अपने लिए जिये तो क्या जिए...
राँची में एक बस स्टैंड है, खादगढ़ा बस स्टैंड । वहाँ से राँची रेलवे स्टेशन की ओर चलने पर एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर दाहिने हाथ पर बिशप स्कूल है । स्कूल के ठीक सामने सड़क की दूसरी तरफ एक घर है । उसी घर में सुरेखा तिग्गा अपने परिवार के साथ रहती हैं – पति जॉन नोएल कछप , बेटा सुशांत और छोटी बेटी निकिता । बड़ी बेटी जूही नौकरी के सिलसिले में मुम्बई । सुरेखा एसबीआई से और जॉन एजी ऑफिस से लंबी सेवा के बाद सेवानिवृत्त हो चुके हैं ।
कोई 3-4 महीने पहले सुरेखा मैडम से भेंट हुई थी। बीमार- सी थीं, कुछ परेशान सी । फिर मैं भी व्यस्त रहा , वो भी । लॉकडाउन में समय ही समय होने के बावजूद सिर्फ सोचता ही रहा कि फोन कर के हाल-चाल ले लूँ …। 24 मई की शाम में उन्हीं का मेसेज आ गया व्हाट्सएप पर । उन्होंने बताया कि कोई 15 दिनों से वो लौटते हुए प्रवासी मजदूरों के लिए थोड़ा-बहुत कुछ कर रही हैं ...
रिटायरमेंट के बाद सुरेखा मैडम और उनके पति ने सोचा घर को थोड़ा ‘रेनोवेट’ किया जाए । काम शुरु करने के लिए बैंक से पैसे भी निकाल लिए । लेकिन पैसों का इस्तेमाल भी लगता है, पहले से ही तय होता है ! किसी के तय करने से नहीं होता कुछ ।
एक दिन सुबह-सुबह घर के बाहर कैम्पस में बैठी हुई थीं कि दिल्ली से उड़ीसा जाता हुआ प्यास से बेहाल एक लड़का उनके दरवाजे को खटखटाता है । लड़के को तुरत पानी पिलाने के बाद, उन्होंने कुछ और जरूरत के बारे में पूछा । जवाब में लड़के ने बस बोतल में पानी ही लिया । लड़के के जाने के बाद कुछ देर तक वो सोचती रहीं । अगली सुबह भूख-प्यास से बेहाल एक परिवार सामने आ गया । परिवार में छोटे बच्चे भी थे । उनको भी खाने-पीने का सामान दिया । लेकिन उनके जाने के बाद मन में बेचैनी बनी रही । उस दिन रात को भी उन्हीं लोगों के चेहरे याद आते रहे । नींद बहुत देर से आई । लेकिन सुबह जब आँख खुली तो निश्चय हो चुका था । घर के ‘रेनोवेशन’ का काम इंतज़ार कर सकता है । घर के सामने से गुजरने वाले इन लोगों की मदद करना अभी सबसे ज्यादा जरूरी है । घर में भी सब लोगों की सहमति इसी पर बनी । दिन में बैंक जा कर मैडम, बड़े नोट, जो घर के काम के लिए निकाले थे, बदल कर छोटे नोट ले आईं ।
शुरुआत पानी की बोतल , बिस्किट के पैकेट और सौ-सौ रुपए देने से की गई । जल्दी ही मुम्बई से जूही ने सुझाव दिया केले भी जोड दो । केले भी जुड़ गए । उस सड़क से गुजरने वाले हर प्रवासी मजदूर को रोक कर ये सब दिया जाने लगा । मजदूरों को ले कर जाती हुई बसों को भी रोक कर सामान देने की व्यवस्था कर दी गई । कहाँ-कहाँ से और कहाँ-कहाँ के लिए लोग सड़कों पर नहीं हैं ! मुम्बई, सिकंदराबाद, विजयवाड़ा, भावनगर, गुड़गांव, दिल्ली, उत्तरकाशी, बनारस - पूरा देश ही लगता है, सड़क पर है ! हम घरों में हैं तो शायद पता नहीं चलता ।
रोज सुबह चार बजे से रात के आठ बजे तक । बिना नागा । आज बाइसवाँ दिन है । परिवार के लोग तो लगे ही रहते हैं, शुरुआत के कुछ दिनों के बाद मुहल्ले के कुछ युवा ‘वॉलेंटियर’ बन कर आ गए हैं और सामान बाँटने में मदद कर रहे हैं । सुशांत, जो एक बैंक में काम करते हैं, अपने दोस्तों के साथ मिलकर हर तीन-चार दिन में 300-400 लोगों के लिए खाने का पैकेट बनवाते हैं और वितरित करते हैं । पूरा परिवार ही लग गया है एक हो कर । मुम्बई से जूही लगातार संपर्क में हैं । अभी कल ही उनका सुझाव आया कि गर्मी बढ़ गई है , ओआरएस भी जोड़ दो । ओआरएस के सैशे भी दिए जाने लगे हैं । अभी बीते दिनों जूही ने अपना जन्मदिन कुछ इस तरह मनाया कि कटिहार के पाँच मजदूर जो मुम्बई में फँसे थे ,और उनके घर के पास ही रहते थे, उनके टिकट का इंतजाम और रास्ते के लिए अलग से कुछ और पैसे का इंतजाम कर उनको घर भिजवाया । इस काम में उनके दोस्तों ने भी मदद की ।
सुरेखा मैडम कहती हैं कि तीन-चार महीने पहले एक निराशा उनके मन में घर करने लगी थी । तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी । लेकिन जब से यह काम ठान लिया है सारी निराशा, दर्द-पीड़ा गायब हो गई है । सुबह चार बजे से रात के ग्यारह बजे तक की व्यस्तता के बावजूद थकान का नामोनिशान नहीं है । बल्कि अब तो और ठीक रहना है । अभी बहुत कुछ करना है । जो मन को अच्छा लगे । घर तो बनता रहेगा ।
यह कहानी मैं क्यों सुना रहा हूँ ? मैं पिक्चर में कहाँ हूँ ?
थोड़ा पीछे जाना होगा । जनवरी 2014 । जब मेरा तबादला राँची के एचईसी सेक्टर2 शाखा में हुआ । उस शाखा में सुरेखा मैडम भी थीं । उस समय भी उनका व्यवहार, उनका काम प्रभावित करता था । जिस तरह से वो ग्राहकों से बात करतीं थीं, वो स्थिति को पूरा कमांड करने वाला होता था । ब्रांच के बाहर भी कहीं कैम्प करना हो, कहीं मिलना-मिलाना हो , हर जगह वो मुस्तैद । जनधन खातों के शुरुआती दौर में ब्रांच के बाहर , कैम्पस में ही, टेबल-कुर्सी लगाकर बड़ी-बड़ी भीड़ का कई-कई दिनों तक सामना करना, उनका काम करना कोई आसान काम नहीं । लेकिन उसको भी बखूबी निभाया उन्होंने ।
एक दिन बातों ही बातों में मैंने ज़िक्र किया कि उनके पति का भी उनको बहुत सपोर्ट है । उन्होंने कहा – “ हाँ, हाँ , एकदम अनिल कपूर जैसे हैं यंग और फिट !” मैंने जवाब दिया – “आप भी तो माधुरी दीक्षित हैं ! माधुरी दीक्षित भी नए- नए क्षेत्रों में काम कर रही हैं , अभी तो अंग्रेजी में गाना ‘लॉन्च’ किया है । आप भी बैंक के बाद नए -नए और अच्छे काम कर रही हैं” ।
उम्र सचमुच एक संख्या ही तो है ! दो रिटायर्ड लोग लगे हुए हैं कि अभी बहुत कुछ करना है । पॉलो कोएल्हो ‘पर्सनल लीजेंड’ की बात करते हैं, ‘ एंथुज़िआज़्म’ की बात करते हैं । यही नहीं है ?
आते-जाते एकदम अजनबी लोगों के बात कर लेना ।उनका हाल पूछ लेना । इस पूछ लिए भर जाने से उनका रो पड़ना । उनका बार-बार , बार-बार थैंक्यू कहते जाना - तसल्ली से भर देता है , कहने और सुनने वाले दोनों को ।
अच्छा काम करने का भी अपना एक अलग ही आनंद है । यह आनंद भी एक नशा ही होता है ! और शायद इसका ‘चेन रिएक्शन’ भी होता है ! है कि नहीं ??!!
यू ट्यूब पर खोजकर मैंने गाना बजा दिया है - संजीव कुमार पर फिल्माया गया एक खूबसूरत गाना , फिल्म बादल, गायक मन्ना डे, बोल जावेद अनवर के और संगीत उषा खन्ना का –
“ अपने लिए जिये तो क्या जिये
तू जी ए दिल ज़माने के लिए”