शनिवार, 23 नवंबर 2024

दूसरा पक्ष : अरुण कमल की कविता 'धार'

 

दूसरा पक्ष :

(सही,गलत या अच्छा,बुरा ठहराने को नहीं, सिर्फ एक दूसरा पक्ष)

अरुण कमल की कविता धार

 

 

क्या करूँगा भला

लेकर इतनी धार ?

सान पर चढ़ा

फलक चमका

किसका गला रेतूँगा

काटूँगा किसकी बात ?

 

चाहता हूँ लोहा

रहे बना लहू में

लेने को लोहा, कदम-कदम पर

 

जीवन आसान नहीं है

 

क्या करूँगा आखिर

लेकर ऐसी धार ?

संग जिसके लगा उधार !

कौन सुने ताने-तगादे, मुझसे तो

सही नहीं जाती हैं बातें भी

तीखी तेज-तर्रार !


सुनिए,

धार से लोहा नहीं बनता

लोहे में दे सकते धार !!

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

दूसरा पक्ष : राही डूमरचीर का आलेख ‘ कुछ तो वजह है कि बचा हूँ इस पृथ्वी पर’

 

दूसरा पक्ष :

(सही,गलत या अच्छा,बुरा ठहराने को नहीं, सिर्फ एक दूसरा पक्ष)

 राही डूमरचीर का आलेख कुछ तो वजह है कि बचा हूँ इस पृथ्वी पर

 

राही डूमरचीर का आलेख कुछ तो वजह है कि बचा हूँ इस पृथ्वी पर’  विनय सौरभ के कविता संग्रह बख्तियारपुरपर केंद्रित है । सबसे पहली बात तो यह कि आलोचक और आलोच्य दोनों ही मेरे प्रिय हैं । राही को पहले मैंने कवि के रूप में जाना, बाद में आलोचक के रूप में । विनय सौरभ का कवि-रूप ही अभी तक पढ़ने को मिला है । राही डूमरचीर और विनय सौरभ के विषय में, जितना उनको पढ़ा और देखा-सुना-जाना है, विश्‍वास के साथ कह सकता हूँ कि दोनों के यहाँ व्यक्तित्व और लेखन में फाँक नजर नहीं आती ( इस वाक्य में ज्यादातर शब्द जोड़ देना व्यावहारिक होगा !) । यह एक दुर्लभ गुण है आज के युग में ।

राही जब भी लिखते हैं तो बहुत तैयारी के साथ, पूरे मनोयोग से और खूब विस्तार में । बख्तियारपुरपर उनके द्वारा लिखा गया यह लेख भी वैसा ही है । और जब वे बख्तियारपुरपर लिख रहे हैं, तब वे कविता के पूरे परिदृश्य पर भी लिख रहे हैं । जिसने भी यह लेख पढ़ा है, वह समझ सकता है ।  कवि विनय सौरभ और उनकी कविता के विभिन्न पहलुओं पर तो उन्होंने बातें की ही हैं । आलेख के शुरू में ही उन्होंने टेरी ईगलटन को उद्धृत किया है – सवाल यह नहीं है कि आप पाठ को कितनी दृढ़ता से पकड़ते हैं, बल्कि यह है कि ऐसा करते समय आप  खोज क्या रहे हैं। मेरी बात भी यहीं से शुरू होती है । उसमें यह बात भी जोड़ दी जाए कि आप कहाँ से खड़े होकर देख रहे हैं, और किस तैयारी के साथ। मुझे लगता है आलेख में कही गई कुछ बातों का एक दूसरा पक्ष भी हो सकता है । कई बार स्थान थोड़ा-सा बदलने से दृश्य बदल जाता है । परिदृश्य भी ।

आलेख में राही कहते हैं – यह एक तरह की राजनीति ही तो है, जो किसी को उसके सही नाम या उसके नाम के सही हिज्जे के साथ नहीं बुलाती और किसी के नाम को ‘जी’ लगाकर बुलाती है. किसी को पुकारने और सम्बोधित करने तक में राजनीति शामिल होती है, हमारा लहजा तक राजनीति से प्रभावित होता है. इसलिए कोई ‘लिट्टी’ हो जाता है और कोई ‘गंगेसरा’. यह एक तरह की राजनीति है कि वह बहुसंख्यकों में हीनता-बोध को रचती-पगाती है । जिस कविता को उन्होंने उद्धृत किया है, वह भी यही कह रही है । इस तर्क को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन बात यह भी तो है कि नामों को इस तरह थोड़ा बिगाड़कर बोलने का चलन ( कम-से-कम बिहार, खासकर उत्तर बिहार के इलाकों में ) सहज आत्मीयता या हँसी-मजाक के कारण से भी होता रहा है । क्या यह बात सही नहीं है कि ज्यादा करेक्ट होने के चक्कर में हमारे बीच से हास-परिहास का व्यवहार खत्म होता जा रहा है ? जो एक व्यंग्य करने की या तंज़ कसने की बात थी, वो सिरे से गायब होती जा रही है । यह ठीक है कि बहुधा यह व्यंग्य क्रूर भी हो जाया करता है, लेकिन इतना तो तय है कि इस तरह से हँसी-मजाक के खत्म होते चले जाने से आदमी का हँसना- हँसाना ही खत्म हो जाएगा । इसमें खुद पर हँस लेने की सामर्थ्य भी शामिल है । आदमी के समाज से कटे-कटे रहने और समाज के बँट जाने का यह एक सबसे बड़ा कारण हो सकता है ।

आजकल आदिवासी जीवन को साहित्य में बहुत प्रमुखता दी जा रही है । और यह दी भी जानी चाहिए। लेकिन हमें सजग रहना होगा । कहीं ऐसा तो नहीं कि एक नया बाजार तैयार किया जा रहा हो, जिसका दोहन अब होगा ? जिस तरह कंज़्यूमर गुड्‍स का बाजार पहले बड़े शहरों से शुरू होता है, फिर धीरे-धीरे दूर-दराज के इलाकों तक फैल जाता है, साहित्य भी बहुत से लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ व्यवसाय है, इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए । बाजार के संदर्भ में देखें तो संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा वर्ग मध्यवर्ग ही है । जो मध्यवर्ग से नीचे है, वह भी चाहे-अनचाहे उसी में शामिल होता जा रहा है । ऐसे में मध्यवर्गीय अनुरागया आभिजात्यवादी सौंदर्यबोधको नकार देना, उसे नकारात्मक समझना या उससे बच पाना कहाँ तक संभव है ? ‘टीन की छत पर बारिश की आवाजेंक्या आज के जमाने में भी आभिजात्य सौंदर्यबोध का द्योतक है? क्या दूसरों के अभावों से अपनी संपन्नता की तुलना करके खुश होना सिर्फ मध्यवर्ग का ही चरित्र है ? क्या सौंदर्य-मात्र ही आभिजात्य होने को इंगित नहीं करता ? क्यों, व्यक्ति चाहे किसी भी वर्ग का हो, खास मौकों पर सजना-सँवरना चाहता है ? शब्दकोश में आभिजात्य के दिए गए अर्थों में पांडित्य और सौंदर्य भी है । लोक की सौंदर्य-दृष्‍टि से आभिजात्यता के घेरे को तोड़ने से, हो न हो, एक अस्पृश्यता की भावना का एहसास मिलता है , किसी भी तरह की आभिजात्यता के खिलाफ । चाहे तो इसे विलोम अस्पृशयताकह लें । वैसे भी बजता है जलतरंग टीन की छत पे जब मोतियों जैसा जल बरसे फिल्मी गीतों में ही ज्यादा सुहाता है । बारिश का संगीत तो खुले में, घने पेड़-पौधों-पत्तों के बीच ज्यादा सम्मोहन पैदा कर सकता है ।  

हमारी भाषा में प्रकृति के प्रति अपार अघोषित हिंसा है, यह कथन चिंतित कर देनेवाला है । इस पर थोड़ा विचार किया जाए । प्रकृति में हर वस्तु अपनी एक उपयोगिता लिए हुए है, और उसी के अनुसार प्रकृति में संतुलन बना हुआ रहता है । न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ , इस कथन पर सोचने पर यह लग ही सकता है कि बाँसबेचारा बेवजह मारा जाता है । लेकिन, वस्तुत: ऐसा है क्या ? इस कहावत में संभवत: ज्यादा जोर न बजेगी बाँसुरीपर है । बाँस की अनुपल्ब्धता सिर्फ बाँस के समूल नष्ट कर दिए जाने से ही सुनिश्चित नहीं की जा सकती, और भी तरीके हो सकते हैं । फिर, यह जानी हुई बात है कि बाँस सबसे तेजी से उग आने वाली घास की प्रजाति है । गूगल पर प्राप्त जानकारी के अनुसार बाँस एक सपुष्पकआवृतबीजीएक बीजपत्री पोएसी कुल का पादप है। इसके परिवार के अन्य महत्वपूर्ण सदस्य दूबगेहूँमक्काजौ और धान हैं । घास,गेहूँ, मक्का,जौ, धान—इन सभी की फसल को भी काटा जाता है ही । दूसरी एक बात यह भी है कि एक 18 मीटर लम्बे पेड़ को काटने पर उसका पुर्ननिर्माण होने में 30 से 60 वर्ष लग जाते है। इसकी तुलना में 18 मीटर के बाँस को 59 दिनों में वापस उगाया जा सकता है। तो, संभव है कि न रहेगा बाँस से  बाँस के काट दिए जाने की बात न हो रही हो, और यदि हो भी, तो भी बाँस कुछ ही दिनों में फिर उगाए जा सकते हैं । हाँ, इतना जरूर है कि भाषा के प्रयोग में टोनबहुत कुछ इंगित कर जाता है । सीधी-सरल लगने वाली बात भी गाली मान ली जा सकती है, गालियों में प्रयुक्त होने वाले शब्द भी हँसी-ठट्ठा ! व्यक्ति की मंशा उसके द्वारा कहे गए शब्दों के अर्थ बदल दे सकती है । निहितार्थ भर सकती है ।

ऐसी ही बात पानी पड़ जाना’, इस कहावत को लेकर भी है । पानी तो हमारे पंचतत्वों में एक है। पानी का गुण है भिगाना, शीतल कर देना, बुझा देना । पानी जीवनदायी है, तो कभी वह सजा भी दे सकता है । पानी पड़ा है अगर तो किसी न किसी प्रज्वलित चीज पर ही । प्रज्वलता आशा, सपने और उत्साह का प्रतीक है । पानी पड़ने या पानी फिर जाने से उत्साह के बुझ जाने का जो अर्थ प्रकट होता है, वह सीधे-सीधे तथ्यात्मक वाक्यों से तो नहीं हो सकता है । कविता पढ़ते समय अगर यह प्रतीत हो कि इसकी कोई उक्ति जबरन अपनी बात सिद्ध करने के लिए, किसी को नीचा दिखाने के लिए आई है, तब हम जरूर कहें कि कवि ने भाषा का दुरुपयोग किया है । कवि तो अपनी चेतना के स्तर से, अपने मनोभावों की भूमि पर खड़ा होकर बात करता है । अगर वह अपने उद्गारों के प्रति ज्यादा ही सतर्क होने लगे तो भाषा में कृत्रिमता आने का खतरा रहेगा । कवि का पॉलिटिकली करेक्ट होना कितना आवश्यक है, और यह कितना संभव हो सकता है ? भाषा के प्रयोग के द्वारा हिंसा न हो जाए, यदि इस बात पर बहुत ही ज्यादा जोर दिया जाने लगे, तब तो हमारे जीवन की बहुत सारी बातों में- खाने-पीने से लेकर पहनने-ओढ़ने, बातचीत से लेकर उठने-बैठने में – हमें यह खटका लगा रहेगा कि कुछ गलत न हो जाए । यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि भाषा क्या है, अभिव्यक्‍ति का साधन और साहित्य या कविता जीवन की अभिव्यक्‍ति। जीवन में जो कुछ है, उसकी अभिव्यक्ति होगी, और उस अभिव्यक्ति का माध्यम है भाषा । भाषा से हटाने से पहले किसी भी बात को जीवन से हटाना होगा । कवियों को ज्यादा कड़ाई वाली नजरों से देखने का एक मतलब तो यह है कि हमें उनसे सर्वोत्तम की अपेक्षा है, अत: उनकी छोटी-से-छोटी कमी भी सुधारे जाने का प्रयास हर स्तर पर हो । दूसरी बात यह भी है कि हो सकता है हम उनके यानी कवियों के प्रति थोड़ा अनुदार भी हो रहे हों ।

अपने बहुचर्चित निबंध कविता क्या है?’ में आचार्य रामचन्‍द्र शुक्ल कहते हैं कि मनुष्य जिस अवस्था में अपने आपको भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं । यानी कविता प्रथमत: और अन्‍तत: अनुभूति ही है । हर कवि अपनी कविता में अनुभूति को ही पकड़ना चाहता है । कविता अनुभूत किए जाने की चीज है, यदि यह नहीं सधे, तो बस शब्दों का खेल बचता है। और यह जो अनुभूति है वह सार्वभौमिक है, वह यक्ति-विशेष की नहीं, मनुष्य-मात्र की है । उसका प्रकट होना हर कवि के यहाँ देश-काल-संदर्भ-सापेक्ष है । अनुभूति वही है, प्रकटीकरण भिन्न-भिन्न। नीचे तीन कविताओं के उद्धरण दिए गए हैं । कवियों के नाम बाद में बताए जाएँगे । हम यह देखें कि क्या तीनों कवि एक-सी संवेदना को ही शब्द नहीं दे रहे । अलग-अलग बैकग्राउंड से आए कवि क्या एक ही अनुभूति तक पाठक को नहीं ले जा रहे? –

             अब जिसकी छत है

  पतंग भी उसी की है  [1]


  जिसके पास चली गई मेरी ज़मीन

  उसी के पास अब मेरी

  बारिश भी चली गई  [2]  


  बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए

 

  लड़ रहे हैं आदिवासी

  अघोषित उलगुलान में

  कट रहे हैं वृक्ष

  माफियाओं की कुल्हाड़ी से और

  बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल से

 

  दांडू जाए तो कहाँ जाए

  कटते जंगल में

  या बढ़ते जंगल में?  [3]

 

कवि हैं क्रमश: विनय सौरभ[1], नरेश सक्सेना[2] और अनुज लुगुन[3] ।

कविता की जमीन को समझने के लिए कवि की जमीन को भी समझना होगा । कई बार रंग-रूप और स्वाद अलग होने के बाद भी तासीर एक-सी हो सकती है । कवि की जमीन के साथ-साथ पाठक की मनोभूमि को भी जोड़ देना चाहिए । कोई भी रचना पाठक के मर्म-स्थल तक पहुँच कर ही पूरी होती है । कविता को चेतना के किस स्तर से, किस मनोभूमि पर खड़ा होकर और किस तैयारी के साथ देखा जा रहा है, ग्रहण किया जा रहा है, कविता का अर्थ इस पर भी निर्भर करता है । कविता, कवि और पाठक दोनों के लिए स्वांत: सुखायहोनी चाहिए । राही डूमरचीर का यह आलेख भी इस बात का साक्षी है ।   

बुधवार, 6 नवंबर 2024

‘मैं में हम—हम में मैं’: निजी का लोक, लोक का निजी

 

मैं में हम—हम में मैं: निजी का लोक, लोक का निजी

( एक निजी व्याख्या )

 

कहा जाता है कि कवि/लेखक परकाया-प्रवेश करता है । लोक की बात को अपना बनाता है, फिर उस अपनी बात को लोक को लौटा देता है । जैसा लेखक करता है, पाठक भी दूसरी तरफ से वैसा ही करता है, बशर्ते रचना दमदार हो, -- पाठक कविता में प्रवेश कर जाता है, ‘अपनाकुछ उस कविता में मिलाता है, और उस अपने का विस्तार कर लोक में तब्दील हो जाता है ।

यह जो कविता है मैं में हम—हम में मैं’  कितना अपना बना लेती है, कितनी अपनी है, क्या बताएँ ! जी हाँ, बताऊँ नहीं, बताएँ ! यदि आप बिहार या यू.पी से हैं, यदि आप पढ़ाई-लिखाई में ठीक रहे हों ( या न भी रहे हों) और यदि आप उस दौर के हैं जब यूपीएससी की तैयारी करना राष्ट्रीय धर्म से कम नहीं था, या अभी भी जिनके लिए एक नौकरी पा लेने का मतलब लाइफ सेट हो जाना है, यानी यदि आप हमारे जैसे हैं —तो यह हो ही नहीं सकता कि यह कविता आपको गिरफ्त में नहीं ले ।  

        कहता है – हम आए हैं ।

      हम यानी मैं के साथ ढेर सारा मैं’ !”

 बिहार में और यूपी के ज्यादातर हिस्सों में हमका मतलब मैंहोता है । या फिर राजकुमार के फिल्मी डायलॉग में !

चौबीस पृष्‍ठों और छह खंडों में फैली हुई  कवि निशान्‍त की यह कविता ( जो 2012 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित संग्रह जी हाँ, लिख रहा हूँ...’ से है ) हमारी कहानी है । हमारे जीवन का खण्ड-काव्य। हमारी यानी मैंके साथ ढेर सारी मैंकी । हम जो बिहार जैसे पिछड़े राज्य के रहने वाले हैं ( संजीव सान्याल, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के सदस्य, के हालिया शोध-पत्र के अनुसार भारत की जीडीपी में बिहार की हिस्सेदारी 2000-01 में मात्र 4.3% की है, जबकि इसमें झारखंड के आँकड़े भी शामिल हैं । बिहार की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का बमुश्किल 33% है )। बीमारु (BIMARU)राज्यों के बारे में भला किसने नहीं सुना होगा !

सेशन के बार-बार पिछड़ने के बाद बी.ए., एम.ए. की डिग्री लेकर जीवन का जो ध्येय बचता है, वह है एक अदद नौकरी पा लेने का । सरकारी नौकरी । और यूपीएससी यानी कि आइएएस या आइपीएस नहीं हो अगर, तो फिर कहाँ से शुरुआत हो ! बताया था न, यह मान लिया गया है कि पढ़ाई-लिखाई में ठीक रहे हैं हम

        चार स्वर्ण अक्षरोंको रटता हुआ

       हाथों में स्पाइरिल बाइंडिंगकी कॉपी पकड़े

       आँखों में मसूरी के सपने पाले

       सीने में नीली बत्ती की ख्वाहिश दबाए

 बत्ती लाल या पीली भी हुआ करती थी । मन वैशालीकॉपी के पन्नों तक भी चला जाता है । पन्ने ऐसे हुआ करते थे कि स्याही से लिखो तो पीछे भी अक्षर उग आएँ ।

कविता की शुरु की पंक्तियों में ही एक नाम आता है–जैसे एक बलराम तिवारी हैं पटनावाले । बलराम तिवारी यानी यूपीएससी का हिन्‍दी ऑप्शनल । यानी मेन्‍सतक तो आप पहुँच ही गए ! और पटना यानी ? ग़ालिब ने कहा है –

  कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं

  इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाय हाय

 बस आप ऊपर कलकत्ता की जगह पटना कर दीजिए, बात मेरी हो जाएगी । हर किसी के लिए कोई न कोई शहर, कोई न कोई कस्बा या कोई न कोई गाँव ऐसा होता है जो अस्थि-मज्जा-रक्त बन कर वजूद का हिस्सा बन जाता है । कभी- कभी एक से ज्यादा शहर भी हो सकते हैं । मगध एक्प्रेस और श्रमजीवी एक्प्रेस कितने ही सपनों को पटना से दिल्ली लेकर आती थी ! दिल्ली में नॉर्थ कैम्पसके आसपास का इलाका इन्हीं सपनों को पूरा करने के हौसले से स्पंदित है । इन इलाकों का सिरमौर – मुखर्जी नगर । मुखर्जी नगर, जहाँ –

                    समय दौड़ता है

                    चलता है  

                    बदलता है

                  और कुछभी बदलकर

                  कुछभी हो सकता है

 मुखर्जी नगर में सबका स्वागत है । हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं/ रंग रूप वेश भाषा चाहे अनेक हैं गीत की तर्ज पर । वह जो पटना से चलकर मुखर्जी नगर पहुँचा है लड़का, वह एकदम कच्चा माल (raw) है । अभी यू ट्यूब पर मनोज बाजपेयी की एक पुरानी टेली फिल्म दिखाई जा रही है सुनो रे किस्सा। इसमें मनोज बाजपेयी को देखिए, उनके लुकको देखिए, ‘कच्चा मालकहने से तात्पर्य वैसे ही लुक का है ।  

कविता में जैसे लड़कों की बातें हो रही हैं, वे हिंदी मीडियम वाले हैं । इनमें से कुछ लोगों को यह भी लगता है कि बस बोलने में मामला थोड़ा गड़बड़ है, लिखने में तो अंग्रेजी भी दुरुस्त है । बहरहाल, बिहार जैसे ‘उर्वर प्रदेशसे आए लड़के का कवि होना अस्वाभाविक तो नहीं ही है। लेकिन बात यह है कि पैठने कौन दे कविता की देहरीके अंदर ? घर के मालिकतो जमे-जमाए कवि-आलोचकगण हैं – होत न आज्ञा बिनु पैसारे । किस-किस के पाँव पखारे जाएँ ? अभी तो कवि सिर्फ कवि ही है ( वह भी सिर्फ अपने मानते), उसपर बेरोजगार और कमजोर भी। कोई न निरबल सहाय ।

मुझ जैसे लोगों के लिए सिनेमा बहुत बड़ा आकर्षण है । बल भी, ‘एस्केपभी । सिनेमा हॉल, मल्टीप्लेक्स नहीं, हमारी चेतना का ही एक्स्टेंडेड भाग हैं । मुखर्जी नगर में बत्रा है । सुख-दुख का साथी । वहीं बत्रा पर छोटूहोता है । हमारे साथ-साथ ही बड़ा होता, लेकिन हमारे जैसों कितनों के आते-जाते हुए वह छोटू ही बना रहता । हमारे वजूद को टटोलता, हमारे दिलों को कई-कई बार टूटने से बचाता ।

हमने पचास पैसे की नहीं भी तो, दो रुपए की तो चाय जरूर पी है । और बत्रा ही क्यों, पटना के श्रीकृष्णा नगर में, स्टेट बैंक के सामने लगने वाले ठेले पर भी । मोटे-गोल बिस्कुट के साथ । हम तो अलग से पहचान में आने के लिए ही बने थे शायद –

        हम अलग से पहचान में आ जाते बत्रा पर

        हिन्‍दी के विस्थापन के इस युग में

और बाद के वर्षों में जब यूपीएससी नहीं तो उसके नीचे, फिर उसके नीचे, फिर उसके भी नीचे यानी जहाँ कहीं भी संभव हो सके, एक नौकरी पकड़ कर पदों पर आरूढ़ और जीवन-पथ में रूढ़ हो चुके हमलोग, लाख मुलम्मों के बावाजूद, अंदर से वही बचते हैं , दो रुपए की चाय और मोटे-गोल बिस्कुट खाने वाले । हमारी जिंदगी में नौकरी ही जिंदगी का अक्ष हो जाती है ।हम उस मनपसंद नौकरी के इंतजार में खड़े छोटी-मोटी बातों पर भी खुश होते, औरों की सफलताओं के किस्से सुनते-सुनाते रहते हैं। सीएसआर’ ( Competition Success Review) के मुखपृष्‍ठ पर अपने ही राज्य के किसी यूपीएससी टॉपर का चित्र देखकर, और अंदर उसका इंटरव्यू पढ़कर रोमांचित हो उठते हैं। मन ही मन कहते – नथिंग इज़ इम्पॉसिबल !  

                                  ( 2 )


कवि निशान्‍त की यह कविता मेरी समझ से बेरोजगारों की साझा आत्मकथा है । कविता के आरंभ में ही वे जिस तरह पनायानी पटना यानी कोई भी छोटी जगह और दिल्ली को जोड़ते हैं, वह युवा भारत की एक तस्वीर खींचने का उपक्रम है । और यह तस्वीर बुलंद भारत की बुलंद तस्वीरनहीं है । देश की आजादी के सतहत्तर साल बाद भी सभी के लिए एक समान मौके उपलब्ध नहीं हैं । आर्थिक विषमता की खाई बढ़ती ही जा रही है । यह ठीक है कि आय के स्तरों में सुधार हुआ है, लेकिन अंतर तो जस का तस बना हुआ है, बल्कि बढ़ा ही है । कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि कहता है – 

      रोज एक सूरज उगता और अस्त हो जाता

        रोजाना वह कुछ न कुछ बदल जाता

        रोजाना हमारा बत्रा कुछ नया हो जाता

              ----

        हमसर उठाए

        बत्रा पर इन्‍तजार कर रहे हैं उसका

        वह पाँच मिनट में

        आ ही जाएगा बत्रा पर

        अपना बैग उठाए ।

 बैकग्राउण्ड में जैसे मुकेश की आवाज में साहिर के शब्द गुनगुनाए जाते हैं –

              पतला है हाल अपना लेकिन लहू है गाढ़ा

              फौलाद से बना है हर नैजवां हमारा

              मिलजुल के इस वतन को ऐसा बनाएँगे हम

              हैरत से मुँह तकेगा सारा जहाँ हमारा

 निशान्‍त की यह लंबी कविता, संघर्षों, विषमताओं, विसंगतियों से दो-चार होते हुए, अंत में आकर इसी पॉजिटिव नोट पर खत्म होती हुई लगती है । कवि को वस्तु स्थिति का पूरा-पूरा अंदाजा है, लेकिन वह निराश, हताश होने की बजाय आगे बढ़ने पर ध्यान देता है ।

     निशान्‍त की यह कविता खींचती क्यों है? इसलिए कि यह बहुत करीब की, बल्कि अपनी ही व्यथा-कथा-सी है । इस देश में जहाँ बेरोजगारी अभी भी एक बहुत बड़ी समस्या है, हजारों-लाखों लोगों के सामने सबसे बड़ा काम, ‘काम ढूँढ़ने का ही है । यह बस ऐसे ही नहीं है कि विद्यार्थी छोटी-छोटी जगहों से निकल कर दिल्ली या दिल्ली-जैसी बड़ी जगहों पर जा रहे हैं । इसके अलावा बिहार जैसे राज्य से कितने लोग रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं, यह आँकड़ा ही उन परिवारों की विषम परिस्थितियों का बयान कर देगा । कवि को हिन्‍दी-भाषी विद्यार्थियों के भविष्य की खास चिंता है । वह समझता है कि जीवन में सहज रह पाना आसान नहीं है । आज के जमाने में तरक्की के लिए अंग्रेजी और पावर प्वाइंट, इन दोनों चीजों की प्रदर्शन-योग्य सिद्धि एक तरह से अनिवार्य है । हिन्‍दी पट्टी वाले छात्र पढ़ाई पूरी कर लेने को ही योग्यता मान बैठते हैं । और पढ़ाई भी कमोवेश डिग्री प्राप्त कर लेने की औपचारिकता भर हो कर रह गई है । डिग्री प्राप्त कर लेने के बाद का रास्ता अमूमन वैसा ही होता है जैसा कवि ने दिखाया है –

              हम प्री’, ‘मेन्‍स’, ‘यू.पी.एस.सी.’ से होते हुए

            जे.आर.एफ., नेट, एम.फिल्., पी-एच.डी. से निकलकर

            नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी से होकर

            राखी सावंत पर ही आकर रुकते

            और कहते— यार, मजा तो अशोक वाजपेयी बनने में है

            या नामवर सिंह या फिर राखी सावंत ।

 हमने ऐसी धारणा बना रखी है कि पद ही जीवन की गति निर्धारित करता है । आदमी होना किसी पद, किसी ऊँचाई पर पहुँच पाने के बाद ही सफल है । ध्यान दें तो अशोक वाजपेयी’, नामवर सिंहया राखी सावंतनाम, जो ऊपर उद्धृत किए गए हैं, वे व्यक्तित्व, चरित्र या प्रतिभा से ज्यादा एक पद, एक आसान के द्योतक हैं । हमने साधारण होने को कोई महत्त्व ही नहीं दिया है । समाज के तौर पर हमारी सारी ऊर्जा ही मिसप्लेस्डहै । बार-बार ऐसी रिपोर्टें पढ़ने को मिलती हैं कि ग्रेजुएट हो चुके युवाओं में काम देने योग्य ( एम्प्लॉयबल) लोगों का प्रतिशत बहुत ही कम है , यहाँ तक कि इंजीनियरिंग जैसी तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों में भी । समाज के तौर पर हम समझ ही नहीं सके कि डिग्री का मतलब योग्यता नहीं होता, और सिर्फ उँची नौकरी ही सम्मान के काबिल नहीं होती । इस माइंडसेट में युवा आबादी के सामने विकल्प ही नहीं बचते ज्यादा, सिवा एक अंधी दौड़ में शामिल हो जाने के । संतोषी सदा सुखीसरीखी कहावतें सिर्फ कथा-कहानियों के लिए ही बची हैं । लोगों में अपने को स्वीकार कर लेने का साहस ही नहीं बचा है । सब किसी के जैसा बन जाना चाहते हैं,’कुछहो जाना, ‘कुछकरके दिखाना चाहते हैं । पिछले साल एक फिल्म आई थी, ‘ट्वेल्थ फेल। ऐसी फिल्में भी नौकरी और प्रतियोगिता परीक्षाओं को अनावश्यक रूप से ग्लैमराइज़ करती हैं । यूपीएससी की परीक्षा में असफल हो जाने के बाद वहीं मुखर्जी नगर में चाय की दुकान खोल लेने वाले पात्र गौरी भइयाको गढ़ा जाता है । हीरो के संघर्ष को ज़ूमकर के दिखाया जाता है, एक्स्ट्रीम क्लोज-अप, मैग्नीफाइड । सच्चाई की चाशनी में डुबा कर झूठ को, और यदि झूठ न भी कहें तो सच के अतिरेक को हमारे सामने परोस दिया जाता है । लार्जर दैन लाइफबन जाना ही साध्य है । सीधे-सादे, शरीफ आदमी, जो सबका भला चाहे, जिसके मन में छल-प्रपंच नहीं हो, ऐसे व्यक्ति को समाज अपना हीरो मानता ही नहीं । हिंदी फिल्मों से उदाहरण लें तो कल्लूको कल्लूसे कालियाबनने का सफर तय करना पड़ता है । तभी लोग उसकी बात सुनते हैं, उसकी बातों को भाव देते हैं ।

  क्या हम सच का सामना नहीं कर सकते ? इस कविता के पास इसका जवाब है । कविता में आया छोटूका पात्र सच के करीब है, फिल्म का गौरी भइयानहीं । कविता समझती है कि नौकरी, अधिकारी की अच्छी है/ या फिर मास्टरी की । कविता समझती है, और समझाती है –

              विकल्पहीन संस्कृति के दौर में बस बचे हुए हैं थोड़े-से विकल्प

            विकल्पों के अन्‍त में

            हमको मैंदिखता था

            मैंको एक नौकरी दिखती थी

            समाज में क्रान्‍तिएक शब्दकी अहमियत लिये

            पत्र-पत्रिकाओं में बेरोजगारी के साथ निश्‍चिंतता से टहल रहा था

            ....

            एक विचारक ने घोषणा की – और अन्‍त में बचे रहेंगे शब्द

                        शब्द खुश हुआ और जाकर नौकरीकी गोद में बैठ गया ।   

 एक बेरोजगार युवा के लिए नौकरी की तलाश एक ऐसा युद्ध है जिसमें न फैसला होना है, न युद्ध- विराम । एक-एक करके उसकी आशाएँ, हौसला, उसके आदर्श, उसके विचार – सब फेल होते चले जाते हैं । लाल सलाम’, ‘हल्ला बोल’, संघर्ष और हिम्मत बढ़ाने वाले जुमले सब फीके पड़ते जाते हैं । जीवन भारी पड़ जाता है हमपे । और फिर जीवन समझौतावादी हो जाता है । युवा सपनों का, युवाओं के सपनों का धराशायी हो जाना, भला किस तरह ठीक है ? लेकिन ऐसा होता है –

            और बत्रा से उठकर

            मुखर्जीनगर से  निकलकर

            राजधानी को पीछे छोड़कर

            पृथ्वी पर पैदल चलने लगते हैं हम

            अब धीरे-धीरे

हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जब मनुष्य के बारे में कही गई बात कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है झूठी पड़ती जा रही है । और यह कोरोना वाली सोशल डिस्टेंसिंगनहीं है । यह आत्मकेंद्रित, वर्ग-भेद की बहुत बारीक परतों में बँटते जा रहे समाज की बात है । यह उस समाज की बात है जो मानने लगा है – देना तो बहुत बाद की क्रिया है । बल्कि यह कि देना तो सबसे बाद की क्रिया है, या ऐसी कोई क्रिया है ही नहीं अब । यह कृतघ्न होते जा रहे समाज की बात है – स्मृतिहीन संस्कृति उपज है हमारे समय की ।

पूँजीपति ही नया राजा है । और राजा का बेटा ही राजा होता है । यह आज के समय का सबसे बड़ा चक्र है, (दु:)चक्र। महारानी के सामने राजकुमार ही प्रस्ताव रखने का पात्र है । पूँजी का अर्थ है खरीद-फरोख्त –

              चारों तरफ बाजार ही बाजार है

            कोई खरीद रहा है, कोई बेच रहा है

            दिमाग से लेकर ईमान तक

            उसी में धर्म की ध्वजा है

            साम्प्रदायिकता की आवाज है

            जाति की राजनीति है

            और सबसे ज़्यादा हमारा मैंहै

     पूँजी के प्रभाव से बच पाना अब इस दुनिया में संभव नहीं दिखता । दवा से लेकर दारू, शिक्षा से लेकर भिक्षा, क्या है जो पूँजी पर आश्रित नहीं ? और यहीं से शुरू होता है आत्मसंघर्ष । एक विचारशील व्यक्ति सारी असमानताओं को देखता-समझता है, उनके खिलाफ विद्रोह भी करता है लेकिन अंतत: उसी के जाल में फँस भी जाता है । जीवन की आधारभूत सुविधाएँ उसे भी चाहिए। यह अलग बात है कि उन आधारभूत सुविधाओं के अंतर्गत आने वाली वस्तुओं की सूची क्रमश: लंबी ही होती चली जाती है ।

              अपने ही सच के घर के भार से

            भारी पड़ जाता है एक दर्शन

            जीवन इसी तरह चलता है,

            तुम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते

 

कवि हमारे सामने अपनी बात रखता है –

              सच क्या इतना तीखा है कि

            उससे नहीं बनाई जा सकती जीवन की चपाती

            या यथार्थ इतना नसतोडू है कि हम

            भागते-फिरते रहते हैं अमेरिकी लोक में

 यह कवि का आत्म-ज्ञान है । यही पाठक का भी अत्म-ज्ञान है । कोई भी अत्मसंघर्ष जब आत्मके दायरे से बाहर निकल आता है, जब वह अपने लोक के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करने लगता है,तभी हम उसकी व्याप्ति को व्यापक और गहरी कह सकते हैं । इस कविता में कवि तो उपस्थित है ही, पाठक भी स्वयं को उतना ही उपस्थित पाता है, कम से कम मैं तो ऐसा ही पाता हूँ । लोकक्या है, कई सारे लोगों के निजीका समूह । कवि का निजीजब विस्तार पाता है, जब लोगों की भावनाओं के साथ घुलता है तो वह बढ़कर लोक का अपना भाव हो जाता है, लोक का निजी। मेरा विश्‍वास है कि इस कविता को पढ़ते-पढ़ते पाठक के पास जो कुछ उसका निजी है, कविता में घुलने-मिलने लगता है । पाठक का भाव कवि के भाव से मिलकर लोक का भाव बन जाता है । इस कविता में जो निजी है वही लोक का भी है, जो लोक का है वही सबका निजी भी है । कविता और कवि की सफलता इसी में है ।

           

भोलाराम जीवित [ भगत -बुतरू सँवाद 2.0]

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