‘बख़्तियारपुर’ के बहाने
( ‘अन्वेषा वार्षिकी 2024’ में प्रकाशित विनय सौरभ के कविता-संग्रह
‘बख़्तियारपुर’ की समीक्षा )
कवि विनय सौरभ के
बहुप्रतीक्षित और अब बहुचर्चित कविता संग्रह ‘बख़्तियारपुर’ से गुजरते हुए खुद को उन कविताओं के बीच खड़ा पाया । मेरा विश्वास है कि
रुचि लेकर पढ़ने वाले हर पाठक का अनुभव ऐसा ही होगा । ‘बख़्तियारपुर’ की कविताएँ पढ़ लिए जाने के बहुत देर बाद तक साथ रहती हैं ।
किसी भी साहित्यिक कृति की तरह इस संग्रह को भी स्वतंत्र ( स्टैण्ड अलोन) रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए । कोई भी अच्छी रचना एकांगी नहीं होती । उसमें उसका समय बोलता है ।
देखा जाए तो एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं कवि विनय सौरभ । विनय सौरभ का जन्म 1972 का है। उनको 1965-75 के बीच जन्म लेने वाली पीढ़ी का कहा जा सकता है । यह वह पीढ़ी है जिसे हिन्दी खड़ी बोली के प्रति जागरुक किया जा रहा था। इस पीढ़ी के इस दुनिया में आँखें खोलने के समय जो कुछ चीजें हो रहीं थीं, मुख्यत: भारत के संदर्भ में, उन पर एक नजर डालते हैं । आजादी के पहले, और उसके ठीक बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास हर ओर हो रहे थे । हिन्दी के कई, बल्कि सारे ही बड़े लेखक अपनी बोलियों/ मातृभाषाओं से ऊपर हिन्दी को रख रहे थे । भाषाओं के आधार पर 1956 में राज्यों का पुनर्गठन किया गया। बाद के दिनों में अंग्रेजी सारी भाषाओं पर हावी होती चली गई । बिहार के परिदृश्य को लेकर चलें तो अस्सी के दशक से अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का चलन बढ़ने लगा। छोटे शहर शिक्षा के केंद्र के तौर पर पिछड़ने लगे।
यह समय भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘हिंदू विकास दर’ का समय भी था, जिसमें 1991 में शुरू किए गए उदारीकरण के बाद उछाल आया । भारत एक निम्न-मध्यवर्गीय आय वाला देश था । यानी आमजन की आमदनी इतनी ही थी कि रोजमर्रा की जरूरतें भी बमुश्किल पूरी हो पाती थीं । यह पीढ़ी कुछ छूट जाने के, पीछे रह जाने के, जीवन में कुछ अभाव रहने के भाव को साथ लिए चलती है। ऐसा न भी हो तो भी दिखावे- प्रदर्शन वाली यह पीढ़ी नहीं है। एक छोटी-मोटी नौकरी का भी बहुत महत्त्व था । नौकरी पाना और निभाना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी ।
यह पीढ़ी फिर भी संयुक्त परिवार वाली पीढ़ी है । नाते-रिश्ते अहमियत रखते हैं, उनको निभाए जाने की कोशिशें होती हैं । हालाँकि सुविधाओं और साधनों के बढ़ने के साथ संयुक्त परिवार की जरूरत ही शायद कम होती चली गई । सीमित आय और संसाधन ने संभवत: इस पीढ़ी को बहुत मुखर नहीं होने दिया । पारिवारिक जिम्मेदारियाँ/ तानाबाना इस पीढ़ी का सत्य है।
यह तो कुछ बातें हुईं उस पीढ़ी की जिसके विनय सौरभ हैं । इतनी बातें इसलिए कि किसी भी व्यक्ति के सोचने-समझने का तरीका, उसकी संवेदनशीलता , उसकी प्रतिक्रिया की प्रक्रिया उसके परिवेश से प्रभावित होती है । कवि विनय सौरभ भी अपने परिवेश, अपने जीवन की घटनाओं से प्रभावित हुए ही होंगे । संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए आप पाते हैं कि उनके जीवन में पाँच प्रिय व्यक्तियों की मृत्यु का दु:ख उपस्थित है । आप यह भी गौर करते हैं कि इनमें से किसी की भी मृत्यु सहज/स्वाभाविक नहीं है, और इसलिए इन सभी आत्मीय जनों को खोने की पीड़ा बहुत तीखी है, जिसे पाठक भी महसूस कर सकता है ।
इस भूमिका के बाद अब बातें संग्रह ‘बख़्तियारपुर’ की । यह कहा जा रहा है कि विनय सौरभ स्मृतियों के कवि हैं, नॉस्टेल्जिया में रहने वाले कवि हैं । ऐसा कहने के पीछे जो मुख्य आधार है, वह कवि ने ही उपलब्ध कराया है । इस संग्रह में कवि ने ‘स्मृति’ और ‘याद’ इन दोनों शब्दों का कुल सत्तर बार से भी ज्यादा प्रयोग किया है । संग्रह में अट्ठासी कविताएँ हैं । लेकिन इन शब्दों के प्रयोग आधार पर विनय सौरभ को किसी खाँचे में डालना उचित नहीं । बार-बार इन शब्दों का आना शायद भ्रामक है । ऊपर जब विनय सौरभ की पीढ़ी की बात हो रही थी तो वहाँ एक बात स्पष्ट नहीं हुई शायद । वैसे तो हर पीढ़ी अलग- लग कालों की संधि पर खड़ी होती है, इस पीढ़ी का ‘संधि-स्थल’ इसलिए खास है क्योंकि इसके बाद दुनिया की आर्थिक और तकनीकी प्रगति की गति तीव्रतम स्तर पर है । तो यह पीढ़ी अपने छूटते हुए वर्तमान, अपने पीछे छूट जाने की कसक को दर्ज करना चाहती है । विनय सौरभ की कविताओं को हमें इसी रूप में देखना चाहिए ।
विनय सौरभ की कविता में पिता आते हैं बार-बार । छायावाद/छायावादोत्तर काल के बाद के कवियों ने जैसे ‘माँ’ को याद करते हुए कविताएँ लिखी हैं, पिता को कविता में आत्मीयता के साथ याद किया जाना संभवत: इनकी( विनय सौरभ की) पीढ़ी के कवियों की एक खासियत है । प्रेम रंजन अनिमेष, संजय कुंदन, नीलेश रघुवंशी और जितेन्द्र श्रीवस्तव ऐसे कुछ नाम हैं जिनकी की कविताओं में पिता की आत्मीय उपस्थिति है । प्रसंगवश यह उल्लेख कर दूँ कि ‘स्मृति’ और ‘याद’ के बाद ‘पिता’ शब्द की आवृत्ति संग्रह की कविताओं में सबसे ज्यादा है । इसी तरह ‘घर’, जगहों के नाम और याद – ये शब्द भी विनय सौरभ और ऊपर उल्लिखित कुछ कवियों की कविताओं में बार-बार आते हैं । इस पीढ़ी के कवियों की कविताओं पर यदि समग्रता से विचार किया जाए, तो संभव है किसी प्रवृत्ति को रेखांकित किया जा सके ।
विनय सौरभ अपनी कविताओं में अपने समय को दर्ज कर रहे हैं, अपनी पीढ़ी के इतिहास को, उसके सत्य को दर्ज कर रहे हैं। कवि के हिस्से में बड़े-बड़े शहर नहीं हैं । यात्रा करने के लिए भी बड़ी मुश्किल से रेल का स्लीपर क्लास है। नौकरी एक आवश्यक आवश्यकता है। कवि आसपास की विसंगतियों को भी देख-समझ रहा है और उसे दर्ज कर रहा है। परिवार और उसके आसपास के लोग, आसपास की जगहें उसकी चेतना को बना रही हैं, प्रभावित कर रही हैं । दोस्तों में बेफिक्री बाकी है। यहाँ तक कि दोस्त के पिताजी तक भी दोस्त पहुँच सकता है, दोस्त की बात रखने के लिए। गौर कीजिए तो यह विनय सौरभ की नहीं, उनकी पीढ़ी की बात है ।
'मन की नहीं, जन की कविता हो' यह एक मुहावरा अक्सर दुहराया जाता है । जन की कविता, बिना मन की कविता हुए कैसे संभव है? दिनकर ने कहा है कि कवि क्या कहता है, यह उनकी नजर में गौण है। कवि जो कहना चाहता है उसे वह ठीक ठीक कह पा रहा है या नहीं , यह देखने की बात है। उनका ज़ोर अभिव्यक्ति की सफाई पर है। हर व्यक्ति अपने हिसाब से चीजों को देखता है और उससे प्रभावित होता है । कविता में कवि ने क्या देखा है, हमें उस पर ध्यान देना चाहिए, बजाय इसके कि उसने क्या नहीं देखा, या वह क्या नहीं देख सका है । कविता में विचार का होना अच्छी बात है, लेकिन विचार को भाव के साथ इस तरह सना हुआ होना चाहिए कि निगलने में आसानी हो। अर्जित किए हुए विचार अच्छी तरह पका कर आत्मसात किए जाएँ तभी पच सकते हैं। वैसे भी कविता में अंत में जो बचता है वह छना हुआ भाव/ अनुभूति ही है । बच्चन ने लिखा है “ सृजनशील लेखन तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक लेखक समाजभोगी स्थिति को आत्मभोगी न बना ले, या वह किसी तीव्र अनुभूति से खुद-ब-खुद ऐसी न बन जाए ।” मुक्तिबोध ने कुछ इस तरह लिखा है “ आज ऐसे कवि- चरित्र की आवश्यकता है, जो मानवीय वास्तविकता का बौद्धिक और हार्दिक आकलन करते हुए सामन्य जनों के गुणों और उनके संघर्षों से प्रेरणा और प्रकाश ग्रहण करे, उनके संचित जीवन-विवेक को स्वयं ग्रहण करे तथा उसे और अधिक निखारकर कलात्मक रूप में उन्हीं की चीज को उन्हें लौटा दे ।” कुमार अम्बुज भी इस बात को अपनी तरह से कहते हैं –“ जीवन की अनन्त भंगिमाओं और उनकी जीवनियों का संक्षेपीकरण ही कविता में होता है । कविता जीवन की लय है । कविता का मुख्य सरोकार और व्यापार अपने समय की और अपने मनुष्य समाज की समीक्षा करना है, और साथ ही अनैतिकता और अमानवीयता का प्रतिरोध ।”
संग्रह में भी ऐसी कविताएँ हैं जो घटनाओं/विचारों से उद्वेलित हैं। लेकिन इन कविताओं में कवि शायद सायास उतरा है। ऐसी कविताओं में भी कविता की कुछ पंक्तियाँ चमक उठती हैं । ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ ‘दो औरतों की नियति कथा से’ –
“ विडम्बना है
अकेली और जवान औरतों के बारे में कुछ
भी कहने से इस समाज का मुँह स्वाद से भर जाता
है”
इन तीन पंक्तियों से ही कवि वह चोट कर जाता है कि कविता की बाकी सारी पंक्तियों पर ध्यान न भी दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं । कविता जहाँ स्वाभाविक है/ लगती है, पाठक वहीं रुकता भी है। विनय सौरभ इस बात से बखूबी वाकिफ लगते हैं ।
कविताओं में स्थानीय शब्दों, जगहों, नामों के कम आने की बात कही जा सकती है । लेकिन हमें देखना होगा कि कवि देख कहाँ से रहा है । और क्या उसकी दृष्टि में बाकी चीजों के लिए सहानुभूति/ सम- अनुभूति नहीं है ? ‘कविता के नए प्रतिमान’ में नामवर सिंह ने लिखा है “ कवि को बोलचाल की भाषा के निकट लाने का अर्थ केवल बोल-चाल के शब्दों को अपनाने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सही माने में आज के जीवन की धड़कन को व्यक्त करने वाली लय को गहरे स्तर पर पकड़ना है ।” कवि जितनी चीजों को देखता-सुनता है, अनुभव करता है सब तो जस की तस कविता में नहीं आ सकतीं । फिर, जैसा ऊपर भी उल्लेख किया गया है, विनय सौरभ के बड़े होने का समय वह भी है जब खड़ी बोली को सही-सही सीखना और उसका सही प्रयोग करना भी एक प्रमुख ध्येय रहा । बाद के दिनों में, अब तो बहुत सारी अस्मिताओं की चर्चा होती है । इसका अर्थ यह भी हुआ कि बहुत सारे शब्द, स्थान, नाम जो उन अस्मिताओं का आग्रह करें, साहित्य में भी आ रहे हैं । यह बात किसी मूल्यांकन के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि विनय सौरभ के मानस को पकड़ सकने के प्रयास में कही गई है । यह भी मन हुआ कि कवि से पूछ जाए कि संथाल क्यों, सताल क्यों नहीं ? फिर खुद ही सोचा, क्या संताल परगना को संथाल परगना लिख देने से वह कम संताली हो गया ? वह भी तब जबकि सरकारी दस्तावेजों में भी संताल या संथाल के इस्तेमाल को लेकर एकरूपता नहीं है।
फिर यह भी बात है कि मूल भावनाएँ तो वही रहेंगी। भाषा उनके प्रकटीकरण को बदल सकती है बस। यह सही है कि कवि अपने परिवेश से कट कर नहीं रह सकता है । लेकिन दर्ज तो वह अपने तरीके से ही करेगा । उसको पढ़ते समय पाठक/आलोचक को भी जजमेंटल नहीं होना चाहिए। कवि कवि है राजनयिक नहीं कि हमेशा पॉलिटिकली करेक्ट होने की कोशिश करता रहे।
स्मृति की बात करना, अपनी बातों को स्मृतियों की तरह पेश करना विनय सौरभ का एक टूल भी है । इस कारण भी यह भ्रम कि वे स्मृतियों के कवि हैं । दरअसल, जब वे स्मृतियों की बातें कर रहे हैं तो वे वर्तमान की बात कर रहे हैं, जिस समय में वे खड़े हैं उसकी बात कर रहे हैं । थोड़ा-सा ध्यान दें तो आप पाएँगे कि कवि तो भविष्य में खड़ा हो कर आज की, वर्तमान की बात कर रहा है । दो कविताओं से ये पंक्तियाँ इसे स्पष्ट करेंग़ी –
‘संसद’ कविता
की पहली पंक्ति – “अब तो नकाबपोशों से भर गई थी यह!”
और ‘बस इतना
भर पानी मौला’ की ये पंक्तियाँ –
“ बारिश वक़्त के साथ कम
हो गई थी
जैसे आपस में लोगों का मिलना-जुलना कम हो गया
था”
इन दोनों कविताओं को
पूरा पढ़कर देखिए,
बात वर्तमान की है लेकिन भविष्य में खड़े होकर । और इसीलिए कविताएँ
स्मृतियों की कविताएँ लगती हैं । संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं ।
संग्रह की कविताएँ यह भ्रम भी पैदा कर सकती हैं कवि यथास्थिति में लीन हो चुका है, उसके अंदर प्रतिरोध है ही नहीं। हर रचनाशील व्यक्ति स्वभावत: ‘यथास्थितिवाद’ के खिलाफ खड़ा होता है । हाँ, यह संभव है कि प्रतिरोध का तरीका, स्थान और समय उसके अपने हिसाब से हो । विनय सौरभ के इस संग्रह की सिर्फ एक कविता पढ़ने का आग्रह करूँगा, कवि के प्रतिरोध, उसके क्रोध की तीव्रता को समझने के लिए । कविता का शीर्षक है ‘छोटकी दिदिया : दो’ । इस कविता को पढ़ते समय पाठक अपने अंदर एक ही साथ गुस्से को, अपनी विवशता हो और समाज की क्रूरता के प्रहार को महसूस करता है और स्तब्ध रह जाता है । कविता बहुत देर तक पाठक का साथ छोड़कर जाती ही नहीं ।
मुक्तिबोध ने कहा है “ प्रत्येक साहित्य मूलत: और सारत: आत्मचरित्रात्मक है, भले ही बाहर से वह चाहे जितना वस्तुवादी क्यों न दिखाई दे ।” संग्रह की कविताएँ भी आत्मचरित्रात्मक हैं । लेकिन यह संग्रह कवि की आत्मकथा नहीं है । जरा-सा ध्यान देने पर पाठक यह समझ जाएगा कि कविताओं में सिर्फ कवि के जीवन की ही बात नहीं हो रही है । वैसे भी प्रकाशित होने के बाद कुछ भी कवि का निजी नहीं रह जाता । कविता का काम ही है निजी होने से सबका होने की यात्रा । इस संग्रह की कविताएँ भी यह काम करती हैं ।
विनय सौरभ के इस संग्रह में लंबी कविताओं की संख्या कम है । तीन कविताएँ हैं जो पाँच से सात पृष्ठों की हैं । सोलह कविताएँ तीन से चार पृष्ठों की हैं । बाकी सारी कविताएँ एक या दो पृष्ठों की । कविताओं को पढ़ने के बाद आप पाएँगे कि ज्यादातर कविताओं में घनीभूत संवेदना है । अंतरों के बीच की पंक्तियाँ भी पाठक को भावों को अंदर लेने का अवकाश देती हैं, साथ ही कविता के प्रवाह को एक सूत्र में बाँधे रखती हैं । इस संग्रह को पढ़ते समय एक और खासियत पर ध्यान जाता है। कविताओं को पढ़ते समय यह लगता ही नहीं कि आप नई कविताओं को पढ़ रहे हैं । ऐसा लगता है कविताएँ आपके अंदर ही थीं और सदा से ही चली आ रही हैं। आप उस बहाव में आकर खड़े हो गए हैं । कविताएँ कवि की नहीं,पाठक की ही हैं, कवि ने तो बस उसे निकाल कर सामने रख दिया है। कविताओं के बीच, और कविताओं में पंक्तियों के बीच की जगह भी अपने आप भरने लगती है, जैसे-जैसे पाठक कविताओं में उतरता जाता है ।
संग्रह के कवर पर यह उद्धरण एकदम सही है कि “ कविता-प्रेमी पाठक को इस किताब में ऐसे अनेक स्थल मिलते हैं जहाँ वह ठहरकर अपने आप और अपनी दुनिया को दुबारा से देखना चाहता है ।” ' बख्तियारपुर' के इतने स्वागत के बाद, मैं समझता हूँ कि विनय सौरभ पर अगले संग्रह को लेकर जिम्मेदारी थोड़ी बढ़ गई है। यह अच्छी बात ही है।
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