मंगलवार, 18 मार्च 2025

अलसाई हुई आँखों वाली लड़की

 अलसाई हुई आँखों वाली लड़की

( पच्चीस साल के अंतराल पर एक ही शीर्षक से लिखी दो कविताएँ)


                 (१) 


अलसाई हुई आँखों वाली 

एक लड़की 

बैठी है जम्हाईयाँ रोकती 

अपनी हथेलियों से 

नींद तोड़ने की कोशिश में 

कभी रगड़ती है नाखूनों को आपस में 

कभी पेन को टिका लेती है गाल पर 

और ऐसे में अक्सर 

रह जाती हैं कुछ बातें 

सुनने-समझने से 

तब ताकती है ऐसे कि जैसे 

जाने कौन-सी बात कह दी गई हो 

फिर हल्के से मुस्कुरा देती है 

खुद पर 

और ऐसे में 

दिखती है बहुत सुन्दर 

एकदम नाजुक-सी अच्छी लड़की।


              (२) 


अब भी हँसती है

वह लड़की वैसे ही, मगर

पेशानी पे उसकी कुछ

बल-से पड़ गए हैं


छूट ही जाते हैं वक़्त के निशान 

पेशानी पे बल पड़ ही जाते हैं


पर अब भी 

कभी-कभी

एक उम्र लाँघती

ज़िन्दगी पहुँच जाती है वहीं--

जम्हाईयाँ रोकती

रगड़ती नाखूनों को आपस में कभी

कभी पेन को टिका लेती गाल पर

कभी ताकती ऐसे कि जैसे

जाने कौन-सी बात कह दी गई हो

फिर हल्के-से मुस्कुरा देती खुद पर

ऐसे में दिखती बहुत सुन्दर

एकदम नाज़ुक-सी

अच्छी लड़की वही 

अलसाई हुई आँखों वाली  ! 


बस कुछ परतें आ गई हैं दरम्यां

ज़िम्मेदारियों की, वफ़ादारियों की

तरफ़दारियों की

बीमारियों की

रवायतों की, शिकायतों की

बाज़ियों की, चालबाज़ियों की--

अदृश्य


परदे पड़ गए हैं 

चश्मों पर,नज़रों पर, अक्लों पर

किसिम-किसिम के


एक उम्र गुजर गई है

पल भर रुके हुए  ! 

ठिठके खड़े हुए  !

किसी के लिए कभी

रोए पड़े हुए  ! -- 

अब सब कड़े हुए

सब अब बड़े हुए  !! 


बातें उसकी करना

उस जीवन में रहना

अब भी अच्छा लगता है

लेकिन जीवन ऐसा है

सबलोग मुब्तला हैं

ग़मे-रोज़गार में


उम्रे-दराज़ चार दिन

सब इंतज़ार में...!

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