मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023

बेबाक : शाज़िया इकबाल की बेहतरीन शॉर्ट फिल्म


 


बेबाक  : स्वधर्मे निधनं श्रेय:


कुछ दिन पहले अभिनेता के के का एक इंटरव्यू देख रहा था जिसमें उन्होंने स्वधर्म की बात की थी। तब श्रीमद् भगवद्गीता की एक पंक्ति याद आई थी ' स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह'। जियो सिनेमा पर चल रहे जागरण फिल्म फेस्टिवल में 20 मिनट से भी कम लंबी एक फिल्म को देख कर यह पंक्ति फिर याद आई। फिल्म का नाम है ' बेबाक' जिसकी निर्देशक हैं शाज़िया इकबाल। एक छोटी सी फिल्म कैसे एक बड़ी बात कह जाती है इसका सटीक उदाहरण है 'बेबाक' । यह फिल्म अपने तरीके से स्वधर्म को परिभाषित करती है। फिल्म की मुख्य किरदार फ़ातिन अपने स्वधर्म की तलाश और उसकी रक्षा में है। वह सवाल करती है, विरोध करती है, अपनी सीमाओं को पहचानती है और अंततः उन सीमाओं का अतिक्रमण कर विजयी भाव से अपनी राह पर चल पड़ती है। 


फिल्म एक मुसलमान परिवार और उसके समाज के विचारों के अंतर्विरोधों को सामने रखती है। धर्म का कोई वितंडा खड़ा किए बिना। लाउड हुए बिना। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी द्वारा निभाया गया किरदार लेखन या अभिनय में ज़रा भी कमी होने से ओछेपन को प्राप्त हो जा सकता था, लेकिन होता नहीं बल्कि यह किरदार एक रूढ़िवादी चरित्र और विचारों को उतने ही मजबूत तरीके से सामने रखता है जितने मजबूत तरीके से फिल्म की मुख्य पात्र अपने विचार रखती है। असहज कर देने वाले सवाल पूछती है। घर में भी और बाहर भी। 


फिल्म की कहानी एक मुसलमान परिवार के इर्द गिर्द बुनी गई है लेकिन इसकी अपील यूनिवर्सल है। पात्रों के नाम, इबादत का तरीका, स्कूल में दिखाए गए पहनावे को बदल दीजिए, कहानी कहीं की भी हो सकती है। फिल्म का एक संवाद है " औरतों की मॉडस्टी वाली बात तो सेक्यूलर है " । कितनी तीखी बात है और कितनी सच ! निदा फ़ाज़ली का एक शेर है - 


हिन्दू भी सुकूँ से है मुसलमाँ भी सुकूँ से

इंसान   परेशान  यहाँ  भी  है   वहाँ  भी


यही इंसान है जो आखिर में बचता है  । 


फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है। फिल्म के संवाद आम घरों की बोलचाल जैसे हैं, इसलिए दर्शक से जुड़ाव पैदा कर लेते हैं। फिल्म होते हुए भी यह फिल्म फिल्मी नहीं लगती। सिर्फ एक दृश्य जिसमें फ़ातिन की माँ उससे कहती है कि तुझे जो सही लगता है वही कर, थोड़ा- सा फिल्मी हो गया है संभवत: । 


सारा हाशमी, विपिन शर्मा, शीबा चड्ढा सबों का अभिनय सधा हुआ है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी की वजह से फिल्म को एक ज़रूरी वज़न मिलता है। जो फिल्म किसी भी एक पक्ष की ओर झुक सकती थी, बैलेंस में रहती है। कहते हैं फिल्म निर्देशक का माध्यम ( Director's medium) है, शाज़िया इस बात को बेहतरीन तरीके से सिद्ध करती हैं। एक फीचर फिल्म या ओ टी टी वेब सीरीज़ जो काम घंटों का समय लेकर कर पाते, फिर भी शायद उस सफलता के साथ नहीं कर पाते जितनी सफलता के साथ शाज़िया इकबाल की बीस मिनट से भी कम की यह शॉर्ट फिल्म कर जाती है। 


आनेवाला समय क्या शॉर्ट फिल्मों का है? 'बेबाक' को देख कर यह ज़रूर कहा जा सकता है। 


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