‘मैं में हम—हम में मैं’: निजी का लोक, लोक का निजी
( एक निजी व्याख्या )
कहा जाता है कि कवि/लेखक परकाया-प्रवेश करता है । लोक की बात को ‘अपना’ बनाता है, फिर उस ‘अपनी’ बात को लोक को लौटा देता है । जैसा लेखक करता है, पाठक भी दूसरी तरफ से वैसा ही करता है, बशर्ते रचना दमदार हो, -- पाठक कविता में प्रवेश कर जाता है, ‘अपना’ कुछ उस कविता में मिलाता है, और उस ‘अपने’ का विस्तार कर लोक में तब्दील हो जाता है ।
यह जो कविता है ‘मैं में हम—हम में मैं’ कितना अपना बना लेती है, कितनी अपनी है, क्या बताएँ ! जी हाँ, बताऊँ नहीं, बताएँ ! यदि आप बिहार या यू.पी से हैं, यदि आप पढ़ाई-लिखाई में ठीक रहे हों ( या न भी रहे हों) और यदि आप उस दौर के हैं जब यूपीएससी की तैयारी करना राष्ट्रीय धर्म से कम नहीं था, या अभी भी जिनके लिए एक नौकरी पा लेने का मतलब लाइफ सेट हो जाना है, यानी यदि आप हमारे जैसे हैं —तो यह हो ही नहीं सकता कि यह कविता आपको गिरफ्त में नहीं ले ।
हम यानी ‘मैं के साथ ढेर सारा ‘मैं’ !”
चौबीस पृष्ठों और छह खंडों में फैली हुई कवि निशान्त की यह कविता
( जो 2012 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित संग्रह ‘जी हाँ, लिख रहा हूँ...’ से है )
हमारी कहानी है । हमारे जीवन का ‘खण्ड-काव्य’। हमारी यानी ‘मैं’ के साथ ढेर सारी ‘मैं’ की । हम जो बिहार जैसे पिछड़े राज्य के रहने वाले हैं ( संजीव सान्याल, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के सदस्य, के हालिया शोध-पत्र के अनुसार भारत की जीडीपी में बिहार की
हिस्सेदारी 2000-01 में मात्र 4.3% की है, जबकि
इसमें झारखंड के आँकड़े भी शामिल हैं । बिहार की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का
बमुश्किल 33% है )। ‘बीमारु (BIMARU)’ राज्यों
के बारे में भला किसने नहीं सुना होगा !
सेशन के बार-बार पिछड़ने के बाद बी.ए., एम.ए.
की डिग्री लेकर जीवन का जो ध्येय बचता है, वह है
एक अदद नौकरी पा लेने का । सरकारी नौकरी । और यूपीएससी यानी कि आइएएस या आइपीएस
नहीं हो अगर, तो फिर कहाँ से
शुरुआत हो ! बताया था न, यह मान लिया गया है
कि पढ़ाई-लिखाई में ठीक रहे हैं ‘हम’ –
हाथों में ‘स्पाइरिल बाइंडिंग’ की कॉपी पकड़े
आँखों में मसूरी के सपने पाले
सीने में नीली बत्ती की ख्वाहिश दबाए”
कविता की शुरु की पंक्तियों में ही एक नाम आता है–“ जैसे एक बलराम तिवारी हैं पटनावाले ।” बलराम तिवारी यानी यूपीएससी
का हिन्दी ऑप्शनल । यानी ‘मेन्स’ तक तो आप पहुँच ही गए ! और पटना यानी ? ग़ालिब ने कहा है –
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाय हाय”
चलता है
बदलता है
और ‘कुछ’ भी बदलकर
‘कुछ’ भी हो सकता है” ।
कविता
में जैसे लड़कों की बातें हो रही हैं, वे हिंदी मीडियम वाले
हैं । इनमें से कुछ लोगों को यह भी लगता है कि बस बोलने में मामला थोड़ा गड़बड़ है,
लिखने में तो अंग्रेजी भी दुरुस्त है । बहरहाल, बिहार जैसे ‘उर्वर प्रदेश’ से
आए लड़के का कवि होना अस्वाभाविक तो नहीं ही है। लेकिन बात यह है कि पैठने कौन दे ‘कविता की देहरी’ के अंदर ? ‘घर के मालिक’ तो जमे-जमाए कवि-आलोचकगण हैं – “होत
न आज्ञा बिनु पैसारे” । किस-किस के पाँव पखारे जाएँ ? अभी तो कवि सिर्फ कवि ही है ( वह भी सिर्फ अपने मानते), उसपर बेरोजगार और कमजोर भी। कोई न निरबल सहाय ।
मुझ
जैसे लोगों के लिए सिनेमा बहुत बड़ा आकर्षण है । बल भी, ‘एस्केप’ भी । सिनेमा हॉल, मल्टीप्लेक्स
नहीं, हमारी चेतना का ही एक्स्टेंडेड भाग हैं । मुखर्जी नगर
में बत्रा है । सुख-दुख का साथी । वहीं बत्रा पर ‘छोटू’
होता है । हमारे साथ-साथ ही बड़ा होता, लेकिन
हमारे जैसों कितनों के आते-जाते हुए वह छोटू ही बना रहता । हमारे वजूद को टटोलता,
हमारे दिलों को कई-कई बार टूटने से बचाता ।
हमने
पचास पैसे की नहीं भी तो, दो रुपए की तो चाय
जरूर पी है । और बत्रा ही क्यों, पटना के श्रीकृष्णा नगर में,
स्टेट बैंक के सामने लगने वाले ठेले पर भी । मोटे-गोल बिस्कुट के
साथ । हम तो अलग से पहचान में आने के लिए ही बने थे शायद –
हिन्दी के विस्थापन के इस युग में”
और बाद के वर्षों में जब यूपीएससी नहीं तो उसके नीचे, फिर उसके नीचे, फिर उसके भी नीचे यानी जहाँ कहीं भी संभव हो सके, एक नौकरी पकड़ कर पदों पर आरूढ़ और जीवन-पथ में रूढ़ हो चुके हमलोग, लाख मुलम्मों के बावाजूद, अंदर से वही बचते हैं , दो रुपए की चाय और मोटे-गोल बिस्कुट खाने वाले । हमारी जिंदगी में नौकरी ही जिंदगी का अक्ष हो जाती है ।हम उस मनपसंद नौकरी के इंतजार में खड़े छोटी-मोटी बातों पर भी खुश होते, औरों की सफलताओं के किस्से सुनते-सुनाते रहते हैं। ‘सीएसआर’ ( Competition Success Review) के मुखपृष्ठ पर अपने ही राज्य के किसी यूपीएससी टॉपर का चित्र देखकर, और अंदर उसका इंटरव्यू पढ़कर रोमांचित हो उठते हैं। मन ही मन कहते –“ नथिंग इज़ इम्पॉसिबल” !
( 2 )
कवि निशान्त की यह कविता मेरी समझ से बेरोजगारों की साझा आत्मकथा है । कविता के आरंभ में ही वे जिस तरह ‘पना’ यानी पटना यानी कोई भी छोटी जगह और दिल्ली को जोड़ते हैं, वह युवा भारत की एक तस्वीर खींचने का उपक्रम है । और यह तस्वीर ‘बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर’ नहीं है । देश की आजादी के सतहत्तर साल बाद भी सभी के लिए एक समान मौके उपलब्ध नहीं हैं । आर्थिक विषमता की खाई बढ़ती ही जा रही है । यह ठीक है कि आय के स्तरों में सुधार हुआ है, लेकिन अंतर तो जस का तस बना हुआ है, बल्कि बढ़ा ही है । कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि कहता है –
“ रोज
एक सूरज उगता और अस्त हो जाता
रोजाना वह कुछ न कुछ बदल जाता
रोजाना हमारा बत्रा कुछ नया हो जाता
----
‘हम’ सर
उठाए
बत्रा पर इन्तजार कर रहे हैं उसका
वह
पाँच मिनट में
आ
ही जाएगा बत्रा पर
अपना बैग उठाए ।”
फौलाद से बना है हर नैजवां हमारा
मिलजुल के इस वतन को ऐसा बनाएँगे हम
हैरत से मुँह तकेगा सारा जहाँ हमारा”
निशान्त की यह कविता खींचती क्यों है? इसलिए कि यह बहुत करीब की, बल्कि अपनी ही व्यथा-कथा-सी है । इस देश में जहाँ बेरोजगारी अभी भी एक बहुत बड़ी समस्या है, हजारों-लाखों लोगों के सामने सबसे बड़ा काम, ‘काम’ ढूँढ़ने का ही है । यह बस ऐसे ही नहीं है कि विद्यार्थी छोटी-छोटी जगहों से निकल कर दिल्ली या दिल्ली-जैसी बड़ी जगहों पर जा रहे हैं । इसके अलावा बिहार जैसे राज्य से कितने लोग रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं, यह आँकड़ा ही उन परिवारों की विषम परिस्थितियों का बयान कर देगा । कवि को हिन्दी-भाषी विद्यार्थियों के भविष्य की खास चिंता है । वह समझता है कि जीवन में सहज रह पाना आसान नहीं है । आज के जमाने में तरक्की के लिए अंग्रेजी और पावर प्वाइंट, इन दोनों चीजों की प्रदर्शन-योग्य सिद्धि एक तरह से अनिवार्य है । हिन्दी पट्टी वाले छात्र पढ़ाई पूरी कर लेने को ही योग्यता मान बैठते हैं । और पढ़ाई भी कमोवेश डिग्री प्राप्त कर लेने की औपचारिकता भर हो कर रह गई है । डिग्री प्राप्त कर लेने के बाद का रास्ता अमूमन वैसा ही होता है जैसा कवि ने दिखाया है –
जे.आर.एफ., नेट, एम.फिल्., पी-एच.डी. से निकलकर
नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी से होकर
राखी सावंत पर ही आकर रुकते
और कहते—“ यार, मजा तो अशोक वाजपेयी बनने में है
या नामवर सिंह या फिर राखी सावंत ।”
क्या हम
सच का सामना नहीं कर सकते ? इस कविता के पास इसका
जवाब है । कविता में आया ‘छोटू’ का पात्र
सच के करीब है, फिल्म का ‘गौरी भइया’
नहीं । कविता समझती है कि “ नौकरी, अधिकारी की अच्छी है/ या फिर मास्टरी की” । कविता
समझती है, और समझाती है –
विकल्पों के अन्त में
‘हम’ को ‘मैं’ दिखता था
‘मैं’ को एक नौकरी दिखती थी
समाज में ‘क्रान्ति’ एक ‘शब्द’ की अहमियत लिये
पत्र-पत्रिकाओं में बेरोजगारी के साथ निश्चिंतता
से टहल रहा था
....
एक विचारक ने घोषणा की –“ और अन्त
में बचे रहेंगे शब्द ”
शब्द
खुश हुआ और जाकर ‘नौकरी’ की गोद में बैठ गया ।”
“ और बत्रा
से उठकर
मुखर्जीनगर से निकलकर
राजधानी को पीछे छोड़कर
पृथ्वी पर पैदल चलने लगते हैं ‘हम’
अब धीरे-धीरे ”
हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जब मनुष्य के बारे में कही गई बात कि “ मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है” झूठी पड़ती जा रही है । और यह कोरोना वाली ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ नहीं है । यह आत्मकेंद्रित, वर्ग-भेद की बहुत बारीक परतों में बँटते जा रहे समाज की बात है । यह उस समाज की बात है जो मानने लगा है –“ देना तो बहुत बाद की क्रिया है ।” बल्कि यह कि देना तो सबसे बाद की क्रिया है, या ऐसी कोई क्रिया है ही नहीं अब । यह कृतघ्न होते जा रहे समाज की बात है – “ स्मृतिहीन संस्कृति उपज है हमारे समय की ।”
पूँजीपति
ही नया राजा है । और राजा का बेटा ही राजा होता है । यह आज के समय का सबसे बड़ा चक्र
है, (दु:)चक्र। महारानी के सामने राजकुमार ही प्रस्ताव रखने
का पात्र है । पूँजी का अर्थ है खरीद-फरोख्त –
कोई खरीद रहा है, कोई बेच रहा है
दिमाग से लेकर ईमान तक
उसी में धर्म की ध्वजा है
साम्प्रदायिकता की आवाज है
जाति की राजनीति है
और सबसे ज़्यादा हमारा ‘मैं’ है”
भारी पड़ जाता है एक दर्शन
“जीवन
इसी तरह चलता है,
तुम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते” ।”
कवि हमारे सामने अपनी बात रखता है –
उससे नहीं बनाई जा सकती जीवन की चपाती
या यथार्थ इतना नसतोडू है कि ‘हम’
भागते-फिरते रहते हैं अमेरिकी लोक में”
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