कुछ चित्र कुछ शब्द : सुबह-सवेरे
( अलग-अलग दिनों में एक ही स्थान से , और लगभग एक ही समय पर चित्र लिए गए हैं)
कुछ चित्र कुछ शब्द : सुबह-सवेरे
( अलग-अलग दिनों में एक ही स्थान से , और लगभग एक ही समय पर चित्र लिए गए हैं)
पैरवी : कविता क्षेत्रे
(कविता पर कुछ गैरशास्त्रीय टिप्पणियाँ)
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ
- तुलसीदास
कुछ लेखकों के नाम जान लेना, कुछ
किताबों के नाम जान लेना, थोड़ा-बहुत पढ़-लिख लेना, इन
बातों से किसी को साहित्य का सुपात्र तो नहीं ही कहा जा सकता है । खैर । कुछ अपनी, कुछ औरों की दृष्टि से देखते, सुनते, पढ़ते, समझते
कविता के विषय में कुछ न कुछ कच्चा-पक्का, सही-गलत तो आदमी सोच ही लेता है । उन्हीं बातों को आपके सामने रख रहा
हूँ ,
यह मानते हुए कि इनमें आप शास्त्रीयता की
खोज नहीं करेंगे । पाठकों को ये टिप्पणियाँ थोड़ी भी रुचिकर लगीं, तो इनका लिखा
जाना सार्थक हो जाएगा ।
***
एकान्त श्रीवास्तव और उनकी किताब ‘कविता का आत्मपक्ष’ को
याद करते हुए ...
***
कविता माने कि क्या, कविता माने कि क्यों
कविता क्या है ? और
कोई कविता क्यों लिखता है ? ये
दोनों प्रश्न जितने सरल प्रतीत होते हैं, उनका
उत्तर उतना ही जटिल है । कविता से पहले सवाल साहित्य का है । साहित्य क्या है , भावों का
प्रकटीकरण । भावों का प्रकटीकरण अर्थात् अभिव्यक्ति । अगर हम देखें तो इस संसार
में हर वस्तु किसी न किसी तरह की अभिव्यक्ति ही है । इसलिए स्वाभाविक रूप से
मनुष्य अभिव्यक्ति के लिए बेचैन रहता है । सिर्फ बोलना और लिखना ही अभिव्यक्ति
नहीं है,
यह तो तय ही है । साहित्य में जो भावों का प्रकटीकरण है, वह सिर्फ भावों का प्रकटीकरण-मात्र नहीं, बल्कि ऐसा
प्रकटीकरण जो प्रकट करने वाले और ग्रहण करने वाले दोनों को रस में डुबा दे । एकदम
शुरु में साहित्य का अर्थ था पद्य यानी कि कविता । आजकल तो कविता गद्य हुई जाती है
। तो एकदम शुरु से ही यह प्रश्न सामने है कि कविता क्या है ?
‘कविता क्या है’ इस
प्रश्न पर आचार्यों और मनीषियों ने बहुत विचार किया है लेकिन जैसा वरिष्ठ आलोचक
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अपनी पुस्तक ‘कविता
क्या है’
की भूमिका में लिखते हैं, वह
ध्यातव्य है । वे लिखते हैं – “कविता क्या है? – इस
प्रश्न के उत्तर में कोई एक सर्वसम्मत परिभाषा दे पाना कठिन है। अत्यंत प्राचीन
काल से,
सारी दुनिया में, कवि, दार्शनिक आचार्य, आलोचक और प्रबुद्ध विचारक काव्य की अपनी-अपनी परिभाषा देते रहे हैं। ‘कविता’ क्योंकि ‘कवि’ की अर्थात् ‘एक चेतन मनुष्य’ की ‘मानस-कृति’ है अत: इसका किसी
कारखाने में बनी हुई ‘वस्तु’ के समान तात्त्विक विश्लेषण संभव नहीं है, और इसीलिए इसका कोई एक सर्वामन्य निष्कर्ष प्रस्तुत करना भी कठिन है
।” ‘कविता क्या है’ के
स्थान पर कविता के लक्षणों, उसके
गुण-दोषों पर लंबी-लंबी चर्चाएँ की जा सकती हैं, लेकिन
निश्चितता के साथ ‘कविता क्या है’ यह कह पाना मुश्किल ही है। मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है । ‘कविता क्या है’ यह सिर्फ और सिर्फ कविता पढ़कर ही समझा जा सकता है । खूब सारी
कविताएँ। समझा जा सकता है, लेकिन कविता
को परिभाषित कर पाना फिर भी संभव नहीं ही होगा।
इसी तरह कोई कविता क्यों
लिखता है, इसे ठीक-ठीक बता
पाना संभव नहीं। हाँ, उन परिस्थितियों, संदर्भों आदि के बारे में बात हो सकती है, जिनमें कोई
कविता लिख देता है । निश्चितता
के साथ इतना ही कह सकते हैं कि वह या तो कविता लिखता है या नहीं लिखता है। फुल
स्टॉप ! लेकिन फुल स्टॉप के पहले की बात यह है कि मनुष्य अपने को अभिव्यक्त करना
चाहता है, अपने को खाली कर देना चाहता है, मन को कहीं उड़ेल देना चाहता
है । हाँ, इस अभिव्यक्ति के माध्यम अलग-अलग हो सकते हैं,
होते हैं । लेकिन फिर सवाल यह है कि वह अभिव्यक्त करना ही क्यों
चाहता है ? सभ्यता के विकास में आदमी का मस्तिष्क क्रमश:
विकसित होता गया है । आदमी के पास भाव भी हैं, और विचार भी ।
पात्र जब भर जाता है तो छलकने लगता है । फिर खाली होता है, दुबारा
भरे जाने के लिए । अभिव्यक्ति मनुष्य की स्वाभाविक आवश्यकता है । लेकिन इस
अभिव्यक्ति का माध्यम कविता ही क्यों ? ईश्वरीय इच्छा या
बहुत सारे विकल्पों में से प्रकृति का रैंडम सैम्पलिंग । यानी कि है तो है !
कविता के इलाके में प्रवेश
कविता का इलाका एक खुला हुआ
इलाका है । चहारदीवारी के बिना । कविता के इलाके में कोई किलाबंदी नहीं होती ।
इसीलिए कोई भी, कैसे भी इसमें
प्रवेश कर सकता है । लेकिन इतना तय ही है कि कोई पहले कविता का पाठक/श्रोता बनेगा, पीछे कवि ( यदि बना तो ) ।
भारत की संस्कृति में ही
गीत-संगीत रचे-बसे हुए हैं । कविता का उद्भव भी हमारी इसी गीत-संगीत की संस्कृति
से हुआ माना जा सकता है । आधुनिक कविता के पहले का पूरा काव्य ही छंदोबद्ध या गेय
है । इसी की एक लोकप्रिय शाखा हिंदी फिल्मों के गीतों को माना जा सकता है । कविता
से पहला परिचय अमूमन आम बोलचाल में घुलेमिले दोहों, चौपाइयों, कहावतों, शेरों, भजनों, कव्वालियों, फिल्मी गीतों के मार्फत ही होता है । किशोर वय में कविता के प्रति
आकर्षण का एक बड़ा कारण देवनागरी में उपलब्ध उर्दू शायरी भी है । ग़ालिब, साहिर, मज़ाज़,, जिगर, इकबाल जैसे अनेक
नाम हैं जो कविता की ओर खींचते हैं, जिसका
कारण उर्दू कविता में प्रेम और विरह जैसे विषयों वाली कविताओं का बहुतायत में होना
है ,
जो किशोर मन को खींच लेती हैं । कविता के
एक छोर पर दिनकर और बच्चन जैसे कवियों की प्रवाहमय कविताएँ भी किशोर-मन को आकर्षित
करती खड़ी होती हैं। ये सारी बातें अक्सर
देखादेखी में ही शुरू होती हैं । कहावत भी है कि संगत से गुन आत हैं, संगत से गुन जात। घर-परिवार में, दोस्तों में, जान-पहचान में किसी की कविता में रुचि हमें भी कविता की ओर खींच ले
जाती है । एक बार खिंचे तो फिर खिंचते ही चले गए । और फिर शुरू होता है पंक्तिसे पंक्तिका
जोड़ना। यानी एक कवि बनने की शुरुआत ।
कविता हमारे अवचेतन में रची-बसी हुई है । बचपन में रटे गए पहाड़े, जो कि अब टेबल हो गए हैं, क्या कविता का ही एक रूप नहीं ? स्कूल की निचली कक्षाओं में गाई- गवाई गई कविताएँ/राइम्स भी तो कविता ही हैं । इस टीवी और इंटरनेट से पहले के जमाने में बच्चों द्वारा खेले जाने वाले कितने ही खेल कविताओं/ गीतों को समाहित किए होते थे ! और फिर अंताक्षरी को कोई भूल सकता है क्या?
ये सारी बातें क्या इंगित करती हैं ? यही कि कविता तो हर व्यक्ति के अंदर है, प्रकट कहीं-कहीं होती है । जब वह प्रकट होती है, तब व्यक्ति कविता के इलाके में प्रवेश करता है । छोटे-छोटे डग भरना शुरु करता है । बनी बनाई लीक पर चलता है । फिर अपनी लीक बनाने की कोशिश भी करता है ।
कविता का फर्मा
कविता का कोई फर्मा नहीं
होता कि शब्दों को उसमें फिट बैठाइए और कविता तैयार । वैसे भी देखा जाए तो पहले
कविता बनी होगी, उसके नियम-अनुशासन
तो बाद में ही तय किए गए होंगे । वहाँ भी हुआ यह होगा कि बहुमत जिधर रहा होगा, नियम-अनुशासन भी वैसे ही बना लिए गए होंगे । किसी भी विशेष तरीके से
लिखे जाने पर ही कविता होगी, या
नहीं होगी, यह तय किया ही
नहीं जा सकता है । पानी का अपना रूप, अपना
आकार नहीं होता । जिस पात्र में हो, पानी
वही रूप धारण कर लेता है, और
स्वाद भी । मिट्टी के घड़े का पानी, ताँबे
के लोटे का पानी, स्टील की बोतल का
पानी । कविता का मामला भी कुछ ऐसा ही है । जैसा पात्र, वैसी कविता । कविता स्वभावत: जड़त्व के विरुद्ध क्रियाशील होती है । इसलिए
अगर बंधन में बँध कर कविता हो रही हो तो जल्दी ही हर बंध के ठीक विपरीत भी कविता
जाएगी ही । और दोनों ही रूपों में कविता ठाठ से खड़ी रहेगी । कविता का कोई
सर्वमान्य नियम हो ही नहीं सकता। यानी कि आप लिख रहे हैं वह भी कविता, मैं लिख रहा हूँ वह भी कविता । और हम दोनों अपने-अपने तर्कों से
एक-दूसरे की कविता को खारिज करने के लिए भी उतने ही स्वतंत्र । हाँ, यहाँ कविता
के बारे में लगभग ‘क्लीशे’( पिष्टपेषण) हो
चुकी बात को कह देना भी जरूरी ही लगता है । कहते हैं कविता करने के लिए तीन बातों
का होना बहुत जरूरी है – प्रतिभा, अध्ययन और अभ्यास । प्रतिभा
एक ‘सब्जेक्टिव’ वस्तु है, इसलिए अध्ययन और अभ्यास को ही मापा जा सकता है ।अभ्यास से आप अभ्यस्त हो
जाएँगे, कविता पढ़ने के भी, कविता लिखने
के भी । ऊपर भी कहा गया है कि ‘कविता क्या है’ इसे जानने का सबसे अच्छा साधन है पढ़ना । कवियों को पढ़िए, जो अच्छे लगते हैं उनसे ही शुरू कीजिए । दायरा स्वत: बढ़ता जाएगा । कोई भी
अच्छा कवि इस युक्ति के विरोध में नहीं जाएगा।
***
नए कवि की धुकचुक
नया-नया कवि थोड़ा संकोची होता है, उसका
आत्मविश्वास भी थोड़ा कमजोर ही होता है । कम-से-कम तबतक,
जबतक कहीं से प्रशंसा न मिल जाए । वह सीनियर कवियों की ओर बड़ी आशा से देखता है,
मार्गदर्शन के लिए, प्रोत्साहन के लिए,
सम-आलोचना के लिए । यहीं पर मामला थोड़ा ठीक नहीं, उसे दुरुस्त किया जा सकता है । इस बात के समर्थन में दो कविताओं का जिक्र
करना चाहूँगा। एक है विनय सौरभ की कविता ‘क्या नामवरों के
शहर की यही गति होती है नवीन कुमार !!’ और दूसरी अच्युतानंद
मिश्र की ‘बड़े कवि से मिलना’ । दोनों
कविताएँ ‘कविता कोश’ की वेबसाइट पर पढ़ी
जा सकती हैं । वैसे, कवियों की बढ़ती हुई संख्या और कविताओं
की बाढ़ में कितना-कुछ किया जा सकता है, यह भी एक बड़ा प्रश्न
है । कभी- कभी कवि ज्यादा उत्साही भी हो सकता है । वही, जो
रोज कविता लिखे । हर विषय पर कविता लिखे। हर कविता शेयर करे और प्रतिसाद की
प्रतीक्षा भी करे । दूसरी ओर कुछ ‘नर्गिस’ कवि भी होते हैं, जो दीदावरों के इंतज़ार में ही रह
जाते हैं । वे खोज-खोज कर किताबें और पत्रिकाएँ खरीदते हैं। पत्रिकाओं के
सब्सक्रिप्शन लेते हैं । दूसरे लेखकों की किताबों की तारीफ करते हैं । कभी तो फेकी
हुई बॉल वापस भी आएगी ! लेकिन हाथ आता है “ दिन खाली-
खाली बर्तन है,
और रात है जैसे अंधा कुआँ ।” तुलसी के पौधे को भी
पानी नहीं दीजिए तो वह मुरझा जाता है,आदमी, उसमें भी कवि का मन, तो फिर कवि का ही मन है !
कहने वाले
कह सकते हैं कि चार्ल्स डार्विन का ‘सरवाइवल ऑफ़ दि फ़िटेस्ट’ याद करिए और आगे बढ़िए । मुझे साहिर याद आते हैं – “मैं जानता हूँ
मेरी हमनफ़स,
मगर यूँही, कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता
है...।”
हर कला का
क्षेत्र बहुत एकाकी होता है । हर कलाकार को अपना रास्ता अकेले ही तय करना होता है
। कलाकार की अगर तैयारी पक्की है, तो रास्ता भी मंजिल का मजा दे सकता
है। वह कितनी तैयारी करता है, देखने वाली बात यह है ।
कवि और उसकी भाषा
कवि को अपनी भाषा की शुद्धता/विशेषता के
प्रति कितना आग्रही होना चाहिए ? भाषा की कितनी कलाकारी उसे आनी चाहिए
? इस संबंध में अपनी आत्मकथा ‘क्या
भूलूँ क्या याद करूँ’ में बच्चन जी की उक्ति रास्ता दिखा
सकती है – “ कला के सम्बन्ध में यह मेरा मूलभूत सिद्धान्त
तब भी था,
आज भी है; मैं कवि हूँ तो मुझे वचनप्रवीण होने
की आवश्यकता नहीं। अपनी बात कहने में, पूरी तरह कहने में,
जितनी वचन-प्रवीणता उससे अनिवार्य रूप से सम्बद्ध होकर, जुड़कर आए, मेरे लिए उतनी ही पर्याप्त है, जैसे माँस के साथ त्वचा ।”
हिंदी वैसे भी एक समावेशी भाषा है । बचपन
में पढ़ाया गया कि हिंदी तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों से मिलकर बनी है ।
हिंदी ने विभिन्न भाषाओं से शब्दों को ग्रहण कर, उन्हें
अपनाकर हिंदी का शब्द-भंडार समृद्ध किया है । ऐसे में भाषा की शुद्धता की पहचान और
रक्षा दोनों ही कठिन काम हैं । अब जैसे अंग्रेजी और उर्दू-फारसी के बहुत सारे शब्द
हिंदी में आए हैं, जिन्हें हम उसी रूप में पहचानते हैं जैसे
कि वो हिंदी में प्रयुक्त होते हैं । उर्दू-फारसी के शब्दों के साथ नुक्तों के
प्रयोग को लेकर कितना आग्रही हुआ जाए ? जो उर्दू बोलनेवाले
नहीं हैं, उन्हें उर्दू शब्दों के शुद्ध उच्चारण में बहुत
दिक्कत आ सकती है । ‘फ़’, ‘ज़’ और कुछ हद तक ‘ग़’, इनके अलावा
उर्दू के शब्दों के साथ नुक्ते के सही उच्चारण के लिए बहुत सधी हुई ज़बान चाहिए।
हिंदी में उर्दू के शब्द बिना नुक्ते के आत्मसात किए जा चुके हैं और अर्थ को
संप्रेषित करने में कोई बाधा भी खड़ी नहीं होती है । इसी तरह यदि अंग्रेजी से आए
हुए शब्दों जैसे कारों, स्टेशनों के स्थान पर अंग्रेजी की
तर्ज पर यदि ‘कार्स’ और ‘स्टेशन्स’ इस्तेमाल किया जाने लगे तो कैसा हो ! कुल
मिलाकर बात यही है कि हमारी जो भाषा बनी हुई है, उसमें जबरन
कलाकारी न की जाए ।
भाषा को लेकर संभवत: एक और बात हुई है । वह यह कि उर्दू के शब्दों का प्रयोग करना ‘प्रोग्रेसिव’ और ‘इंटेलेक्चुअल’
होना मान लिया गया । संस्कृत या तत्सम शब्दावली का प्रयोग या तो
दुरूहता का या फिर फूहड़ता/ उपहास की निशानी माना जाने लगा । कोई नुक्तों वाली
उर्दू के कुछ शब्द अपने लेखन या भाषण में ले आए तो उसकी गर्दन आपरूपी ही थोड़ी तन
जरूर जाएगी। अंग्रेजी को तो हम माथे पर बैठाए हुए हैं ही । ‘भाषा
की शक्ति’ शीर्षक निबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं
–“
मेरी समझ में तो वे ही अरबी फारसी शब्द लिए जा सकते हैं जिनको वे लोग भी बोलते हैं
जिन्होंने उर्दू कभी नहीं पढ़ी है, जैसे- ज़रूर, मुक़दमा, मज़दूर आदि । जो शब्द लोग मौलवी साहब से
सीखकर बोलते हैं उनका दूर होना ही हिन्दी के लिए अच्छा है ।” अंग्रेजी पर भी यह
बात उतनी ही लागू होती है । लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि लौह-सकट लौहपथगामिनी जैसे
हास्यास्पद शब्द ईजाद और इस्तेमाल किए जाएँ ।
कविता के विषय
होने को तो कविता का विषय कुछ भी हो सकता है, लेकिन एक चीज होती है ‘सेल्फ सेंसरशिप’। एक अध्ययन के हिसाब से आदमी के मन में प्रतिदिन तकरीबन साठ हजार विचार
उठते हैं। यह तो संभव ही नहीं कि उन सबको प्रकट किया जा सके । तो शायद एक जैविक
फिल्टर हर व्यक्ति के अंदर होता है, जो तय करता चलता है कि
क्या प्रकट किए जाने योग्य है, प्रस्तुत्य है । उसी प्रकार
किसी भी विषय पर कविता लिखने के लिए कवि के मन में विचार आ सकता है, लेकिन कवि के अंदर का फिल्टर काम करना चाहिए कि क्या प्रकाश में लाए,
क्या नहीं। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि इन्द्रियों से पर
(ऊपर) मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी
अत्यन्त पर है, वह आत्मा है । इस आत्मा को हम अंतरात्मा कह
सकते हैं । मन जब बहकता-बहकाता है, तो बुद्धि उसपर अंकुश
लगाती है, और जब बुद्धि ज्यादा बौद्धिक होने लगती है तो
आत्मा ( अंतरात्मा) उसको समझाती है । यह एक आम व्यक्ति भी महसूस करता है, फिर कवि को तो यह पता चलना ही चाहिए। कवियों की तो छठी इन्द्री भी
जाग्रत् होती है ! जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि !!
तब की कविता में संगीत महत्त्वपूर्ण स्थान
रखता है । छंदोबद्ध होने के कारण कविताओं में नैसर्गिक रूप से ही लय और संगीत का
समावेश रहता है । निराला, कबीर और सूर, अभी ये तीन नाम याद आ रहे हैं, जिन्होंने संगीत के रागों पर आधारित पदों की रचना भी की है । छंद से
मुक्त होने के बाद कविताओं के गाए जाने की संभावना भी कम हो गई । गायन की जगह
कविताओं में ‘संवाद अदायगी’ का स्थान
हो गया है । कुछ-कुछ वैसा ही जैसा अभिनय में होता है। छंद-मुक्त कविताओं में जिस
आंतरिक लय की बात की जाती है, वह भी अगर ‘संवाद-अदायगी’ के नजरिए से देखा जाए, तो जल्दी पकड़ में आएगी । कविता की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार पढ़ने की
गति को एडजस्ट करके । अगर सामान्य लंबाई की पंक्ति है, तो
सामान्य गति से, यदि एक या दो शब्दों की ही पंक्ति है, तो थोड़ा ‘स्लो मोशन’ में । बच्चन
जी की कुछ कविताओं का पाठ उनके पुत्र सुप्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन ने किया है,
जो कैसेट के रूप में आया था और अब ‘यू ट्यूब’
पर उपलब्ध है । छंदमुक्त कविता के पाठ को समझने- सराहने के लिए इन
कविताओं के अमिताभ बच्चन द्वारा किए गए पाठ को सुनकर देखा जाना चाहिए । अच्छा
कविता पाठ करना आसान काम नहीं है । यही बात कवि राजेश जोशी भी महसूस करते हैं जब
वे लिखते हैं कि “ हिंदी में अच्छा काव्य-पाठ करने वाले
कवियों के उदाहरण शायद कम हैं ।”
कविता में छंद : छंद में कविता
कवि अरुण कमल ने कहा है “ छंद बहुत बड़ा खजाना है जिसका उपयोग हम नहीं कर रहे हैं।” यदि छंद एक बड़ा खजाना है तो उसका सदुपयोग तो होना चाहिए । उस खजाने तक पहुँचने का मार्ग क्या हो ? कॉलेजों में ‘रस-छंद-अलंकार’ की पढ़ाई होती तो है, लेकिन कितनी और कैसी, यह किसी से कहने की जरूरत ही नहीं । छंद का महत्त्व सिर्फ परीक्षा में कुछ अंकों की प्राप्ति तक ही सिमट कर रह गया है । हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों ही नहीं, अध्यापकों के बीच भी छंद को लेकर कितनी रुचि-अभिरुचि बची है , यह भी देखने की बात है । ऐसा नहीं है कि छंदमुक्त कविता लिखना या पढ़ना आसान है, लेकिन छंद को समझने के लिए मेहनत और अनुशासन की एक अतिरिक्त सीढ़ी चढ़नी तो पड़ती ही है । छंद कविता में एक कौशल है, जिसे सीख लेने और उपयोग में लाने में बुराई नहीं है । आजकल तीर-धनुष से युद्ध नहीं हुआ करते, फिर भी धनुर्विद्या सीखी तो जाती है न, ओलम्पिक्स के मेडल के लिए ! किसी भी चीज को छोड़ देना हमेशा आसान है, किसी चीज की सिद्धि प्राप्त कर लेने की बनिस्बत । क्या कविता और गीत/नवगीत को एक ही शामियाने में नहीं बैठना चाहिए, जहाँ हिंदी फिल्मी गीतों के लिए भी कुछ जगह हो ?
आम लोगों के लिए साधारणत: छंद और तुक एक ही
माने रखते हैं । तुकें मिल रही हों, तभी लोग समझते हैं कि
छंद है । जबकि ऐसा है नहीं । छंद का अनुशासन कड़ा होता है । तुकों के कारण कभी-कभी
यह प्रतीत हो सकता है कि छंद तो बायें हाथ का खेल है । जबकि छंद को साधने में
छक्के छूट जाया करते हैं । तुकों या छंद के समावेश से कविता में एक सौंदर्य तो आ
ही जाता है । बस यही है कि अति कहीं भी हो, अखरने लगती है ।
कविता में नयापन : रूप निहारूँ तो कैसे ?
कविता में
कुछ नया होना चाहिए । मैं समझता हूँ कविता में नया होना, खास होना
है । कुछ अलग होना है । कवि के पास जरूरी नहीं कि कविता का सुपर स्टोर हो, जहाँ हर
तरह की कविताएँ पाठक/ आलोचक का स्वागत करने को तैयार हों । कवि की अपनी छोटी-सी
दुकान हो सकती है, उसकी
अपनी, भले ही संख्या में कम कविताओं वाली ।
कवि प्राय: किसी न किसी अन्य कवि से
प्रभावित होता है, विशेषत: अपने शुरुआती दौर में । यह प्रभाव तीन तरह का
हो सकता है – प्रेरणा, नकल और चोरी । यह कहने की अलग से कोई
जरूरत नहीं कि हमें कैसे कवि स्वीकार्य होंगे ।
आजकल की बहुत सारी कविताएँ बहुत बोलती हैं ।
और फिर गणित के सिद्धांत की तरह अंत में
आकर मानो कहती हैं – हेन्स प्रूव्ड !
कविता सिर्फ अर्थ ही नहीं होती । मम्मट (
11वीं शताब्दी ई.) ने काव्य के लक्षणों के विषय में कहा है - “ न
केवल शब्द-सौंदर्य को काव्य कहते हैं और न केवल अर्थ-सौंदर्य को । शब्द और अर्थ का
सम्मिलित सौंदर्य ही काव्य है ।” आजकल
कविताओं में सिर्फ अर्थ का संधान किया जा रहा है । अर्थ और निहितार्थ । ‘लमही’ पत्रिका के ‘कविता का
वर्तमान और वर्तमान की कविता’ विशेषांक के संपादक शशिभूषण
मिश्र इसी कमी की ओर ध्यान दिलाते हुए संपादकीय में लिखते हैं –“
युवा कविता की इस प्रवृत्ति को एक ताजा उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा कि, इस अंक के लिए जब हमने नयी सदी की कविताओं की बुनावट ( क्राफ्ट), राजनीतिक दर्शन, संरचना और नैरेशन पद्धति, कहन और अंकन, लय और छंद, अमूर्तन
और प्रतीक – जैसे विषयों पर लिखने के लिए आग्रह किया तो कोई तैयार नहीं हुआ। इन
विषयों पर हमें स्वतंत्र लेख नहीं मिल सके।” कविता में सिर्फ
आत्मा (अर्थ) ही नहीं, उसका शरीर भी है, वस्त्रादि भी हैं । कुछ साज-सजावट
भी हो सकती है । उन पर भी बात होनी चाहिए ।
आजकल आमतौर पर कविता-संग्रहों में प्रकाशित
कविताओं के साथ तिथि का उल्लेख नहीं रहता है। तिथियों का उल्लेख कवियों के कालक्रम
में हुए बदलाव या विकास को समझने में सहायक हो सकता है । आजकल ऐसा भी देखने में आ
रहा है कि संग्रह पहली बार कब प्रकाशित हुआ, इस बात की जनकारी
संग्रह के नए संस्करणों में नहीं मिलती । अभी एक महत्त्वपूर्ण कवि का एक संग्रह
दिखा, जो पहले किसी और प्रकाशन से आ चुका है, अभी नए प्रकाशक ने प्रकाशित किया है। नए प्रकाशक ने सिर्फ अपने संस्करण के
वर्ष का उल्लेख कर के छुट्टी पा ली है । पाठक समझता रहे ! आलोचक भी अपने सूत्रों
से पता कर ले कि संग्रह कब का है । कहीं ऐसा तो नहीं कि यह माना जा रहा हो कि
तिथियों के नहीं देने से कविताएँ कालजयी हो जाएँगी- हमेशा के लिए नई । एक कारण यह
भी हो सकता है कि अक्सर प्रकाशकों के पास पाण्डुलिपियाँ वर्षों तक अपना नम्बर आने
का इंतजार करती हैं। ऐसे में अगर कविताओं की तिथियाँ साथ में दे दी गईं, तो ऐसा न हो कि पाठक कविताओं को बासी समझ बैठें ,और ऐसा
होने का सबसे पहला और सबसे अंतिम कारण – कवि की अज्ञानता, उसका
आलस्य और उसकी उदासीनता ।
कवि से करीबी
यानी कवि को कितना जानें
यह मानव- स्वभाव है कि वह दूसरों की निजी
जिंदगी के बारे में जानने को उत्सुक रहता है । कवि के बारे में व्यक्तिगत तौर पर
जानने का एक फायदा यह हो सकता है कि पाठक इस बात को आसानी से समझ जाए कि कौन-सी
कविता किस घटना से संबंधित है । लेकिन यही जानना कई बार पाठक द्वारा कवि को ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ मान लेने का कारण भी हो जाता है
। पाठक हर कविता के पीछे की घटना को देखता है, फिर कवि को और
अक्सर ऐसे में कविता दरकिनार हो जाती है । फिर बात यह भी है कि कोई भी कविता सिर्फ
किसी एक घटना या व्यक्ति से ही संबद्ध नहीं होती । नहीं हो सकती । भले ही उस घटना
या व्यक्ति से प्रेरित हो । यह भी हो सकता है कि पाठक कविता के पीछे की घटनाओं या
व्यक्ति को इसलिए पहचानना चाह्ता है कि वह अपने आप को बरी कर सके ! कविता में उठाई
गई बात जो सबकी ओर उँगली उठा रही हो, किसी घटना या
व्यक्ति-विशेष से जोड़ के देखे जाने से बाकियों के लिए राहत का कारण हो जएगा कि चलो,
अपनी बात नहीं हो रही, हम तो सुरक्षित हैं ! फिर
यह भी तो बात है कि किसी लोकप्रिय कवि को निजी तौर पर जानने वाला पाठक भी तो ‘स्पेशल’ आदमी हो जाता है, खुद-ब-खुद । कवि को आप कितना भी
जानें, कविता कवि की आत्मकथा नहीं भी हो सकती है, इतना जरूर मानें । आपने व्यक्ति के तौर पर कवि को जैसा जाना-समझा है,
हो सकता है कविता उससे कमतर हो, क्या पता
कविता उससे बेहतर भी हो ! इसी बात से यह बात भी निकलती है कि किसी भी कविता को कवि
के प्रति या किसी और भी कारण से पूर्वग्रह या पक्षपातपूर्ण नजरिए से मत परखिए । वैसे
भी कविता पहले महसूस करने की चीज है । मूल्यांकन तो तभी हो पाएगा जब आपकी अनुभूति
उसके लिए उद्वेलित करे ।
पाठक अगर कवि और कविता की प्रेरणा के विषय में नहीं जानता है तो फिर वह कविता में अपनी कल्पना के रँग ज्यादा सहजता से भरेगा । जैसे ही कविता के पीछे की घटना/प्रेरणा से वह परिचित होगा, कविता का अर्थ उस घटना द्वारा खींचे गए दायरे में सीमित हो जाएगा । किसी भी कविता/ रचना में कवि और पाठक दोनों की ही कल्पनाओं का रँग शामिल होता है, तभी वह संपूर्णता को प्राप्त होती है । यदि हमें कोई बता दे कि केदारनाथ सिंह की बहुचर्चित कविता ‘हाथ’ लिखे जाने का कारण कोई प्रेम-संबंध या प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं है तो क्या फिर कविता उतनी खूबसूरत लगेगी ? या ग़ालिब का शेर ‘ हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन...’ पाठक अपने-अपने तरीके से अर्थ न निकालें तो क्या उतना प्रभावी रह जाएगा? गुलज़ार के लिखे एक गीत की पंक्ति यहाँ याद की जा सकती है – “ प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो ।” हर कविता अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग मायने लिए होती है । कविता के पीछे बहुत ज्यादा भी न पड़िए !
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कवियों में, कवियों की, कवियों के प्रति
ऐसा लगता है, हिन्दी के कवियों में बहुत असहिष्णुता पाई जाती है – अपनी आलोचना के प्रति और किसी दूसरे कवि की प्रशंसा के प्रति । यह संभवत: असुरक्षा की भावना के कारण होता हो । इतने बड़े देश में, हिन्दी-प्रेमियों की इतनी बड़ी संख्या में होने के बाद तो यह होनी नहीं चाहिए । हर तरह के कवि के लिए जगह है , बशर्ते कवि पाठक तक पहुँचना चाहे । प्रकाशक उसे पहुँचाना चाहें । असल में कवि अपने आसपास के जोड़-तोड़ और जुगाड़ के फेरे में पड़ जाता है । हर प्रकाशन, हर समारोह, हर पुरस्कार के बारे में सुनने के बाद सबसे पहले वह उनके पीछे की पॉलिटिक्स के बारे में खोजबीन करता है । वहीं दूसरी तरफ अपनी पुस्तक के लोकार्पण और परिचर्चा पर फूला-फूला फिरता है । एक हॉल में सौ-पचास लोगों के बीच, जिनमें अधिकतर जान-पहचान वाले हों, तारीफों के पुल बँधा भी लिए तो क्या होगा ? क्या कवियों ने अधिक से अधिक लोगों तक कविता को पहुँचाने की कोशिश की है ? सिर्फ अपनी ही कविता नहीं, बल्कि किसी और की भी अच्छी कविता को । क्या कवियों ने कविता में दखल देती हुई नीरसता को कम करने की कोशिश की है? यह नीरसता भी, कई बार सिर्फ कविता के नीरस और उबाऊ पाठ के कारण होती है । एक कारण यह भी है कि कवि सिर्फ कवि रह गया है, उसे पाठक या श्रोता बनने में बड़ी तकलीफ होती है । अपनी आत्मकथा ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ में बच्चन जी ने हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के हवाले से कलयुग का एक मनोरंजक लक्षण बताया है, वह यह कि “ कलि का कोई भी मनुष्य ऐसा न होगा, जो कविता न करे ।”
कविता यानी कवियों के संकट
अमृतलाल
नागर के उपन्यास ‘एकदा नैमिषारण्ये’ में यह पंक्ति एकाधिक बार पाठकों
के सामने आती है – “ कलिकाल में संघ ही शक्ति है ।” आज के लेखकों-कवियों
के बारे में सोचिए, तो यह उक्ति कितनी
सही प्रतीत होती है ! कितने ही संघ, मंच, मोर्चे खुले हुए हैं । और खुलते ही जा रहे हैं । संघ तो
हैं, लेकिन लेखकों के बीच आपसी सहकार
नदारद । मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी सुनील छेत्री ने एक इंटरव्यू में खेल में खिलाड़ी की
भूमिका को समझाते हुए कुछ ऐसा कहा है – “ बड़े से बड़े खिलाड़ी को भी अधिकतम दो
मिनट का ही समय मिलता है, जब गेंद उसके पास होती है। बाकी
अठ्ठासी मिनट वह भागता रहता है, खेल की स्थितियों को समझता रहता है, मूव
बनाता रहता है, दूसरे खिलाड़ी के लिए गेंद को पास करता रहता है। और इन सबके लिए रोजाना
घंटों की प्रैक्टिस करता है ।” कविगण इस बात से कुछ सीख सकते हैं ।
कवियों के बीच गुटबाजी, तरफदारी, चाटुकारिता, क्रांतिकारिता
– बहुत तरह के संकट हैं । व्यक्ति के पसंद या नापसंद होने के कारण कविता श्रेष्ठ
या निकृष्ट घोषित कर दी जा सकती है। किसी कवि की कविता के विषयों में क्या है या
क्या नहीं है, उसके आधार पर
कविता को स्वीकार या अस्वीकार कर दिया जा सकता है । कवियों के जैसे रेजिमेंट बनाए
जाने हों । ऐसे कवि वैसे कवियों के कार्यक्रमों में न जाएँगे , न आमंत्रित किए जाएँगे, और
वैसे कवि ऐसे कवियों को न बुलाएँगे, न
उनके यहाँ जाएँगे । महान से महान कवि की भी कुछ ही रचनाएँ और उनमें से भी कुछ
पंक्तियाँ ही इतिहास द्वारा बचाई जाती हैं। कविता में कोई अश्वमेध का घोड़ा नहीं
होता,
लेकिन कोई मानता कहाँ है ! पाठक की इच्छा
सिर्फ एक अच्छी रचना पाने की होती है । उसे साहित्य के आंतरिक अवरोधों, दीवारों
से क्या लेना-देना ?
कविता पर प्रकाश
कवियों
की कमी नहीं है, प्रकाशकों की कमी नहीं है, फिर
क्या कारण है कि अक्सर यह सुनने को मिलता है कि पढ़नेवाले पाठक नहीं रहे । उसका एक
कारण यह हो सकता है कि जितनी स्तरीय किताबें आनी चाहिए, वो नहीं आ रही । और बार-बार किताबों के स्तर से निराश होकर पाठक
विमुख हो जाता है । दूसरी एक बात यह भी हो सकती है कि पाठकों तक किताबें पहुँचती
ही न हों । बस थोक बिक्री के लोभ में खुदरा बिक्री पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता
हो। फिर एक बात यह भी है कि शायद आय के आधार पर हिन्दी पढ़ने वाला तबका उतना
संपन्न नहीं है। इसलिए किताबों का जनसुलभ संस्करण,
जिससे जेब पर ज्यादा भार न पड़े, भी आना
चाहिए । भले ही चमक-दमक, साज-सज्जा वाला न
हो । किताब के रंग- रूप, आकार और
कीमत का असर खरीदने वाले पर पड़ता ही है । प्रकाशकों को भी इस बात का खयाल रखना
चाहिए कि जब एक बार किसी किताब के प्रकाशन का निर्णय ले लिया, फिर उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति और प्रचार-प्रसार पर समुचित ध्यान दे
। यह नहीं कि उसके हिसाब से जिन किताबों की बिक्री की संभावना ज्यादा दिखे, सारा ध्यान उसी पर । सारा घी सिर्फ कमाऊ बेटे की रोटी पर ही न लगे ।
कविता का कॉलर
यों तो कवियों में भेद और भेद-भाव नहीं होना चाहिए, लेकिन
होता है । जैसी दुनिया है, जैसा
युग है, वैसे ही कवि हैं – तरह-तरह के । दरअसल, ‘ब्लू कॉलर’, ‘व्हाईट कॉलर’, ‘छोटे कवि’, ‘बड़े कवि’, ‘अच्छे कवि’, ‘घटिया कवि’ – यानी तरह-तरह के कवि । और जो जीता वही सिकंदर । अच्छा, कुछ कवि/ लेखक ऐसे होते हैं जिनसे प्रकाशक माँग-माँग कर छापते हैं, कुछ ऐसे होते हैं जो अपनी तरफ से प्रकाशकों को पाण्डुलिपियाँ/
प्रस्ताव भेजते हैं और स्वीकृत किए जाते हैं । अब बचे वैसे कवि जिनसे प्रकाशक
माँगते नहीं, भेजने पर देखते तक
नहीं,
कोई सूचना तक नहीं । पत्र-पत्रिकाओं से
भी सारी रचनाएँ बैरंग वापस । इधर कवि को तो कवि बनना है । वह जानता है कि हर बात
की एक कीमत होती है । कवि समर्थ है । हर प्रकाशक के यहाँ एक ‘सेल्फ सर्विस विंडो’ खुली
होती है । एक हाथ दे , एक हाथ ले , ‘कैश’ में अथवा ‘काइंड’ में । एक
नजर दौड़ा कर देखें, सेल्फ पब्लिशिंग के कितने ही पोर्टल और
प्रकाशन दिख जाएँगे । हर तरह के प्रकाशन से अच्छी और बुरी, हर
तरह की किताबें प्रकाशित हो रही हैं । यह दुनिया रंग-बिरंगी है। हर तरह के अनुभव हैं इसमें । यहाँ शूल भी
हैं,
फूल भी। सफेद भी है, स्याह भी और ‘ ग्रे’ भी । फिर किसे अस्पृश्य समझा जाए, किसे नहीं? कुछ
वर्ष पहले आई फिल्म ‘न्यूटन’ का एक संवाद है,
जिसमें संजय मिश्रा द्वारा अभिनीत पात्र राजकुमार राव द्वारा अभिनीत पात्र से
पूछता है कि “
जानते हो तुम्हारा पॉब्लम क्या है?” राजकुमार
राव के यह कहने पर कि “
ईमानदारी” संजय मिश्रा का जवाब आता है “ न ! ईमानदारी का घमंड।” यह ‘ईमानदारी का घमंड’ समझने की बात है । यह बात श्रेष्ठता और शुद्धता के विषय में भी
कही जा सकती है । कवि के असली कवि होने या नहीं होने के विषय में भी ।
यहाँ यह भी समझना चाहिए कि साहित्य, कला या कोई भी रचनात्मक क्षेत्र एकदम सीधा-सुलझा
हुआ नहीं होता । नहीं हो सकता । प्रकाशक के लिए अंतत: एक व्यवसाय है । उसके भी
सामर्थ्य की सीमा है । वह कितनों को अपनी छतरी के अंदर ले सकता है? कवि की मुश्किल यह है कि वह कब तक और कहाँ से
कहाँ की दौड़ लगाता रह सकता है । जब कविताएँ मनों नहीं टनों तैयार हो रही हों, तो रास्ता भीड़ भरा तो होगा, उस पर
चलना आसान तो नहीं होगा ।
विमोचन, परिचर्चा, समीक्षा, पुरस्कार
किताब प्रकाशित हो जाने के बाद कवि/ लेखक का
ध्यान इस बात पर जाता है कि अब क्या ? तब उसकी समझ में आता है कि असली मुश्किल
तो अब शुरू हुई है। किसी किताब का प्रकाशित हो जाना स्वयं में कोई लक्ष्य नहीं
होता । प्रकाशित पुस्तक साधन है, साध्य नहीं । किताब को
लोगों तक पहुँचाना । उनकी पसंद, नापसंद का पता पाना । किताब
का स्वीकार किया जाना, प्रशंसित होना । एक लेखक और क्या
चाहेगा ? कुछ प्रतियाँ वह लोगों को भेंट करेगा, सादर, सप्रेम । प्रकाशक, यदि
संभव हुआ तो, विमोचन, परिचर्चा और
समीक्षा की व्यवस्था कर सकता है। चूँकि इन चीजों में धन का व्यय होता है, तो प्रकाशक हर किताब के बारे में ऐसा नहीं कर सकता । या प्रकाशक की
योजनाओं के दायरे में कौन- सी किताब आएगी, यह बहुत सारे
कारणों पर निर्भर करता है । फिर एक रास्ता यह बचता है कि लेखक स्वयं या अपने
परिचितों के सहयोग से ऐसे आयोजन करवाए । यदि कोई किताब चर्चित हो जाए, तो उसके लिए पुरस्कार का रास्ता खुल सकता है । लेकिन इसमें भी बहुत सारे ‘परम्यूटेशन्स एण्ड कॉम्बिनेशन’ होते हैं। जिस तरह
आजकल हर प्रतियोगिता-परीक्षाओं और साक्षात्कारों का जोर चुनने से ज्यादा छाँटने पर
होता है, ‘क्या है’ उससे ज्यादा ‘क्या नहीं है’, यह देखने पर होता है, उसी तरह कविताओं के स्वीकार किए जाने के संबंध में भी होता है । जब संख्या
बहुत ज्यादा हो, तो कहाँ तक और कितना मूल्यांकन संभव है ।
कवि को इस बात के लिए तैयार होना चाहिए । प्रतियोगिता-परीक्षाओं में सफल होने वाले
और रह जाने वालों में से ( शर्त यह है कि तैयारी अच्छी तरह से की गई हो) किसी को
भी सफलता या असफलता का सही-सही कारण पता नहीं होता । हाँ, विश्लेषण
करके कुछ कयास ही लगाए जा सकते हैं । कवि की हालत भी कुछ-कुछ ऐसी ही होती है ।
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आलोचना किस चिड़िया का नाम है
आलोचना का संबंध तो
देखने से है, लेकिन प्रचलित
अर्थों में यह देखना कमियों की ओर देखने का ज्यादा है । अपनी कमियों को देख पाना और उसे स्वीकार करना मनुष्य के लिए कठिन काम है । कवि भी मनुष्य है ।
उसके द्वारा भी अपनी कमियों की ओर देखा जाना और उसे स्वीकार करना कठिन होता है ।
इसलिए कवि और आलोचक बहुत देर तक साथ नहीं चल पाते ।
आज जब हर दूसरा व्यक्ति
कवि बनने को उद्यत है, कोई सहृदय पाठक
बनने को तैयार नहीं। बिना पाठक बने आलोचक कैसे बने कोई ? कवि अपने पर ही मुग्ध हो
जाता है । उसे लगने लगता है कि सब बस उसे ही पढ़ना चाहते हैं । हर कवि यही सोच रहा
है । ऐसे में उसे सिर्फ प्रशंसक ही दिखते हैं । इसमें आलोचना कैसे रास्ता बनाए ? आलोचना के लिए आलोचक के पास दृष्टि और दृष्टान्त दोनों ही होने
चाहिए । इसके लिए बहुत, बहुत अध्ययन की
जरूरत है । अध्ययन की जरूरत तो कवि को भी है । एक बार के लिए कवि बरी भी हो जाए, आलोचक को अध्ययन से छूट नहीं मिल सकती । फिर आज के इस दौर में, जब साहित्य ही गैरजरूरी होता जा रहा है, साहित्य में और जीवन में प्रशस्ति ही साधन है, और साध्य भी । प्रशंसा रामबाण है, जिसे
हर कोई चला कर कुछ न कुछ साध लेना चाहता है। वैसे भी किस कवि या आलोचक का लिखा
हुआ क्या बचा रह पाएगा, यह तो समय ही तय
करता है । पाठक एक समय के ही नुमाइंदे होते हैं, यह
बात समझने की है । वरना हर किताब जो धूम-धड़ाके के साथ लॉन्च की जाती है, कालजयी हो जाए ।
एक और बात है, कहीं सुना था कि प्रशंसा सबके सामने करो, डाँट-डपट अकेले में । आलोचना में डाँट-डपट वाला काम भी होता है । तो
क्या इसको भी अकेले में किया जाना चाहिए, कवि
को उसकी कमियों से अवगत कराने का काम । सबके सामने तो यह बताइए कि किसी किताब में
कौन-सी ऐसी बात है जिसके लिए वह पढ़ी जानी चाहिए । यानी कि सेलेक्शन, रिजेक्शन नहीं । जिस किताब में कुछ अच्छा न लगे, उसके बारे में बात करने से सबका समय ही बरबाद होगा । है कि नहीं ?
एक शब्द है ‘सर’ । इस शब्द ने हर
जगह कब्जा किया हुआ है, और सबका दिमाग
खराब किए हुआ है ! यह इस कदर सर्वव्यापी हो गया है कि छोटा बड़े को, बड़ा छोटे को, असफल
सफल को,
सफल असफल को, अपने से दूर वालों को, अपने
से नजदीक वालों को – हर कोई हर किसी को ‘सर’ कह रहा है । ‘सर’ न कहे तो क्या करे? पहले लगता था कि साहित्य व्यवहार के इन आडंबरों से बहुत दूर होता है
। धीरे-धीरे साहित्य में आडंबर भरता गया और सभी ‘सर’सराने लगे। ‘सर’ हैं तो ‘मैडम’ भी हैं, यह कतई न भूलें।
यह जो ‘सर’ है, वह साहित्यकारों का पीढ़ा तय करता है । किसका ऊँचा, किसका नीचा । जिसको सभी सर
बोल रहे हों, वह सर्वोच्च आसन
का अधिकारी । किसी साहित्यिक समारोह में जाइए। वहाँ बड़ी आसानी से पता चल जाता है कि सबसे बड़े ‘सर’ कौन हैं ।
जो बड़े कवि बन चुके हैं, छोटे कवियों की ओर जब देखेंगे तो अनुग्रह भाव से ही । बड़े लोगों का
कोप भी अनुग्रह ही होता है । छोटे कवि को तो सदा अनुगृहीत ही होना है । सरकारी या
कॉरपोरेट, किसी भी आयोजन में
जो अफरा-तफरी, ‘रेड टेपिज़्म’ और ‘रेड कारपेट’ का मामला दिखता है, वह
साहित्यिक आयोजनों में भी पाया जाता है । बस आँखें खुली रखिए । आयोजनों के तरह-तरह
के मॉडल तैयार हैं, अपने स्केल के
हिसाब से चुन लीजिए । जैसे बड़े अधिकारी या कॉरपोरेट दुनिया के बड़े-बड़े तोपचंद
बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, आदर्शों की, ईमानदारी
की आदि-इत्यादि। साहित्यिक गोष्ठियों में भी बड़े साहित्यकार देश, दुनिया, जीवन की विषम
स्थितियों पर चिंता प्रकट करते हैं और उनको उच्चतर बनाने की बात करते हैं । एक ही
तरी बनाई हुई है, अंडा भी उसी में, पनीर भी उसी में ।
पेशा
शब्द के कई अर्थ हैं – व्यवसाय, नौकरी, कला, कौशल । तो
पेशेवर कवि कौन हुआ ? जो अपनी काव्य-कला
में निपुण हो । व्यवसाय या नौकरी में हम किसी भी काम को इतनी दक्षता से करने के
लायक होना होता है कि उसके एवज में पैसे कमाए जा सकें । इसका एक पक्ष यह भी हुआ कि
एक ही तरह के काम को बार-बार इतनी दक्षता के साथ किया जाए कि मुनाफा अथवा वेतन कमाया
जा सके । तो किसी भी काम में पेशेवर होना यह हुआ कि आप उस काम को कितनी दक्षता के
साथ बार-बार करते हैं । धनोपार्जन की बात छोड़ दी जाए तो कवि भी पेशेवर हो सकता है
। अन्यथा शौकिया, स्वांत:सुखाय ।
कम-से-कम भारत में, वह भी हिंदी में, लेखक के लिए लेखन से धनोपार्जन की दिली अभी दूर ही है । कवि का
पेशेवर तरीके से काव्य-कर्म करना वांछनीय और अपेक्षित है । बल्कि यह आवश्यक
आवश्यकता है ।
पेशेवर कवि होने की राह
में उन कवियों का पेशा कोई बाधा डाल सकता है क्या? बहुत ऊँचे पदों पर आसीन, बहुत
ही बड़े व्यवसायों में लीन, धन-दौलत
और सुख-सुविधाओं से घिरे हुए व्यक्ति अगर कविता करेंगे तो कैसी कविता करेंगे ? अव्वल तो वे कविता करेंगे ही क्यों ? कविता
किसी न किसी अभाव की अनुभूति से ही जन्म लेती है । अघाए हुए मन से कविता क्या ही
होगी? ऐसा नहीं है कि ऊँचे पदों पर बैठे लोगों के जीवन में कोई अभाव या
समस्या नहीं होती, लेकिन वह जमीन
कविता के लिए मुफीद नहीं बैठ सकती । कविता के लिए एक आग चाहिए, जो बहुत ऊँचाई पर कम ही मिल सकती है । ऊँचाई पर तो साँस लेने के लिए
भी ऑक्सीजन की कमी पड़ने लगती है ।
आमतौर पर कवियों/ लेखकों
के पेशे का ज़िक्र किताबों पर नहीं होता । इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि आज के
समय ज्यादातर कवि नौकरीपेशा हैं । आम तौर पर नियोक्ताओं की शर्तों में संस्था के
बाहर लेखन पर प्रतिबंध होता है, या
उसके लिए कई शर्तें होती हैं । फिर यह भी कि नौकरीपेशा व्यक्ति की जवाबदेही उसकी
नौकरी के प्रति, संस्था की
प्रतिष्ठा के प्रति होती है। ये सारी बातें मिलकर एक तरह का नैतिक दबाव बना देती
हैं कवि कि थोड़ा संभल कर लिखे। एक अध्ययन
कवियों और उनके पेशों का भी किया जा सकता है । यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रतिरोध
की मात्रा का कवि के पेशे से , और
फिर उस पेशे में उसकी पोजिशन से कोई संबंध है या नहीं? अंत
में सबसे आदर्श तर्क कि कविता तो सर्वोच्च कर्म है, उसकी
सत्ता निरपेक्ष है, पेशे का जिक्र
उसकी धवलता को कम कर देगा । पुराने काल में तो कवियों का नाम तक नहीं दिया करते थे
लोग । अब कम-से-कम कवि का नाम तो आ रहा है सामने ।
कवि ही पाठक है, पाठक कवि
भी है
हिंदी साहित्य में बड़े विरोधाभास की स्थिति है । एक तरफ तो इस बात का रोना है कि पाठक कम होते जा रहे हैं, और दूसरी तरफ नए-नए प्रकशन अस्तित्व में आ रहे हैं । प्रिंट ऑन डिमांड जैसी चीजें शुरू हो चुकी हैं । भारत में आइएसबीएन जारी करने वाली संस्था के अनुसार हिंदी में, साल 2024 में 5234 प्रकाशकों ने 36943 लेखकों की 90433 किताबें प्रकाशित की हैं । ( आँकड़े isbn.gov.in से लिए गए हैं )
हिंदी कविता में यह विरोधाभास और भी ज्यादा दिलचस्प है । यहाँ हर
दूसरा व्यक्ति भितरिया कवि है । साहित्य की ( हिंदी साहित्य की) दूसरी विधाओं में
तो ऐसे लोग मिल जाएँगे जो सिर्फ पाठक हों, लेकिन
कविता के मामले में ऐसा कहना बहुत सही नहीं होगा । आज जो भी व्यक्ति कविता पढ़ रहा
है, उसे थोड़ा-सा कुरेदिए, वह भी
भीतर से कवि निकलेगा । और हर कवि सुनाना ज्यादा चाह्ता है, सुनना कम । ऐसा इसलिए भी हुआ शायद क्योंकि आप कुछ भी लिख देंगे, उसे कविता सिद्ध किया जा सकता है । फिर, प्रकाशन पहले की अपेक्षा सुविधाजनक हो गया है । पत्र-पत्रिकाओं में
जगह सीमित है । सारे लोग वहाँ
खपाए नहीं जा सकते । सोशल मीडिया एक विकल्प है, लेकिन
उसमें किताब छप जाने वाला सुख नहीं है । आप कम कलम चला कर भी कवि हो जा सकते हैं।
गद्य के एक पृष्ठ जितने शब्दों में कविता के 3-4 पृष्ठ तो भरे ही जा सकते हैं । व्यक्ति
आतुर है कवि बनने को, और कवि बनकर
कवि-रूप में प्रतिष्ठित हो जाने को ! हो यह गया है कि कविता का पाठक वही बचा है जो
खुद कवि है । उसे उम्मीद है कि यदि वह दस कवियों की कविताएँ पढ़-सुन लेगा, तो कम-से-कम कोई एक तो मिलेगा, जो
उसकी भी कविता पढ़-सुन लेगा !
कविता मन की, कि जन की ?
एक बहस यह भी चलती है कि कविता मन की हो या जन की
। इसका तात्पर्य यह कि कविता में सामाजिक बातें, जनपक्षधरता की
बातें कितनी हों? कविता मूलत: तो मन
की वस्तु है। संवेदना, अनुभूति की बात है
। इसलिए उद्वेलन पहले तो मन में ही होगा । सामाजिकता या जनपक्षधरता की बात लाने के
लिए पहले तो कवि का मन भी उस ओर होना चाहिए । सिर्फ देखादेखी में, फैशन के प्रभाव में आकर यदि कविता में कोई बात लाई जाए तो उसका
प्रभाव होगा ही नहीं । देखने की बात यह भी है कि जो कवि है, यदि वह कवि है, तो
ही नहीं सकता है कि उसके आसपास की बातों का उसपर कोई असर ही न हो । हाँ, वह कवि भी फैशन में बना है, या
कविता उसके लिए एक ‘टूल’ भर है मनोवांछित फल को प्राप्त करने का, तो और बात है ।
कविता : कितना है याद तुम्हें
?
हर कवि/ पाठक, बल्कि हर
व्यक्ति के पास एक डायरी या कॉपी होनी चाहिए जिसमें वह लेखकों/कवियों की पसंद आई
पंक्तियों को नोट करता हो । लिख लेने से याद रह जाने की संभावना बढ़ जाती है । हमारे
देश का साहित्य वाचिक परंपरा का साहित्य रहा है । शताब्दियों तक साहित्य बोल और
सुनकर ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आया । यानी भारतीयों की तेज स्मृति आनुवंशिक ही
है । भले ही इसका विकृत रूप आज रटन्त- विद्या वाली शिक्षा पद्धति में देखने को
मिल रहा है । फिर क्या कारण है कि कविताएँ याद नहीं रहतीं । हमें कुछ कविताएँ याद
होनी ही चाहिए । अपनी भी ! अभी नाम याद आ रहे हैं, नरेश सक्सेना और जावेद अख्तर,
जो बिना कागज देखे कविता सुना सकते हैं । दिनेश कुशवाह भी । अपनी भी कविता का याद नहीं रह पाना क्या इस बात
का द्योतक है कि हम अपनी ही कविता के संप्रेषण के प्रति आश्वस्त नहीं । यहाँ ‘हम’ का मतलब कविगण है, समझ ही
गए होंगे ।
मंच की कविता, मंच
पर कविता
क्या कविता मंच पर आ जाना कविता का ‘मंच
की कविता’ हो जाना है ? दरअसल, आज जिस तरह मंच पर ‘मंचीय’ कवियों का कब्जा हो गया है, उसे
देखते हुए ऐसी धारणा बन ही जा सकती है । कवि सम्मेलनों को स्टैंड अप कॉमेडी के शो
में बदल दिया गया है । आयोजक यह मानकर चलते हैं कि श्रोता सस्ते मनोरंजन में ही
विश्वास करते हैं । ऐसी स्थिति शायद इसलिए भी है कि कविता से ज्यादा गंभीर कवि ने
खुद को बना लिया है, अपनी भाव-भंगिमा को
बना लिया है । कवि एक बड़े श्रोता-समूह के सामने कविता-पाठ करने में शायद अपनी हेठी
समझता है । उसे शायद लगता है कि कविता तो विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा लिखी हुई कोई
विशिष्ट गूढ़ बात है, जिसे कुछ विशिष्ट
व्यक्ति ही विशिष्ट आयोजनों में सुन-समझ सकते हैं । बड़े श्रोता-समूह में अपनी बात
संप्रेषित करने के लिए बात की सरलता और तरलता तो बढ़ानी ही पड़ती है । ‘मंचीय’ कवियों के सम्मेलन
में आप पाएँगे कि ज्यादातर कवि बिना किसी कागज को देखे हुए कविता-पाठ करते हैं।
जबकि ‘असली’ गंभीर कवि लोग पेज
पर पेज पलटते जाते हैं, अपने कविता-पाठ के
लिए । सारी की सारी कविताएँ न याद हों, पर
जिस कवि-सम्मेलन में वे जा रहे हैं, दो-चार
कविताएँ तो याद से सुनाएँ । इससे श्रोता/पाठक का भी आत्मविश्वास बढ़ेगा कि वह भी
कविताएँ पढ़ सकता है, याद कर सकता है, और गाहे-ब-गाहे उद्धृत भी कर सकता है । हमारे कविजनों को इस बात पर
ध्यान देना चाहिए कि वे मंच की ओर लौटें । मंच पर आ जने से कविता ‘मंचीय’ नहीं हो जाती। कवि
अपने श्रोताओं पर थोड़ा भरोसा रखें ।
कविता : अभीष्ट, अभिव्यक्त, ग्रहीत
कोई कवि जब कविता लिखता
है, तो जाने,अनजाने वह एक विषय
तय कर लेता है, जिसकी अभिव्यक्ति
उसे कविता के रूप में करनी है । और यह भी कि वह बात पाठकों/ श्रोताओं तक संप्रेषित
भी हो सके । कविता लिखते समय जिन भावों को कवि प्रकट करना चाह्ता है, वह उसका अभीष्ट हुआ। यह संभव है कि कवि जैसा सोच रहा है, ठीक वैसी ही बात कविता में न उतर पाए। सोचे हुए या अनुभूत किए भावों
को सही-सही लिख पाना कवि की अभिव्यक्ति की सफाई हुई। कई बार यह भी हो सकता है कि
कवि कहना तो कुछ और चाह रहा है, पर वह
कह जाता है कुछ और । ऐसा तो सामान्य जीवन-प्रसंगों में भी देखने को मिलता है । तभी
हम ऐसी उक्तियाँ सुनते हैं – “ नहीं, मेरा वह मतलब नहीं
था ।” यानी अभीष्ट और
अभिव्यक्त बातें एक होनी चाहिए, पर
वे एक नहीं भी हो सकती हैं । कविता के अभिव्यक्त कर दिए जाने के बाद वह तभी पूर्ण
मानी जाएगी जब वह पाठकों द्वारा ग्रहण भी कर ली जाए । यहाँ फिर वही दिक्कत उठ खड़ी हो सकती है कि कही
गई बात पाठक तक पहुँच कर क्या अर्थ ग्रहण कर लेती है ! परिस्थति, समय, स्वभाव, गुण, स्थान आदि मिलकर या अलग-अलग पाठक के द्वारा ग्रहण किए गए अर्थ को बदल दे
सकती हैं । कई बार बहुत प्रचलित अर्थों से इतर अर्थ भी पाठक को सूझ सकता है । हम कह
सकते हैं कि सफल कविता वही है जिसमें जो अभीष्ट हो, वही
अभिव्यक्त भी हो रहा हो, और वही पाठकों द्वारा ग्रहीत भी हो
रहा हो ।
प्यार करिए कविता से
समाप्त ।
भोलाराम जीवित [ भगत - बुतरू सँवाद 2.0] वे भोलाराम जीवित हैं। पहले के जमाने में आपने भी इस तरह के नाम सुने होंगे-- कप्तान, मेजर आदि। जरूरी ...