मंगलवार, 11 मार्च 2025

हे राम करुणापुँज


                                     हे राम करुणापुँज 


 हे     राम        करुणापुँज

सबकलुष      सबतमहरण

पुरुषार्थपूरित  सहितउद्यम


सुखधाम  भव मंगलकरण


             ***


वे    तो    स्वयं     भगवान    थे

उनको    था    सबकुछ     पता

फिर  भी  चले  उस   मार्ग   पर

था    कि    जो     काँटों    भरा


यह   समय    ऐसा    हुआ   है

सबकुछ    प्रदर्शित    हो   रहा

धर्म    क्या   है      प्रेम    क्या

राग    क्या  और    द्वेष   क्या


आवेश-भर    यह     है   नहीं

यह     स्वजनित     संवेग   है

ऊँची     चोटी     से       कोई

पत्थर  है  यह  ढुलका   हुआ


वो  जो  शिखर  पर  हैं   चढ़े

उनकी   विहंगम   दृष्टि    हो

हर    दिशा    में    दूर   तक

हो  उनको  सबकुछ दीखता


इस     विजय-उल्लास    में

कोई    यह      भूले     नहीं

अब  भी   कितने   लोग   हैं

सुननी  है    जिनकी   व्यथा


दुनिया  में   दौड़-भाग   कर

जब  भी  मन ये  थक  गया

चरणों में धर कर शीश  हम

हैं    ढूँढते    अपना     पता


हैं  कि   नहीं  भगवान,   ये

मुद्दा  बहस  का   है    नहीं

सबकी   अपनी   सोच    है

सबकी    अपनी     आस्था


कोई     कमतर   है     नहीं

अपनी  जगह  जो  है खड़ा

मतभिन्नता   एक  चीज  है

एक  चीज जन की  एकता

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविता है । छंद में आपकी पकड़ बहुत अच्छी है। जब आप कहते हैं-

    इस विजय-उल्लास में
    कोई यह भूले नहीं

    अब भी कितने लोग हैं
    सुननी है जिनकी व्यथा

    यह कविता जीत की खुशी में मदांध होते जाते आज के शासकों के व्यवहार पर कितनी मौजूँ है।

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