मौसम-ए-अफ़सुर्दगी ने ढंक रखा है मेरा
वजूद
कितना कुछ है पढ़ने को, और आदमी कितना कम पढ़ पाता है । ठीक ही कहा गया है कि किताबें चुन लेती हैं अपना पाठक । अपनी अज्ञानता में ही सही, जिस कवि की आपने पहले से कोई कविता नहीं
पढ़ी हो, जिस कवि के बारे में चर्चा नहीं सुनी हो, उस कवि का कविता-संग्रह खरीदना कुछ तो खास होगा । दिनकर जी ने कोई सत्तर
बरस पहले कहा था कि “ कविताएँ
तो हर महीने , मनों क्या, टनों छपा करती हैं, और अक्सर, उनमें भाव भी अच्छे-अच्छे होते हैं, किन्तु
अभिव्यक्ति की सफाई का निर्वाह बहुत कम कविताओं में होता है।” एक दिन किताब की दुकान
पर किताबों को उलटते-पलटते एक किताब हाथ में आ गई – ‘ ख़ुद से गुज़रते हुए’ । कवयित्री का नाम – संगीता कुजारा टाक । पहले तो संग्रह
के शीर्षक ने ही ध्यान आकर्षित किया । फिर किताब के पन्ने पलटने लगा, और खड़े-खड़े ही कुछ कविताएँ पढ़ गया । यदि यह कहूँ कि कविताओं ने खुद को पढ़वा
लिया तो ज़रा भी गलत नहीं होगा । अभिव्यक्ति की सफाई असर करती ही है। और किताब खरीद ली गई। किताबों की दुकानों पर जाते
रहने का यह फायदा है कि छुपे हुए, अनदेखे नगीने भी हाथ लग जाते
हैं ।
लगता है कवयित्री
का मूल भाव/स्वभाव उदासी है । संग्रह की कविताएँ इसी ओर इंगित करती हैं । उदासी
की एक अंतर्धारा इन कविताओं में देखी जा सकती है । खास तौर पर इस संग्रह की प्रेम कविताओं
में । संग्रह की प्रेम कविताएँ उर्दू नज़्मों के लहज़े को पकड़ कर चलती हैं
। और इन कविताओं को आप अमृता प्रीतम, साहिर, गुलज़ार,
और फैज़ के मुहल्ले के आसपास से गुज़रता हुआ महसूस करते हैं । अच्छी बात
यह है कि कविताएँ कहीं से भी किसी की नकल नहीं लगती हैं । उनकी छाया भले ही
दिखती है, जैसे अभिषेक बच्चन के अभिनय में अमिताभ बच्चन के अभिनय
की झलक ! बानगी के तौर पर एक कविता ‘डिमेन्शिया’ की कुछ पंक्तियाँ देखें –
पना प्रिस्क्रिप्शन लिख रहा था
तो यह और बात है
वर्ना
मोहब्बत
क्या
कोई
और
चीज हुआ करती है ?”
संगीता कुजारा टाक जब
प्रेम से इतर एक स्त्री, एक स्वतंत्र स्त्री के तौर पर अपनी बात करती हैं तो
वहाँ उनकी आवाज़ कुछ अलग ही निखार लेने लगती है । उनके यहाँ स्त्री अपनी स्थिति से भली-भाँति
परिचित है । बड़े आत्मविश्वास के साथ वस्तुस्थिति को बयान करती ‘उधार’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों को देखें –
“ सबने लिया है कुछ न
कुछ
उधार
मुझसे...
एक
औरत से !”
क्या यह पंक्तियाँ ख्यात
कवि अरुण कमल की इन प्रसिद्ध पंक्तियों का प्रतिपक्ष नहीं हैं, प्रतिकार
नहीं हैं ? जिनमें वे इस तरह कहते हैं –
“ अपना क्या है इस जीवन
में
सब
तो लिया उधार
सारा
लोहा उन लोगों का
अपनी
केवल धार ।”
अरमानों
का कत्ल करना
मेरी
आदत है...”
कभी-कभी संगीता जी कविताओं को पाठक के चेहरे के इतने करीब ले आती हैं कि कविता की तल्खी कसने लगती है, पाठक को स्तब्ध कर देती है । ‘हैसियत’ शीर्षक कविता कि ये पंक्तियाँ कुछ ऐसी ही हैं –
“ धोबी का कुत्ता, घर
का न घाट का
अब
सुनने में आया है,
धोबी
ने कुतिया पाल ली है ”
संग्रह की कुछ कविताएँ
हमारे आसपास के यथार्थ को उजागर करती हैं । इनमें कुछ कविताएँ पर्यावरण के प्रति हमारे
निष्ठुर व्यहवहार को दर्शाती हैं । ऐसी ही एक कविता है ‘पर्यावरण’,
जिसमें कवयित्री ने एक पेड़ के जीवन की त्रासदी को कविता के अंतिम पंक्तियों
में बयान किया है –
“ अब उनके एक हाथ में
आरी है
दूसरे
हाथ में मेरा बदन ”
यह तो हम देख ही रहे
हैं कि सामज से आपसी प्रेम उठता जा रहा है। सामाजिक तानाबाना जो हमारी ताकत है, छिन्न-भिन्न
होता जा रहा है । तभी तो कवि-मन बोल उठता है –
“ कितना दुखदाई है
कि प्रार्थना में उठे हाथ
एक दूसरे
की
सलामती
के लिए नहीं
कितना
दुखदाई है न !
उफ्फ
!!! ”
अन्य कविताओं में एक
कविता है ‘तारा मेरी दोस्त’, जो संभवत: अपनी दोस्त की मृत्यु पर
लिखी हुई कविता है । मन की व्यथा और बेबसी को दर्शाती हुई इन पंक्तियाँ में प्रयुक्त
बिंब देखे जाने योग्य हैं –
“ हवाओं ने अपनी गति
रोक ली है
पानी
बहने से मना कर रहा है
पहाड़
चरमरा कर टूट रहे हैं
पेड़ों
की कूबड़ निकल आई है”
इस संग्रह से गुज़रते
हुए ऐसा लग सकता है कि कवि-मन में बहुत दिनों से जमा हुई बातें थीं जिन्हें इस संग्रह
के द्वारा निकलने का मौका मिला है । यह सही है कि एकबारगी कविताएँ उर्दू नज़्मों के
प्रभाव में लगती हैं । लेकिन अब बहुत दिनों का जमा पानी निकल गया है, अब
जो कविताएँ आएँगी वो निश्चय ही अलग और कवयित्री के अपने मिजाज को प्रकट करने वाली होंगी।
इस संग्रह में ही इसकी शुरुआत हो चुकी है । संग्रह की बहुत-सी कविताएँ ऐसी हैं जिनमें
संगीता जी का अपना विशिष्ट स्वर सुना जा सकता है । संग्रह की ऐसी कुछ कविताओं के शीर्षक
इस प्रकार हैं – मोक्ष, महत्व, स्वीकृति,
समतुल्य, विज्ञापन, प्रेम,
आजकल, किंकर्तव्यविमूढ़, पर्यावरण,
मानसिक पर्यावरण, काम, अलग
होने के बाद, आश्रित, गवाह और दरारें ।
इन कविताओं में कवयित्री की अपनी निजी भाषा लक्षित की जा सकती है । उदाहरण के तौर पर
‘मोक्ष’ कविता की पंक्तियाँ देखी जा सकती
हैं –
“ और तो कोई बात नहीं
थी
बात
बस इतनी थी
कि
मिलना चाहती थी खुद से
कई सालों
बाद देखी
अपनी छवि
इतनी साफ, इतनी गहरी
आज नदी का पानी
स्वच्छ पारदर्शी था ”
इस लेख का शीर्षक भी संग्रह की एक कविता से लिया गया है । आने वाले संग्रह इस ‘मौसम -ए- अफ़सुर्दगी’ को कवयित्री के वजूद से हटा देंगे ऐसी ही आशा है । संग्रह में उर्दू के शब्द बार- बार आते हैं, जिनका अर्थ समझने में आम पाठक को मुश्किल हो सकती है, मसलन अफ़सुर्दगी। ऐसे शब्दों के अर्थ फुटनोट में दिए जा सकते थे।