो सकता है!
***
जिंदगी से जो कुछ चाहता नहीं है, जिंदगी उसे कुछ देती भी नहीं है। और तो और आसपास के लोग भी यह मान बैठते हैं कि एक मोहन बाबू ही हैं जिन्हें सबकुछ स्वीकार हो जाता है। कोई डिमांड नहीं किसी से।
कई बार लोग अपनी सहूलियत को दूसरे की इच्छा बना देते हैं।
मोहन बाबू सब खेल समझते हैं, अलबत्ता खेलते नहीं। जो खेलता नहीं वो जीतता भी नहीं।
मोहन बाबू हारे हुए हैं...
***
मोहन बाबू को लगने लगा है कि उनके द्वारा किसी को बधाई देने या सांत्वना देने का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। वो इन बातों से कतराने लगे हैं। उनको लगता है उनके व्यक्तित्व, उनके अस्तित्व का ही पूरी तरह अवमूल्यन हो चुका है । वो दाम गिन नहीं सकते , दाम गिना नहीं सकते ।
मोहन बाबू खरी- खरी सुन तो सकते हैं, किसी को खरी- खरी सुना नहीं सकते।
मोहन बाबू ने बैठे- बैठे टेपरेकॉर्डर ऑन किया --
रख कदम फूँक- फूँक कर नादाँ
ज़र्रे ज़र्रे में जान है प्यारे
मोहन बाबू ने बड़े धीमे और टूटे हुए स्वरों में गुनगुनाया --
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी अपनी ज़ुबान है प्यारे
एक उदास- सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर आते- आते रुक गई है । उन्होंने हल्के से सर को झटक दिया है ।
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अंतिम पृष्ठ
शाम का झुटपुटा है। शाम अधिक ही गहरी हो चली है। मोहन बाबू मेज पर कुहनी टिकाए खिड़की से बाहर देख रहे हैं। बरगद के बड़े और गहरे हरे पेड़ पर शाम को लौटते हुए पंछियों का कलरव है।
बाहर बरामदे पर दो डॉक्टर बात कर रहे हैं -
" तीस बरस हो गए मोहन बाबू को। जाने क्या बात है कि पूरा ठीक होते ही नहीं।"
दूसरे डॉक्टर ने कहा, " पता नहीं कुछ ज्यादा ही दिल पर ले लेते हैं बातों को। जब घर वाले नहीं सह सके इनकी बातों को तो औरों का क्या?"
" फिर बोलना छोड़ा तो छोड़ ही दिया। सारा कुछ अंदर जमता गया। कहीं तो निकलना ही था! वैसे ठीक ही है, यहाँ हैं। ये किसी को और कोई इन्हें बर्दाश्त ही कहाँ कर पाएगा।"
बहुत देर तक बरगद को देखने और पंछियों की आवाज़ सुनने के बाद मोहन बाबू ने कमरे पर नज़र दौड़ाई। चौकी की बगल में स्टूल पर टू इन वन रखा था। उन्होंने प्ले बटन दबाया। मुकेश की आवाज़ में रामचरितमानस की पंक्तियाँ बज उठीं -- " उठहुँ राम भंजहुँ भव चापा... "।
मोहन बाबू ने डायरी खोली। बैंगनी रँग की स्याही वाली कलम से सामने खुले पेज पर एक शब्द लिखा -
धन्यवाद
फिर विस्मायादि बोधक चिह्न लगाया। फिर थोड़ी देर कलम हाथ में लिए बैठे रहे। फिर प्रश्न चिह्न लगाया और कलम बंद कर के रख दी।
***
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