बेबाक II
बेबाक फिल्म इतना असर क्यों डालती है ? फिल्मों में अपने धर्म ( religion) के विरुद्ध जाने वाले किरदार या तो प्रेमी- प्रेमिका होते हैं , या किसी के प्राणों की रक्षा करने के लिए वे धर्म से ऊपर उठ जाते हैं, या फिर दकियानूसी रीति रिवाजों का मजाक उड़ाते पात्र होते हैं जो आवांतर में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे होते हैं । बेबाक ऐसा कुछ नहीं करती है । जीवन में और अपनी पढ़ाई में आगे बढ़ने में मिलने वाली बाधाओं का मुकाबला करती एक लड़की , जो अपने पिता से, माँ से या फिर धर्म की नसीहत देने वाले और मदद के एवज़ में अपनी शर्तें मनवाने वाले पोज़िशन पर बैठे व्यक्ति से, किसी से भी सही सवाल करने से नहीं हिचकती। वह लड़की आपकी दया या सहानुभूति का पात्र नहीं बनना चाहती । वह बस अपने हिस्से की स्वतंत्रता चाहती है। अपनी मर्ज़ी से पढ़ने, ओढ़ने- पहनने, आगे बढ़ने की स्वतंत्रता। वह यह भी जानती है बात उसके एक अकेले की नहीं है, आने वाली पीढ़ियाँ भी उसे उम्मीद के साथ देख रही हैं।
फिल्म की निर्देशक शाज़िया चाहतीं तो फ़ातिन के पात्र को लार्जर दैन लाइफ़ बना सकती थीं , लेकिन वे जानती हैं कि ढोल पीटने से ज्यादा अच्छा है काम को अच्छे तरीके से किया जाए । एक आम व्यक्ति की लड़ाई आम व्यक्ति के तरीके से ही हो सकती है। फिल्म के शुरुआती दृश्य में ही जब तीन बहनों का अकेला भाई यह बोलता है कि " क्या लड़के बोल नहीं सकते इस घर में " तो लैंगिक समानता का मुद्दा जैसे हँसते हँसाते बराबरी का मामला बन जाता है । यह आज की पीढ़ी के नए लड़के लड़कियों का सोच है । जिसे फिल्म में बड़ी खूबसूरती के साथ अंकित किया गया है।
फिल्म में बहुत छोटे छोटे क्रिया कलापों से निर्देशक ने संवादों या वक्तव्यों का काम लिया है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी द्वारा फाइल का मेज़ पर थोड़ा पटक कर रखना, चेक पर साइन कर के वापस दराज़ में रख लेना, उसी दौरान विपिन शर्मा का चेक पाने की आशा में हाथ बढ़ाना और फिर खुद को रोक लेना, विपिन शर्मा द्वारा घर पर प्याज काटना और साथ ही साथ बेटी के एक बार हिजाब में चले जाने की वकालत करना -- पूरी फिल्म ही इस तरह के सीक्वेन्स/ दृश्यों से बुनी हुई है जिससे फिल्म का जो बड़ा संदेश है वह खुद ही प्रकट हो जाता है।
शोले या दीवार पर चर्चा करते हुए जावेद अख्तर एक इंटरव्यू में कहते हैं कि फिल्म की कहानी/ स्क्रिप्ट पर रिसर्च हुए हैं कि किस तरह कहानी बनाई गई, उसका कहाँ और कैसे असर हुआ आदि आदि । वे कहते हैं कि जब वे उन फिल्मों को लिख रहे थे तो उन्हें यह इल्म थोड़े ही था कि किस बात को रखने से क्या असर होगा। वे तो उस समाज, उस परिवेश उस जीवन के बारे में लिख रहे थे जिसका वे हिस्सा थे और जिसे लिखकर उन्हें अच्छा लग रहा था । वे आगे कहते हैं कि लेखक कोई बाहर बैठा हुआ व्यक्ति नहीं है जो बाहर से समाज को देख रहा है । वह तो उसके अंदर से निकला हुआ आदमी है । 'बेबाक' को लिखा है फिल्म की निर्देशक शाज़िया इकबाल ने ही और जावेद साहब की बातें उन पर अक्षरश: लागू होती हैं। वरना यह फिल्म इतनी अपनी लगे यह संभव ही नहीं था ।